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शुक्रवार, 8 अक्टूबर 2021

मसीही विश्वास एवं शिष्यता - 8

 

संगति रखना - गणित का समीकरण? (4) 

पिछले लेख में हमने देखा कि मसीही विश्वास के स्थान पर मसीही या ईसाई धर्म का पालन करने वाले प्रेरितों 2:42 की चारों बातों (वचन की शिक्षा पाना, संगति रखना, प्रभु-भोज में सम्मिलित होना, प्रार्थना करना) को उद्धार या नया जन्म प्राप्त कर लेने के लिए गणित के एक समीकरण के समान, एक रस्म के समान लेते हैं और इनके वास्तविक महत्व को समझने और उसका निर्वाह करने की बजाए इनकी औपचारिकता को पूरा करने के द्वारा समझते हैं कि वे भी नया जन्म या उद्धार पाए हुए हैं। किन्तु बाइबल की शिक्षाओं के अनुसार यह मान्यता रखना गलत धारणा ही है, और यह करना धर्म-कर्म-रस्म के निर्वाह वाले भले जीवन और भले कामों वाले आरंभिक उदाहरण के समान, प्रभु परमेश्वर को स्वीकार्य होने के लिए, बिल्कुल भी उपयोगी नहीं हैं। पिछले लेख में हम प्रेरितों 2:42 की चार में से दो बातों, बाइबल अध्ययन और प्रार्थना के औपचारिक निर्वाह के बारे में देख चुके हैं। आज हम प्रेरितों 2:42 की शेष दो बातों में से एक और, संगति रखने के बारे में कुछ और विस्तार से देखेंगे।   

3. संगति रखना: आरंभिक मसीही विश्वासी जिन बातों में प्रेरितों 2:42 के अनुसार ‘लौलीन’ रहते थे, उनमें से एक परस्पर संगति रखना भी था। इसी 42 पद के बाद, पद 44 से 46 में, उस आरंभिक मण्डली में इस संगति रखने के अर्थ को सजीव उदाहरण से बताया गया है। उनके लिए लिखा गया है, “और वे सब विश्वास करने वाले इकट्ठे रहते थे, और उन की सब वस्तुएं साझे की थीं। और वे अपनी अपनी सम्पत्ति और सामान बेच बेचकर जैसी जिस की आवश्यकता होती थी बांट दिया करते थे। और वे प्रति दिन एक मन हो कर मन्दिर में इकट्ठे होते थे, और घर घर रोटी तोड़ते हुए आनन्द और मन की सिधाई से भोजन किया करते थे” (प्रेरितों 2:44-46)। यद्यपि इसके बाद यह बात फिर कभी किसी अन्य मण्डली में न देखने को मिली, और न ही इसका उदाहरण बनाकर कभी कहीं कोई शिक्षा दी गई, न ऐसा करते रहने के लिए कभी कहा गया; किन्तु उन लोगों की संगति एक घनिष्ठ आत्मीयता, परस्पर प्रेम के साथ परिवार के समान रहने की बात थी। मण्डली या चर्च के लोगों का परस्पर संगति रखने का महत्व एक-दूसरे से सीखने, एक-दूसरे की आत्मिक और साँसारिक स्थिति तथा परिस्थितियों से अवगत होने और एक-दूसरे के लिए समय और परिस्थिति के अनुसार सहायक होने, एक-दूसरे के लिए प्रार्थना करने, आदि के लिए तब भी था और आज भी है। 

हम पौलुस की पत्रियों से देखते हैं कि वह उन मसीही विश्वासियों के लिए भी प्रभु में आनंदित होता था और प्रार्थनाएँ करता था, जिनसे वह कभी मिला भी नहीं था बस उनके बारे में सुना ही था (कुलुससियों 1:3, 4, 9)। इसी प्रकार से यरूशलेम में स्थित आरंभिक कलीसिया के अगुवों ने जब इस्राएल के क्षेत्र से बाहर अन्य-जातियों के मध्य पौलुस की सेवकाई के बारे में जाना, तो उन्होंने भी उसकी सेवकाई को अपनी सेवकाई के समान स्वीकार किया और उसका अनुमोदन एवं समर्थन किया (गलातियों 2:7-10)। हम परस्पर मेल-मिलाप और आदर के बारे में एक और बहुत महत्वपूर्ण बात भी देखते हैं, पौलुस ने पतरस का उसकी गलती के लिए उसके मुँह पर सामना किया (गलातियों 2:11-14); किन्तु इससे पतरस और पौलुस में विरोध या टकराव अथवा विभाजन उत्पन्न नहीं हुआ, वरन बाद में पतरस अपनी पत्री में पौलुस की और उसके मसीही ज्ञान की सराहना करता है, उसे प्रिय भाई कहकर संबोधित करता है (2 पतरस 3:15-16)। मसीही विश्वासियों की इस व्यावहारिक एक-मनता के सामने आज के मसीहियों की औपचारिक परस्पर संगति और एक-दूसरे की देख-भाल कितनी फीकी और छिछली है, पाखण्ड के समान है। 

इन अंत के दिनों के लिए, जिनमें हम रह रहे हैं, परस्पर संगति रखने के संबंध में बाइबल की शिक्षा है “और प्रेम, और भले कामों में उकसाने के लिये एक दूसरे की चिन्‍ता किया करें। और एक दूसरे के साथ इकट्ठा होना ने छोड़ें, जैसे कि कितनों की रीति है, पर एक दूसरे को समझाते रहें; और ज्यों ज्यों उस दिन को निकट आते देखो, त्यों त्यों और भी अधिक यह किया करो” (इब्रानियों 10:24-25)। किन्तु चर्च अथवा मण्डलियों में आज अपने समूह के अतिरिक्त अन्य समूहों के मसीही लोगों से मिलने, उनसे संगति रखने, उनके साथ प्रार्थना करने अथवा वचन के अध्ययन में सम्मिलित होने को मना किया जाता है, रोका जाता है। आरंभिक मसीही मण्डलियों के लोग परस्पर मिलने और संपर्क रखने तथा जुड़ने के लिए लालायित रहते थे; आज के मसीही एक दूसरे से पृथक रहने और दूरी बनाने के अवसर और तरीके ढूंढते हैं। बस अपनी ही मण्डली अथवा चर्च में इतवार के दिन की एक औपचारिक संगति को ही पर्याप्त और उचित मान तथा बता कर इस संगति रखने बात के निर्वाह को सही और पूर्ण समझ लिया जाता है; गणित के समीकरण के समान, संगति रख ली इसलिए मसीही विश्वासी हैं समझ लिया जाता है।

परमेश्वर के वचन बाइबल की शिक्षाओं में से हम ऐसे ही बड़े लगन के किन्तु गलत मानसिकता के साथ निभाए जाने वाली अन्य बातों, प्रभु भोज में सम्मिलित होना, और बपतिस्मे को, अगले लेखों में देखेंगे। किन्तु यदि आपने अभी तक अपने आप को प्रभु यीशु मसीह की शिष्यता में समर्पित नहीं किया है, और आप अभी भी अपने जन्म अथवा संबंधित धर्म तथा उसकी रीतियों के पालन के आधार पर अपने आप को प्रभु का जन समझ रहे हैं, तो आपको भी अपनी इस गलतफहमी से बाहर निकलकर सच्चाई को स्वीकार करने और उसका पालन करने की आवश्यकता है। आज और अभी आपके पास अपनी अनन्तकाल की स्थिति को सुधारने का अवसर है; प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • यशायाह 30-31    

  • फिलिप्पियों 4 

गुरुवार, 7 अक्टूबर 2021

मसीही विश्वास एवं शिष्यता - 7

   

बाइबल अध्ययन और प्रार्थना - गणित का समीकरण? (3)   

