काफी समय से इस ब्लॉग के लेखों के अँग्रेज़ी अनुवाद की आवश्यकता अनुभव की जा रही थी। इसी को ध्यान में रखते हुए, अभी समाप्त हुई बपतिस्मे से संबंधित लेखों की शृंखला को साथ ही में अँग्रेज़ी में भी अनुवाद कर के प्रस्तुत किया गया। इसीलिए, आज से अन्य विषयों को उठाने और लेने से पहले, पहले के विषयों के लेखों के अँग्रेज़ी अनुवादों को उनके हिन्दी मूल लेख के साथ फिर से प्रस्तुत किया जा रहा है। यह न केवल नए पाठकों को पुराने लेखों को देखने और पढ़ने का अवसर देगा, वरन अँग्रेज़ी पाठकों को भी पिछले लेखों की बातों और शिक्षाओं से अवगत करवा देगा।
आज से हम परमेश्वर के वचन बाइबल से संबंधित प्रारंभिक लेख और उसके अँग्रेज़ी अनुवाद को देखना आरंभ करेंगे, जो हमें यह जानने और समझने में सहायता करेगा के हम बाइबल को क्यों परमेश्वर का एकमार वचन कहते और मानते हैं। आज का लेख बाइबल और उसकी बातों के बारे में एक परिचय है।
परिचय
सामान्यतः बाइबल को ईसाइयों का धर्म-ग्रन्थ; पश्चिमी सभ्यता से आई हुई पुस्तक समझा जाता है, जो लोगों को पश्चिमी सभ्यता तथा व्यवहार में ले जाती है; और यह मिथ्या आरोप लगा कर व्यर्थ में बाइबल का तथा बाइबल को मानने वालों का विरोध किया जाता है। लेकिन वास्तव में बाइबल किसी धर्म-विशेष अथवा सभ्यता विशेष की पुस्तक नहीं है; और न ही किसी सांसारिक सभ्यता का अनुसरण करने की शिक्षा देती है। बाइबल सृष्टि के सृष्टिकर्ता, इस संसार के प्रत्येक व्यक्ति के रचयिता, इस संपूर्ण जगत के सृजनहार, पालनहार, तारणहार परमेश्वर द्वारा संपूर्ण मानवजाति से उसके असीम, अपरिवर्तनीय, निःस्वार्थ, पवित्र प्रेम की लिखित अभिव्यक्ति है।
बाइबल में परमेश्वर ने अपने आप को, अपने गुणों, अपने चरित्र, अपनी पसंद-नापसन्द को, और समस्त मानवजाति से जो अद्भुत, अवर्णनीय प्रेम परमेश्वर ने रखा है, उसे व्यक्त किया है। यह ऐसा विलक्षण प्रेम है जो परमेश्वर ने मनुष्यों से उनके पाप के दशा में होते हुए भी किया है। बाइबल ही वह एकमात्र ग्रन्थ है जो परमेश्वर के विषय यह बताता है कि वह पापियों से भी प्रेम करता है, उनका नाश नहीं चाहता, वरन उसकी यही लालसा है कि वे अपने पापों से पश्चाताप के साथ उसकी ओर फिरें, और वह उन्हें क्षमा करके अपने साथ अनन्तकाल के लिए अपनी संतान बनाकर जोड़ ले। यह इसलिए संभव है क्योंकि प्रभु यीशु मसीह ने संसार के सभी मनुष्यों के सभी पापों को अपने ऊपर ले लिया, और उनके दण्ड को, क्रूस की मृत्यु को, सभी मनुष्यों के लिए सह लिया। अब, प्रभु यीशु मसीह में सभी मनुष्यों के सभी पापों का दण्ड चुकाया जा चुका है, और किसी भी मनुष्य को अपने पापों की क्षमा को प्राप्त करने के लिए प्रभु यीशु मसीह के इस बलिदान के कार्य को स्वीकार करने के अतिरिक्त और कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है।
केवल बाइबल का परमेश्वर ही वह परमेश्वर है जो मनुष्यों के प्रति अपने प्रेम के कारण स्वर्ग छोड़कर, एक साधारण मनुष्य की समानता में देहधारी होकर प्रभु यीशु मसीह के नाम से पृथ्वी पर आया, जिससे कि मनुष्यों के लिए स्वर्ग जाने का मार्ग तैयार करके उन्हें दे। ऐसा मार्ग जिस मार्ग पर चलने के लिए संसार के किसी भी मनुष्य को परमेश्वर प्रभु यीशु पर और उसके क्रूस पर दिए गए बलिदान के कार्य पर विश्वास करने, स्वेच्छा से अपना जीवन उसे समर्पित करके उसका अनुसरण करना स्वीकार कर लेने के अतिरिक्त और कुछ भी करने की कोई आवश्यकता नहीं है। मनुष्य को परमेश्वर का यह प्रेम, मनुष्य के प्रति परमेश्वर के अनुग्रह से उसे मिलता है; न कि मनुष्य के किसी भी कर्म अथवा उसकी अपनी किसी भी ‘धार्मिकता’ के आधार पर। परमेश्वर का यह प्रेम संसार के प्रत्येक व्यक्ति को, परमेश्वर की ओर से सेंत-मेंत उपलब्ध है। परमेश्वर के इस प्रावधान को स्वीकार अथवा अस्वीकार करना, यह प्रत्येक मनुष्य का अपना व्यक्तिगत निर्णय है।
बाइबल मनुष्यों को पृथ्वी पर की वस्तुओं, संपत्ति, स्थान, वैभव, राज्य या ओहदा प्राप्त करने के लिए नहीं, स्वर्ग में परमेश्वर के साथ निवास करने के लिए तैयार करती है। बाइबल का दृष्टिकोण इस पृथ्वी का नहीं, वरन स्वर्ग का है। बाइबल बारंबार यही सिखाती है कि मनुष्य का यह शरीर और पृथ्वी का समय तथा संपदा अस्थाई हैं, यहीं नाश हो जाएँगी। जो स्थाई और चिरस्थाई है, वह मृत्योपरांत है – स्वर्ग या नरक; जिन में से एक स्थान पर जाने के लिए मनुष्य को अभी यहाँ पृथ्वी पर रहते हुए व्यक्तिगत निर्णय लेना है और उसके अनुसार तैयार होना है। जो पापों के लिए पश्चाताप करके, प्रभु यीशु से पापों की क्षमा प्राप्त करके प्रभु के साथ रहने का निर्णय लेते हैं, वे अपने इस निर्णय लेने के समय से आरम्भ कर के मृत्योपरांत अनन्तकाल तक प्रभु यीशु के साथ स्वर्ग में रहेंगे। जो प्रभु यीशु के इस प्रेम-प्रस्ताव को अस्वीकार कर देते हैं, प्रभु के साथ नहीं रहना चाहते हैं, वे परलोक में अपना अनन्तकाल व्यतीत करने के लिए उनके द्वारा लिए गए व्यक्तिगत निर्णय के अनुसार, मृत्योपरांत उस स्थान पर जाएंगे जहाँ परमेश्वर प्रभु यीशु मसीह नहीं है – नरक में। परमेश्वर ने उन्हें नरक भेजने का निर्णय नहीं लिया है; उन्होंने परमेश्वर से दूर, नरक में रहने का अनिर्णय लिया है, और परमेश्वर उनके द्वारा लिए गए निर्णय का आदर कर रहा है।
बाइबल में परमेश्वर ने मनुष्यों को परस्पर व्यवहार करने, और परमेश्वर के प्रति व्यवहार रखने के बारे में बताया गया है। बाइबल सिखाती है कि मनुष्य पाप के स्वभाव के साथ जन्म लेता है, पाप के स्वभाव के साथ ही पलता और बड़ा होता है, व्यवहार करता है, और पाप कमाता रहता है; और अन्ततः पापों के साथ ही मर जाता है, और उसका यही पाप स्वभाव उसे इस पृथ्वी पर परमेश्वर प्रभु यीशु से दूर रखता है। उसके पाप उसके साथ परलोक में जाते हैं, और उसे अनन्त पीड़ा के स्थान नरक में ले जाते हैं। किन्तु प्रभु यीशु मसीह पर लाया गया विश्वास और पापों से पश्चाताप उसके इस पाप स्वभाव, तथा पापों के दण्ड को हटाकर, प्रभु यीशु के स्वभाव को उसमें डाल देता है, और पापों की क्षमा पाया हुआ वह पापी मनुष्य अंश-अंश करके प्रभु यीशु की समानता में ढलने लगता है, प्रभु यीशु के व्यवहार, चरित्र, गुणों आदि को अपनाने लगता है, प्रभु यीशु की समानता में आने लग जाता है।
बाइबल की शिक्षा के अनुसार, प्रभु यीशु में स्वेच्छा तथा सच्चे समर्पण से लाया गया यह विश्वास मनुष्य के धर्म को नहीं वरन उसके मन को, उसकी पाप करने की प्रवृत्ति को, उसके जीवन को बदलता है। उसे किसी सांसारिक सभ्यता अथवा संस्कृति विशेष का नहीं वरन स्वर्गीय दृष्टिकोण तथा व्यवहार रखने वाला, परमेश्वर की संतान बना देता है। प्रभु यीशु के एक अनुयायी ने कहा है: “या तो पाप आपको बाइबल से दूर रखेगा; अन्यथा, बाइबल आपको पाप से दूर रखेगी।”
परमेश्वर से सच्चे मन से प्रार्थना करें कि वह अपने वचन बाइबल के प्रति आपके मन और समझ को खोले; और इस पापों की क्षमा का मार्ग दिखाने वाले, जीवन बदलने वाले, अनन्त जीवन देने वाले, परमेश्वर की संतान बनाकर स्वर्ग का उत्तराधिकारी बना देने वाले अद्भुत वचन, बाइबल, के अध्ययन की यात्रा में आपको आगे बढ़ाए।
**********************************************************
For a long time the need for English translation of the articles of this blog was being felt. Keeping this in mind, the articles related to the just concluded series on Baptism were translated and presented in English as well. Before taking up and taking up other topics from today, English translations of articles on earlier subjects are being re-presented, along with their original Hindi articles. This will not only give an opportunity to new readers to see and read the previous articles, but will also make English readers current with the lessons and teachings of previous articles.
