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प्रभु यीशु द्वारा नियुक्तियों के द्वारा
प्रभु यीशु मसीह की कलीसिया या मण्डली से संबंधित इस अध्ययन में हम देख चुके हैं कि आम धारणा के विपरीत, कलीसिया, या चर्च, या प्रभु की मण्डली कोई भौतिक स्थान अथवा भवन नहीं है। वरन, बाइबल के अनुसार, प्रभु की कलीसिया, प्रभु के प्रति पूर्णतः समर्पित और स्वेच्छा से उसे अपना व्यक्तिगत उद्धारकर्ता स्वीकार करने वाले लोगों का समूह या गुट है। हमने यह भी देखा है कि प्रभु यीशु स्वयं ही अपनी कलीसिया बना रहा है, उसने यह कार्य किसी मनुष्य अथवा संस्था को नहीं सौंपा है, यहाँ तक कि स्वर्गदूतों को भी नहीं सौंपा है। क्योंकि वर्तमान में प्रभु की कलीसिया निर्माणाधीन है, इसलिए अपूर्ण है, उसमें विभिन्न कमियाँ और त्रुटियाँ दिखाई देती हैं। प्रभु अभी कलीसिया को उसका अंतिम पूर्ण स्वरूप देने में कार्यरत है, और अन्ततः कलीसिया प्रभु की दुल्हन के रूप में उसके तेजस्वी और जयवंत स्वरूप में प्रभु के साथ होगी। परमेश्वर के वचन से प्राप्त होने वाले, कलीसिया से संबंधित ये आधार-भूत तथ्य, यह प्रकट और स्पष्ट कर देते हैं कि वास्तविक कलीसिया, अर्थात मसीही विश्वासियों का वह समूह, जो प्रभु के पास उठाई जाएगी तथा अनन्तकाल के लिए प्रभु के साथ रहेगी वह किसी मानवीय अथवा संस्थागत रीति-रिवाज़ों, नियमों, परंपराओं, या धारणाओं द्वारा न तो बनी है और न प्रभु को स्वीकार्य है। प्रभु यीशु केवल अपनी बनाई हुई कलीसिया को अपने साथ लेगा और रखेगा, और शेष सभी, जो प्रभु यीशु के साथ उसके द्वारा नहीं जोड़े गए हैं, वे अनन्त विनाश के लिए पीछे रह जाएंगे। उन पीछे रह जाने वाले लोगों की धारणाएं और मान्यताएं चाहे कुछ भी रही हों।
प्रभु के द्वारा उसकी कलीसिया में जोड़े जाने वाले लोगों का यह समूह या गुट किसी मत या डिनॉमिनेशन के विधि-विधानों, परंपराओं, और नियमों का पालन नहीं करता है। वरन, परमेश्वर पवित्र आत्मा की अगुवाई में, प्रभु की कलीसिया प्रभु यीशु और उसके वचन की आज्ञाकारिता में जीवन व्यतीत करती है, प्रभु के लिए कार्यकारी रहती है। कलीसिया में विभिन्न दायित्वों और कार्यों के निर्वाह के लिए, प्रत्येक मसीही विश्वासी को परमेश्वर पवित्र आत्मा के द्वारा कुछ आत्मिक वरदान भी दिए गए हैं, जिनके बारे में हम पवित्र आत्मा की भूमिका से संबंधित पहले के लेखों में देख चुके हैं। कलीसिया से संबंधित बाइबल के इन तथ्यों से हम प्रभु की कलीसिया के विषय एक और आधार-भूत बात भी सीखते हैं - अभी, इस पृथ्वी पर प्रभु की कलीसिया अचल (static) नहीं वरन गतिमान (dynamic) है। अभी उसमें लोग जोड़े जा रहे हैं, शैतान द्वारा घुसाए गए लोगों की पहचान दिखाकर उन्हें पृथक किया जा रहा है, प्रभु अपनी कलीसिया को अपने “वचन के जल के स्नान से” पवित्र, निर्दोष, बेदाग़, बेझुर्री बना रहा है (इफिसियों 5:26-27)। प्रभु की कलीसिया में यह कार्य किए जाने के लिए प्रभु ने कुछ लोगों को नियुक्त किया है: “और उसने कुछ को प्रेरित नियुक्त करके, और कुछ को भविष्यद्वक्ता नियुक्त कर के, और कुछ को सुसमाचार सुनाने वाले नियुक्त कर के, और कुछ को रखवाले और उपदेशक नियुक्त कर के दे दिया। जिस से पवित्र लोग सिद्ध हों जाएं, और सेवा का काम किया जाए, और मसीह की देह उन्नति पाए। जब तक कि हम सब के सब विश्वास, और परमेश्वर के पुत्र की पहचान में एक न हो जाएं, और एक सिद्ध मनुष्य न बन जाएं और मसीह के पूरे डील डौल तक न बढ़ जाएं। ताकि हम आगे को बालक न रहें, जो मनुष्यों की ठग-विद्या और चतुराई से उन के भ्रम की युक्तियों की, और उपदेश की, हर एक बयार से उछाले, और इधर-उधर घुमाए जाते हों। वरन प्रेम में सच्चाई से चलते हुए, सब बातों में उस में जो सिर है, अर्थात मसीह में बढ़ते जाएं। जिस से सारी देह हर एक जोड़ की सहायता से एक साथ मिलकर, और एक साथ गठकर उस प्रभाव के अनुसार जो हर एक भाग के परिमाण से उस में होता है, अपने आप को बढ़ाती है, कि वह प्रेम में उन्नति करती जाए” (इफिसियों 4:11-16)।
बाइबल के उपरोक्त खण्ड (इफिसियों 4:11-16) के संदर्भ को यदि उसके पहले के पदों (इफिसियों 4:7-10) के साथ देखें, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि कलीसिया में इन कार्यकर्ताओं को नियुक्त करने वाला प्रभु यीशु ही है (4:7); जो प्रभु के द्वारा मत्ती 16:18 में कही गई बात, “मैं अपनी कलीसिया बनाऊँगा” की पुष्टि है। परमेश्वर पवित्र आत्मा ने इफिसियों 4:11-16 में पाँच भिन्न कार्य और कार्यकर्ताओं का उल्लेख है - प्रेरित, भविष्यद्वक्ता, सुसमाचार प्रचारक, रखवाले, और उपदेशक। अर्थात, प्रभु की प्रत्येक स्थानीय कलीसिया में, जो प्रभु के विश्व-व्यापी कलीसिया का एक अंश है, कलीसिया की उन्नति के लिए प्रभु इन सेवकाइयों को चाहता है, और उनके निर्वाह के लिए उपयुक्त लोगों को खड़ा करता है। ये लोग न तो किसी स्थानीय कलीसिया के सदस्यों द्वारा “चुने” या “नियुक्त” किए जाते हैं; और न ही स्वयं अपनी इच्छा के अनुसार इस दायित्व को उठाते हैं। कलीसिया के निर्माण से संबंधित लेख में, हम ने 1 राजाओं 6:7 में सुलैमान द्वारा बनवाए जा रहे मंदिर से देखा था कि मंदिर का प्रत्येक पत्थर पहले अपने स्थान के लिए काट-तराश कर तैयार किया जाता था, और फिर मंदिर में लाकर उसे उसके निर्धारित स्थान पर लगा दिया जाता था। इसी प्रकार से प्रभु की कलीसिया में कार्य करने के लिए भी प्रभु ही उपयुक्त लोगों को निर्धारित करता है और उन्हें कलीसिया में उनके कार्य के लिए प्रत्यक्ष करता है। यह तथ्य हमें कलीसिया के प्रभु के होने या न होने के विषय पहचान करने का भी एक तरीका देती है - प्रभु की कलीसिया में, प्रभु द्वारा उस की कलीसिया की उन्नति के लिए, ये पाँचों प्रकार की सेवकाइयों को करने वाले लोग मिलेंगे। जो प्रभु की कलीसिया नहीं है, उसमें यह गुण नहीं देखा जाएगा, वरन उस कलीसिया में किसी “चुने गए” अथवा मनुष्य द्वारा नियुक्त व्यक्ति में कलीसिया के संचालन के लिए अधिकार और नियंत्रण देखने को मिलेगा। हम आते कुछ लेखों में इन सेवकाइयों के विषय और इफिसियों 4:11-16 में कलीसिया की उन्नति से संबंधित लिखी बातों को कुछ और विस्तार से देखेंगे।
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो गंभीरता से जाँच परख कर देख लें कि आप अपने आप को जिस कलीसिया का अंग या सदस्य मानते हैं वह प्रभु की कलीसिया है भी या नहीं; और यह भी कि आप प्रभु द्वारा उसकी कलीसिया में जोड़े गए हैं कि नहीं, या किसी मत अथवा डिनॉमिनेशन के विधि-विधानों, परंपराओं, और नियमों के पालन के द्वारा अपने आप को प्रभु की कलीसिया का सदस्य समझ रहे हैं। कहीं ऐसा न हो कि जब तक वास्तविकता के प्रति सचेत हों, तब तक बहुत देर हो जाए, और बात को ठीक करने का अवसर हाथ से निकल जाए।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
यशायाह 56-58
2 थिस्सलुनीकियों 2
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Through the Appointments Done by the Lord
In this study about the Church, or, the Assembly of Christ Jesus, we have seen that contrary to popular notion and belief, the Church or Assembly is not a physical place, or location, or a building. Rather, Biblically speaking, the Church of the Lord Jesus is the group of people, from all over the world, who individually have accepted the Lord Jesus as their personal savior by faith, and have fully surrendered their lives to Him. We have also seen that it is the Lord Jesus who Himself is building His Church, He has not left this work in the hands of any man, or institution; not even the angels. Since the Church is presently still “Under-Construction”, therefore it is incomplete, imperfect, and various short-comings are felt or seen in it. The Lord is still working to give it the final form and appearance, and eventually, the Church Victorious will be with the Lord as His Bride, glorious and holy, without spot or wrinkle. These facts from the Bible about the Church make it very clear that the actual Church, which will be caught up to be with the Lord, i.e., the group of Born-Again Believers who will be forever with the Lord, cannot be made up of people joined to a “church” by other men or some institution, through fulfilling any rites, rituals, and ceremonies, or built on some man-made concepts and notions; neither will any such contrived “church” ever be acceptable to the Lord. The Lord Jesus will only keep His Church that He has built and made ready; every other so-called “church” not built and made ready by the Lord, will at the end, be left behind to face God’s judgement - no matter what concepts and notions they may have been built upon, and believe in or follow.
This group of people, joined to the Lord’s Church, do not live by and follow the rules and regulations, the doctrines and teachings of any sect, group, or denomination. Instead, under the guidance of God the Holy Spirit, the Church of the Lord Jesus lives in obedience to the Lord and His Word, and while on earth, is actively engaged in the work entrusted to it by the Lord. To fulfill the various responsibilities in the Church, every Christian Believer has been given some Spiritual gift, and we have already seen about them in the earlier articles related to the working of the Holy Spirit. From these facts about the Church of the Lord Jesus, we also learn another very fundamental thing - presently, while on earth, the Church of the Lord Jesus is not static, but is dynamic. People are being added to it, the people Satan has infiltrated into the Church are being exposed and separated out, the Lord is cleaning His Church “with the washing of water by the word” and making it pure, holy, without spot or wrinkle (Ephesians 5:26-27).
The Lord has appointed some people in His Church to do this work: “And He Himself gave some to be apostles, some prophets, some evangelists, and some pastors and teachers, for the equipping of the saints for the work of ministry, for the edifying of the body of Christ, till we all come to the unity of the faith and of the knowledge of the Son of God, to a perfect man, to the measure of the stature of the fullness of Christ; that we should no longer be children, tossed to and fro and carried about with every wind of doctrine, by the trickery of men, in the cunning craftiness of deceitful plotting, but, speaking the truth in love, may grow up in all things into Him who is the head--Christ--from whom the whole body, joined and knit together by what every joint supplies, according to the effective working by which every part does its share, causes growth of the body for the edifying of itself in love” (Ephesians 4:11-16). When we see this passage along with the preceding verses, i.e., Ephesians 4:7-10, it becomes clear that these appointments of workers are made by the Lord Jesus Himself (Ephesians 4:7); which is an affirmation of what the Lord said in Matthew 16:18 “I will build My church.”
God the Holy Spirit has mentioned five different ministries and workers to fulfill the responsibilities given in Ephesians 4:11-16; they are, Apostles, Prophets, Evangelists, Pastors, and Teachers. The implication is that in every local Church, which is a part of the Universal Church of the Lord Jesus, for its growth and edification the Lord desires the ministries of these five kinds, and raises up appropriate people to fulfill them. These people are neither “elected” not “appointed” in any manner by the other members of the local Church; nor do they take these responsibilities upon themselves. In the article related to the building of the Church, we had seen from 1Kings 6:7, from the example of God’s Temple being built by King Solomon, that every stone for building the Temple was cut, trimmed, and prepared for its assigned place in the Temple outside the Temple; once it was ready, it was brought and fit into its place. Similarly, the Lord too prepares and makes ready the people for fulfilling His will in His Church and appoints them to their place, makes them evident to others for their responsibilities. This fact gives us another way of identifying whether or not a Church is the Church of the Lord Jesus - in the Church of the Lord Jesus, for its edification and growth these five kinds of ministries and people to carry them out will be seen. The Church that is not factually the Church of the Lord Jesus Christ, will not exhibit this characteristic, these ministries; rather, there will be a concentration of power and controlling of the church by “elected” or some man-appointed person. In the coming articles we will see more about these ministries and other things given in Ephesians 4:11-16 for the growth and edification of the Church.
If you are a Christian Believer, then seriously and carefully examine and evaluate yourself to ascertain that the “church” you are a member of, is it actually the Church of the Lord Jesus or not; and also, whether or not you have been joined by the Lord into His Church? Or, is it that by being joined to some sect, group, or denomination, through some man-made rules, regulations, and rituals, you are thinking that you are joined to and part of the Lord’s Church; and eventually, when the truth becomes apparent, it will be too late to do anything about it, and you suffer a great, eternal loss.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Isaiah 56-58
2 Thessalonians 2
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