पिछले लेख में हमने देखा कि प्रेरितों 2:42 की चारों बातों (वचन की शिक्षा पाना, संगति रखना, प्रभु-भोज में सम्मिलित होना, प्रार्थना करना) को उद्धार या नया जन्म प्राप्त कर लेने के लिए गणित के एक समीकरण के समान देखना, एक रस्म के समान इनकी औपचारिकता को पूरा करते रहना, बाइबल के अनुसार गलत धारणाएं ही हैं, और प्रभु परमेश्वर को स्वीकार्य होने के लिए, धर्म-कर्म-रस्म के निर्वाह वाले भले जीवन और भले कामों वाले पहले के उदाहरण के समान, उपयोगी नहीं हैं। आज हम प्रेरितों 2:42 की इन चारों बातों के बारे में कुछ और विस्तार से देखेंगे। 

1. बाइबल की शिक्षा पाना: पापों की क्षमा और उद्धार पाया हुआ व्यक्ति बाइबल को पढ़ने, सीखने और बाइबल की शिक्षाओं का पालन करने में रुचि रखता है, समय बिताता है। किन्तु बाइबल में रुचि दिखाने, उसे सीखने, जानने, और मानने का प्रयास करने वाला हर व्यक्ति उद्धार, नया जन्म, और पापों की क्षमा पाया हुआ व्यक्ति नहीं होता है। संसार में ऐसे भी अनेकों व्यक्ति हैं जो मसीह यीशु के जगत का उद्धारकर्ता होने तथा बाइबल के परमेश्वर का वचन होने में विश्वास नहीं रखते हैं। किन्तु ऐसे लोग फिर भी, चाहे उसकी आलोचना करने के लिए, अथवा उसके प्रति कौतूहल से, या उस में से कुछ भली बातों को सीखने की इच्छा से बाइबल में रुचि रखते हैं, उसे पढ़ते और सीखते हैं, और उसकी कुछ शिक्षाओं से प्रभावित होकर उन्हें अपने जीवन में लागू करने के भी प्रयास करते हैं। किन्तु ऐसा करने से वे मसीही विश्वासी, परमेश्वर की संतान, स्वर्ग के वारिस नहीं हो जाते हैं। क्योंकि वे प्रभु के जन नहीं हैं, इसलिए वे परमेश्वर पवित्र आत्मा की बजाए, मनुष्यों से और मनुष्यों के ज्ञान तथा पुस्तकों से बाइबल के बारे में सीखते हैं; इसलिए बाइबल की सही शिक्षा से वंचित रहते हैं (1 कुरिन्थियों 2:10-15)। उन्हें बाइबल के बारे में बहुत सा ज्ञान तो हो सकता है, किन्तु उनके द्वारा की जाने वाली बाइबल की व्याख्या और दी जाने वाली शिक्षाओं में किताबी ज्ञान या मनुष्यों के विचार भरे होते हैं, और वह आत्मिकता और आत्मिक सामर्थ्य नहीं होती है जो परमेश्वर पवित्र आत्मा की अगुवाई में बाइबल सीखने, पालन करने, और सिखाने में देखने को मिलती है, “जब यीशु ये बातें कह चुका, तो ऐसा हुआ कि भीड़ उसके उपदेश से चकित हुई। क्योंकि वह उन के शास्त्रियों के समान नहीं परन्तु अधिकारी के समान उन्हें उपदेश देता था” (मत्ती 7:28-29) 

2. प्रार्थना करना: जो बात ऊपर बाइबल की शिक्षाओं के संबंध में कही गई है, वही प्रार्थना करने के विषय भी सत्य है। प्रार्थना करना, परमेश्वर से वार्तालाप करना है; एक घनिष्ठ, विश्वासयोग्य, सर्वसामर्थी अंतरंग मित्र के साथ अपने मन की बात साझा करना, और उससे अपनी भलाई के लिए परामर्श प्राप्त करना, और फिर उस परामर्श का पालन करना। किन्तु अधिकांश लोगों के लिए प्रार्थना एक औपचारिकता है, कुछ रटी हुई बातों को दोहराते रहना है, और कुछ के लिए तो इन बातों को दोहराते रहने की एक निर्धारित संख्या को पूरा करना है। वे कभी आत्मिकता में प्रभु के साथ जुड़ कर उसके साथ यह प्रार्थना रूपी वार्तालाप नहीं करने पाते हैं। अधिकांश लोग तो प्रार्थना के नाम पर न केवल परमेश्वर को अपनी समस्या बताते हैं, वरन उसे यह भी बताते हैं कि वह उस समस्या का क्या समाधान करे, कैसे करे, कब करे, और उसके साथ-साथ उनके लिए और क्या कुछ करे। वे परमेश्वर को अल्लादीन के चिराग के जिन्न के समान प्रयोग करना चाहते हैं - प्रार्थना रूपीचिरागको रगड़ा, औरपरमेश्वरनामक जिन्न को बता दिया कि वह उनके लिए क्या करे, और कैसे करे, आदि। उन्हें परमेश्वर की इच्छा जानने और पूरी करने में कोई रुचि नहीं होती है; वे केवल परमेश्वर को अपनी स्वार्थ-सिद्धि और सांसारिक बातों की उन्नति के लिए प्रयोग करना चाहते हैं। 

उसी गणित के समीकरण के समान, जैसे मसीही विश्वासी भी प्रार्थना करते हैं, ये औपचारिकता निभाने वाले भीप्रार्थनाके नाम पर कुछ करते हैं; किन्तु दोनों कीप्रार्थनामें जमीन-आसमान का अंतर है। मसीही विश्वासी परमेश्वर से उसकी इच्छा जानकर उसे पूरी करने, परमेश्वर के लिए उपयोगी होने के लिए प्रार्थना करता और सामर्थ्य माँगता है; रस्म या औपचारिकता को निभाने वाले परमेश्वर को अपनी इच्छाएं और लालसाएँ बताकर, उसे अपने लिए प्रयोग करने और सांसारिक बातों में बढ़ना चाहते हैं। उनके शिष्यों के अनुरोध पर कि प्रार्थना क्या है, और उसका खाका कैसा होना चाहिए, यह समझाने तथा प्रार्थना करने में लोगों की सहायता के लिए प्रभु ने उन्हें प्रार्थना से संबंधित कुछ शिक्षाएं (मत्ती 6:5-15) और नमूने के रूप में एक प्रार्थना (पद 9-13) दी। 

गणित के समीकरण समानमसीही विश्वासी प्रार्थना करता है; इसलिए प्रार्थना करने वाला मसीही विश्वासी होता हैदेखने वालों, और इसे औपचारिकता के समान निभाने वालों ने प्रभु के द्वारा दी गई इस नमूने की प्रार्थना को भी एक रस्म और औपचारिकता बना दिया है। और अब प्रभु द्वारा दिया गया प्रार्थना का यह नमूनाप्रभु की प्रार्थनाके नाम से रट कर, बिना उस पर विचार किए, बिना उसे समझे, मसीही या ईसाई धर्म के मानने वालों के द्वारा धर्म और कर्म के निर्वाह के लिए बड़ी निष्ठा के साथ दोहराया जाता है। उनकी कोई प्रार्थना, कोई सभा, कोई रस्म बिना इस रटी हुईप्रार्थनाको व्यक्तिगत अथवा सामूहिक रीति से दोहराए पूरी ही नहीं होती है; और यदि ऐसा न करवाया जाए, तो उन्हें लगता है कि कुछ अपूर्ण और अधूरा रह गया है जिसका कुछ बुरा परिणाम आ सकता है। इनमें से कोई भी जन, न सामान्य व्यक्ति और न ही धार्मिक अगुवा इस बात पर ध्यान करता है कि प्रभु ने स्पष्ट कहा किइस रीति से प्रार्थना किया करो”; न कियह प्रार्थना किया करो। और न वे इस बात का ध्यान करते हैं कि सुसमाचारों के अतिरिक्त, संपूर्ण नए नियम में और कहीं भी न तो किसी व्यक्ति अथवा प्रेरित ने और न ही किसी और ने कभी भी यहप्रार्थनाफिर कभी दोहराई, या उसे करने के विषय शिक्षा दी, या लोगों को इसके लिए प्रोत्साहित किया। सुसमाचारों में भी, जहाँ प्रभु ने यह शिक्षा दी और शिष्यों को प्रार्थना का यह खाका या नमूना दिया, उसके अतिरिक्त फिर कभी न तो प्रभु ने और न उनके शिष्यों ने कभी भी इस नमूने को एक अनिवार्य प्रार्थना के समान दोहराया या स्मरण करवाया, या इसे अनिवार्य बनाया। 

