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प्रभु की मेज़ - भाग लेना वैकल्पिक नहीं, आज्ञा है (1)
पिछले लेख में हमने 1 कुरिन्थियों 11:27 के पुनःअवलोकन से देखा था कि जो भी प्रभु की मेज़ में भाग ले, वह योग्य रीति से ले। हमने यह भी देखा था कि जिस समय प्रभु यीशु ने प्रभु भोज की स्थापना की थी, उनके वे शिष्य भी, जिनके लिए उन्होंने इसे स्थापित किया था, निष्पाप या सिद्ध नहीं थे; उनके मध्य में अहम की समस्या थी और उनमें विवाद हो रहा था कि उनमें से बड़ा कौन है (लूका 22:24-26)। लेकिन प्रभु यीशु ने उनके पाँव धोने के द्वारा, प्रतीकात्मक रीति से दिखाया कि जो स्वयं अपने आप अपने प्रयासों से नहीं, किन्तु प्रभु को उन पर लगी सांसारिकता की धूल को साफ कर लेने देते हैं, उन्हें वह उसकी मेज़ में भाग लेने के लिए स्वच्छ और तैयार कर देता है। फिर हमने 1 यूहन्ना 1:7-10 से देखा था कि हर कोई, प्रभु यीशु के शिष्य भी, पाप करते हैं - ध्यान कीजिए कि इस पूरे अध्याय में, पद 7-10 में भी, प्रेरित यूहन्ना शब्द “हम” के प्रयोग के द्वारा, अपने आप को भी उनमें सम्मिलित कर लेता है जो पाप करते हैं और जिन्हें प्रभु द्वारा क्षमा और पाप से बहाल किए जाने की आवश्यकता है। फिर हमने देखा था कि यह तथ्य इस बात को प्रकट कर देता है कि अपने आप से, अपनी स्वाभाविक दशा में, कोई भी यूं ही प्रभु भोज में भाग लेने के योग्य कभी भी नहीं होता है, नया जन्म पाए हुए प्रभु यीशु के शिष्य भी नहीं। क्योंकि उनके तथा सभी के जीवनों में कोई न कोई पाप हमेशा ही होता है, जिसका पहले निवारण करना अनिवार्य है, तब ही वे योग्य रीति से प्रभु की मेज़ में भाग लेने पाएंगे।
इसीलिए 1 कुरिन्थियों 11:28 में प्रभु के शिष्यों, मसीही विश्वासियों के लिए आज्ञा दी गई है, प्रभु की मेज़ में भाग लेने से पहले अपने आप को जाँच लें। प्रेरित पौलुस ने यह पत्री कुरिन्थुस की कलीसिया, वहाँ रहने वाले मसीही विश्वासियों के लिए लिखी है। ध्यान कीजिए, यह पद किसी भी रीति से इसे भाग लेने वाले की इच्छा या समझ पर नहीं छोड़ता है; यह नहीं कहता है कि ऐसा करना तो चाहिए, परन्तु तुम्हारी इच्छा है कि यह करो अथवा नहीं। वरन इसे एक अनिवार्यता के रूप में सामने रखता है, “इसलिये मनुष्य अपने आप को जांच ले...” - भाग लेने वाले को अपने आप को जाँचना ही है, उसके बाद ही भाग लेना है। नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी, प्रभु में अपनी आत्मिक स्थिति के कारण, यदि सदा ही स्वतः ही प्रभु भोज में भाग लेने के योग्य रहते, तो फिर पवित्र आत्मा को पौलुस के द्वारा, उन्हें अपने आप को जाँचने की यह आज्ञा लिखवाने की क्या आवश्यकता थी? लेकिन उनके लिए प्रभु भोज में भाग लेने से पहले अपने आप को जाँचना अनिवार्य करने के द्वारा, प्रभु परमेश्वर ने यह सुनिश्चित कर दिया है कि उसका कोई भी शिष्य, कभी भी, किसी भी अनुचित रीति से इसमें भाग न लेने पाए। साथ ही यह भी ध्यान करें कि भाग लेने वाले को अपने को केवल जाँचना है, न कि अपने किसी तरीके से अपने आप को स्वच्छ भी करना है; उसे स्वच्छ करना फिर प्रभु का काम है। जाँचने के बाद, भाग लेने वाले को अपने पापों, गलतियों, कमजोरियों को पहचानना है, प्रभु के सामने उन्हें स्वीकार करना है, उनके लिए पश्चाताप करना है, और प्रभु से उनके लिए क्षमा माँगनी है, जिससे कि 1 यूहन्ना 1:9 के अनुसार, प्रभु उसे फिर से बहाल कर सके और उसे मेज़ में भाग लेने के योग्य बना सके।
