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मंगलवार, 16 जनवरी 2024

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 142 – Stewards of The Church / कलीसिया के भण्डारी – 18

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कलीसिया का निर्माण – 9 – प्रभु यीशु मसीह पर – 2

 

    किसी सौंपी गई बात के सही उपयोग और उसके प्रति अपनी ज़िम्मेदारी के उचित निर्वाह के लिए, व्यक्ति को उस बात के बारे में तथा उसके उद्देश्य एवं उपयोगिता के बारे में जानना अनिवार्य है। परमेश्वर ने प्रत्येक नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी को अपनी कलीसिया का एक अंग बनाया है और उसे अपनी अन्य सन्तानों की सहभागिता में रखा है। मसीही विश्वासी के परमेश्वर की कलीसिया, तथा उसकी सन्तानों के साथ सहभागिता रखने का भण्डारी होने के बारे में समझने के लिए, हम इन बातों को मत्ती 16:18 से सीख रहे हैं, जहाँ पर “कलीसिया” शब्द बाइबल में पहली बार उपयोग किया गया है। हमने देखा है कि प्रचलित किन्तु सर्वथा गलत धारणा के विपरीत, न तो प्रभु ने यह कहा और न ही उस की कही बात का यह अर्थ था कि वह अपनी कलीसिया पतरस पर बनाएगा। जैसा कि इस पद में प्रभु ने कहा है, परमेश्वर की कलीसिया प्रभु यीशु के द्वारा और उसी पर ही बनाई गई है। हम वर्तमान में यही परमेश्वर के वचन से सीख रहे हैं, और इसी बात को जहाँ हमने पिछले लेख में छोड़ा था, वहाँ से आगे बढ़ाएंगे।

    अपने आप को उस समय की स्थिति में लाकर पतरस द्वारा मत्ती 16:16 में कही गई इस बात और फिर इसके प्रत्युत्तर में प्रभु द्वारा मत्ती 16:17-18 में कहे गए के झकझोर देने वाले प्रभाव पर विचार कीजिए। व्यवस्थाविवरण 18:15, 18 में मूसा ने इस्राएलियों से अपने समान एक परमेश्वर के नबी के आने की बात कही थी, और फिर परमेश्वर की ओर से भविष्यद्वक्ता उसके आने की भविष्यवाणियाँ करते चले आ रहे थे। प्रभु यीशु की पृथ्वी की सेवकाई के दिनों में लोगों में एक उत्साह और आशा थी, कि परमेश्वर द्वारा प्रतिज्ञा किया हुआ मसीहा आने वाला है, हालात संकेत कर रहे थे कि वह अब कभी भी आ जाएगा, जैसा सामरी स्त्री ने कहा (यूहन्ना 4:25, 29), तथा यहूदियों में भी एक प्रत्याशा थी (यूहन्ना 6:14; 7:41)। पतरस से उसके भाई अंद्रियास ने आरंभ में ही यीशु के मसीहा होने की बात कह दी थी (यूहन्ना 1:41); और सामरी स्त्री की बात सुनकर तथा प्रभु यीशु को स्वयं अनुभव कर के सामरिया के उस गाँव के लोग भी मान गए थे कि यीशु ही मसीह है (यूहन्ना 4:39, 42)। किन्तु अभी तक प्रभु यीशु ने कभी उन सभी लोगों के द्वारा उसका वह प्रतिज्ञा किए हुए मसीहा होने की बात को जानने और मानने के प्रति  संवेदनशील होने को ऐसा महत्व नहीं दिया था, जितना अब ईश्वरीय प्रकाशन से पतरस के द्वारा यह कहने पर दिया।

    पतरस तथा प्रभु के शिष्यों के लिए प्रभु द्वारा पतरस की बात को पिता परमेश्वर द्वारा दिया गया स्वर्गीय दर्शन बताना, और इसे आधार बनाकर अपने शिष्यों को एकत्रित करने की बात करना प्रभु यीशु द्वारा कही गई एक अभूतपूर्व बात थी। अब से और यहाँ से, यह बात मानवीय समझ और धारणाओं से निकलकर एक स्थापित तथ्य, जो ईश्वरीय पुष्टि तथा प्रभु यीशु के अनुमोदन के साथ उन शिष्यों के भविष्य और कार्य को निर्धारित करने वाली बात हो गई थी। प्रभु यीशु के द्वारा उन शिष्यों को अपना अनुयायी होने के लिए बुलाए जाने के बारे में विचार कीजिए; प्रभु ने अभी तक के अपने किसी भी शिष्य को इस बात के अनुरूप उस पर विश्वास करने के आधार पर नहीं बुलाया था। उसने पतरस को और कुछ अन्य शिष्यों को “मनुष्यों को पकड़ने वाला” (मत्ती 4:19; लूका 5:10) बनाने के आश्वासन के साथ तो बुलाया था, किन्तु किसी के लिए यह नहीं कहा था कि जब तक वह उसे परमेश्वर का पुत्र और जगत का परमेश्वर द्वारा अभिषिक्त एवं निर्धारित एकमात्र उद्धारकर्ता स्वीकार नहीं कर लेते हैं, वे उसके जन नहीं हो सकते हैं। यदि यह कहा होता तो संभवतः यहूदा इस्करियोती या तो चुना ही नहीं जाता, अथवा आरंभ में ही बाहर हो गया होता!

    किन्तु अब प्रभु उनसे, और सभी आने वालों ‘उसके’ लोगों के लिए कह रहा था कि केवल वही उसका बुलाया हुआ और उसके साथ रहने के लिए एकत्रित किया हुआ होगा जो उसे परमेश्वर का पुत्र और परमेश्वर द्वारा नियुक्त जगत का एकमात्र उद्धारकर्ता स्वीकार करेगा। दूसरे शब्दों में, पतरस में होकर परमेश्वर द्वारा दिए गए और प्रभु द्वारा अनुमोदन किए गए इस कथन के कारण, यहाँ से आगे उनका प्रभु के साथ सम्बन्ध और प्रभु द्वारा उन्हें अपने लोग स्वीकार करना केवल तब ही वैध और प्रभावी होगा यदि वे उसे स्वीकार करें और उसमें विश्वास करें, कि प्रभु यीशु मसीह ही, और केवल वह ही उनका प्रभु और उद्धारकर्ता, उनका छुड़ाने वाला है, परमेश्वर तक पहुँचने का एकमात्र मार्ग है, और यदि इसके अतिरिक्त या इसके साथ वे किसी भी अन्य व्यक्ति अथवा बात पर विश्वास करते हैं उसे कोई भी मान्यता देते हैं, तो, फिर वे उसके वास्तव में सच्चे समर्पित शिष्य, उसके लोग, परमेश्वर की सन्तान नहीं हैं। प्रभु यीशु की इस बात और उस बात के निहितार्थों के कारण संभवतः उन शिष्यों के मनों में एक खलबली मच गई होगी, वे अपने आप को और अपने अन्दर देखने लगे होंगे कि क्या हम इस कसौटी पर खरे उतरते हैं कि नहीं? 

    थोड़ा थम कर विचार कीजिए क्या पतरस की कही इस बात की समझ आपके मन में भी आपके प्रभु यीशु का शिष्य होने का दावा करने के प्रति यही खलबली मचा रही है? आप अपने आप को मसीही किस आधार पर कहते हैं? मनुष्यों के ज्ञान, चतुराई, या उसके द्वारा बनाई हुई बातें नहीं, बल्कि केवल परमेश्वर की बातें ही मनों को टटोलती हैं, झकझोरती हैं, मनों की वास्तविकता को सामने लाती हैं (इब्रानियों 4:12)।

    यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं तो क्या आप का मसीही होना, अपने आप को मसीही विश्वासी कहना, पतरस द्वारा कही गई, और प्रभु द्वारा अनुमोदित की गई इसी बात, इसी स्वर्गीय दर्शन पर विश्वास करने और उसे स्वीकार करने पर आधारित है? या आप किसी डिनॉमिनेशन अथवा मत या समुदाय की रीतियों और मान्यताओं के पालन के द्वारा अपने आप को “मसीही” समझते आ रहे हैं? 2 कुरिन्थियों 13:5 के अनुसार, अपने आप को परख कर देखें कि आप सच्चे मसीही विश्वास में हैं कि नहीं? कहीं आप किसी भ्रम में जीते आ रहे हों, और अंततः जब सच्चाई समझ में आए, सच के लिए आँख खुले, तब तक बहुत देर हो चुकी हो।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation

Building the Church – 9 – On The Lord Jesus Christ – 2

 

To worthily utilize and carry out one’s responsibility towards something handed over to him, he has to know about that thing, and about its purpose, its utility. God has made every Born-Again Christian Believer a member of His Church and placed him in fellowship with His other children. To understand about the Believer’s stewardship of God’s Church and of fellowshipping with God’s children we are learning about these from Matthew 16:18, where the word “Church” has been used for the first time in the Bible. We have seen that, quite contrary to a popular misconception, the Lord neither said, nor meant that His church will be built on Peter. As the Lord says in this verse, God’s Church is built by the Lord Jesus, on Himself. This is what we are learning presently through God’s Word, and today we will carry on about this from where we left in the last article.

    Carry yourself to the time and circumstances when Peter made this tremendous statement of Matthew 16:16, followed by what the Lord said about it in Matthew 16:17-18, and think about how it would have impacted and shaken up the listeners. In Deuteronomy 18:15, 18, Moses had told the Israelites about the coming of a Prophet like him, and then God had been prophesying through His prophets about His coming. During the days of the Lord Jesus’s earthly ministry there was an anticipation and expectation of His arrival at any time, as the Samaritan woman had said (John 4:25, 29) and the Jews were expecting (John 6:14; 7:41). Peter’s brother Andrew had said to him about Jesus being the Messiah (John 1:41); and after listening to the Samaritan woman and then personally experiencing Him, the people of that village had also accepted that Jesus is that promised Messiah (John 4:39, 42). But till this time, the Lord Jesus had not given as much importance to all these people being sensitive to the fact of His being the promised Messiah, as He did now after Peter’s statement through revelation from God.

    For Peter and the disciples of the Lord, the Lord Jesus’s calling Peter’s statement a revelation from God, and then making that statement by Peter the basis of gathering His called-out ones into one community, was something unimaginable and unprecedented from the Lord. From here onwards, this had become something beyond and apart from human concepts and understanding about the Lord. Now it was an authentic statement, revealed by God and affirmed by the Lord Jesus; a statement that would set and determine their future course of action. Consider the disciples being called by the Lord Jesus to follow Him; as yet, the Lord had not called any of His disciple on the basis of conforming to this statement of faith in Him. The Lord had called Peter and some others with an assurance to make them “fishers of men” (Matthew 4:19; Luke 5:10), but as yet He had never said to anyone that unless they accepted Him as the Son of God and the one and only anointed savior and redeemer of mankind appointed by God, they cannot be His people. Had He said it, then quite likely Judas Iscariot would have been cast out or would have moved away.

    But now, the Lord was saying to them, and to all others who would come to Him, that only that person will be His ‘called out one,’ one gathered to be with Him, who would accept Him as the Son of God, the one and only saviour and redeemer of mankind. In other words, because of this God given and Lord approved statement through Peter, from here onwards their association with the Lord and the Lord’s accepting them as His people would only be valid and effective if they accepted and believed in Him, the Lord Jesus Christ, and He alone as their Lord and saviour, their redeemer, their one and only way to God, and if they believed or trusted in anyone or anything besides or along with this or gave any credence, then, then they were not truly His committed disciples, His people, the children of God. Quite likely, because of what the Lord Jesus said and what it implied, the disciples would have been thrown in a turmoil within themselves; they would have started to look at and into themselves whether or not they stood up to this standard of evaluation.

    Pause for a moment and think it over; is Peter’s statement creating a turmoil within you about your claiming to be a disciple of the Lord Jesus? On what basis do you call yourself a Christian? Not the things of human wisdom, ingenuity, and creation, but only the words of God examine the hearts, shake it up, and expose the true condition of one’s heart (Hebrew 4:12).

    If you are a Christian Believer, then is your saying so based upon your believing and accepting the heavenly revelation that Peter has said and the Lord Jesus affirmed? Or, is it that you have been considering yourself to be a Christian because of your birth in a particular family and having fulfilled the rites, rituals, and traditions of your sect or denomination? According to 2 Corinthians 13:5, examine yourself and see for yourself whether or not you actually are in the Christian Faith. May it not be that you continue to live in untenable, contrived, man-made concepts and understanding about Christianity, and eventually when the reality becomes apparent, your eyes open up to the truth, it is too late.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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