 शेष दो बातों के पालन से संबंधित परमेश्वर के वचन बाइबल की कुछ शिक्षाओं को हम अगले लेख में आगे देखेंगे। किन्तु यदि आपने अभी तक अपने आप को प्रभु यीशु मसीह की शिष्यता में समर्पित नहीं किया है, और आप अभी भी अपने जन्म अथवा संबंधित धर्म तथा उसकी रीतियों के पालन के आधार पर अपने आप को प्रभु का जन समझ रहे हैं, तो आपको भी अपनी इस गलतफहमी से बाहर निकलकर सच्चाई को स्वीकार करने और उसका पालन करने की आवश्यकता है। आज और अभी आपके पास अपनी अनन्तकाल की स्थिति को सुधारने का अवसर है; प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • यशायाह 28-29   
  • फिलिप्पियों 3

बुधवार, 6 अक्टूबर 2021

मसीही विश्वास एवं शिष्यता - 6

  

मसीही विश्वास - गणित का समीकरण? (2) 

     कल हमने मसीही विश्वास के स्थान पर मसीही धर्म या ईसाई धर्म के मानने वालों तथा उस धर्म की बातों को पूरा करने वालों में विद्यमान एक धारणा के बारे में देखा था - परमेश्वर को स्वीकार्य होने के लिए गणित के एक समीकरण के समान धारणा रखना। इससमीकरणवाली धारणा रखने वाले लोग यह विचार रखते हैं कि यदि कोई प्रभाव जीवन में कुछ गुण लाता है, तो फिर किसी के जीवन में उन गुणों का होना इस बात का प्रमाण है कि वे उस प्रभाव के कारण ही हैं। जबकि यह सत्य नहीं है। इसे यदि एक बहुत सहज और सामान्य उदाहरण से समझें, दूध एक सफेद तरल पदार्थ है; किन्तु हम भली-भांति जानते हैं कि हर सफेद तरल पदार्थ न तो दूध होता है और न दूध के समान प्रयोग किया जा सकता है; और साथ ही यह भी जानते हैं कि दूध के समान दिखने वालेनकली दूधभी बाजार में मिल जाते हैं, किन्तु वे हानिकारक होते हैं, दूध के समान पौष्टिक भोजन वस्तु नहीं। ऐसा नहीं है कि मसीही या ईसाई धर्म में आस्था रखने वाले परमेश्वर से प्रेम नहीं करते, या प्रभु परमेश्वर के विरुद्ध हैं; वास्तविकता तो यही है कि वे भी अपनी ही रीति और विधि के अंतर्गत प्रभु परमेश्वर को चाहते हैं, उसे पूरा आदर और जीवन में उच्च स्थान देना चाहते हैं, किन्तु उनका यह प्रयास परमेश्वर के वचन से संगत नहीं है, इसलिए अपूर्ण और निष्फल है। इन लोगों के लिए पौलुस प्रेरित द्वारा पवित्र आत्मा की अगुवाई में भक्त इस्राएलियों के लिए लिखी गई बात पूरी होती है, “हे भाइयो, मेरे मन की अभिलाषा और उन के लिये परमेश्वर से मेरी प्रार्थना है, कि वे उद्धार पाएं। क्योंकि मैं उन की गवाही देता हूं, कि उन को परमेश्वर के लिये धुन रहती है, परन्तु बुद्धिमानी के साथ नहीं। क्योंकि वे परमेश्वर की धामिर्कता से अनजान हो कर, और अपनी धामिर्कता स्थापन करने का यत्न कर के, परमेश्वर की धामिर्कता के आधीन न हुए” (रोमियों 10:1-3) 

अपनी इसी धर्म-कर्म-रस्म के निर्वाह की धार्मिकता की धारणा के अंतर्गत, वे यही मानते हैं कि कुछ विधि-विधान पूरे कर देने, कुछ त्यौहारों, विशेष दिनों, और रस्मों को निभा लेने, और मसीही विश्वासियों के समान कुछ बातों का पालन कर लेने से वे भी मसीही विश्वासी ही हो जाते हैं। पतरस प्रेरित ने पवित्र आत्मा की सामर्थ्य प्राप्त करने के बाद जब यरूशलेम में एकत्रित भक्त यहूदियों के सामने पहला सुसमाचार प्रचार किया (प्रेरितों 2 अध्याय) तो उन यहूदियों में से लगभग 3000 ने प्रभु यीशु मसीह को अपना उद्धारकर्ता ग्रहण किया और प्रभु के शिष्यों के समूह में सम्मिलित हो गए (पद 41)। यही प्रथम कलीसिया, या चर्च अथवा मण्डली का आरंभ था। इससे अगला पद (पद 42) बताता है कि इस प्रथम मण्डली के लोग चार बातों मेंलौलीन रहते थे, “और वे प्रेरितों से शिक्षा पाने [परमेश्वर के वचन के अध्ययन और शिक्षा], और संगति रखने [विश्वासी लोगों के साथ एकत्रित होते रहने ] में और रोटी तोड़ने [प्रभु भोज में भाग लेते रहने] में और प्रार्थना करने [साथ मिलकर परमेश्वर से संगति और निवेदन करने] में लौलीन रहेअब इन्हीं चार बातों का पालन मसीही या ईसाई धर्म के लोग भी करते हैं, किन्तु न तो वे इनमें लौलीन रहते हैं, और न ही उस प्रकार से करते हैं जिस प्रकार से वचन में सिखाया और दिखाया गया है, वरन धर्म का पालन करने वाले अधिकांश लोगों के लिए ये चारों बातें कुछ निर्धारित दिनों में एक रस्म के समान निभाने के लिए हैं, जिनका निर्वाह करके वे मानते हैं कि उन्होंने भी मसीही विश्वासियों के समान वचन की शिक्षा को पूरा कर लिया है, इसलिए वे भी मसीही विश्वासियों से भिन्न नहीं हैं। किन्तु वो इस आधारभूत तथ्य की अनदेखी कर बैठते हैं कि मसीही विश्वासी पहले स्वेच्छा और सच्चे मन से अपने पापों से पश्चाताप करता है, प्रभु यीशु से उनके लिए क्षमा माँगता है, अपना जीवन प्रभु यीशु को समर्पित करके उनका शिष्य बनता है, और फिर प्रभु की अगुवाई में, प्रभु के सिखाए, वह इन बातों में ‘लौलीन रहता है, इनका पालन करके इनके दर्शनों में बढ़ता और मसीही जीवन में परिपक्व होता जाता है। 

 इन बातों के पालन से संबंधित परमेश्वर के वचन बाइबल की कुछ शिक्षाओं को हम अगले लेख में आगे देखेंगे। किन्तु यदि आपने अभी तक अपने आप को प्रभु यीशु मसीह की शिष्यता में समर्पित नहीं किया है, और आप अभी भी अपने जन्म अथवा संबंधित धर्म तथा उसकी रीतियों के पालन के आधार पर अपने आप को प्रभु का जन समझ रहे हैं, तो आपको भी अपनी इस गलतफहमी से बाहर निकलकर सच्चाई को स्वीकार करने और उसका पालन करने की आवश्यकता है। आज और अभी आपके पास अपनी अनन्तकाल की स्थिति को सुधारने का अवसर है; प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।   

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • यशायाह 26-27  
  • फिलिप्पियों

मंगलवार, 5 अक्टूबर 2021

मसीही विश्वास एवं शिष्यता - 5

 

मसीही विश्वास - गणित का समीकरण? (1)

पिछले दो लेखों का सम्मिलित निष्कर्ष था कि परमेश्वर के वचन बाइबल के अनुसार प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास करने का अर्थ है यह ग्रहण करना और अपने जीवन में कार्यान्वित करना कि केवल और केवल प्रभु यीशु मसीह ही मुझे मेरे पापों से छुड़ा सकता है, सुरक्षित कर सकता है; और जब मैं इस बात को ग्रहण करके अपने आप को उसे समर्पित कर दूँगा, उसका जन बना जाऊँगा, तब प्रभु यीशु मुझे मेरे पापों से छुड़ा कर उनके दुष्प्रभावों से सुरक्षित भी कर देगा। आज से हम इसी निष्कर्ष को थोड़ा सा और विस्तरित करके देखेंगे और समझेंगे। 

