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शनिवार, 8 जून 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 94

 

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आरम्भिक बातें – 55

हाथ रखना – 3

 
    हम इब्रानियों 6:1-2 में दी गई छः में से चौथी आरम्भिक बात, “हाथ रखने” का अध्ययन कर रहे हैं। इस अध्ययन के लिए हम अंग्रेजी के NKJV अनुवाद में वाक्यांश “laying of hands,” या “laying on of hands” के उपयोग किए जाने के अनुसार आगे बढ़ रहे हैं। मसीहियों में यह एक सामान्यतः देखी जाने वाली समझ है कि वाक्यांश “हाथ रखना” का उपयोग एक विशिष्ट अर्थ के साथ किया जाता है, अर्थात, जब नए विश्वासी  बपतिस्मा लेते हैं, उसके बाद कलीसिया के अगुवे या पुरनिए उन पर हाथ रखते और प्रार्थना करते हैं, जैसा कि कुछ समुदायों और डिनॉमिनेशनों में किया जाता है। लेकिन जब हम बाइबल में इस वाक्यांश के उपयोग किए जाने को देखते हैं, तो हम पाते हैं कि परमेश्वर के वचन में इस वाक्यांश को भिन्न अर्थों और अभिप्रायों के साथ उपयोग किया गया है; और उपयोग किए जाने की रीति तथा सन्दर्भ वाक्यांश के सही अर्थ को प्रकट करता है। इस विषय पर पिछले दो लेखों में, हमने देखा है कि बाइबल में वाक्यांश “हाथ रखने” का पहला उपयोग हानि पहुँचाने के तात्पर्य के साथ है, और फिर यही तात्पर्य अन्य कई स्थानों पर भी दोहराया गया है, जैसे कि नहेम्याह 13:21 में, तथा एस्तेर की पुस्तक में 8 बार किया गया है। फिर हमने लैव्यव्यवस्था तथा गिनती की पुस्तकों से देखा था कि इस वाक्यांश का दूसरा अर्थ है पापों का किसी अन्य पर स्थानान्तरण करना, या किसी के द्वारा किसी और की कोई ज़िम्मेदारी को अपने ऊपर ले लेना। आज हम इस वाक्यांश के तीसरे उपयोग के बारे में देखेंगे, किसी को किसी विशेष उद्देश्य, कार्य, अथवा सेवकाई के लिए नियुक्त करना या विधिवत निर्धारित करना।

    गिनती 27:18 में लिखा है, “यहोवा ने मूसा से कहा, तू नून के पुत्र यहोशू को ले कर उस पर हाथ रख; वह तो ऐसा पुरुष है जिस में मेरा आत्मा बसा है;” फिर गिनती 27:23 में है “उस पर हाथ रखे, और उसको आज्ञा दी जैसे कि यहोवा ने मूसा के द्वारा कहा था;” और फिर व्यवस्थाविवरण 34:9 में आया है “और नून का पुत्र यहोशू बुद्धिमानी की आत्मा से परिपूर्ण था, क्योंकि मूसा ने अपने हाथ उस पर रखे थे; और इस्राएली उस आज्ञा के अनुसार जो यहोवा ने मूसा को दी थी उसकी मानते रहे।” ये तीनों हवाले, परमेश्वर के निर्देश के अनुसार, मूसा के द्वारा यहोशू पर हाथ रखने के द्वारा उसे मूसा के बाद इस्राएल का अगला नियुक्त करने; और इस्राएल के लोगों के द्वारा मूसा के बाद अपने आप को यहोशू के नेतृत्व के अधीन समर्पित करने के सन्दर्भ में हैं। परमेश्वर ने मूसा को निर्देश दिया कि यहोशू पर हाथ रखने के द्वारा उसे इस्राएल का अगला अगुवा नियुक्त करे (गिनती 27:18); मूसा ने इसी रीति से उसकी इस विधिवत नियुक्ति को किया (गिनती 27:23); और इस्राएल के लोगों ने बिना कोई विवाद किए यहोशू को अपना अगुवा स्वीकार कर लिया, उसकी बात सुनने और मानने लगे; साथ ही यहोशू बुद्धिमानी की आत्मा से भी परिपूर्ण था – यह सब क्योंकि परमेश्वर द्वारा निर्धारित विधि से कार्य किया गया (व्यवस्थाविवरण 34:9)।

