संगति रखना - गणित का समीकरण? (4)
पिछले लेख में हमने देखा कि मसीही विश्वास के स्थान पर मसीही या ईसाई धर्म का पालन करने वाले प्रेरितों 2:42 की चारों बातों (वचन की शिक्षा पाना, संगति रखना, प्रभु-भोज में सम्मिलित होना, प्रार्थना करना) को उद्धार या नया जन्म प्राप्त कर लेने के लिए गणित के एक समीकरण के समान, एक रस्म के समान लेते हैं और इनके वास्तविक महत्व को समझने और उसका निर्वाह करने की बजाए इनकी औपचारिकता को पूरा करने के द्वारा समझते हैं कि वे भी नया जन्म या उद्धार पाए हुए हैं। किन्तु बाइबल की शिक्षाओं के अनुसार यह मान्यता रखना गलत धारणा ही है, और यह करना धर्म-कर्म-रस्म के निर्वाह वाले भले जीवन और भले कामों वाले आरंभिक उदाहरण के समान, प्रभु परमेश्वर को स्वीकार्य होने के लिए, बिल्कुल भी उपयोगी नहीं हैं। पिछले लेख में हम प्रेरितों 2:42 की चार में से दो बातों, बाइबल अध्ययन और प्रार्थना के औपचारिक निर्वाह के बारे में देख चुके हैं। आज हम प्रेरितों 2:42 की शेष दो बातों में से एक और, संगति रखने के बारे में कुछ और विस्तार से देखेंगे।
3. संगति रखना: आरंभिक मसीही विश्वासी जिन बातों में प्रेरितों 2:42 के अनुसार ‘लौलीन’ रहते थे, उनमें से एक परस्पर संगति रखना भी था। इसी 42 पद के बाद, पद 44 से 46 में, उस आरंभिक मण्डली में इस संगति रखने के अर्थ को सजीव उदाहरण से बताया गया है। उनके लिए लिखा गया है, “और वे सब विश्वास करने वाले इकट्ठे रहते थे, और उन की सब वस्तुएं साझे की थीं। और वे अपनी अपनी सम्पत्ति और सामान बेच बेचकर जैसी जिस की आवश्यकता होती थी बांट दिया करते थे। और वे प्रति दिन एक मन हो कर मन्दिर में इकट्ठे होते थे, और घर घर रोटी तोड़ते हुए आनन्द और मन की सिधाई से भोजन किया करते थे” (प्रेरितों 2:44-46)। यद्यपि इसके बाद यह बात फिर कभी किसी अन्य मण्डली में न देखने को मिली, और न ही इसका उदाहरण बनाकर कभी कहीं कोई शिक्षा दी गई, न ऐसा करते रहने के लिए कभी कहा गया; किन्तु उन लोगों की संगति एक घनिष्ठ आत्मीयता, परस्पर प्रेम के साथ परिवार के समान रहने की बात थी। मण्डली या चर्च के लोगों का परस्पर संगति रखने का महत्व एक-दूसरे से सीखने, एक-दूसरे की आत्मिक और साँसारिक स्थिति तथा परिस्थितियों से अवगत होने और एक-दूसरे के लिए समय और परिस्थिति के अनुसार सहायक होने, एक-दूसरे के लिए प्रार्थना करने, आदि के लिए तब भी था और आज भी है।
हम पौलुस की पत्रियों से देखते हैं कि वह उन मसीही विश्वासियों के लिए भी प्रभु में आनंदित होता था और प्रार्थनाएँ करता था, जिनसे वह कभी मिला भी नहीं था बस उनके बारे में सुना ही था (कुलुससियों 1:3, 4, 9)। इसी प्रकार से यरूशलेम में स्थित आरंभिक कलीसिया के अगुवों ने जब इस्राएल के क्षेत्र से बाहर अन्य-जातियों के मध्य पौलुस की सेवकाई के बारे में जाना, तो उन्होंने भी उसकी सेवकाई को अपनी सेवकाई के समान स्वीकार किया और उसका अनुमोदन एवं समर्थन किया (गलातियों 2:7-10)। हम परस्पर मेल-मिलाप और आदर के बारे में एक और बहुत महत्वपूर्ण बात भी देखते हैं, पौलुस ने पतरस का उसकी गलती के लिए उसके मुँह पर सामना किया (गलातियों 2:11-14); किन्तु इससे पतरस और पौलुस में विरोध या टकराव अथवा विभाजन उत्पन्न नहीं हुआ, वरन बाद में पतरस अपनी पत्री में पौलुस की और उसके मसीही ज्ञान की सराहना करता है, उसे प्रिय भाई कहकर संबोधित करता है (2 पतरस 3:15-16)। मसीही विश्वासियों की इस व्यावहारिक एक-मनता के सामने आज के मसीहियों की औपचारिक परस्पर संगति और एक-दूसरे की देख-भाल कितनी फीकी और छिछली है, पाखण्ड के समान है।
इन अंत के दिनों के लिए, जिनमें हम रह रहे हैं, परस्पर संगति रखने के संबंध में बाइबल की शिक्षा है “और प्रेम, और भले कामों में उकसाने के लिये एक दूसरे की चिन्ता किया करें। और एक दूसरे के साथ इकट्ठा होना ने छोड़ें, जैसे कि कितनों की रीति है, पर एक दूसरे को समझाते रहें; और ज्यों ज्यों उस दिन को निकट आते देखो, त्यों त्यों और भी अधिक यह किया करो” (इब्रानियों 10:24-25)। किन्तु चर्च अथवा मण्डलियों में आज अपने समूह के अतिरिक्त अन्य समूहों के मसीही लोगों से मिलने, उनसे संगति रखने, उनके साथ प्रार्थना करने अथवा वचन के अध्ययन में सम्मिलित होने को मना किया जाता है, रोका जाता है। आरंभिक मसीही मण्डलियों के लोग परस्पर मिलने और संपर्क रखने तथा जुड़ने के लिए लालायित रहते थे; आज के मसीही एक दूसरे से पृथक रहने और दूरी बनाने के अवसर और तरीके ढूंढते हैं। बस अपनी ही मण्डली अथवा चर्च में इतवार के दिन की एक औपचारिक संगति को ही पर्याप्त और उचित मान तथा बता कर इस संगति रखने बात के निर्वाह को सही और पूर्ण समझ लिया जाता है; गणित के समीकरण के समान, संगति रख ली इसलिए मसीही विश्वासी हैं समझ लिया जाता है।
परमेश्वर के वचन बाइबल की शिक्षाओं में से हम ऐसे ही बड़े लगन के किन्तु गलत मानसिकता के साथ निभाए जाने वाली अन्य बातों, प्रभु भोज में सम्मिलित होना, और बपतिस्मे को, अगले लेखों में देखेंगे। किन्तु यदि आपने अभी तक अपने आप को प्रभु यीशु मसीह की शिष्यता में समर्पित नहीं किया है, और आप अभी भी अपने जन्म अथवा संबंधित धर्म तथा उसकी रीतियों के पालन के आधार पर अपने आप को प्रभु का जन समझ रहे हैं, तो आपको भी अपनी इस गलतफहमी से बाहर निकलकर सच्चाई को स्वीकार करने और उसका पालन करने की आवश्यकता है। आज और अभी आपके पास अपनी अनन्तकाल की स्थिति को सुधारने का अवसर है; प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
यशायाह 30-31
फिलिप्पियों 4
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें