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निर्गमन 12:8-10 (1) - प्रभु की मेज़ - कीमत चुकाने को तैयार हों तब ही भाग लें
प्रभु भोज, या, प्रभु की मेज़ के हमारे इस अध्ययन में हमने देखा है कि प्रभु यीशु ने इसे अपने शिष्यों के साथ फसह का भोज खाते समय स्थापित किया था, उन्हें धोखा देकर पकड़वाए जाने, पकड़ कर क्रूस पर चढ़ाने के लिए ले जाए जाने से थोड़ा सा समय पहले। फसह, जिसका वर्णन निर्गमन 12 में, तथा परमेश्वर द्वारा मूसा में होकर दी गई व्यवस्था में दिया गया है, प्रभु भोज का प्ररूप है, और प्रभु की मेज़ में भाग लेने के संबंध में हमें बहुत सी बातें सिखाता है, क्योंकि प्रभु यीशु ने फसह के भोज की सामग्री में से लेकर ही उनके द्वारा इस मेज़ को स्थापित किया। पुराने नियम में परमेश्वर द्वारा दिए गए निर्देश, तब से लेकर आज तक वैसे ही और उतने ही सत्य एवं लागू रहें हैं, जितने तब थे जब परमेश्वर ने उन्हें निर्गमन 12 में दिया था। हम देख चुके हैं कि जिस प्रकार से फसह में भाग लेना परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिये था, न कि फसह में भाग लेने से वे परमेश्वर के लोग बन जाते थे; उसी प्रकार से प्रभु की मेज़ में भाग लेना परमेश्वर के नया जन्म पाए हुए बच्चों (यूहन्ना 1:12-13) के लिए है, न कि मेज़ में भाग लेने से वे परमेश्वर की संतान बनते हैं। शैतान यह, तथा अनेकों अन्य गलत धारणाएं, गलत शिक्षाएं, और मिथ्या सिद्धांत मसीहियत में घुसाने पाया है क्योंकि लोग परमेश्वर के वचन के प्रति उदासीन हो गए हैं, व्यक्तिगत बाइबल अध्ययन करने तथा परमेश्वर के निर्देशों का पालन करने के लिए उन्हें सीखने के प्रति बेपरवाह हैं। अधिकांश के लिए, शैतान की कुटिलता और बहकाने वाले षड्यंत्रों के कारण, मसीहियत, उसकी स्थापना के समय के जी कर दिखाए जाने वाले विश्वास के पंथ या मार्ग (प्रेरितों 9:2; 16:17; 18:26; 19:9, 23; 22:4; 24:14, 22) की बजाए, संसार के अन्य धर्मों के समान ही एक और धर्म बन कर रह गया है, जिसमें इस धर्म की अपनी ही रीतियाँ, रिवाज, अनुष्ठान, परम्पराएं, और त्यौहार हैं। इसलिए शैतान द्वारा गहराई से घुसा दी गई और फैला दी गई शिक्षाओं के प्रभावों के कारण लोग मनुष्यों के द्वारा बनाए और सिखाए गए इन व्यर्थ, महत्वहीन, धार्मिक क्रिया-कर्मों और अनुष्ठानों का निर्वाह करने से ही प्रसन्न और संतुष्ट हैं, शैतान के इस धोखे, इस गलत धारणा पर विश्वास करते हुए कि यह सब करने से परमेश्वर की दृष्टि में सही और स्वर्ग में प्रवेश के योग्य हो जाते हैं। क्योंकि शायद ही कभी कोई, परमेश्वर के वचन से उन शिक्षाओं को जो उन्हें पुल्पिट से दी जाती हैं, जाँचता है, उनकी पुष्टि करता है, इसलिए शैतान बड़ी सरलता से अपने गलत शिक्षाओं को घुसाने और बड़ी गहराई से बैठाने पाया है। उसकी यह पकड़ इतनी दृढ़ हो गई है कि लोग उसके द्वारा भ्रष्ट किए गए परमेश्वर के वचन को सत्य स्वीकार करके मानने के लिए तो तैयार रहते हैं, किन्तु परमेश्वर के वचन को पढ़कर उसे मानने और अपने आप को सुधारने के बारे में उनमें दुविधा और संदेह रहते हैं। आज लोग परमेश्वर के निर्देशों को जानने और मानने और उसे प्रसन्न करने के बजाए, अपने धार्मिक अगुवों की बातों को मानने और उन्हें प्रसन्न रखने में अधिक विश्वास रखते हैं। इसीलिए प्रभु की मेज़ और परमेश्वर के अन्य निर्देशों के बारे में ये गलत धारणाएं और विभिन्न गलतियाँ घर कर गई हैं।
पिछले लेख में हमें निर्गमन 12:7 से बलि किए गए मेमने के लहू के बारे में देखा था। जिस प्रकार से बलि किए हुए मेमने के लहू की अधीनता में आने के द्वारा इस्राएली बचाए गए थे, उसी प्रकार से प्रभु यीशु मसीह के लहू की अधीनता में आने और उसे समर्पित हो जाने के द्वारा लोग पापों से और पापों के लिए परमेश्वर के न्याय से बचाए जाते हैं। अगले खण्ड, निर्गमन 12:8-10 से हम बलि किए हुए मेमने की देह के बारे में देखेंगे, और यह भी देखेंगे कि यह क्रूस पर प्रभु यीशु के बलिदान के साथ कैसे मेल खाता है। इस खण्ड में बहुत से प्रतीक और चिह्न हैं, इसलिए हम इस खण्ड और उसके इन प्रतीकों और चिह्नों को एक से अधिक लेखों में देखेंगे। आज हम इस्राएलियों के जल्दी में मिस्र से निकलने के बारे में देखेंगे।
परमेश्वर ने इस्राएलियों से कहा था कि वे बहुत अल्प-सूचना समय में मिस्र से निकलने के लिए तैयार रहें, रात्रि ही में, क्योंकि पहिलौठों की मृत्यु के बाद फिरौन और मिस्री लोग उन्हें बल देकर मिस्र से निकल जाने के लिए कहेंगे (निर्गमन 11)। इसलिए, उन्हें अपने आप को और अपने सामान को मिस्र में से प्रस्थान के लिए तैयार रखना था। इसीलिए उन्हें जल्दबाज़ी में खाए गए थोड़े से भोजन के लिए तैयार रहना था, जिसमें अखमीरी रोटी हो, क्योंकि रोटी के पकाए जाने से पहले आटे को खमीरा करके उसके फूलने तक की प्रतीक्षा का समय नहीं था। खमीरे आटे से बनी रोटी नरम और फूली हुई, तथा स्वाद में अच्छी होती थी; अखमीरे आटे से बनी रोटी कड़ी और बिना फूली हुई होती थी। फसह के मेमने को, उसके बलि किए जाने के बाद सीधे आग पर रखकर संपूर्ण भूना जाना था (निर्गमन 12:9)। उसे काटने, साफ करने और स्वादिष्ट बनाने के लिए किसी बर्तन में अन्य पदार्थों के साथ पकाने की, जैसा कि सामान्यतः माँस को पकाने के लिए किया जाता है, अनुमति नहीं थी। सबके द्वारा भोजन खा लिए जाने के बाद यदि कुछ भोजन बचता, तो उसे जलाया जाना था, पीछे कुछ भी नहीं छूटना था (निर्गमन 12:10)।
पूरा विवरण एक शीघ्रता का आभास देता है, कि बस पल भर की सूचना के साथ उठकर निकलना होगा, परमेश्वर द्वारा उन्हें दण्ड देने के बाद जैसे ही फिरौन और मिस्र के लोग उन्हें जाने के लिए कहें। चिह्न के रूप में यह नया जन्म पाए हुए मसीही विश्वासियों द्वारा अपने आप को परदेशी और यात्री जानकर हमेशा ही संसार से निकल कर अपने स्थाई घर स्वर्ग जाने के लिए तैयार रहने को दिखाता है, जैसा पवित्र आत्मा के अगुवाई में पतरस ने लिखा है (1 पतरस 2:11)। पतरस द्वारा लिखी यह आयत यह भी कहती है कि प्रभु के शिष्यों को शारीरिक लालसाओं से, जो आत्मा के विरुद्ध लड़ती हैं, बचकर रहना चाहिए, जैसे कि इस्राएलियों को अधिक स्वादिष्ट और नरम खमीरी रोटी तथा सामान्य रीति के अनुसार पके गए स्वादिष्ट माँस की बजाए अखमीरी रोटी और आग पर भुने हुए माँस से, जिसमें स्वाद के लिए कुछ भी नहीं मिलाया गया है, संतुष्ट रहना था, और उसे शीघ्रता से खाना था।
खमीर, जो बाइबल में पाप और सांसारिकता का प्रतीक है, के प्रयोग की मनाही भी इस बात का प्रतीक है कि प्रभु के लोगों को, जो पाप की बंधुवाई से निकलकर कूच कर जाने के लिए तत्पर और तैयार हैं उन्हें अपने जीवनों में भ्रष्ट संसार तथा पाप को आने नहीं देना है। जैसा कि हम आगे के लेखों में देखेंगे, प्रभु की मेज़ का एक उद्देश्य यह भी है कि परमेश्वर की संतान को अपने जीवन को जाँचने का अवसर एवं प्रोत्साहन मिले, जिससे वह देख सके कि उसके जीवन में कोई पाप या भ्रष्ट संसार की बात तो नहीं आ गई है, आई हुए बात को प्रभु के सामने मान ले जिससे कि फैलने और बिगाड़ करने से पहले ही “खमीर” को जीवन से निकाला जा सके।
अपने भोजन में स्वाद बढ़ाने वाली कोई भी वस्तु मिलाने के स्थान पर, उन्हें अपने भोजन को कड़वे साग-पात के साथ खाना था - आग पर भुना हुआ निःस्वाद माँस, कड़ी खमीरी रोटी, जिसे कड़वे साग-पात के साथ शीघ्रता से खाना था - परमेश्वर की आज्ञाकारिता में यह करने के लिए इस्राएलियों को बड़े दृढ़ निर्णय और कठिन समय का सामना करने के लिए तैयार होना था। एक नया जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी को मसीह में अपने विश्वास तथा प्रभु यीशु के लिए कठिनाइयों और दुखों का सामना करने के लिए (फिलिप्पियों 1:29; 2 तिमुथियुस 3:12) तैयार रहना चाहिए, तथा संसार की उन बातों से बचकर, उनसे दूर रहना चाहिए जो उसके जीवन को आरामदेह तो बना सकती हैं किन्तु उसके लिए संसार के साथ समझौता करना पड़ता है। विश्वासी को ऐसी सभी बातों के व्यर्थ और महत्वहीन होने को पहचान कर उनका तिरस्कार करना है, यह जानते और समझते हुए कि ये सभी नाशमान हैं, कोई आशीष नहीं, केवल बिगाड़ ही लाएंगी (1 यूहन्ना 2:15-17; याकूब 4:3-4)।