सामान्यतः ईसाई धर्म का पालन करने वालों में, मसीही विश्वास और उससे आए जीवन में परिवर्तनों को गणित के एक समीकरण के समान देखा, समझा, और माना जाना देखने को मिलता है। गणित का यह साधारण समीकरण है: यदि”, “के बराबर है, तो फिर सदा हीभीके बराबर ही होगा (If “A” = “B”; then “B” will always = “A”)। इस समीकरण की धारणा के अंतर्गत, ईसाई धर्म को मानने वाले लोग मसीही विश्वास के जीवन और उस विश्वास से आए परिवर्तनों को एक साथ ले कर, इन दोनों बातों को परस्पर अदल-बदल हो सकने वाली समझ और मान लेते हैं। ईसाई धर्म का पालन करने वालों में समीकरण समान देखने की यह गलत धारणा सामान्यतः चार बातों में समझी जाती है, जिन्हें हम आज से देखना आरंभ करेंगे।

समीकरण समान देखी जाने वाली पहली धारणा है भला व्यक्ति और भलाई का जीवन जीने वाला ईसाई व्यक्ति स्वतः ही प्रभु यीशु का जन है, उसे स्वीकार्य है। कोई भी व्यक्ति जब पापों से पश्चाताप करता है, उनसे मुँह मोड़कर, मसीह यीशु की आज्ञाकारिता में जीवन जीना आरंभ करता है, तो उसके जीवन से उसकी बुरी बातें, बुरे व्यवहार, बुरी आदतें भी हटने लग जाते हैं, और वह भली बातों, भले व्यवहार, भली आदतों आदि वाला व्यक्ति बनना आरंभ हो जाता है, इस परिवर्तन में अग्रसर होता रहता है, और कुछ समय में उसका यह परिवर्तित जीवन सभी को स्पष्ट दिखाई देने लगता है, “सो यदि कोई मसीह में है तो वह नई सृष्टि है: पुरानी बातें बीत गई हैं; देखो, वे सब नई हो गईं” (2 कुरिन्थियों 5:17)। कहने का अर्थ है, मसीही विश्वासी बन जाने पर हर एक व्यक्ति का जीवन एक भला तथा भलाई का जीवन हो जाता है। अब जीवन में आए इस परिवर्तन को ही, मसीही विश्वास के स्थान पर ईसाई धर्म का पालन करने वाले लोगों ने उपरोक्त गणित के समीकरण के समान लिया और समझा है। इन लोगों का विचार होता है, क्योंकि मसीही विश्वासी का जीवन भला और भलाई का जीवन होता है, इसलिए मसीह यीशु का नाम लेते हुए, हर भला तथा औरों की भलाई करने का जीवन जीने वाला व्यक्ति भी मसीही विश्वासी के समान उद्धार पाया हुआ ही है। 

किन्तु यह बाइबल की दो बातों के आधार पर सत्य, तथा बाइबल की शिक्षा नहीं है। पहला आधार है बाइबल की यह बहुत स्पष्ट शिक्षा कि पापों की क्षमा, उद्धार, नया जन्म केवल पश्चाताप और प्रभु पर लाए गए विश्वास से है, मनुष्यों के कर्मों से बिल्कुल भी नहीं है:जब हम अपराधों के कारण मरे हुए थे, तो हमें मसीह के साथ जिलाया; (अनुग्रह ही से तुम्हारा उद्धार हुआ है)” (इफिसियों 2:5); “क्योंकि विश्वास के द्वारा अनुग्रह ही से तुम्हारा उद्धार हुआ है, और यह तुम्हारी ओर से नहीं, वरन परमेश्वर का दान है। और न कर्मों के कारण, ऐसा न हो कि कोई घमण्ड करे” (इफिसियों 2:8, 9); “तो उसने हमारा उद्धार किया: और यह धर्म के कामों के कारण नहीं, जो हम ने आप किए, पर अपनी दया के अनुसार, नए जन्म के स्नान, और पवित्र आत्मा के हमें नया बनाने के द्वारा हुआ” (तीतुस 3:5)। और दूसरा आधार यह कि मसीह यीशु के नाम में यदि कोई अपनी मरज़ी, अपनी इच्छानुसार कुछ करे - वह चाहे कितना भी अद्भुत आश्चर्यकर्म या विलक्षण प्रचार ही क्यों न हो, किन्तु यदि प्रभु परमेश्वर की ओर से, प्रभु की आज्ञाकारिता में नहीं किया गया है, तो न केवल वह प्रभु को अस्वीकार्य है, वरन प्रभु ऐसे कार्यों कोकुकर्मकहता है, और उन्हें करने वालों को अपने से दूर कर देता हैजो मुझ से, हे प्रभु, हे प्रभु कहता है, उन में से हर एक स्वर्ग के राज्य में प्रवेश न करेगा, परन्तु वही जो मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छा पर चलता है। उस दिन बहुतेरे मुझ से कहेंगे; हे प्रभु, हे प्रभु, क्या हम ने तेरे नाम से भविष्यवाणी नहीं की, और तेरे नाम से दुष्टात्माओं को नहीं निकाला, और तेरे नाम से बहुत अचम्भे के काम नहीं किए? तब मैं उन से खुलकर कह दूंगा कि मैं ने तुम को कभी नहीं जाना, हे कुकर्म करने वालों, मेरे पास से चले जाओ” (मत्ती 7:21-23)      

जो बात यहाँ पर ईसाई धर्म के पालन के उदाहरण द्वारा चित्रित की गई है, वही ठीक ऐसे ही, अन्य प्रत्येक धर्म के पालन के साथ भी लागू है। क्योंकि मसीही विश्वास लोगों को भला और भलाई करने वाला बना देता है, इसलिए इससे यह निष्कर्ष कदापि नहीं निकाला जा सकता है कि हर भला और भलाई करने वाला व्यक्ति उस गणित के समीकरण के समान, मसीही विश्वासी भी मान लिया जाएगा, और प्रभु को स्वीकार्य हो जाएगा, उद्धार या नया जन्म पाया और पापों की क्षमा पाया हुआ मान लिया जाएगा। ऐसी धारणा रखना, शैतान द्वारा फैलाया गया एक भ्रम है, धोखा है जिसमें किसी को भी नहीं पड़ना चाहिए। ईसाई धर्म का पालन करने वालों को भी अपने पापों से पश्चाताप करने और यीशु मसीह को अपना उद्धारकर्ता प्रभु स्वीकार करने की उतनी ही आवश्यकता है, जितनी किसी भी अन्य जन को है। यह सभी के लिए परमेश्वर की आज्ञा है, इसलिये परमेश्वर अज्ञानता के समयों में आनाकानी कर के, अब हर जगह सब मनुष्यों को मन फिराने की आज्ञा देता है। क्योंकि उसने एक दिन ठहराया है, जिस में वह उस मनुष्य के द्वारा धर्म से जगत का न्याय करेगा, जिसे उसने ठहराया है और उसे मरे हुओं में से जिलाकर, यह बात सब पर प्रमाणित कर दी है” (प्रेरितों 17:30-31)

 यदि आपने अभी तक अपने आप को प्रभु यीशु मसीह की शिष्यता में समर्पित नहीं किया है, और आप अभी भी अपने जन्म अथवा संबंधित धर्म तथा उसकी रीतियों के पालन के आधार पर अपने आप को प्रभु का जन समझ रहे हैं, तो आपको भी अपनी इस गलतफहमी से बाहर निकलकर सच्चाई को स्वीकार करने और उसका पालन करने की आवश्यकता है। आज और अभी आपके पास अपनी अनन्तकाल की स्थिति को सुधारने का अवसर है; प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।     

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • यशायाह 23-25  
  • फिलिप्पियों 1   

सोमवार, 4 अक्टूबर 2021

मसीही विश्वास एवं शिष्यता - 4

 

मसीही में विश्वास (2)

