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कलीसिया का निर्माण – 10 – प्रभु यीशु मसीह पर – 3
परमेश्वर की कलीसिया और उसके बच्चों के साथ सहभागिता रखने, जहाँ पर परमेश्वर ने प्रत्येक नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी को रखा है, की बाइबल पर आधारित सही समझ के बिना, कोई भी मसीही विश्वासी परमेश्वर द्वारा सौंपे गए भण्डारी होने के इस कार्य का उचित रीति से निर्वाह कभी नहीं कर सकता है। हम कलीसिया के बारे में मत्ती 16:18 से सीख रहे हैं, जहाँ पर बाइबल में पहली बार “कलीसिया” के बारे में बात की गई है। हाल ही के लेखों में हमने देखा है कि एक प्रचलित किन्तु गलत धारणा के विपरीत, कलीसिया पतरस पर नहीं बनी है, बल्कि प्रभु यीशु ही अपनी कलीसिया, अर्थात उसके बुलाए हुए लोगों का विश्वव्यापी एवं एक ही समूह, अपने ही ऊपर बना रहा है। पिछले लेख में हमने पतरस द्वारा परमेश्वर के प्रकटीकरण से कही गई और प्रभु यीशु द्वारा अनुमोदन की गई बात के अर्थ, उसके निहितार्थ, और व्यावहारिक अभिप्राय को समझा था। आज हम आगे बढ़ते हुए, देखेंगे कि बाइबल के अनुसार “मसीही” होने का क्या अर्थ होता है।
“मसीही” कहलाना या समझे जाना, और वास्तविकता में वह सच्चा “मसीही” अर्थात प्रभु यीशु का शिष्य (प्रेरितों 11:26) होना, जिसकी बात प्रभु यीशु ने मत्ती 16:18 में की है, व्यवहारिक रीति से दो बिलकुल भिन्न बातें हैं। यद्यपि सामान्यतः यही समझा और माना जाता है कि किसी परिवार या धर्म विशेष में जन्म लेने के आधार पर, या किसी डिनॉमिनेशन, अथवा संस्था, या “चर्च” का सदस्य होने और उसकी प्रथाओं के निर्वाह, और कुछ अनुष्ठानों की पूर्ति, आदि के द्वारा व्यक्ति जन्म से ही ईसाई या मसीही होता है या फिर बन जाता है। किन्तु इस आम धारणा के विपरीत, परमेश्वर के वचन बाइबल की वास्तविकता यही है कि ऐसा करने से वह व्यक्ति समाज, कुछ लोगों, अथवा उस “चर्च” या डिनॉमिनेशन या संस्था के द्वारा तो “मसीही” माना और कहा जा सकता है; किन्तु अनिवार्य नहीं है कि वह वास्तव में प्रभु की दृष्टि में भी “मसीही” हो, प्रभु की कलीसिया या बुलाए हुए लोगों में सम्मिलित हो। क्योंकि जो कोई भी अपने परिवार, अपनी धार्मिकता, अपने कर्मों, अपनी “चर्च” या डिनॉमिनेशन या संस्था की सदस्यता, अपने द्वारा प्रथाओं के निर्वाह और अनुष्ठानों की पूर्ति आदि पर आधारित होकर प्रभु की कलीसिया का सदस्य होना चाहता अथवा समझता है कि ये बातें उसके प्रभु का जन माने जाने के लिए पर्याप्त हैं, वह इस प्राथमिक आधारभूत बात की वास्तविकता की उपेक्षा कर देता है, जिसके बारे में हमने पिछले लेख में पतरस के कथन से देखा और सीखा है। क्योंकि फिर वह अपना विश्वास, अपना भरोसा, प्रभु यीशु के “मसीहा” होने पर नहीं, उस के एकमात्र उद्धारकर्ता और परमेश्वर तक पहुँचने का मार्ग (यूहन्ना 14:6) होने पर नहीं, बल्कि सँसार की गढ़ी हुई बातों, जिन्हें मनुष्यों ने बनाया और प्रभु यीशु के नाम में लागू किया है, को मानने और उन का पालन करने पर कर रहा है कि वे उसे बचा लेंगी और परमेश्वर तक पहुँचा देंगी; अर्थात, वह प्रभु यीशु के अतिरिक्त किसी अन्य मार्ग पर भरोसा कर रहा है, परमेश्वर तक पहुँचने के लिए कर्मों के मार्ग पर विश्वास कर रहा है (इफिसियों 2:5, 8-9)। जब कि बाइबल के अनुसार, प्रभु यीशु को परमेश्वर का “मसीह” स्वीकार करना पापों से पश्चाताप तथा अपना जीवन उसे समर्पित कर देने के द्वारा होता है (रोमियों 10:9-10); न कि परिवार, वंशावली, कर्मों, धर्म, डिनॉमिनेशन की शिक्षाओं और परम्पराओं के पालन आदि के द्वारा।
ध्यान कीजिए, जब यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले ने प्रभु के आगमन के लिए लोगों को तैयार करना आरंभ किया तो उसके प्रचार का प्रथम और मुख्य विषय पश्चाताप करना था (मत्ती 3:1-2); यही प्रभु यीशु की सेवकाई का भी प्रथम और मुख्य विषय था (मरकुस 3:1-2); तथा प्रभु द्वारा शिष्यों को दिए गए अंतिम निर्देश का भी विषय था (लूका 24:47); यही शिष्यों के द्वारा किए गए पहले प्रचार का मुख्य विषय था (मरकुस 6:12); और पश्चाताप करना ही पतरस के द्वारा किए गए पहले प्रचार का प्रथम और मुख्य विषय था (प्रेरितों 2:38), जिससे प्रथम कलीसिया की स्थापना हुई थी; यही पौलुस के द्वारा किए गए प्रचार का मुख्य विषय था (प्रेरितों 20:21); और पुराने नियम के भविष्यद्वक्ताओं की सेवकाई का विषय भी यही था (यिर्मयाह 25:4-5)। इसलिए जब प्रभु ने उसे जगत का एकमात्र उद्धारकर्ता स्वीकार करने के आधार पर लोगों को बुलाने और अपने साथ एकत्रित करने, कलीसिया को बनाने की बात की, तो कोई अनूठा या नया विषय सामने नहीं रखा। प्रभु ने वही दृढ़ता से दोहराया और उसी की पुष्टि की जो पुराने नियम में भविष्यद्वक्ताओं की सेवकाई का विषय था, यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले की सेवकाई का विषय था, प्रभु की अपनी सेवकाई का, और शिष्यों द्वारा की गई पहली सेवकाई का विषय था; और जो भविष्य में अन्य शिष्यों द्वारा की जाने वाली सेवकाई का भी विषय होना था।
बिना अपने पापों से पश्चाताप किए और प्रभु यीशु को अपना जीवन पूर्णतः समर्पण करके जीवन में परिवर्तन किए (रोमियों 12:1-2) उद्धार पाने या परमेश्वर को स्वीकार्य प्रभु का जन हो जाने की कोई शिक्षा बाइबल में कहीं नहीं दी गई है। प्रभु का जन बनना प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा व्यक्तिगत रीति से और स्वेच्छा से अपने पापों के लिए किए गए पश्चाताप, उन पापों की क्षमा और निवारण के लिए प्रभु यीशु द्वारा क्रूस पर किए गए कार्य को स्वीकार करने, और अपना जीवन पूर्णतः प्रभु को समर्पित करने के द्वारा होता है, चाहे उस व्यक्ति का जन्म किसी भी परिवार में हुआ हो, और चाहे उसने कितनी भी “ईसाई या मसीही” रीतियों और अनुष्ठानों को निभाया हो (प्रेरितों 17:30-31)। प्रभु को “मसीह” या परमेश्वर द्वारा नियुक्त जगत का एकमात्र उद्धारकर्ता होना स्वीकार करने, “नया-जन्म” प्राप्त करने का यही अभिप्राय है। प्रभु की कलीसिया या मण्डली उन ही लोगों से मिलकर बनी है जो इस मूल सिद्धांत को स्वीकार करके इसका पालन करते हैं; इसमें कुछ और जोड़ते-घटाते नहीं हैं, इसे मनुष्यों की समझ-बुद्धि-ज्ञान की बातों के द्वारा भ्रष्ट नहीं करते हैं, और बाइबल के बाहर की किसी अन्य बात को इसके साथ या इसके अतिरिक्त मानने या मनवाने का प्रयास नहीं करते हैं।
हम अगले लेख में देखेंगे कि क्यों ये बातें केवल शब्दों का खेल या मात्र एक भिन्न समझ रखना कह कर टाल देने की बात नहीं है; क्यों ये इतनी महत्वपूर्ण हैं; क्यों ये अनन्त जीवन का वारिस होने के लिए समझे और माने जाने के लिए अनिवार्य हैं।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Building the Church – 10 – On The Lord Jesus Christ – 3
Without a proper Biblical understanding about God’s Church and of fellowshipping with God’s children, where God has placed every Born-Again Christian Believer, no Christian Believer can fulfil this God given stewardship worthily. We are studying about the Church from Matthew 16:18, the first place in the Bible where the “Church” has been talked about. In the recent articles we have seen from this verse that contrary to a popular misconception, the Church is not built upon Peter, but it is the Lord Jesus who is building His Church, i.e., the universal and single group of people called out and gathered together by Him upon Himself. In the previous article we had understood the meaning, implication, and application of what Peter had said through revelation from God and had been approved by the Lord Jesus Christ. Today, moving forward, we will see what it Biblically means to be a “Christian.”
To be called and known by the world as a “Christian,” and to actually be the true committed “Christian” i.e., a disciple of Christ (Acts 11:26), that the Lord is talking about in Matthew 16:18, practically, are two entirely different things altogether. Although it is commonly believed and accepted that because of being born in a particular family or religion, or because of fulfilling the rites, rituals, traditions, and ceremonies of a particular sect or denomination, or taking membership of a particular “church” according to its rules and regulations, one is either born as a “Christian,” or becomes one. But contrary to this common concept and belief, the Biblical teaching is that through all of these, though a person may be seen and accepted as a “Christian” by some people, the society, or a particular sect or denomination, but it is not necessary that he or she would also be considered a “Christian” by the Lord Jesus, will be seen by the Lord as one of those called-out ones who have been gathered together to be His people. This is because, whoever considers and believes himself to be a “Christian” because of being born in a particular family, or because of his religion, being religious, doing good works, fulfilling the requirements of the sect or denomination he belongs to and following its rites, rituals, ceremonies, etc., or thinks that his fulfilling these things is sufficient for him to be considered as people of God, automatically ignores and disobeys the primary and basic requirement of being a member of the Lord’s Church that we have seen and learnt about in the last article through Peter’s statement. Because, he is then trusting not on Lord Jesus being his only “Messiah”, his one and only savior and way to God (John 14:6), but on his trusting and believing on the contrived things of the world, devised and implemented by men in the name of the Lord Jesus, that they will save him and take him to God; i.e., he is trusting on a way other than the Lord Jesus Christ, a way of works to reach God (Ephesians 2:5, 8-9). Whereas, according to the Bible, accepting the Lord Jesus as the “Christ” from God is through repentance from sins and completely surrendering one’s life to Him (Romans 10:9-10); not by family, lineage, works, religion, fulfilling of denominational teachings and rituals.
Take note, when John the Baptist started to prepare the people for the coming of the Lord Jesus, then the first and main subject of his preaching was repentance from sins (Matthew 3:1-2). This was also the subject of the first preaching and ministry of the Lord Jesus (Mark 1:15), as well as part of the last instructions of the Lord to His disciples before His ascension (Luke 24:47). This was also the subject of the preaching by the disciples when they first went out for ministry (Mark 6:12); and was also the subject of Peter’s first sermon to the devout Jews gathered in Jerusalem to fulfil the Law (Acts 2:38), through which the first Church was born. It was also the subject of the ministry of Paul after his conversion (Acts 20:21); and even of the prophets of the Old Testament (Jeremiah 25:4-5). Therefore, when the Lord Jesus put forth the essential requirement of accepting Him as the one and only Savior of the world, to become His called-out people and gathered together in His name, He was not putting forth some new or strange, previously unknown teaching. The Lord was only firmly reiterating and affirming that which was the theme of the ministry of the Old Testament prophets and men of God, of John the Baptist as His forerunner, of the beginning of the Lord’s own ministry, and of the disciples first ministry; and would be the theme of His other disciples in the days to come.
There is no teaching given anywhere in the Bible of being saved and becoming a person of the Lord Jesus without repentance from sins and surrendering one’s life to the Lord, having a changed life (Romans 12:1-2). Every person becomes a person belonging to the Lord Jesus only by personally and willingly repenting of his sins, accepting the work of the Lord Jesus accomplished on the Cross of Calvary for the remission of his sins and based upon that asking the Lord’s forgiveness for his sins, and fully surrendering one’s life to the Lord; irrespective of what family he is born in and whatever “Christian” rituals and ceremonies he may have fulfilled, repentance is mandatory for everyone (Acts 17:30-31). This is what accepting the Lord Jesus as the “Christ,” the one and only God appointed savior of the world, being “Born-Again” implies. The Church of the Lord Jesus Christ is made up only of those who accept this basic doctrine and obey it as it is; without adding anything to it, or taking anything away from it; without corrupting it in any manner by bringing into it things according to man’s understanding, knowledge, and wisdom; and without joining any extraneous teachings or doctrines to it.
In the next article we will see how this is not just playing around with words, nor something to be casually passed over as a mere difference of understanding and opinion about some Biblical texts and teachings. Why they are so important, and why they are absolutely essential to accept and obey to become an inheritor of eternal life.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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