साथ ही इस बात पर भी ध्यान दीजिए कि 1 कुरिन्थियों 11:28 के दूसरे भाग “...इसी रीति से इस रोटी में से खाए, और इस कटोरे में से पीए” में, पौलुस में होकर पवित्र आत्मा इस बात को स्पष्ट कर देता है कि जब जाँचने का काम पूरा हो जाए, तब शिष्य को इसके बाद फिर मेज़ में भी भाग लेना ही है, न कि भाग लेने से बचना है, बचने का कोई बहाना बनाना है। इसलिए यह बात बिल्कुल स्पष्ट है कि मसीही विश्वासी के लिए प्रभु भोज में भाग लेना वैकल्पिक नहीं है; और यही बात इस मेज़ की स्थापना करते समय प्रभु यीशु ने भी अपने शिष्यों से कही थी, जैसा कि सुसमाचारों में लिखा हुआ है। प्रभु यीशु ने शिष्यों से ऐसा कुछ भी नहीं कहा जिसका अर्थ अथवा व्याख्या यह दिखाए कि आने वाले समयों में यह शिष्यों की इच्छा, समझ, और सुविधा पर होगा कि वे अपनी आत्मिक दशा के अनुसार प्रभु भोज में भाग लेंगे अथवा नहीं। बल्कि प्रभु यीशु ने उन्हें आज्ञा दी “...मेरे स्मरण के लिये यही किया करो” (लूका 22:1919); अर्थात, अपने आप को जाँचो, पापों को मानो, स्वच्छ और योग्य बनो, और मेज़ में भाग लो। परमेश्वर की आज्ञाएँ कभी भी किसी के लिए भी वैकल्पिक नहीं रहीं हैं, वे हमेशा ही अनिवार्य हैं; उनका हर कीमत पर पालन होना ही है, अन्यथा व्यक्ति को अनाज्ञाकारिता के दोष का जवाबदेह होना पड़ेगा। दूसरे शब्दों में, प्रभु के शिष्य को, यह जानते हुए कि उसे रोटी और कटोरे में भाग लेना ही है, पहले अपने आप को प्रभु के सामने स्वच्छ और योग्य बनाने के लिए आना है, और प्रभु द्वारा स्वच्छ और योग्य किए जाने के बाद उसे फिर भाग भी लेना है। भाग लेना उसके लिए वैकल्पिक नहीं है, उसकी अपनी इच्छा के अनुसार नहीं है, परन्तु प्रभु के प्रतिबद्ध शिष्य के लिए यह आवश्यक और अनिवार्य है। इसलिए यह प्रभु के शिष्यों की ज़िम्मेदारी है कि वे प्रभु की आज्ञा के अनुसार, अपने आप को प्रभु भोज में भाग लेने के लिए तैयार और योग्य बनाए रखें।
प्रभु द्वारा प्रभु भोज में भाग लेने को आज्ञा के रूप में देने को किसी को भी इसे गलत नहीं समझना चाहिए, पीछे नहीं हटना चाहिए। ऐसा करने के द्वारा प्रभु ने उनकी सुरक्षा का एक तरीका दिया है, अपने शिष्यों के चारों और एक सुरक्षा-कवच स्थापित किया है, ताकि वे शैतान की चालाकियों और युक्तियों से बचे रहें। क्योंकि यह करना प्रभु की आज्ञा है, इसलिए शिष्य को यह करना ही है, नहीं तो वह अनाज्ञाकारिता का दोषी ठहरेगा; लेकिन क्योंकि किसी को भी कभी भी इसमें अयोग्य रीति से भाग नहीं लेना है, इसलिए शिष्य को हमेशा पहले प्रभु के सामने आना पड़ेगा, अपने जीवन और गतिविधियों को उसके सामने खोल कर रखना पड़ेगा जिससे कि प्रभु उसे दिखा सके कि उसने कब और कहाँ पर क्या गलती की, फिर उसे उन गलतियों को मान कर, प्रभु से क्षमा माँगनी पड़ेगी, जिससे कि प्रभु उसे स्वच्छ और योग्य कर सके। इस प्रकार से शैतान ने जो भी बीज चालाकी और कुटिलता से उसके जीवन में बोए होंगे, वे प्रकट हो जाएंगे, निकाल कर बाहर फेंक दिए जाएंगे, इससे पहले कि वे