   कल हमने प्रभु यीशु मसीह में विश्वास करने के अर्थ को देखना आरंभ किया था। हमने इसे समझने के लिए परमेश्वर के वचन बाइबल में से दो पदों, मत्ती 1:21 और यूहन्ना 1:12 को लिया था। हमने मत्ती 1:12 के आधार पर कल यह देखा था कि प्रभु यीशु मसीह का जन्म ही लोगों को उनके पापों से छुटकारा देने और सुरक्षित करने के उद्देश्य से हुआ था। प्रभु यीशु मसीह ही वे एकमात्र हैं जो मनुष्यों को उनके पापों से छुटकारा प्रदान कर सकते हैं, किसी भी मनुष्य के द्वारा अपने आप या अपने लिए यह कर पाना कभी संभव नहीं होने पाया था। किन्तु साथ ही हमने यह भी देखा था कि प्रभु यीशु मसीह द्वारा उपलब्ध करवाया गया यह छुटकारा और सुरक्षा उनके लिए ही उपलब्ध और कारगर जो प्रभु यीशु के लोग हैं। जिसे भी यह छुटकारा और सुरक्षा चाहिए उसे पहले प्रभु का जन बनना पड़ेगा, और तब प्रभु द्वारा उपलब्ध करवाया गया यह उपाय उसके जीवन में कार्यकारी हो सकेगा। प्रभु का जन बनने का तरीका हमें यूहन्ना 1:12 में दिया गया है - स्वेच्छा से प्रभु यीशु को ग्रहण करना, और उसके नाम पर विश्वास करना। प्रभु यीशु का जन होना किसी मानवीय पद्धति या क्रिया से, अथवा अन्य किसी प्रकार से संभव नहीं है। 

परन्तु जितनों ने उसे ग्रहण किया, उसने उन्हें परमेश्वर के सन्तान होने का अधिकार दिया, अर्थात उन्हें जो उसके नाम पर विश्वास रखते हैं। वे न तो लहू से, न शरीर की इच्छा से, न मनुष्य की इच्छा से, परन्तु परमेश्वर से उत्पन्न हुए हैं” (यूहन्ना 1:12-13)। इन पदों का दूसरा अर्ध-भाग स्पष्ट कर देता है कि प्रभु यीशु मसीह को अपना उद्धारकर्ता ग्रहण करने वाले किसी मनुष्य के वंश अथवा प्रयास से नहीं वरन मसीह में अपने विश्वास के द्वारा “परमेश्वर से उत्पन्न हुए हैं।”” और जिस विश्वास के द्वारा उनके लिए यह संभव हुआ है, वह प्रथम अर्ध-भाग के अंत में दिया गया है, “जो उसके नाम पर विश्वास रखते हैं।” इस वाक्यांश में एक छोटा सा शब्द ‘पर प्रमुख किया गया है, क्योंकि वही इस बात को समझने की कुंजी है। यह वाक्यांश बता रहा है कि प्रभु यीशु मसीह को वे ग्रहण करते हैं, परमेश्वर की संतान वे बनते हैं जो “उसके नामपर विश्वास करते हैं। 

इसे समझने के लिए इन दोनों शब्दों, “उसके” और “यीशु” को देखिए। यूहन्ना 1 अध्याय में इन पदों से पहले के पदों को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि बात उस “वचन” अर्थात सृष्टिकर्ता परमेश्वर की हो रही है, जो देहधारी होकर जगत में आया। अर्थात “उसके” से अभिप्राय उस सृष्टिकर्ता परमेश्वर से है जिसने मानव देह में होकर जन्म लिया। इस मानव देह में अवतरित परमेश्वर का नाम “यीशु” रखा गया। शब्द हिन्दी का शब्द “यीशु” बाइबल के नए नियम खंड की मूल यूनानी भाषा के शब्द “ईएसोऊस (Iesous)” से आया है। यूनानी भाषा का नाम “ईएसोऊस” पुराने नियम की मूल इब्रानी भाषा के नाम “यहोशूआ” से आया है। इब्रानी भाषा का नाम “येहोशूआ” एक संयुक्त शब्द है, जो दो शब्दों, संज्ञा “यहोवा” एवं शब्द “शूआ” की संधि से बना है। संज्ञा “यहोवा” इब्रानी में परमेश्वर का नाम है; और इब्रानी शब्द “शूआ” का अर्थ होता है “मुक्ति देने वाला” या “स्वतंत्र करने वाला”। अर्थात मूल इब्रानी भाषा के अनुसार शब्द “यहोशूआ” और उससे निकले यूनानी शब्द “ईएसोऊस” तथा हिन्दी शब्द “यीशु” का अर्थ है “यहोवा ही मुक्ति या स्वतंत्रता देने वाला है”। इसलिए यूहन्ना 1:12 के वाक्यांश “जो उसके नाम पर विश्वास रखते हैं” का अभिप्राय हो गया “जो यह विश्वास रखते हैं कि यहोवा ही मुक्ति या स्वतंत्रता देने वाला है”।

अर्थात, यीशु पर विश्वास करने, उस ग्रहण करने और इस के कारण परमेश्वर की संतान हो जाने का तात्पर्य है, इस तथ्य को ग्रहण करना या अपने जीवन में स्वीकार करना तथा कार्यान्वित करना कि केवल प्रभु यीशु मसीह ही वह एकमात्र है जिसके द्वारा पापों से मुक्ति, नश्वर संसार से स्वतंत्रता मिल सकती है। प्रभु यीशु मसीह के अतिरिक्त और कोई मार्ग अथवा माध्यम या तरीका नहीं है, जैसा कि प्रभु यीशु मसीह ने स्वयं भी अपने विषय में कहा, “यीशु ने उस से कहा, मार्ग और सच्चाई और जीवन मैं ही हूं; बिना मेरे द्वारा कोई पिता के पास नहीं पहुंच सकता” (यूहन्ना 14:6)। मनुष्यों के अपने किसी भी प्रयास, विधि, कर्म, धर्म, जीवन शैली, आदि के द्वारा उसे उसके पापों से यह मुक्ति या स्वतंत्रता कदापि नहीं मिल सकती है। यह केवल प्रभु यीशु मसीह के नाम पर लाए गए विश्वास द्वारा ही संभव है; किसी अन्य तरीके से नहीं। जो कोई भी स्वेच्छा और सत्य-निष्ठा से इस प्रकार प्रभु यीशु का जन हो जाएगा, मत्ती 1:21 के अनुसार, प्रभु यीशु उसे पापों से छुटकारा और सुरक्षा प्रदान करेगा, और वह परमेश्वर की संतान हो जाएगा। 

कल और आज के लेखों का सम्मिलित निष्कर्ष है कि परमेश्वर के वचन बाइबल के अनुसार प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास करने का अर्थ है यह ग्रहण करना और अपने जीवन में कार्यान्वित करना कि केवल और केवल प्रभु यीशु मसीह ही मुझे मेरे पापों से छुड़ा सकता है, सुरक्षित कर सकता है; और जब मैं इस बात को ग्रहण करके अपने आप को उसे समर्पित कर दूँगा, उसका जन बना जाऊँगा, तब प्रभु यीशु मुझे मेरे पापों से छुड़ा कर उनके दुष्प्रभावों से सुरक्षित भी कर देगा।   

कल हम कुछ ऐसी बातों के बारे में देखेंगे, जिन पर सामान्यतः लोग भरोसा रखते हैं कि उनके द्वारा वे प्रभु के जन बन जाएंगे और पापों से छुटकारा एवं सुरक्षा पा जाएंगे, किन्तु यह केवल उनका भ्रम है, बाइबल की सच्चाई नहीं। यदि आपने अभी तक अपने आप को प्रभु यीशु मसीह की शिष्यता में समर्पित नहीं किया है, और आप अभी भी अपने जन्म अथवा संबंधित धर्म तथा उसकी रीतियों के पालन के आधार पर अपने आप को प्रभु का जन समझ रहे हैं, तो आपको भी अपनी इस गलतफहमी से बाहर निकलकर सच्चाई को स्वीकार करने और उसका पालन करने की आवश्यकता है। आज और अभी आपके पास अपनी अनन्तकाल की स्थिति को सुधारने का अवसर है; प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।  


 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • यशायाह 20-22  

  • इफिसियों 6 


रविवार, 3 अक्टूबर 2021

मसीही विश्वास एवं शिष्यता - 3

 

मसीही में विश्वास (1)

       मसीही विश्वास एवं शिष्यता से संबंधित बातों को देखते हुए, हम पिछले दो लेखों से जान चुके हैं कि न तो मसीही विश्वास कोई धर्म है, और न ही किसी धर्म परिवर्तन की बात है, वरन आरंभिक मसीही विश्वासी स्वेच्छा से प्रभु यीशु मसीह की शिष्यता को स्वीकार करने वाले लोग थे। पिछले लेख में हमने आरंभिक मसीही विश्वास और विश्वासियों के इतिहास के बारे में बाइबल में की पुस्तक प्रेरितों के काम से देखा था कि आरंभिक मसीही विश्वासीपंथ के लोग”, अर्थात सामान्य लोगों और संसार की जीवन शैली से पृथक एक विशिष्ट जीवन शैली जीने वाले लोग जाने जाते थे (प्रेरितों 9:2)। और कुछ समय के बाद वे जो प्रभु यीशु मसीह के शिष्य थे, उन्हें संसार के लोगों ने मसीही कहना आरंभ कर दिया (प्रेरितों 11:26)। निष्कर्ष यह कि परमेश्वर के वचन बाइबल के अनुसार मसीही वह है जो प्रभु यीशु मसीह का शिष्य है, और जो संसार से पृथक प्रभु यीशु द्वारा दिखाए मार्ग के अनुसार जीवन जीता है। मसीही विश्वास से संबंधित इन आधारभूत तथ्यों में एक और आधारभूत बात निहित है कि मसीही विश्वासी होना किसी भी व्यक्ति के अपने लिए समझ-बूझकर निर्णय लेने की आयु का होने से पहले हो पाना संभव नहीं है। अर्थात मसीही होना किसी परिवार विशेष में जन्म लेने के द्वारा या किसी धर्म के पालन के द्वारा नहीं है, वरन स्वेच्छा और सच्चे समर्पण के द्वारा प्रभु यीशु मसीह की शिष्यता को ग्रहण करने, उसे अपना उद्धारकर्ता स्वीकार के उसका अनुयायी हो जाने के द्वारा है। 

       बहुत से लोग, विशेषकर ईसाई धर्म का पालन करने वाले, यह कहते हैं कि वे प्रभु यीशु मसीह में विश्वास करते हैं; तो क्या अपने इस दावे या धारणा के कारण वे उद्धार पाए हुए मसीही विश्वासी कहलाए जा सकते हैं? प्रभु यीशु मसीह में विश्वास करने का, बाइबल के आधार पर, क्या अर्थ है? क्या हर कोई व्यक्ति जो अपने ही किसी भी आधार पर प्रभु यीशु पर विश्वास करने का दावा करता है, वह उद्धार पाया हुआ मसीही विश्वासी है? इस बात को समझने के लिए हमें बाइबल के दो पदों का अध्ययन करना आवश्यक है। इनमें से पहला पद हमें स्पष्ट करेगा कि कैसे प्रभु यीशु पर विश्वास के द्वारा उद्धार या नया जन्म मिलता है; और दूसरा पद समझाएगा कि बाइबल के अनुसार मसीह यीशु में विश्वास करने का अर्थ क्या है। ये दोनों ही पद प्रभु यीशु मसीह के जन्म और पृथ्वी पर सेवकाई से पहले के समय के हैं, अर्थात इन पदों में व्यक्त बात परमेश्वर के वचन का वह आधार है जिसके अनुसार उद्धार, मसीही जीवन, और सुसमाचार प्रचार की सेवकाई प्रतिपादित की गई। आज हम इनमें से पहले पद को देखेंगे, और संबंधित दूसरे पद पर कल विचार करेंगे। ये दोनों पद हैं:

1. “वह पुत्र जनेगी और तू उसका नाम यीशु रखना; क्योंकि वह अपने लोगों का उन के पापों से उद्धार करेगा” (मत्ती 1:21) 

2. “परन्तु जितनों ने उसे ग्रहण किया, उसने उन्हें परमेश्वर के सन्तान होने का अधिकार दिया, अर्थात उन्हें जो उसके नाम पर विश्वास रखते हैं। वे न तो लहू से, न शरीर की इच्छा से, न मनुष्य की इच्छा से, परन्तु परमेश्वर से उत्पन्न हुए हैं” (यूहन्ना 1:12-13)

आज के विचार के लिए, उसके संदर्भ सहित, प्रथम पद हैजब वह इन बातों के सोच ही में था तो प्रभु का स्वर्गदूत उसे स्वप्न में दिखाई देकर कहने लगा; हे यूसुफ दाऊद की सन्तान, तू अपनी पत्नी मरियम को अपने यहां ले आने से मत डर; क्योंकि जो उसके गर्भ में है, वह पवित्र आत्मा की ओर से है। वह पुत्र जनेगी और तू उसका नाम यीशु रखना; क्योंकि वह अपने लोगों का उन के पापों से उद्धार करेगा” (मत्ती 1:20-21)। प्रभु यीशु मसीह का सांसारिक पिता, यूसुफ, अपनी पत्नी मरियम को अपने घर लाने से घबरा रहा था, क्योंकि वह विवाह से पहले ही गर्भवती पाई गई थी। यूसुफ मरियम को छोड़ देने के बारे में विचार कर रहा था, ऐसे में उसे परमेश्वर की ओर से स्वप्न में स्वर्गदूत ने उसे आश्वस्त किया कि मरियम ने कुछ गलत नहीं किया है, वह अभी भी कुँवारी ही है, और यूसुफ बिना उस पर कोई संदेह किए उसे निःसंकोच अपने घर ला सकता है। फिर स्वर्गदूत यूसुफ को मरियम के गर्भ में जो पल रहा है, उसके बारे में बताता है, “वह पुत्र जनेगी और तू उसका नाम यीशु रखना; क्योंकि वह अपने लोगों का उन के पापों से उद्धार करेगा” (मत्ती 1:21), अर्थात, मरियम से एक पुत्र उत्पन्न होगा, और यूसुफ को उसका नाम यीशु रखना होगा, क्योंकि वह अपने लोगों का उनके पापों से उद्धार करेगा। इस पद के पहले अर्ध-भाग - पुत्र जनने और उसका नाम यीशु रखे जाने को हम कल इससे संबंधित दूसरे पद के साथ देखेंगे। आज हम इस पद के दूसरे अर्ध-भागक्योंकि वह अपने लोगों का उन के पापों से उद्धार करेगापर विचार करेंगे।

यह पद प्रभु यीशु मसीह के जन्म लेने के उद्देश्य को व्यक्त कर रहा है - लोगों को उनके पापों से उद्धार प्रदान करना। मूल यूनानी भाषा के जिस शब्द का अनुवादउद्धारकिया गया है, उसका शब्दार्थ होता हैछुड़ा लेना या सुरक्षित कर लेना। अर्थात, मरियम से जन्म लेना वह पुत्र जिसका नाम यीशु रखा जाएगा, वह लोगों को उनके पापों से छुड़ा लेगा या सुरक्षित कर देगा। यह अपने आप में एक अति-विलक्षण और अभूत-पूर्व आश्वासन था; क्योंकि यह मनुष्यों का व्यावहारिक अनुभव था कि सभी धर्म-कर्म करने, सारे पर्व मनाने, विधि-विधानों को पूरा करने के बाद भी उनके जीवनों से पाप की उपस्थिति समाप्त नहीं होती थी; उन्हें फिर भी पाप के साथ संघर्ष करना पड़ता था, अपने पापों के दुष्परिणामों को झेलना होता था। अब प्रभु यीशु मसीह में संसार के लोगों को परमेश्वर की ओर से यह प्रावधान उपलब्ध करवाया जा रहा था, जो उन्हें उनके पापों की समस्या से छुड़ा कर सुरक्षित करेगा। 