प्रभु परमेश्वर ने इस्राएलियों को यह नहीं बताया था कि वह कब मिस्र पर से होकर जाएगा, और उन्हें मिस्र से छुटकारा दिलाएगा; उन्हें बस इतना पता था कि यह इसी रात में होगा, और उन्हें इसके लिए तैयार और जागते रहना था, ताकि जैसे ही यह घटना घटे वे कूच कर जाने के लिए तैयार पाए जाएं। प्रभु परमेश्वर ने अपने कहे को मध्य-रात्रि में किया, और उसके तुरंत बाद मिस्रियों ने इस्राएलियों से निकल जाने के लिए कहा (निर्गमन 12:29-33)। प्रभु यीशु ने वायदा किया है कि वह अपने लोगों को लेने के लिए आएगा, ताकि वे उसके साथ रहें (निर्गमन 14:3), किन्तु यह नहीं बताया है कि वह कब आएगा। लेकिन उसने उसके आगमन के कुछ चिह्न दिए हैं, उसके आने से पहले संसार में होने वाली बातें बताई हैं (मत्ती 24)। संक्षेप में, प्रभु के द्वारा दिए गए चिह्न हैं, कि सारे संसार भर में शैतान की सामर्थ्य और पाप की भरपूरी होगी, प्रकृति में बिगाड़ आ जाएगा, शान्ति जाती रहेगी, परमेश्वर के लोग भारी सताव में पड़ेंगे और परखे जाएंगे, और प्रभु यीशु तथा मसीही विश्वास के बारे में बहुत सारी गलत शिक्षाएं और सिद्धांत फैला दिए जाएंगे - और यह सब हमारे सामने आज हो रहा है। संसार भर में फैले पाप और शैतान की शक्तियों के गहन अंधकार के समय में, अचानक ही कूच करने की पुकार होगी, और जो प्रभु के आगमन के लिए तैयार होंगे वो प्रभु के साथ जाने के लिए उठा लिए जाएंगे। परमेश्वर की संतानों को इन बातों के लिए सचेत, तैयार, और प्रार्थना में लगे रहना चाहिए; न कि सोते हुए या सँसार की बातों में या जीवन की चिंताओं में फंसे होना चाहिए (लूका 21:34; पद 31-36 देखिए)।
जिस प्रकार से इस्राएलियों को अपने आप को तैयार करना था, तैयार रहना था, और फसह के भोज में तैयारी के साथ भाग लेना था; उसी प्रकार से जो प्रभु भोज या प्रभु की मेज़ में भाग लेते हैं, उन्हें भी अपने आप को संसार से, उसके आराम तथा विलासिता से पृथक करना है; उन्हें प्रभु की आज्ञाकारिता में संसार से कठिनाइयों और दुखों को लेने के लिए तैयार रहना चाहिए। उन्हें अपने जीवन में कभी भी “खमीर”, अर्थात पाप और सांसारिकता को आने नहीं देना चाहिए, न ही बने रहने देना चाहिए; उन्हें अपने जीवनों को परमेश्वर के सम्मुख, उसके वचन के माध्यम से जाँचते रहना चाहिए कि कहीं कोई भ्रष्ट करने वाले प्रभाव तो घुस नहीं आए हैं, और यदि घुस आए हैं, तो उन्हें प्रभु की सहायता से निकाल देना चाहिए। उन्हें वह लोग होना चाहिए जो अपने मसीही विश्वास के लिए, संसार में पाप के बढ़ते हुए अंधकार के इस समय में, सताए जाने और घोर दुख उठाने के लिये हों, और प्रभु के लिए दृढ़ खड़े रहें। लूका 21:36 से हम देखते हैं कि प्रभु की मेज़ में भाग लेने वालों को ऐसे लोग होना चाहिए जो पल भर की सूचना पर संसार से कूच करने, और प्रभु के सामने खड़े होने के लिए तैयार रहना चाहिए। जब वे इसकी प्रतीक्षा कर रहे हों, तब अपना समय संसार और सांसारिकता के साथ नहीं, किन्तु प्रार्थना, अर्थात परमेश्वर के साथ वार्तालाप और सहभागिता, करते हुए बिताना चाहिए।
ये सभी बातें स्पष्ट दिखाती हैं कि प्रभु भोज में भाग लेना उनके लिए नहीं है जो इसे एक धार्मिक रीति या औपचारिकता के समान लेते हैं, किन्तु उनके लिए है जिन्होंने स्वेच्छा से प्रभु के योग्य जीवन बिताने उसकी आज्ञाकारिता में चलने का निर्णय लिया है, और इसके लिए कीमत चुकाने के लिए भी तैयार है। अगले लेख में हम निर्गमन 12 में से यहीं से आगे देखेंगे। यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, और प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहे हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में पापों से छुड़ाए गए हैं कि नहीं? क्या आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है कि नहीं? तथा क्या आप प्रभु में एक नई सृष्टि बन गए हैं कि नहीं? क्या आप कलीसिया में विभाजनों और गुटों में बांटने में नहीं किन्तु एकता के साथ रहने में प्रयासरत रहते हैं कि नहीं? तथा क्या आप प्रभु की मेज़ में उसी प्रकार से भाग ले रहे हैं जैसे परमेश्वर ने निर्देश दिये हैं, प्रभु के प्रति पूर्ण समर्पण और प्रतिबद्धता के साथ, बड़ी गंभीरता से मेज़ के महत्व पर मनन करते हुए; या फिर आप किसी डिनॉमिनेशन की परंपरा अथवा किसी के मनमाने विचारों के अनुसार भाग ले रहे हैं? अपने आप को जांच कर देखें कि क्या आप प्रभु के सामने खड़े होकर अपने जीवन का हिसाब देने के लिए तैयार हैं कि नहीं? आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा निरंतर परिपक्वता में बढ़ते जाएं। साथ ही सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
दानिय्येल 5-7
2 यूहन्ना 1
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Exodus 12:8-10 (1) - The Lord’s Table - Participate Only if Willing to Pay the Price
In this study about the Holy Communion, or, the Lord’s Table we have seen that this was established by the Lord Jesus while partaking of the Passover meal with His disciples, a short while before being betrayed, caught, and being taken for crucifixion. The Passover, described in Exodus 12 and in the Law given by God through Moses, is the antecedent for the Communion, and serves to teach us many things about participating in the Lord’s Table, since the Lord Jesus took the elements of the Passover meal and established the Communion through them. God’s instructions related to the Passover in the Old Testament, have always remained just as true and applicable till now to the Holy Communion, as they were when God had first given them in Exodus 12. We have seen that just as observing in the Passover was meant for the chosen people of God, and not that their participation made them the people of God; similarly partaking of the Lord’s Table is meant for the Born-Again children of God (John 1:12-13), and not that partaking of the Holy Communion makes the partaker a child of God. Satan has been able to bring into Christianity this and many other misconceptions, wrong teachings and false doctrines, because people have become indifferent to the Word of God, are unconcerned about personal Bible Study and learning God’s instructions to follow, for themselves. For most, instead of being the way of Faith to live by (Acts 9:2; 16:17; 18:26; 19:9, 23; 22:4; 24:14, 22), as it was at its inception, Christianity has become a religion, like any other religion of the world, with its rites, rituals, ceremonies, traditions, and festivals, because of the cunningness and beguiling strategies of Satan. Therefore, under these pervading and prevailing satanic influences, people are quite content, quite satisfied in fulfilling these vain, inconsequential, man-made, religious formalities and rituals, erroneously believing Satan’s deception that this makes them right with God, worthy of entering heaven. Since hardly anyone bothers to ever