    यह बाइबल में हाथ रखने के द्वारा, परमेश्वर के निर्देश के अनुसार किसी के विधिवत नियुक्त किए जाने का पहला उदाहरण है। किन्तु परमेश्वर ने केवल इसी तरीके से अपने लोगों के अगुवों को नियुक्त नहीं करवाया। हम आगे चलकर देखते हैं कि परमेश्वर ने शमूएल को, शाऊल को राजा होने के लिए, उसके सिर पर तेल डालकर अभिषेक करने के लिए कहा (1 शमूएल 10:1); इसी प्रकार से दाऊद के सिर पर भी पर भी तेल डालकर उसे राजा होने के लिए अभिषेक किया गया (1 शमूएल 16:1, 13); येहू को भी इसी प्रकार से अभिषेक किया गया (2 राजाओं 9:2-3), आदि।

    हम नए नियम में भी देखते हैं कि लोगों पर हाथ रख कर, उनको कुछ जिम्मेदारियों के निर्वाह के लिए, कुछ विशेष कार्यों के लिए, या सेवकाई पर भेजे जाने के लिए ठहराया गया। प्रेरितों 6:3-6 में लिखा है “इसलिये हे भाइयो, अपने में से सात सुनाम पुरुषों को जो पवित्र आत्मा और बुद्धि से परिपूर्ण हों, चुन लो, कि हम उन्हें इस काम पर ठहरा दें। परन्तु हम तो प्रार्थना में और वचन की सेवा में लगे रहेंगे। यह बात सारी मण्डली को अच्छी लगी, और उन्होंने स्तिफनुस नाम एक पुरुष को जो विश्वास और पवित्र आत्मा से परिपूर्ण था, और फिलिप्पुस और प्रखुरूस और नीकानोर और तीमोन और परिमनास और अन्‍ताकिया वाले नीकुलाउस को जो यहूदी मत में आ गया था, चुन लिया। और इन्हें प्रेरितों के सामने खड़ा किया और उन्होंने प्रार्थना कर के उन पर हाथ रखे;” फिर प्रेरितों 13:3 में आया है, “तब उन्होंने उपवास और प्रार्थना कर के और उन पर हाथ रखकर उन्हें विदा किया;” और फिर 1 तीमुथियुस 4:14 में कहा गया है “उस वरदान से जो तुझ में है, और भविष्यद्वाणी के द्वारा प्राचीनों के हाथ रखते समय तुझे मिला था, निश्चिन्त न रह।” प्रेरितों 6:3-6 यरूशलेम के अगुवों के द्वारा बढ़ती हुई कलीसिया के रख-रखाव और दिन-प्रतिदिन की बातों का ध्यान रखने, उपयुक्त कार्य करने के लिए सात पुरुषों को नियुक्त करने के बारे में है; और प्रेरितों ने उन सातों पर हाथ रखने के द्वारा उन्हें विधिवत इस सेवकाई के लिए नियुक्त किया। इसके बाद प्रेरितों 13:3 (पद 2 से 4 तक पढ़िए), पवित्र आत्मा के द्वारा पौलुस (जो तब शाऊल कहलाता था) और बरनबास के सुसमाचार प्रचार की सेवकाई पर भेजे  जाने के लिए पवित्र आत्मा के द्वारा बुलाए जाने के विषय में है। और 1 तीमुथियुस 4:14 में पौलुस तीमुथियुस को स्मरण दिला रहा है कि उसे प्राचीनों द्वारा हाथ रखने के द्वारा पृथक कर के एक सेवकाई सौंपी गई है, जिसके विषय उसे निश्चिन्त कदापि नहीं रहना है, और यत्न से इस ज़िम्मेदारी का निर्वाह करना है।

    इस प्रकार हम यहाँ पर परमेश्वर के वचन से वह तीसरा अभिप्राय देखते हैं जिस के लिए इस वाक्यांश “हाथ रखने” का बाइबल में उपयोग किया गया है - किसी को किसी विशेष उद्देश्य, कार्य, अथवा सेवकाई के लिए नियुक्त करना या विधिवत निर्धारित करना। हम इस वाक्यांश के विभिन्न अभिप्रायों के साथ उपयोग किए जाने के अपने इस अध्ययन को परमेश्वर के वचन बाइबल के अंग्रेजी के NKJV अनुवाद में से देखने को अगले लेख में ज़ारी रखेंगे।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
 