किन्तु साथ ही इस पद में परमेश्वर की ओर से यह भी बताया गया था कि किन लोगों को उनके पापों से छुड़ाया और सुरक्षित किया जाएगा; जैसा यूसुफ से, उसे मिले दर्शन में, कहा गया और बाइबल में लिखा गया है, प्रभु यीशुअपने लोगों कोउनके पापों से छुड़ाएगा और सुरक्षित करेगा। अर्थात जिसे पाप से छुटकारा और सुरक्षा चाहिए, उसे प्रभु यीशु का जन बनना होगा; और जो प्रभु यीशु का जन बन जाएगा, उसे प्रभु यीशु ही उसके पापों से छुड़ाएगा और सुरक्षित करेगा। उपरोक्त दूसरे पद यूहन्ना 1:12-13 से हम देखते हैं कि प्रभु यीशु का जन बनना उसे ग्रहण करने, उसके नाम पर विश्वास करने के द्वारा होता है, जिसकी व्याख्या हम कल देखेंगे। इस पद, मत्ती 1:21 में, यह भी निहित है कि लोगों के पापों से छुड़ाया जाना प्रभु यीशु ही उन्हें करके देगा; उन लोगों का इसमें कोई योगदान नहीं होगा, वे केवल प्रभु के किए हुए को स्वीकार करने और उसे अपने जीवन में कार्यान्वित करने वाले होंगे। उद्धार केवल प्रभु यीशु मसीह के द्वारा है, मनुष्य केवल उसे एक भेंट, एक उपहार के समान स्वीकार ही कर सकता है।

अर्थात, पापों की क्षमा और उद्धार या नया जन्म पाने के लिए व्यक्ति को सर्व-प्रथम स्वेच्छा तथा सत्य-निष्ठा से प्रभु यीशु का जन बनना अनिवार्य है। यहबननाकिसी धर्म विशेष की बातों के निर्वाह अथवा किसी परिवार विशेष में जन्म ले लेने से स्वतः हो जाने वाली प्रक्रिया नहीं है। उपरोक्त यूहन्ना 1:12 के अनुसार, यह केवल प्रभु यीशु मसीह को ग्रहण करने, और उसके नाम पर विश्वास करने के द्वारा ही संभव है। 

यदि आपने अभी तक अपने आप को प्रभु यीशु मसीह की शिष्यता में समर्पित नहीं किया है, और आप अभी भी अपने जन्म अथवा संबंधित धर्म तथा उसकी रीतियों के पालन के आधार पर अपने आप को प्रभु का जन समझ रहे हैं, तो आपको अपनी इस गलतफहमी से बाहर निकलकर सच्चाई को स्वीकार करने और उसका पालन करने की आवश्यकता है। आज और अभी आपके पास अपनी अनन्तकाल की स्थिति को सुधारने का अवसर है; प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

      

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • यशायाह 17-19  
  • इफिसियों 5:17-33 

शनिवार, 2 अक्टूबर 2021

मसीही विश्वास एवं शिष्यता - 2

 

आरंभिक मसीही विश्वासी 

मसीही विश्वास और शिष्यता पर इस नई शृंखला के पहले लेख में हमने कल परमेश्वर के वचन बाइबल में दिए गए इस विषय से संबंधित कुछ मूल तथ्यों को देखा था। हमने देखा था कि प्रभु यीशु मसीह ने न तो कोई धर्म बनाया, न अपने शिष्यों से बनवाया, न किसी धर्म के प्रचार के लिए कहा, और न ही किसी का कोई धर्म-परिवर्तन करने के निर्देश दिए। उन्होंने अपने शिष्यों से संसार भर में जाकर लोगों को प्रभु का चेला बनाने, और जो स्वेच्छा से चेला बनना स्वीकार करता है, उसे प्रभु की बातें सिखाने और केवल उसे ही बपतिस्मा देने के लिए कहा (मत्ती 28:18-20)। नए नियम की पाँचवीं पुस्तक, ‘प्रेरितों के कामप्रभु यीशु के मसीह के आरंभिक शिष्यों और उनके समूह - मसीही मण्डलियों का इतिहास है; अर्थात, कैसे सुसमाचार प्रचार आरंभ हुआ, कैसे लोगों में फैला, उसके क्या प्रभाव तथा प्रतिक्रियाएं हुईं - अनुकूल भी और प्रतिकूल भी, आदि। आरंभिक मसीही मण्डलियों के स्थापित होने, बढ़ने और फैलने का यह विवरण कई रोचक तथ्यों को प्रकट करता है; इनमें से कुछ तथ्य हैं:

  • सुसमाचार प्रचार और मण्डलियों की स्थापना परमेश्वर पवित्र आत्मा के शिष्यों पर उतर आने और उन्हें सामर्थ्य प्रदान करने के बाद ही होना था (प्रेरितों 1:8)। अर्थात, यह किसी मनुष्य द्वारा, या मनुष्यों के ज्ञान, बुद्धि और सामर्थ्य द्वारा किए जाने वाला कार्य नहीं था; यह केवल परमेश्वर की सामर्थ्य से और उसकी अगुवाई में होकर हो सकने वाला कार्य था। 
  • सबसे पहला प्रचारभक्त यहूदियों’ (प्रेरितों 2:5) के मध्य किया गया जो धार्मिक अनुष्ठानों का निर्वाह करने के लिए संसार भर से यरूशलेम में एकत्रित हुए थेउन यहूदियों ने जब प्रभु यीशु मसीह द्वारा पापों की क्षमा और उद्धार के सुसमाचार को सुना, तो उन भक्त यहूदियों केहृदय छिद गएऔर वे प्रभु के शिष्यों से अपनी स्थिति के समाधान का मार्ग पूछने लगे। तब पतरस ने उन्हें पश्चाताप करने और प्रभु यीशु की शिष्यता में आने, और बपतिस्मे के द्वारा अपने इस निर्णय की गवाही देने के लिए कहा (प्रेरितों 2:37-38)। अर्थात, उद्धार और परमेश्वर को स्वीकार्य होना मनुष्यों के भले या धार्मिक कार्यों से नहीं है, वरन प्रभु यीशु मसीह को उद्धारकर्ता स्वीकार करने के द्वारा है। जब सुसमाचार ने उनके मन की वास्तविक स्थिति उन पर प्रकट कर दी, तो सुनने वालों को अपनी रीति-रिवाजों को मानने और मनाने की भक्ति की व्यर्थता, तथा पापों की क्षमा और उद्धार के लिए किसी अन्य वास्तव में कारगर उपाय की आवश्यकता का एहसास हो गया। 
  • आरंभ से ही मसीही विश्वासियों में चार गुण पाए जाते थे, जो आज भी व्यक्तिगत रीति से प्रत्येक सच्चे मसीही विश्वासी के जीवन के अभिन्न अंग हैंऔर वे प्रेरितों से शिक्षा पाने, और संगति रखने में और रोटी तोड़ने में और प्रार्थना करने में लौलीन रहे” (प्रेरितों 2:42)। आज भी मसीही विश्वासियों की मण्डली की स्थिरता और उन्नति का आधार यही चार बातें हैं – मण्डली के लोगों द्वारा परमेश्वर के वचन का अध्ययन और शिक्षा, परस्पर संगति रखना, प्रभु-भोज में नियमित सम्मिलित होते रहना, और प्रार्थना करते रहना। 
  • प्रभु ही अपनी मण्डली में उद्धार पाए हुए लोगों को जोड़ता जाता था, और लोग उन मसीही विश्वासियों से प्रसन्न रहते थेऔर परमेश्वर की स्तुति करते थे, और सब लोग उन से प्रसन्न थे: और जो उद्धार पाते थे, उन को प्रभु प्रति दिन उन में मिला देता था” (प्रेरितों 2:47) 
  • मसीही विश्वासियों के कार्यों और सुसमाचार प्रचार से धर्म के अगुवे और सरदार बहुत अप्रसन्न हुए, जिससे प्रभु की मण्डलियों की स्थापना के साथ ही उन मण्डलियों और मण्डलियों के लोगों का विरोध एवं उन पर सताव भी आरंभ हो गया (प्रेरितों 3:1-3), किन्तु इससे मसीही विश्वासियों की संख्या में बढ़ोतरी ही हुई। 
  • मसीही विश्वासियों के समूहों, मसीही मण्डलियों के आरंभ के समय से ही हम कहीं पर भी किसीईसाई धर्मयामसीही धर्मया ‘धर्म’ का कहीं कोई उल्लेख नहीं पाते हैं। प्रेरितों 2:42 की उपरोक्त चार आधारभूत शिक्षाओं के पालन के अतिरिक्त, मसीही विश्वासियों में और कोई प्रथा, अनुष्ठान, या रीति-रिवाज़ के पालन, अथवा किसी भी त्यौहार या दिन को मनाने का कोई उल्लेख नहीं है। 
  • गैर-मसीही लोगों ने मसीही विश्वासियों को एक नाम दिया थापंथ के लोग” (प्रेरितों 9:2), और यही संज्ञा उनके साथ इस सारी पुस्तक में जुड़ी हुई है। अर्थात, लोगे देखते, जानते और मानते थे कि मसीही विश्वासी एक विशिष्ट लोगों का समुदाय है, जो सामान्य सांसारिकता और धार्मिक मार्गों से बिलकुल पृथक, एक अन्य ही विशिष्ट मार्ग पर चलते हैं; किन्तु इसमार्गयापंथका कोई अलग से नामकरण नहीं किया गया है, और न ही उस ‘पंथ’ या मार्ग को कोई ‘धर्म’ कहा गया है – न मसीहियों और न ही गैर-मसीहियों के द्वारा। 
  • कुछ समय के बाद में मसीह यीशु के इन्हीं विश्वासियों, इन्हीं शिष्यों को एक अन्य स्थान पर समाज के अन्य लोगों द्वारामसीहीकहा गया “...और ऐसा हुआ कि वे एक वर्ष तक कलीसिया के साथ मिलते और बहुत लोगों को उपदेश देते रहे, और चेले सब से पहिले अन्‍ताकिया ही में मसीही कहलाए” (प्रेरितों 11:26)। ध्यान कीजिए, एक बार फिर यह प्रकट है कि मसीही विश्वासियों को किसी धर्म को मानने वाले नहीं कहा गया, और न ही किसी धर्म के साथ उन्हें जोड़ा गया; साथ ही जो मसीह यीशु के शिष्य थे, वे ही मसीही कहलाए।  