उगें और उसके जीवन में जड़ पकड़ें, और उसके लिए कोई समस्या खड़ी करने पाएं। किन्तु यदि यह प्रभु की आज्ञा नहीं होती, यदि यह शिष्य की इच्छा और समझ पर छोड़ दिया गया होता, तो शैतान किसी न किसी रीति से उसे कभी भी भाग नहीं लेने देता, उसे सदा ही उसके अयोग्य होने को दिखाता और बताता रहता; जबकि शैतान द्वारा उसके जीवन में बोए गए बीज उगकर जड़ पकड़ते रहते, बढ़ते रहते और उसके जीवन में गंभीर समस्याएं खड़ी कर देते। इस तरीके से, आज्ञा बनाने के द्वारा, प्रभु ने मसीही विश्वासी के, प्रभु की आज्ञाकारिता और परमेश्वर पर विश्वास जीवन को खोखला और खराब कर देने की शैतान की युक्ति को लागू होने से पहले ही विफल कर दिया। किन्तु जो इस बात को नहीं समझते हैं, प्रभु भोज को एक परंपरा के समान या वैकल्पिक समझते हैं, उनके जीवनों में शैतान को गंभीर समस्याएं उत्पन्न करने का अवसर बना रहता है, और वे बहुत गंभीर खतरे से खेल रहे हैं।
अगले लेख में हम इससे और आगे सीखेंगे, तथा वचन के अन्य स्थानों से भी देखेंगे और सीखेंगे कि प्रभु भोज में भाग लेना क्यों वैकल्पिक नहीं है, शिष्यों की अपनी इच्छा के अनुसार नहीं, वरन उनके लिए अनिवार्य है। यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, और प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहे हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
उत्पत्ति 29-30
मत्ती 9:1-17
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The Lord’s Table - A Commandment; Not Optional (1)
In the previous article, we had reviewed from 1 Corinthians 11:27, that those participating in the Lord’s Table should do so worthily, or in a worthy manner. We had also reviewed that at the time the Lord Jesus instituted the Holy Communion, even the very disciples for whom He was doing it, were not sinless or perfect; there was an ego situation amongst them and they were quarrelling about who amongst them was the greatest (Luke 22:24-26). But the Lord through washing their feet, symbolically showed that those who allow Him to cleanse them of the “dust of worldliness”, can then participate in the Table, after He, and not they themselves by their own means and methods, has cleansed them. We then saw from 1 John 1:7-10, that everyone, even the disciples of Christ, sin - notice that the Apostle John, through the use of the word “we” throughout this chapter and in these verses 7-10, includes even himself amongst those who sin and are in need of the Lord’s forgiveness and restoration from sin. We then saw that this therefore makes it apparent that by themselves, no one, not even the Born-Again Christian Believers are worthy of participating in the Lord’s Table in their natural or routine situation. Since they would be having some sin or the other in their lives, that would have to be dealt with, and cleansed by the Lord, before they were made worthy to participate in the Holy Communion.