cross-check from the Word of God, what is taught to them from the pulpit therefore, Satan has very easily been able to firmly and deeply establish his wrong teachings, so much so that today people readily accept and follow his corruption of God’ Word as the truth, but have doubts and reservations about correcting themselves and reverting back to the instructions given by God in His Word. People are more concerned about obeying and pleasing their religious leaders, than they are about obeying and pleasing God. Therefore, all these misconceptions and errors about the Lord’s table and other instructions of God have taken hold in Christianity.
In the Last article we had seen from Exodus 12:7 about the blood of the sacrificed lamb. Just as the blood of the sacrificed Passover lamb provided the saving cover for the Israelites, similarly, submission to the Lord Jesus and coming under the blood of Jesus Christ - the Lamb of God, saves people from their sins and God’s judgment for sins. From the next section, Exodus 12:8-10 we will see about the body of the sacrificial lamb, and how it relates to the sacrifice on the cross of the Lord Jesus. There are a lot of symbolisms here, in this section, and we will consider this section and the symbolisms in more than one article. Today we will see about hurried departure of the Israelites from Egypt.
The Israelites had been told by God to be ready and prepared to depart from Egypt at very short notice, in the night itself, since after the plague of killing the first-borns, Pharaoh and the Egyptians will compel them to leave Egypt (Exodus 11). So, they had to keep their things and themselves ready for departure, and moving out of Egypt in the night itself. Therefore, they had to eat a short and hurried meal, using unleavened bread, since there was no time to have the dough leavened and rise before being baked. The bread made from leavened dough was light and round, softer and tastier than the one made from unleavened bread, which was heavy, flat and harder in texture. The Passover lamb, after being sacrificed, was to be roasted whole (Exodus 12:9), directly on the fire, instead of being cleaned, cut in pieces, and cooked in a pot with various other ingredients to make it savory, as meat would ordinarily be cooked. After eating the meal, the remaining meal had to be burnt, nothing had to be left behind (Exodus 12:10).
The whole picture gives a sense of urgency, of getting ready and being prepared to depart at a moment’s notice, as soon as Pharaoh and the Egyptians asked them to leave, after God had punished the Egyptians. Symbolically, this is a picture of a Born-Again Christian believers considering themselves as sojourners and pilgrims, always being ready to depart from this world and go to their permanent eternal home, as the Holy Spirit has had it written through Peter (1 Peter 2:11). This verse from Peter also says that the Lord’s disciples should abstain from fleshly lusts that war against the soul; just as the Israelites were to forsake the tastier and softer leavened bread and properly cooked meat, and be content with unleavened bread and meat directly roasted on fire, without any flavoring added to it, and eat it in a haste.