 

            तो इस आरंभिक इतिहास से मसीही मण्डलियों और मसीही विश्वासियों के विषय में हम क्या शिक्षा लेते हैं? सर्वप्रथम - जो सच्चा मसीही विश्वासी होगा, उसमें प्रेरितों 2:42 की चारों आधारभूत बातें विद्यमान होंगी; वह उनके महत्व को समझेगा और मानेगा। दूसरे, मसीह यीशु का शिष्य होना, जीवनपर्यंत और हर परिस्थिति में एक ऐसी गवाही का जीवन जीना है कि समाज के लोग स्वतः ही पहचान जाएं कि प्रभु यीशु के ये अनुयायी अन्य सभी इसे भिन्न हैं, एक विशिष्टमार्गया जीवन शैली के अनुसार रहते और चलते हैं। तीसरे, बाइबल में दी गई परिभाषा के अनुसार मसीही वही है जो प्रभु यीशु मसीह का शिष्य है, न कि किसी धर्म का पालन करने वाला या किन्हीं धार्मिक विधि-विधानों का निर्वाह करने वाला। और यह सामान्य समझ एवं जानकारी की बात है कि कोई भी व्यक्ति किसी का शिष्य बनकर जन्म नहीं लेता है, वरन वयस्क होकर, स्वेच्छा से, जाँच-परख कर, किसी की शिष्यता को ग्रहण करता है, उसकी आज्ञाकारिता  में अपने आप को समर्पित करता है। यही बात मसीही विश्वासी होने पर भी ऐसे ही लागू होती है। जैसा हम पहले के लेखों में विस्तार से देख चुके हैं, बाइबल के अनुसार, कोई भी व्यक्ति, कभी भी किसी परिवार विशेष में जन्म लेने से, या किसी धर्म विशेष के पालन करने से प्रभु यीशु का शिष्य नहीं हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने पापों के लिए पश्चाताप करके, प्रभु यीशु को अपना व्यक्तिगत उद्धारकर्ता स्वीकार करके, और उसकी शिष्यता में अपने आप को स्वेच्छा तथा सच्चे मन से समर्पित करने के द्वारा ही यह संभव होने पाता है; और इसी कोनया जन्मपाना, अर्थात नश्वर सांसारिक स्थिति से निकलकर अविनाशी आत्मिक जीवन में परमेश्वर की संतान बनकर जन्म लेना और प्रवेश करना कहते हैं। 

            कल हम मसीह यीशु में विश्वास करने के अर्थ को समझेंगे, उसका विश्लेषण करेंगे; और फिर उसके पश्चात बाइबल में दिए गए मसीही विश्वासी, या प्रभु यीशु मसीह के शिष्य के गुणों को कुछ विस्तार से देखना आरंभ करेंगे। यदि आपने अभी तक अपने आप को प्रभु यीशु मसीह की शिष्यता में समर्पित नहीं किया है, और आप अभी भी अपने जन्म अथवा संबंधित धर्म तथा उसकी रीतियों के पालन के आधार पर अपने आप को प्रभु का जन समझ रहे हैं, तो उनभक्त यहूदियोंके समान आपको भी अपनी इस गलतफहमी से बाहर निकलकर सच्चाई को स्वीकार करने और उसका पालन करने की आवश्यकता है। आज और अभी आपके पास अपनी अनन्तकाल की स्थिति को सुधारने का अवसर है; प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।  

           

बाइबल पाठ: प्रेरितों 2:21-24, 36-40  

प्रेरितों के काम 2:21 और जो कोई प्रभु का नाम लेगा, वही उद्धार पाएगा।

प्रेरितों के काम 2:22 हे इस्राएलियों, ये बातें सुनो: कि यीशु नासरी एक मनुष्य था जिस का परमेश्वर की ओर से होने का प्रमाण उन सामर्थ्य के कामों और आश्चर्य के कामों और चिन्हों से प्रगट है, जो परमेश्वर ने तुम्हारे बीच उसके द्वारा कर दिखलाए जिसे तुम आप ही जानते हो।

प्रेरितों के काम 2:23 उसी को, जब वह परमेश्वर की ठहराई हुई मनसा और होनहार के ज्ञान के अनुसार पकड़वाया गया, तो तुम ने अधर्मियों के हाथ से उसे क्रूस पर चढ़वा कर मार डाला।

प्रेरितों के काम 2:24 परन्तु उसी को परमेश्वर ने मृत्यु के बन्धनों से छुड़ाकर जिलाया: क्योंकि यह अनहोना था कि वह उसके वश में रहता।

प्रेरितों के काम 2:36 सो अब इस्राएल का सारा घराना निश्चय जान ले कि परमेश्वर ने उसी यीशु को जिसे तुम ने क्रूस पर चढ़ाया, प्रभु भी ठहराया और मसीह भी।

प्रेरितों के काम 2:37 तब सुनने वालों के हृदय छिद गए, और वे पतरस और शेष प्रेरितों से पूछने लगे, कि हे भाइयो, हम क्या करें?

प्रेरितों के काम 2:38 पतरस ने उन से कहा, मन फिराओ, और तुम में से हर एक अपने अपने पापों की क्षमा के लिये यीशु मसीह के नाम से बपतिस्मा ले; तो तुम पवित्र आत्मा का दान पाओगे।

प्रेरितों के काम 2:39 क्योंकि यह प्रतिज्ञा तुम, और तुम्हारी सन्तानों, और उन सब दूर दूर के लोगों के लिये भी है जिन को प्रभु हमारा परमेश्वर अपने पास बुलाएगा।

प्रेरितों के काम 2:40 उसने बहुत ओर बातों में भी गवाही दे देकर समझाया कि अपने आप को इस टेढ़ी जाति से बचाओ।

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • यशायाह 14-16  
  • इफिसियों 5:1-16