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आरम्भिक बातें – 92
विश्वासियों का न्याय – 6
हम इब्रानियों 6:1-2 में दी गई छठी आरम्भिक बात, “अन्तिम न्याय” पर अध्ययन कर रहे हैं, और हमने देखा है कि “न्याय” शब्द के साथ जुड़ी हुई सामान्य समझ के विपरीत, बाइबल का यह “न्याय” अविश्वासियों, उद्धार न पाए हुओं, और अपश्चातापी लोगों का नहीं होगा; वरन, यह न्याय नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासियों का होगा, उन्हें उसके प्रतिफल और परिणाम देने के लिए जो जीवन उन्होंने उद्धार या नया-जन्म पाने के बाद व्यतीत किया है। क्योंकि यह बात उस सामान्य धारणा से बिल्कुल भिन्न है जो न्याय के सम्बन्ध में लोग सामान्यतः रखते हैं, इसीलिए पिछले कुछ लेखों में इसे बारम्बार दोहराया गया और इसके कारण बताए गए तथा बाइबल के उदाहरणों और खण्डों से इसकी पुष्टि की गई। हमने पिछले लेख का अन्त परमेश्वर के वचन बाइबल से एक और पद का उल्लेख करने के साथ किया था जो सभी मसीही विश्वासियों के न्याय का सामना करने की बात को कहता है और उसका समर्थन करता है, अर्थात, 2 कुरिन्थियों 5:10, “क्योंकि अवश्य है, कि हम सब का हाल मसीह के न्याय आसन के सामने खुल जाए, कि हर एक व्यक्ति अपने अपने भले बुरे कामों का बदला जो उसने देह के द्वारा किए हों पाए” और आज हम पवित्र आत्मा कि प्रेरणा से पौलुस द्वारा हमारी शिक्षा के लिए लिखे गए इस पद के निहितार्थ को समझेंगे।
जैसा कि इस पद, 2 कुरिन्थियों 5:10, के विषय प्रकट है, यह पौलुस द्वारा कलीसिया को, कुरिन्थुस के मसीही विश्वासियों को लिखे गए पत्र में से है। दूसरे शब्दों में, इस पद का प्राथमिक सम्बोधन मसीही विश्वासियों, प्रभु की कलीसिया के सदस्यों, प्रभु में विश्वास लाने के द्वारा परमेश्वर की सन्तानों की ओर है। इसी लिए इस पद में प्रयुक्त सर्वनाम मसीही विश्वासियों के लिए हैं। इसकी और अधिक पुष्टि पौलुस द्वारा इस में उपयोग किए गए “हम” से हो जाती है, जिस के द्वारा पौलुस अपने आप को भी उनमें सम्मिलित कर रहा है जिन्हें यह पद सम्बोधित करता है। यह एक बार फिर इस बात की पुष्टि करता है कि यह पद मसीही विश्वासियों के लिए और उन्हें सम्बोधित है न कि अविश्वासियों के लिए। अब हम इस पद के निहितार्थ देखते हैं।
पवित्र आत्मा बहुत सीधी और स्पष्ट भाषा में पौलुस के द्वारा यह स्पष्ट कर दे रहा है कि पौलुस सहित सभी मसीही विश्वासियों को “मसीह के न्याय आसन के सामने” प्रस्तुत होना ही है। इस विषय पर आरम्भिक लेखों में हमने प्रेरितों 17:31 से देखा था कि परमेश्वर ने न्याय का एक दिन निर्धारित कर रखा है, और प्रभु यीशु को न्यायी ठहरा रखा है। यह पद इन दोनों बातों की – न्याय होगा, और उस न्याय का न्यायी प्रभु यीशु होगा, तथा बिना किसी अपवाद या छूट के सभी मसीही विश्वासियों को अपने न्याय के लिए प्रभु के सामने खड़ा होना होगा की पुष्टि करता है। अब ज़रा इस बात पर थोड़ा विचार कीजिए, यदि पौलुस जैसे व्यक्ति के लिए भी न्याय सिंहासन के सामने खड़े होकर अपने जीवन का हिसाब देना होगा, तो फिर ऐसा कौन होगा जो किसी भी कारण से न्याय सिंहासन के सामने खड़े होने से छूट सकेगा?
