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प्रभु यीशु की कलीसिया - परमेश्वर का भवन
प्रभु यीशु की कलीसिया के लिए परमेश्वर के वचन बाइबल के नए नियम खंड में विभिन्न रूपक (metaphors) दिए गए हैं, जैसे कि - प्रभु का परिवार या घराना; परमेश्वर का निवास-स्थान या मन्दिर; परमेश्वर का भवन; परमेश्वर की खेती; प्रभु की देह; प्रभु की दुल्हन; परमेश्वर की दाख की बारी, इत्यादि। इन रूपकों में होकर परमेश्वर पवित्र आत्मा ने प्रभु द्वारा अपनी कलीसिया, अर्थात, अपने सच्चे और समर्पित शिष्यों का धर्मी और पवित्र किए जाना, परमेश्वर के साथ कलीसिया के संबंध, संगति, एवं सहभागिता की बहाली, तथा कलीसिया के लोगों के व्यवहार और जीवनों में परमेश्वर के प्रयोजन, उन से उसकी अपेक्षाएं, आदि को समझाया है। हमने यहाँ पर इन लेखों में रूपकों को किसी निर्धारित अथवा विशेष क्रम में नहीं लिया अथवा रखा है; सभी रूपक समान ही महत्वपूर्ण हैं, सभी में मसीही जीवन से संबंधित कुछ आवश्यक शिक्षाएं हैं।
इन सभी रूपकों में सामान्य बात है कि इनमें से प्रत्येक रूपक, एक सच्चे, समर्पित, आज्ञाकारी मसीही विश्वासी के प्रभु यीशु और पिता परमेश्वर के साथ संबंध को, तथा उसके मसीही जीवन, और दायित्वों के विभिन्न पहलुओं को दिखाता है। साथ ही प्रत्येक रूपक यह भी बिलकुल स्पष्ट और निश्चित कर देता है कि कोई भी व्यक्ति किसी भी प्रकार के किसी भी मानवीय प्रयोजन, कार्य, मान्यता या धारणा के निर्वाह आदि के द्वारा, अपनी अथवा किसी अन्य मनुष्य की ओर से परमेश्वर की कलीसिया का सदस्य बन ही नहीं सकता है; वह चाहे कितने भी और कैसे भी प्रयास क्यों न कर ले। अगर व्यक्ति प्रभु यीशु की कलीसिया का सदस्य होगा, तो वह केवल प्रभु की इच्छा से, उसके माप-दंडों के आधार पर, उसकी स्वीकृति से होगा, अन्यथा कोई चाहे कुछ भी कहता रहे, वह चाहे किसी मानवीय कलीसिया अथवा किसी संस्थागत कलीसिया का सदस्य चाहे हो जाए, किन्तु प्रभु की वास्तविक कलीसिया का सदस्य हो ही नहीं सकता है। और यदि वह अपने आप को प्रभु की कलीसिया का सदस्य समझता या कहता भी है, तो भी प्रभु उसकी वास्तविकता देर-सवेर प्रकट कर देगा, और अन्ततः वह अनन्त विनाश के लिए प्रभु की कलीसिया से पृथक कर दिया जाएगा। इसलिए अपने आप को मसीही विश्वासी कहने वाले प्रत्येक जन के लिए अभी समय और अवसर है कि अभी अपने ‘मसीही विश्वासी’ होने के आधार एवं वास्तविक स्थिति को भली-भांति जाँच-परख कर, उचित कदम उठा ले और प्रभु के साथ अपने संबंध ठीक कर ले। हर व्यक्ति को यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि वह किसी मानवीय कलीसिया अथवा किसी संस्थागत कलीसिया का नहीं, परंतु प्रभु यीशु की वास्तविक कलीसिया का सदस्य है।
पिछले लेखों में हम इस सूची के पहले दो रूपकों को देख चुके हैं। आज हम इस सूची के तीसरे रूपक, परमेश्वर का भवन होने के संबंध में देखेंगे, जो इससे पहले वाले रूपक, परमेश्वर का निवास स्थान या मन्दिर होने से मिलता-जुलता है।
(3) परमेश्वर का भवन
कलीसिया और उसके सदस्यों के परमेश्वर का भवन होने से संबंधित परमेश्वर के वचन बाइबल में से कुछ पदों को देखिए:
“परमेश्वर के उस अनुग्रह के अनुसार, जो मुझे दिया गया, मैं ने बुद्धिमान राज-मिस्री के समान नींव डाली, और दूसरा उस पर रद्दा रखता है; परन्तु हर एक मनुष्य चौकस रहे, कि वह उस पर कैसा रद्दा रखता है। क्योंकि उस नींव को छोड़ जो पड़ी है, और वह यीशु मसीह है कोई दूसरी नींव नहीं डाल सकता” (1 कुरिन्थियों 3:10-11)।
“और प्रेरितों और भविष्यद्वक्ताओं की नींव पर जिसके कोने का पत्थर मसीह यीशु आप ही है, बनाए गए हो। जिस में सारी रचना एक साथ मिलकर प्रभु में एक पवित्र मन्दिर बनती जाती है” (इफिसियों 2:20-21)।
“तुम भी आप जीवते पत्थरों के समान आत्मिक घर बनते जाते हो, जिस से याजकों का पवित्र समाज बन कर, ऐसे आत्मिक बलिदान चढ़ाओ, जो यीशु मसीह के द्वारा परमेश्वर को ग्राह्य हों। इस कारण पवित्र शास्त्र में भी आया है, कि देखो, मैं सिय्योन में कोने के सिरे का चुना हुआ और बहुमूल्य पत्थर धरता हूं: और जो कोई उस पर विश्वास करेगा, वह किसी रीति से लज्जित नहीं होगा। सो तुम्हारे लिये जो विश्वास करते हो, वह तो बहुमूल्य है, पर जो विश्वास नहीं करते उन के लिये जिस पत्थर को राजमिस्त्रीयों ने निकम्मा ठहराया था, वही कोने का सिरा हो गया” (1 पतरस 2:5-7)।