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English Translation


The Elementary Principles – 55

Laying on of Hands - 3

   
    We are studying the fourth of the six elementary principles given in Hebrews 6:1-2, i.e., “laying of hands” as this phrase occurs in the English NKJV translation of the Bible. There is a general perception amongst Christians that the phrase “laying of hands,” or “laying on of hands” is to be used in one particular sense, that of the Elders of the Church laying on of hands on the newly baptized Believers, as is practiced in some sects and denominations. But as we trace the occurrence of this phrase in the Bible, we see that it has been used with some different meanings; the proper, applicable meaning is determined by the context and the usage of this phrase. In the preceding two articles on this topic, we have seen that the first use of this phrase “laying of hands,” or “laying on of hands” in the Bible is with the implication of causing harm, which is also seen at many other places, e.g., Nehemiah 13:21 and 8 times in the book of Esther. Then we saw that the second use of this phrase is to convey transferring of sins, or of responsibility on to another, as we saw from the books of Leviticus and Numbers. Today we will see a third usage of this phrase that of ordaining or commissioning someone for a particular mission, service, or ministry.

    It is written in Numbers 27:18 “And the Lord said to Moses: "Take Joshua the son of Nun with you, a man in whom is the Spirit, and lay your hand on him;” in Numbers 27:23 “And he laid his hands on him and inaugurated him, just as the Lord commanded by the hand of Moses” and in Deuteronomy 34:9 “Now Joshua the son of Nun was full of the spirit of wisdom, for Moses had laid his hands on him; so the children of Israel heeded him, and did as the Lord had commanded Moses.” These three references are about Moses, under God’s direction, ordaining Joshua to be the next leader of Israel after Moses; and the people of Israel subjecting themselves to the leadership of Joshua after Moses had finished his time on earth. Moses was instructed by God to ordain Joshua as the next leader of Israel by laying of hands (Numbers 27:18); Moses did this ordination of Joshua in this manner (Numbers 27:23); and the people of Israel accepted Joshua as their God ordained leader without any contentions, and listened to him; moreover, Joshua was filled with the Spirit of Wisdom because he had been ordained in the God given manner (Deuteronomy 34:9).

    This is the first occurrence in the Bible of ordination of a person by the laying on of hands, under God’s instructions. But this is not the only manner in which God had the leaders of His people ordained; later on, we see that God asked Samuel to ordain Saul to be King by pouring oil on him (1 Samuel 10:1); similarly, David to be King by pouring oil on him (1 Samuel 16:1, 13); Jehu to be King by pouring oil on him (2 Kings 9:2-3), etc.

    In the New Testament also we see people being ordained or commissioned for some responsibilities or for being sent on some mission by laying of hands on them. It says in Acts 6:3-6 “Therefore, brethren, seek out from among you seven men of good reputation, full of the Holy Spirit and wisdom, whom we may appoint over this business; but we will give ourselves continually to prayer and to the ministry of the word. And the saying pleased the whole multitude. And they chose Stephen, a man full of faith and the Holy Spirit, and Philip, Prochorus, Nicanor, Timon, Parmenas, and Nicolas, a proselyte from Antioch, whom they set before the apostles; and when they had prayed, they laid hands on them;” in Acts 13:3 “Then, having fasted and prayed, and laid hands on them, they sent them away;” and in 1 Timothy 4:14 “Do not neglect the gift that is in you, which was given to you by prophecy with the laying on of the hands of the eldership.” Acts 6:3-6 is about seven men being appointed by the elders in Jerusalem to look after the day-to-day functioning and care of the growing Church in Jerusalem; and the Apostles in Jerusalem ordained seven men for this service by praying and laying hands on them. Then, Acts 13:3 (see verses 2 to 4) is about the Holy Spirit calling Paul (then known as Saul), and Barnabas for being sent out for gospel ministry. And 1 Timothy 4:14 is Paul reminding Timothy of his being consecrated and ordained for ministry by the laying of hands by the elders; and therefore, he should be diligent about this responsibility that has been entrusted to him.

    So, here we see from the Word of God the third sense in which this phrase “laying of hands,” or “laying on of hands” has been used – to ordain or commission for some God assigned responsibility. We will continue our study on the use of this phrase, as it occurs in different senses in the English NKJV Bible.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
 
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