आज के धार्मिक अगुवों, प्रचारकों, शिक्षकों, आदि में से क्या ऐसा कोई भी है जो पौलुस के सामने खड़ा हो सके, उससे बेहतर होना तो दूर, उस के समान भी हो पाने का दावा कर सके? पौलुस के जीवन से संबंधित कुछ बातों पर ध्यान कीजिए, जैसे कि उसका प्रभु में विश्वास में तथा अपनी मसीही बुलाहट में दृढ़ता से मरते दम तक स्थिर खड़े रहना, प्रभु के प्रति उसकी प्रतिबद्धता, उसका हर कीमत पर दृढ़ता से अपनी सेवकाई का निर्वाह करते रहना, उसके जीवन के अंतिम समय तक भी सेवकाई के लिए भरसक और अथक परिश्रम करते रहना और परमेश्वर द्वारा उसे दी गई जिम्मेदारियों का निर्वाह करते रहना, पवित्र शास्त्र की उसकी समझ और ज्ञान, सेवकाई के लिए उसे परमेश्वर से मिले दर्शन और समझ, आदि बातें – क्या पौलुस के तुल्य कभी सँसार में कोई अन्य हुआ है? लेकिन फिर भी यदि पौलुस को प्रभु के सामने खड़े होकर अपना हिसाब देना ही है, तो फिर अन्य किसी भी मसीही विश्वासी को क्यों खड़ा नहीं होना पड़ेगा; और कोई भी किसी भी आधार पर प्रभु को अपने जीवन का हिसाब देने से कैसे बचने पाएगा? और क्योंकि यह न्याय प्रत्येक मसीही विश्वासी के लिए अनिवार्य और अवश्यम्भावी है, तो फिर क्यों सभी अपने आप को समय और अवसर रहते हुए, इस न्याय के लिए तैयार नहीं करते हैं, तथा औरों को तैयार होने के लिए क्यों सिखाते और उकसाते नहीं हैं?
अगले लेख में हम इस विषय पर परमेश्वर के वचन से और आगे देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Elementary Principles – 92
Judgment of Believers – 6
We are studying the sixth elementary principle given in Hebrews 6:1-2, “Eternal Judgment” and have seen that unlike the general understanding related to the word “judgment” this Biblical judgment will not be of the unbelievers, the unsaved, and the unrepentant; rather, it will be the judgement or assessment of the Born-Again Christian Believers, to give them the rewards and consequences of the lives they have lived on earth since the time of their being saved, or Born-Again. Since this concept is radically different from the commonly held belief about judgment, therefore, in the past few articles we have reiterated the reasons for this, and have supported this through Biblical passages and examples. We ended the last article by mentioning another verse from God’s Word the Bible, that supports and speaks of the judgment of all the Christian Believers, i.e., 2 Corinthians 5:10 “For we must all appear before the judgment seat of Christ, that each one may receive the things done in the body, according to what he has done, whether good or bad” and today we will consider the implication of what the Holy Spirit has inspired Paul to write for our learning.
As is evident, this verse, 2 Corinthians 5:10, is from the letter Paul wrote to the Church, i.e., the Christian Believers in Corinth. In other words, it is primarily addressed to the Christian Believers, the members of the Lord’s Church, the children of God through faith in the Lord Jesus Christ. Therefore, the pronouns used here also primarily refer to the Christian Believers. This is further affirmed by Paul’s use of “we” in this verse; through using “we” Paul has included himself amongst those to whom this verse is addressed. This once again affirms that this verse is for and to the Christian Believers, and not any unbelievers or unsaved persons. Now, let us look at the implications of this verse.
The Holy Spirit through Paul makes it clear in very straightforward language that “we must all appear before the judgment seat of Christ” i.e. every Christian Believer, including even the Apostle Paul, will have to appear before the judgment seat of the Lord Jesus. In the initial article on this topic, we had seen from Acts 17:31 that God has appointed a day of judgment, and has made the Lord Jesus the judge. This verse affirms both those points – there will be a judgment, and the judge for that judgment will be Lord Jesus Christ, and all Christian Believers will have to stand before the Lord for their judgment; there will be no exceptions. Now ponder over this, if it is mandatory for a person like Paul to stand before the judgment seat of Christ to give an account, then who can expect to be excused for any reason?
Can any of the present day religious preachers, teachers, and leaders stand up to Paul the Apostle and claim to be even equal, let alone be better than him? Think of Paul’s standing in firmly in his faith in the Lord and in his calling, commitment to the Lord, his standing for his ministry at any cost, his working as much and as hard as he could to fulfill his God given responsibilities till his last moments, his knowledge of the Scriptures, and the heavenly revelations that he received for his ministry? Yet, if Paul will be standing before the Lord to give and account, then on what grounds can anyone expect to be excused from standing before the Lord to be judged? Therefore, in that case why shouldn’t everyone, especially the Christian Believers not prepare themselves for this judgment, while they have time and opportunity? Why don’t they teach and urge others tp prepare for this inevitable judgment?
We will continue to see further on this topic from God’s Word in the next article.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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