यह एक सामान्य एवं सर्व-विदित तथ्य है कि हर भवन एक नींव पर बनाया जाता है, जो दिखाई तो नहीं देती है किन्तु उस भवन की स्थिरता और स्थापना के लिए सबसे महत्वपूर्ण भाग है। नींव जितनी गहरी और दृढ़ होगी, भवन उतना ऊंचा और स्थिर बनेगा। साथ ही उस नींव का एक अति-महत्वपूर्ण अंश होता है उसके सिरे या कोने का पत्थर; इस पत्थर से ही भवन की दीवारों की सीध और दिशा देखी और नापी जाती है। यदि इस कोने के पत्थर में कुछ भी टेढ़ापन होगा, तो भवन का निर्माण और स्वरूप भी टेढ़ा होगा। नींव और भवन की स्थिरता से संबंधित तीसरी अति-महत्वपूर्ण बात है वह भूमि जिस पर भवन बनाया जा रहा है। यदि भूमि अस्थिर या रेतीली होगी, तो नींव भी अस्थिर रहेगी, और भवन कभी दृढ़ और स्थिर नहीं होगा; किसी परिस्थिति को सहन नहीं कर पाएगा, और विपरीत परिस्थितियों में बहुत शीघ्र ही ढह जाएगा। जब परमेश्वर का प्रथम मन्दिर, सुलैमान द्वारा बनवाया जा रहा था, तो उसकी नींव साधारण पत्थरों से नहीं डाली गई; वरन उसके लिए लिखा है “फिर राजा की आज्ञा से बड़े बड़े अनमोल पत्थर इसलिये खोदकर निकाले गए कि भवन की नेव, गढ़े हुए पत्थरों से डाली जाए” (1 राजाओं 5:17) - बड़े-बड़े और अनमोल पत्थर खोद कर निकाले गए, गढ़कर तैयार किए गए और तब परमेश्वर के मन्दिर की नींव में स्थापित किए गए।
इन बातों को ध्यान में रखते हुए, प्रभु की कलीसिया, जिसे परमेश्वर का भवन कहा गया है, प्रभु की शिक्षाओं रूपी दृढ़ चट्टान (मत्ती 7:24-25) पर तथा परमेश्वर के भविष्यद्वक्ताओं और प्रेरितों में होकर पवित्र आत्मा द्वारा परमेश्वर के वचन में दी गई शिक्षाओं पर स्थापित है (1 कुरिन्थियों 3:10-11; इफिसियों 2:20-21), तथा इस नींव में भवन को सही स्वरूप देने के लिए प्रभु यीशु मसीह स्वयं ही नींव और भवन का कोने का पत्थर है। साथ ही हम 1 कुरिन्थियों 3:10 से यह भी सीखते हैं इस नींव पर भवन बनाने के लिए रद्दा, अर्थात निर्माण के लिए प्रयोग किए जाने वाले पत्थरों की एक के ऊपर दूसरी तह या परत, प्रभु के अन्य सेवक रखते जा रहे हैं। यह भवन अभी निर्माणाधीन है, और भवन जिन पत्थरों से बन रहा है वे जीवते पत्थर, अर्थात मसीही विश्वासी हैं (1 पतरस 2:5)। हम प्रभु की कलीसिया के वर्तमान में निर्माणाधीन होने वाले 28 सितंबर के लेख में 1 राजाओं 6:7 से तथा अन्य संबंधित पदों से इसके बार में विस्तार से देख चुके हैं। परमेश्वर के भवन के बनाने से संबंधित सामग्री में इन विशेषताओं के विद्यमान होने की अनिवार्यताओं को ध्यान में रखते हुए, एक बार फिर से यह बात प्रकट है कि परमेश्वर का भवन केवल प्रभु यीशु के प्रति सच्चे विश्वास, समर्पण, और निष्ठा रखने वालों से ही बनाया जा सकता है, कोई भी मनुष्य या संस्था इसमें अपनी ओर से कुछ नहीं कर सकते हैं। प्रभु की कलीसिया, प्रभु ही बनाता है, वह किसी मनुष्य द्वारा नहीं बनाई जाती है।
भवन बनाने से संबंधित एक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य भी है, जिसका ध्यान रखा जाना चाहिए। हर भवन, अपनी नींव पर ही बनाया जाता है। यदि संपूर्ण नींव का प्रयोग नहीं किया जाएगा, तो भवन अधूरा रहेगा; और यदि नींव के बाहर बिना नींव के कुछ बनाया जाएगा तो वह अस्थिर होगा, और शीघ्र ही ढह भी जाएगा। प्रेरित पौलुस ने अपनी सेवकाई और शिक्षाओं के लिए कहा, “क्योंकि मैं परमेश्वर की सारी मनसा को तुम्हें पूरी रीति से बनाने से न झिझका” (प्रेरितों 20:27); और “हर एक पवित्र शास्त्र परमेश्वर की प्रेरणा से रचा गया है और उपदेश, और समझाने, और सुधारने, और धर्म की शिक्षा के लिये लाभदायक है” (2 तीमुथियुस 3:16)। इसीलिए किसी मनुष्य को परमेश्वर के वचन की बातों में कोई भी काट-छाँट या बढ़ोतरी करना, कड़ाई से मना किया गया है; ऐसा करने वाले के लिए भारी दण्ड रखा गया है (व्यवस्थाविवरण 4:2; 12:32; नीतिवचन 30:6; प्रकाशितवाक्य 22:18-19)। प्रभु हम साधारण मनुष्यों, जगत के उन तिरस्कृत, अयोग्य, और मूर्ख लोगों (1 कुरिन्थियों 1:26-28) को लेकर, उनके द्वारा, जिन्होंने उस पर विश्वास किया, पापों से पश्चाताप करके, उसकी आज्ञाकारिता में चलने और बने रहने के लिए अपना जीवन उसे समर्पित कर दिया है, परमेश्वर के लिए ऐसे याजकों के पवित्र समाज को खड़ा कर रहा है, जो परमेश्वर को स्वीकार्य आत्मिक बलिदान यीशु मसीह में होकर चढ़ाने वाले हों, (1 पतरस 2:5); एक चुना हुआ वंश, व्यवस्था के याजकों से भी उच्च श्रेणी के “राजपद धारी याजकों” का समाज, परमेश्वर की निज प्रजा बना रहा है, जिससे कि हम उसके गुणों को संसार के सामने प्रकट करें (1 पतरस 2:9)। प्रभु की कलीसिया परमेश्वर का ऐसा भवन बनें जो परमेश्वर की भव्यता, महानता और महिमा को प्रकट करे। प्रभु की कलीसिया के सभी लोग साथ मिलकर परमेश्वर का निवास स्थान हों (इफिसियों 2:22)। यह ऐसी ईश्वरीय आशीष और स्वर्गीय आदर है जो कोई भी मनुष्य या मानवीय प्रयोजन कभी किसी मनुष्य को नहीं दे सकता है।
यदि आप मसीही विश्वासी हैं तो, क्या आपका मसीही जीवन, चाल-चलन, और सामाजिक व्यवहार उस नींव की गवाही देता है जिस पर प्रभु ने आपको बनाया है? क्या परमेश्वर के वचन की शिक्षाएं आपके जीवन शैली का आधार हैं? जो प्रभु के द्वारा अपनी कलीसिया में जोड़ा गया होगा, वह प्रभु के समान और प्रभु की आज्ञाकारिता में चलने का भी प्रयत्न करता रहेगा (1 यूहन्ना 2:3-6)। किन्तु जो किसी मत, समुदाय, डिनॉमिनेशन, या संस्था के द्वारा, किसी मानवीय प्रक्रिया के द्वारा कलीसिया में जोड़ा गया होगा, वह उस मानवीय संस्थान की बातों का, उसके अधिकारियों एवं लोगों को प्रसन्न करने के प्रयास करेगा; उसके जीवन में बाइबल की नहीं, उस संस्थान के बातें प्राथमिकता पाएंगी। आपके जीवन में प्राथमिकता किस की है? आप से कौन प्रसन्न रहता है - प्रभु यीशु या कुछ मनुष्य? ध्यान कीजिए पौलुस ने अपनी सेवकाई और प्राथमिकताओं के विषय लिखा, “यदि मैं अब तक मनुष्यों को ही प्रसन्न करता रहता, तो मसीह का दास न होता” (गलातियों 1:10)। यदि आपको अपने प्रभु की कलीसिया का वास्तविक, प्रभु के द्वारा बनाया गया सदस्य होने पर जरा सा भी संदेह है, तो अभी, समय और अवसर रहते, इसे ठीक कर लीजिए। अन्यथा लापरवाही या विलंब बहुत भारी पड़ सकता है और अनन्तकाल के लिए कष्टदायक हो सकता है।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
यशायाह 14-16
इफिसियों 5:1-16
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Biblical Metaphors for the Church – House of God
For the Church of God some metaphors have been given in the New Testament section of the Word of God the Bible, e.g., the family of the Lord; the temple or dwelling place of God; House of God; the Field of the God; The Body of the Lord; the Bride of the Lord; the Vineyard of God, etc. Through these metaphors God the Holy Spirit has shown and explained about the Church of the Lord Jesus Christ, i.e. those who are His truly surrendered and committed people made pure and holy, the relationship of the Lord with His Church, and the restoration of His people to fellowship with God, the life and behavior of the people of the Church, and God’s expectations from them, His work in their lives etc. We are not considering these metaphors in any particular order; all of them are equally important, and every one of them teaches some important thing or the other about Christian life.
Every metaphor shows different aspects of the relationship of a truly surrendered and committed Christian Believer with the Lord Jesus and God, and the related aspects of the Believer’s life and responsibilities. Every metaphor also makes it very clear and evident that no person can become a member of the Lord’s Church through any human works, criteria, notions etc., no matter who he may be or how much he may try to join the Lord’s Church. If anyone joins the Church of the Lord, it will only be according to the will, standards, criteria, and acceptance by the Lord. Other than this anyone may keep saying, doing, and claiming whatever they may; he will never actually be or become a member of the Lord’s Church. Even if he considers himself to be and claims his being a member, sooner or later his actual state will be exposed, and he will be separated out for eternal destruction. Therefore, for everyone who claims himself to be a Christian Believer, now is the time and opportunity to examine and evaluate their relationship with the Lord and its basis, and if there is any doubt, then have it rectified and come into the right relationship with the Lord.
From this list of metaphors, we have considered the first two metaphors in the previous articles. Today we will consider the third metaphor, being the House of God.
(3) The House or Building of God
Consider some verse from the Bible about the Church being the House of God:
“According to the grace of God which was given to me, as a wise master builder I have laid the foundation, and another builds on it. But let each one take heed how he builds on it. For no other foundation can anyone lay than that which is laid, which is Jesus Christ” (1 Corinthians 3:10-11).
“having been built on the foundation of the apostles and prophets, Jesus Christ Himself being the chief corner stone, in whom the whole building, being joined together, grows into a holy temple in the Lord” (Ephesians 2:20-21).
“you also, as living stones, are being built up a spiritual house, a holy priesthood, to offer up spiritual sacrifices acceptable to God through Jesus Christ. Therefore, it is also contained in the Scripture, "Behold, I lay in Zion A chief cornerstone, elect, precious, And he who believes on Him will by no means be put to shame." Therefore, to you who believe, He is precious; but to those who are disobedient, "The stone which the builders rejected Has become the chief cornerstone,"” (1 Peter 2:5-7).
It is a common and well-known fact that every house or building is built on a foundation, which though is not visible, but is the necessary part of the building for its being steady and standing firm. The deeper and stronger the foundation, the higher can the building go, and be durable. An essential part of the foundation of the building is its ‘corner-stone’; it is from this corner-stone that the direction, being straight in lines, and extent of the rest of the foundation and the building is measured and determined. If this ‘corner-stone’ is not straight, if there is any error in it, the building also will not be straight and its appearance will be awkward. The third and very important part about the stability of any building is the soil in which it is being built. If the soil is loose or unsteady, then the building too will never be firm and steady; will not be able to withstand adverse situations, and will collapse very soon. When the first temple of God was being built by Solomon, then its foundation was not laid with ordinary stones; but it is written, “And the king commanded them to quarry large stones, costly stones, and hewn stones, to lay the foundation of the temple” (1 Kings 5:17) - large and precious stones were quarried and taken out, trimmed and prepared for the job, and then they were used to for the foundation of the temple.
Keeping these things in mind, the Church of the Lord Jesus, which has been called the house or building of God, has been built upon the rock of the teachings of the Lord Jesus (Matthew 7:24-25) and has been made firm on the teachings and Word given through the prophets and apostles of the Lord God (1 Corinthians 3:10-11; Ephesians 2:20-21), and the ‘corner-stone’ of the foundation and the building is the Lord Jesus Himself. From 1 Corinthians 3:10 we also learn that the various ministers of God are laying down the layers of the building materials, one on top of the other. This building is still ‘under-construction’ presently, and the stones being used in its construction are ‘living stones’, the Christian Believers (1 Peter 2:5). We have seen in some detail in a previous article of 28th September from 1 Kings 6:7 and other verses about the construction of the Church being ‘under-way’ presently. Bearing in mind the essential features required to be present in those being used to build the Church of the Lord Jesus, it is once again apparent and clear that the building or house of God can only be built through, and by those truly having come to faith in, and actually surrendered and committed to the Lord Jesus; no man or Organization, or Institution has any role in this; they cannot do anything through any of their efforts, whatever be their claims to the contrary. It is only the Lord Jesus who builds His Church, it cannot be nor is built by any human being.
Another very important thing has to be kept in mind while constructing any building or house; every house or building is constructed only on its foundation. If the whole foundation has not been used, then the building cannot be considered complete as per its design; and anything built outside of the foundation will be unstable, and will soon collapse. The apostle Paul said about his teachings and ministry “For I have not shunned to declare to you the whole counsel of God” (Acts 20:27); and “All Scripture is given by inspiration of God, and is profitable for doctrine, for reproof, for correction, for instruction in righteousness” (2 Timothy 3:16). Therefore, it has been strictly forbidden by the Lord God for any person to cut and trim anything from God’s Word or to add anything to it; a very strict and heavy punishment has been stated for those who alter God’s Word, add to it, or subtract from it (Deuteronomy 4:2; 12:32; Proverbs 30:6; Revelation 22:18-19). The Lord has taken the simple people of the world, the rejected, incapable, and foolish of the world (1 Corinthians 1:26-28), those who have repented of their sins, placed their faith in Him, and have surrendered their lives to Him to live in obedience to Him and His Word, and through such He is building up a holy priesthood who will offer spiritual sacrifices acceptable to God through the Lord Jesus Christ (1 Peter 2:5). He is preparing His chosen generation, royal priesthood having a status higher than the priesthood of the OT Law, God’s own people, so that His people can present His characteristics and qualities before the world (1 Peter 2:9); so that the Church of the Lord Jesus Christ will be a ‘house’ or ‘building’ that demonstrates the magnificence, greatness, and glory of God. All the people, collectively, will function as the dwelling place of God (Ephesians 2:22). This is a heavenly blessing and God given honor, that no person or human ingenuity and efforts can ever acquire on their own, or grant to anyone.
If you are a Christian Believer, then does your Christian life, walk and behavior, social living witness etc., for the foundation on which the Lord has built you? Are the teachings of the Word of God the basis of your living and life-style? The person who has been joined by the Lord Jesus in His Church, he will strive to live and behave like the Lord and in obedience to the Lord (1 John 2:3-6). But the one who has been joined by any sect, denomination, group, organization, or institution will do according to that man-made entity; will live and work to please the officials of that entity, not the Lord; in his life instead of the instructions and teachings of the Bible, the instructions and teachings of that entity will have the primary place. In your life, who and what has the primary place? Who remains pleased and happy with you - the Lord Jesus or some human beings? Remember what Paul wrote about his priorities regarding his ministry “For do I now persuade men, or God? Or do I seek to please men? For if I still pleased men, I would not be a bondservant of Christ” (Galatians 1:10). If you are in the slightest of doubts about being a true and actual member of the Church of the Lord Jesus, or about having been made a member not by men and man-made things but by the Lord Jesus, then now, while you have the time and opportunity, rectify this state of affairs; else carelessness, procrastination, or ignoring it can have disastrous and irreversible consequences which will be very painful for eternity.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Isaiah 14-16
Ephesians 5:1-16
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