Starting today, we'll begin to look at the introductory text on the Word of God, and its English translation, which will help us to learn and understand why we consider and believe the Bible to be the only Word of God. Today's article is an introduction to the Bible and what it is about.
Introduction
The Bible, generally speaking, is believed to be the Scripture of Christians. It is commonly understood and taken as a book come from the western civilization, and is falsely accused of being a book that motivates people into norms, practices and life-style of the western civilization. And this false accusation, is often the basis of vainly opposing the Bible and the Bible believers. But in reality, the Bible is not a book of any particular region, religion or civilization; Nor does it teach the following of any worldly civilization. The fact is that The Bible is the written expression of the infinite, unchanging, unselfish, holy love, of the Creator, Sustainer, and Savior of this entire universe, the Creator God, of the Creator of every person in this world, towards all of mankind.
In the Bible, God has expressed Himself, His qualities, His character, His likes and dislikes, and the wonderful, indescribable love God has for all mankind. The wonderful love that God has shown towards mankind even in their state of sinfulness. The Bible is the only book that tells about God that He loves even sinners, does not want them to perish, but longs for them to turn to Him with repentance from their sins, so that He can forgive them and make them His children for eternity. This is possible because the Lord Jesus Christ took upon Himself all the sins of all of mankind, and endured their punishment for everyone, through His the death on the Cross of Calvary. Now, since the Lord Jesus Christ has suffered the punishment and paid the penalty for all the sins of all human beings, therefore, no man needs to do anything other than accept this sacrificial act of the Lord Jesus Christ, and to receive the forgiveness of his sins from Him.
Only the God of the Bible is the God who, because of his love for mankind, left heaven and came to earth in the form of an ordinary man taking the name of the Lord Jesus Christ, so as to prepare the way for mankind to go to heaven and be with Him. He has prepared and provided a way for every person in the world, which requires nothing other than to believe in the Lord Jesus Christ and his work of sacrifice on the Cross, voluntarily submit his life to Him, and accept to follow Him. Everyone who believes in the Lord Jesus receives this love of God solely because of God's grace towards man; not on the basis of any works of man or any of his own 'righteousness'. This love of God is available freely from God to every person in the world. To accept or reject this provision of God is the individual, voluntary decision of each man.
The Bible prepares humans to reside with God in heaven, and not to enrich them with the perishing corrupted, and corrupting things on earth, like property, status, splendor, dominion, or worldly honor. The perspective of the Bible is not of this earth, but of heaven. The Bible teaches over and over again that this time on earth, the human body, and the possessions of the earth are all temporary; they all will perish here. That which is permanent and everlasting is what comes after death – heaven or hell; and everyone will eventually go to one or the other of these two places. In order to go to one of those places, man has to make a personal decision while living here on earth and prepare accordingly. Those who decide to live with the Lord by repenting of their sins, receiving forgiveness of sins from the Lord Jesus, they, starting from the time they made this decision, will start living with the Lord Jesus, and will continue to live with the Lord Jesus in heaven for eternity after their physical death. Those who reject this loving offer of the Lord Jesus, those who do not want to be with the Lord Jesus here on earth, will go to the place where God, the Lord Jesus Christ does not reside - in hell, to spend their eternity; which is according to their personal decision made by them while on earth. It is not God who is sending them to hell; they have decided to stay away from God and be in hell, and God is honoring their decision.
In the Bible, God tells people how to interact with each other, and how to behave toward God in a way acceptable to God. The Bible teaches that man is born with a sin nature, is brought up and grows up with this sin nature, behaves sinfully, and continues to earn the penalties of his sin throughout his life, and eventually dies with sins. It is this sin nature that keeps man away from God, the Lord Jesus, on the earth, as well as after his life on earth is over. His sins accompany him to the hereafter, and take him to hell, a place of eternal torment. But through the faith brought in the Lord Jesus Christ and the repentance of sins, this sin nature, and the punishment of sins, is taken away. It is replaced in him by the nature of the Lord Jesus, and the sinner who has been forgiven of sins, now gradually, bit by bit is transformed into the likeness of the Lord Jesus. He now starts taking on the likeness, behavior, character, qualities etc. of Lord Jesus, and growing in the likeness of Lord Jesus.
According to the teaching of the Bible, this voluntary acceptance of faith and sincere submission to the Lord Jesus does not change anyone's religion; but changes his mind, his tendency to sin, his life of worldliness. It transforms him into a child of God; he no longer is bound by the ideology of any particular worldly region, religion, civilization, or culture; but receives a heavenly attitude and behavior. A follower of the Lord Jesus had once very rightly said about the Bible: “Either sin will keep you away from the Bible; Else, the Bible will keep you away from sin."
Sincerely ask God, pray to Him to open your mind and understanding towards His Word, the Bible; And to lead and guide you in the study of His wonderful, life-changing, eternal life-giving Word, the Bible; clearly showing you the way for the forgiveness of sins, to become a child of God, and a heir to heaven.
Read the Bible in a Year:
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें