भ्रामक शिक्षाओं के स्वरूप -
पवित्र आत्मा के विषय गलत शिक्षाएं (5) - अन्य-भाषाएं - कुछ और गलत
शिक्षाएं
हम पिछले लेखों से देखते आ रहे हैं कि बालकों के समान
अपरिपक्व मसीही विश्वासियों की एक पहचान यह भी है कि वे बहुत सरलता से भ्रामक
शिक्षाओं द्वारा बहकाए तथा गलत बातों में भटकाए जाते हैं। इन भ्रामक शिक्षाओं को
शैतान और उस के दूत झूठे प्रेरित, धर्म के सेवक, और ज्योतिर्मय स्वर्गदूतों का रूप
धारण कर के बताते और सिखाते हैं (2 कुरिन्थियों 11:13-15)। ये लोग, और उनकी शिक्षाएं, दोनों ही बहुत आकर्षक, रोचक, और ज्ञानवान, यहाँ तक कि
भक्तिपूर्ण और श्रद्धापूर्ण भी प्रतीत हो सकती हैं, किन्तु
साथ ही उनमें अवश्य ही बाइबल की बातों के अतिरिक्त भी बातें डली हुई होती हैं।
जैसा परमेश्वर पवित्र आत्मा ने प्रेरित पौलुस के द्वारा 2
कुरिन्थियों 11:4 में लिखवाया है, “यदि
कोई तुम्हारे पास आकर, किसी दूसरे यीशु को प्रचार करे,
जिस का प्रचार हम ने नहीं किया: या कोई और आत्मा तुम्हें मिले;
जो पहिले न मिला था; या और कोई सुसमाचार
जिसे तुम ने पहिले न माना था, तो तुम्हारा सहना ठीक होता”,
इन भ्रामक शिक्षाओं और गलत उपदेशों के, मुख्यतः
तीन विषय, होते हैं - प्रभु यीशु मसीह, पवित्र आत्मा, और सुसमाचार। साथ ही इस पद में सच्चाई
को पहचानने और शैतान के झूठ से बचने के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण बात भी दी गई है,
कि इन तीनों विषयों के बारे में जो यथार्थ और सत्य हैं, वे सब वचन में पहले से ही बता और लिखवा दिए गए हैं। इसलिए बाइबल से देखने,
जाँचने, तथा वचन के आधार पर शिक्षाओं को परखने
के द्वारा सही और गलत की पहचान करना कठिन नहीं है।
पिछले लेखों में हमने इन गलत शिक्षा देने वाले लोगों
के द्वारा, प्रभु यीशु से
संबंधित सिखाई जाने वाली गलत शिक्षाओं को देखने के बाद, परमेश्वर
पवित्र आत्मा से संबंधित सामान्यतः बताई और सिखाई जाने वाली गलत शिक्षाओं की
वास्तविकता को वचन की बातों से देखना आरंभ किया है। हम देख चुके हैं कि प्रत्येक
सच्चे मसीही विश्वासी के नया जन्म या उद्धार पाते ही, तुरंत
उसके उद्धार पाने के पल से ही परमेश्वर पवित्र आत्मा अपनी संपूर्णता में आकर उसके
अंदर निवास करने लगता है, और उसी में बना रहता है, उसे कभी छोड़ कर नहीं जाता है; और इसी को पवित्र
आत्मा से भरना या पवित्र आत्मा से बपतिस्मा पाना भी कहते हैं। वचन स्पष्ट
है कि पवित्र आत्मा से भरना या उससे बपतिस्मा पाना कोई दूसरा या अतिरिक्त अनुभव
नहीं है, वरन उद्धार के साथ ही सच्चे मसीही विश्वासी में
पवित्र आत्मा का आकर निवास करना ही है। इन गलत शिक्षकों की एक और बहुत प्रचलित और
बल पूर्वक कही जाने वाले बात है “अन्य-भाषाओं” में बोलना, और उन लोगों के द्वारा “अन्य-भाषाओं” को अलौकिक भाषाएं बताना, और परमेश्वर के
वचन के दुरुपयोग के द्वारा इससे संबंधित कई और गलत शिक्षाओं को सिखाना। इसके बारे में भी हम देख चुके हैं कि यह भी एक ऐसी
गलत शिक्षा है जिसका वचन से कोई समर्थन या आधार नहीं है। प्रेरितों 2 अध्याय में जो अन्य भाषाएं बोली गईं,
वे पृथ्वी ही की भाषाएं और उनकी बोलियाँ थीं; कोई
अलौकिक भाषा नहीं। हमने यह भी देखा था कि वचन में इस शिक्षा का भी कोई आधार या
समर्थन नहीं है कि “अन्य-भाषाएं” प्रार्थना
की भाषाएं हैं। इस गलत शिक्षा के साथ जुड़ी हुई इन लोगों की एक और गलत शिक्षा है कि
“अन्य-भाषाएं” बोलना ही पवित्र आत्मा प्राप्त
करने का प्रमाण है, जिसके भी झूठ होने और परमेश्वर के वचन के
दुरुपयोग पर आधारित होने को हमने पिछले लेख में देखा है।
आज हम अन्य-भाषाएं बोलने से संबंधित कुछ अन्य गलत
शिक्षाओं के बारे में देखेंगे। कुछ लोग अपनी इस बात को सही ठहराने के लिए कुछ और भी तर्क देते हैं:
क्या “अन्य भाषा”
बोलना, बोलने का नहीं वरन सुनने का
आश्चर्यकर्म था?
कुछ का कहना है कि प्रेरितों 2:3-11 में आश्चर्यकर्म बोलने का ही नहीं सुनने का भी था। अर्थात, प्रभु के शिष्य तो पृथ्वी के बाहर की
अलौकिक
भाषाएं बोल रहे थे, किन्तु एकत्रित यहूदियों को वह सुन
उनकी अपनी स्थानीय भाषाओं और बोलियों में रहा था।
यदि ऐसा था, तो फिर आज ऐसा क्यों नहीं होता है? आज क्यों सुनने
वालों को केवल कुछ निरर्थक आवाज़ें ही सुनाई
देते हैं? आज जब ये लोग और
उनके अनुयायी बड़े जोर-शोर से अपनी “अन्य-भाषाएं” बोलते हैं तो क्यों लोगों को न तो उनकी अपनी भाषा सुनाई देती है और न ही
कुछ समझ में आता है कि वे कह क्या रहे हैं! औरों को तो क्या, स्वयं बोलने वालों को भी पता नहीं
होता है कि उन्होंने क्या कहा है!
क्या आज की यह “अन्य भाषाएं”
पृथ्वी के किसी भिन्न स्थान की भाषाएं हैं?
कुछ अन्य कहते हैं कि भाषाएं पृथ्वी ही की हैं, किन्तु किसी अन्य अनजाने देश अथवा
स्थान की, जिसे उन बोलने वालों ने कभी नहीं सीखा या जाना,
किन्तु पवित्र आत्मा उन से उन भाषाओं में बुलवाता है। इसे स्वीकार
करने में दो मुख्य समस्याएं हैं: पहली तो यह कि आज जब लोग “अन्य
भाषा” बोलते हैं, तो उनके मुँह के
उच्चारण, आवाजों में न तो किसी भाषा के समान कोई प्रवाह
दिखता है, और न ही कोई शब्द कहे जाने का आभास होता है। वे
थोड़ी सी आवाजों को ही हर बार, हर बात के लिए, हर समय बारंबार दोहराते रहते हैं, जो भाषा होने के
अनुरूप कदापि नहीं है। दूसरी बात, आज के समय में उनका किसी
अन्य स्थान की भाषा बोलने का क्या औचित्य अथवा उपयोग है; वह
भी तब जब बोलने वाले उन परदेश के स्थानों पर न तो जाते हैं और न सेवकाई करते हैं?
किसी को अपनी व्यक्तिगत प्रार्थना या आराधना करने के लिए, किसी अन्य स्थान की भाषा बोलने की क्या आवश्यकता है? यदि व्यक्ति अपनी ही भाषा में प्रार्थना और आराधना नहीं कर सकता है,
तो किसी अन्य भाषा में, जिसे वह नहीं जानता है,
कैसे कर सकेगा; और वह कैसे जानेगा कि उसने
क्या प्रार्थना या आराधना की है, परमेश्वर से क्या मांगा है?
और पवित्र आत्मा उससे किसी अन्य भाषा में प्रार्थना और आराधना क्यों
करवाएगा; ऐसा करने से क्या अतिरिक्त लाभ होगा? यह और भी विचित्र और हास्यास्पद हो जाता है जब यह ध्यान करें कि पृथ्वी के किसी और
स्थान पर उस “अन्य भाषा” को स्वाभाविक रीति से बोलने वाले लोग, इसी प्रकार से, अपनी प्रार्थना और आराधना के लिए किसी और ही भाषा का प्रयोग करते होंगे!
तो जो भाषा उनके अपने लिए प्रभावी नहीं है, वह किसी दूसरे के
लिए प्रभावी कैसे हो सकती है?
क्या अन्य-भाषाएं प्रार्थना करने
के लिए स्वर्गीय, गुप्त, भाषाएं हैं जिससे शैतान और उसके दूत हमारी
प्रार्थनाओं को न समझ सकें, और उनमें बाधाएं न डालने पाएं?
अपनी निरर्थक आवाजों को अन्य-भाषाओं का जायज़ प्रतीत
होने वाला स्वरूप देने के लिए ये लोग एक अन्य तर्क भी देते हैं कि उनकी वे
अन्य-भाषाएं, परमेश्वर द्वारा
दी गई स्वर्गीय और गुप्त भाषाएं हैं जिससे हम जो प्रार्थनाएं इन भाषाओं में करते हैं, उसे शैतान और उसके दूत समझ न सकें, और प्रार्थनाओं
के उत्तर मिलने में बाधाएं न डाल सकें। जो यह तर्क देते हैं, उनके इस तर्क से यह प्रमाणित हो जाता है कि उन्हें बाइबल के सत्य, तथ्य, और इतिहास का कुछ पता नहीं है। उनकी इस बात का
वचन से कोई समर्थन नहीं है। न ही वे यह ध्यान करते हैं कि अय्यूब की पुस्तक के
पहले दो अध्यायों के अनुसार शैतान स्वर्ग में जाकर परमेश्वर के साथ मिलता और
बात-चीत करता रहता है; उसे किसी स्वर्गीय भाषा से कोई अवरोध
नहीं होता है। साथ ही परमेश्वर भी अपने लोगों के बारे में उसके साथ खुलकर बात करता
है, परमेश्वर को भी इसका कोई भय नहीं है कि शैतान यदि उसकी
इच्छा जान लेगा तो कुछ बिगाड़ उत्पन्न करेगा; क्योंकि
परमेश्वर का जन परमेश्वर द्वारा निर्धारित सीमाओं के बाहर परखा ही नहीं जा सकता है
(1 कुरिन्थियों 10:13)। इस गलत शिक्षा
के द्वारा वे इस बात की भी अनदेखी करते हैं कि पाप के कारण स्वर्ग से निकाले और
गिराए जाने तथा शैतान बनने से पहले लूसिफर और उसके दूत, स्वर्ग
में परमेश्वर के साथ रहने वाला प्रधान स्वर्गदूत और उसके साथ के स्वर्गदूत थे।
इसलिए स्वर्ग की कोई भाषा या बात उनसे छिपी नहीं है, स्वर्गीय
भाषा हम मनुष्यों के लिए “गुप्त” हो
सकती है, उनके लिए नहीं।
और न ही यह गलत शिक्षा देने वाले इस बात को कहते समय
यह ध्यान करते हैं कि जब प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों को प्रार्थना करने से संबंधित
शिक्षाएं दीं, तब लोगों को
दिखाने के लिए नहीं वरन एकांत में प्रार्थना करने को कहा, और
प्रार्थना का एक स्वरूप भी दिया (मत्ती 6:5-13); किन्तु कभी
भी प्रभावी प्रार्थना के लिए किसी अन्य-भाषा का प्रयोग करने की कोई बात नहीं कही
या सिखाई। और न ही बाद में नए नियम की पुस्तकों में कहीं ऐसी कोई शिक्षा दी गई कि
प्रभावी प्रार्थनाओं के लिए न समझी जाने वाली “अन्य-भाषा”
में प्रार्थना करनी चाहिए। और यदि प्रार्थनाएं सुन और समझकर शैतान
और उसके दूत उन्हें बाधित कर सकते हैं, तब तो वो परमेश्वर से
अधिक सामर्थी हो गए, जो परमेश्वर की इच्छा और योजना, और उसकी संतानों के लिए परमेश्वर की आशीषों को जब चाहे रोक दें, और परमेश्वर इस विषय में कुछ न करने पाए! यह तथ्य भी उनकी इस बात के
बिलकुल गलत होने को प्रकट कर देता है।
अगले लेख से हम 1 कुरिन्थियों 13-14 अध्याय में दी गई अन्य भाषाएं बोलने से संबंधित कुछ और बहुत महत्वपूर्ण
बातों पर विचार करेंगे। यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो आपके लिए यह जानना और समझना अति-आवश्यक है कि आप परमेश्वर पवित्र आत्मा
से संबंधित इन गलत शिक्षाओं में न पड़ जाएं; न खुद भरमाए जाएं,
और न ही आपके द्वारा कोई और भरमाया जाए। लोगों द्वारा कही जाने वाले
ही नहीं, वरन वचन में लिखी हुई बातों पर भी ध्यान दें,
और लोगों की बातों को वचन की बातों से मिला कर जाँचें और परखें। यदि
आप इन गलत शिक्षाओं में पड़ चुके हैं, तो अभी वचन के अध्ययन
और बात को जाँच-परख कर, सही शिक्षा को, उसी के पालन को अपना लें।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं
किया है, तो अपने अनन्त
जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में
अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके
वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और
सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए
- उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से
प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ
ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस
प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद
करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया,
उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी
उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को
क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और
मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।”
सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा
भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
- गिनती
12-14
- मरकुस 5:21-43
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