Forbidding of using leaven, which is a Biblical symbol of sin and worldliness, is also symbolical of not letting any corruption of the world and sin come into the lives of God’s people who are ready and prepared to depart from the bondage of sin. As we will see later, one of the purposes of the Lord’s Table is to provide an opportunity, and encourage a child of God to examine his life, and see if any sin, corruption of the world has come in, and to confess it before the Lord, so that this “leaven” is eliminated before it spreads and spoils.
Instead of adding anything to flavor their meal, they had to eat it with bitter herbs - bland roasted meat, with flat, heavy unsavory bread, to be eaten with bitter herbs - the Israelites would have had to have a firm resolve and a trying time in eating it in this hurried manner, in obedience to God! A Born-Again Christian Believer is to be willing to suffer hardships for his faith and for the sake of the Lord Jesus (Philippians 1:29; 2 Timothy 3:12), and remain aloof from worldly things and pleasures that make his life comfortable, but at the cost of compromising with the world. The Believer is to recognize the vanity of all these things and forego them, knowing that they are all perishable and will only bring corruption, not blessings (1 John 2:15-17; James 4:3-4).
The Lord God had not told them when He will be passing through the land of Egypt and effect their deliverance from the Egyptians; all they knew is that it will happen sometime that very night, and they have to remain ready and awake, to depart in a hurry, as it happens. The Lord God carried this out at midnight, and soon afterwards the Egyptians asked the Israelites to leave (Exodus 12:29-33). The Lord Jesus has promised that He will return to take His people so that they should be with Him (John 14:3), but has not told when He will come. But He has given certain signs, the things that will be happening in the world (Matthew 24). The gist of the signs spoken by the Lord is that all over the world sin and Satan’s power will abound, nature will go awry, peace will be lost, God’s people will be persecuted and severely tested, and many wrong teachings and false doctrines will proliferate - all of which we see is now happening all over the world. In the deep darkness of sin and satanic forces pervading all over the world, the call to depart will suddenly come, and those who are prepared will leave to be with the Lord. God’s children have to remain alert, ready, and praying for their departure; not sleeping or caught up with the things of this world and the cares of this life (Luke 21:34; see from verse 31-36).
As was the manner in which the Israelites were to prepare themselves, be ready, and participate in the Passover meal. Similarly, those who partake of the Lord’s Table, the Holy Communion, should be the ones who have separated themselves from the world, its pleasures and comforts; have deliberately, in obedience to the Lord, chosen to suffer hardships and discomfort from the world. They should not allow any “leaven” i.e., sin and worldliness, to come in, or to stay in their lives; they should keep examining their lives before the Lord God through His Word and keep removing any corrupting influences that may have come in. They should be the people who, in this worsening darkness of sin that is abounding in the world, are willing to suffer persecution and severe troubles for the sake of their faith and stand up for the Lord. From Luke 21:36 we see that the participants in the Lord’s Table are to be the ones who have prepared themselves to depart from this world at any time, at a moment’s notice, having made themselves ready to stand before the Lord. While they wait to do so, they should spend their time not being involved with the world and worldliness, but praying, i.e., conversing and fellowshipping with the Lord.
All these things show that participating in the Holy Communion is not for those who take it as a religious ritual or formality to be carried out perfunctorily, but is for those who willingly have chosen to live worthy of the Lord, in obedience to His Word, and are willing to pay the price for doing so. In the next article we will carry on from here and see the subsequent verses from Exodus12. If you are a Christian Believer, and have been participating in the Lord’s Table, then please examine your life and make sure that you are actually redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word, are a new creation for the Lord. That you strive for unity, not divisions and factionalism in the Church, and have been participating as the Lord has instructed to be done, participating with full allegiance to the Lord, in all seriousness, and pondering over its significance; instead of doing it in any presumptive manner, or simply as a denominational ritual; and are ready and prepared to stand before the Lord and answer for your life. It is also necessary for you to be spiritually mature, learn the right teachings of God’s Word. You should also always, like the Berean Believers first check and test all teachings you receive from the Word of God, and only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Daniel 5-7
2 John 1
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