Hence, the command of 1 Corinthians 11:28, for the Lord’s disciples is that the Christian Believers, examine themselves before participating in the Lord’s Table. The Apostle Paul, under the guidance of the Holy Spirit has written this to the Church in Corinth, to the Christian Believers there. Note, that this verse does not in any manner leave the participation to the discretion of the participant; nor does it make the disciple’s examining themselves as something desirable, but optional. Rather, it puts it forth as an imperative, “But let a man examine himself, …” - the participant has to examine himself and only then participate. If the Born-Again Christian Believers, by virtue of their spiritual status in the Lord, and as children of God, were always worthy of participating in the Communion, why would the Holy Spirit through Paul command them to necessarily examine themselves before participating? But in making it mandatory for them to examine themselves before participation, the Lord God has ensured that none of His disciples would in any circumstances or situation, ever participate in an unworthy manner. Also note that this verse asks the participant only to examine himself, and not try to somehow through his own methods try to cleanse himself; since this cleansing is the Lord’s work. After examining, the participant has to identify his sins, errors, and short-comings, confess them before the Lord, repent of them and seek His forgiveness for them, so that in accordance with 1 John 1:9, the Lord can restore him and make him worthy of participating in the Table.
Do also take note that here in the second part of 1 Corinthians 11:28, “...and so let him eat of the bread and drink of the cup” the Holy Spirit through Paul, makes it evident and clear that after the examination part is completed, the disciple should follow it up by participating in the Communion, and not avoid taking part in it. Hence it is quite clear that participation in the Holy Communion is not optional for the Christian Believer; and the same was said by the Lord to His disciples when instituting the Lord’s Table, as given in the Gospel accounts. The Lord did not say anything to the disciples that could in any way be understood or interpreted as leaving their participation in the Table in the times to come to their discretion, understanding, or convenience, depending upon their spiritual status at that time. Rather, the Lord Jesus gave the disciples a command - “do this in remembrance of me” (Luke 22:19); i.e., examine, confess, and be cleansed, and then participate. God’s commands are never optional for anybody, but are always mandatory; they have to be obeyed at any cost, or the person has to face accountability for the disobedience. In other words, the disciple of the Lord, knowing that he has to partake in the bread and cup, has to first come to the Lord for his cleansing, and then after being cleansed he is to partake. It is not optional for him, nor at his discretion, but necessary for the Lord’s committed disciples. It is therefore the responsibility of the disciple to make himself ready and worthy of obeying the Lord and participating in the Holy Communion worthily.
One should not misunderstand or draw back because of the Lord’s giving this command and making it mandatory for the disciples to participate in the Holy Communion. Through this, the Lord has given a protective mechanism, a shield around His disciples, to keep them safe and secure from the wiles of the devil. Since it is the Lord’s command, therefore, the disciple is to obey it or he will be guilty of disobedience; but since no one should participate unworthily, therefore the disciple always has to first come to the Lord, open out his life and activities to him, let the Lord point out to him where he went wrong and in what manner. Once he is aware of any sin or worldliness in his life, he is to confess it, and ask the Lord for forgiveness, so that the Lord can cleanse him. So, any seeds of sin that Satan may have cunningly or subtly sown in the disciple’s life, will be made manifest and thrown out, before they can germinate, take root, and create any serious problems in the disciple’s life. But had it not been the Lord’s commandment, if it were left to the disciple’s discretion and understanding, Satan, in some way or the other, will never allow him to participate, always reminding him of his being unworthy, while the satanic seeds of sin germinate, grow, and take root in his life, and eventually bring him to great harm. The Lord through this method has pre-empted Satan’s ploy to undermine and harm the Christian Believer’s life of faith and of obedience to the Lord.
If you are a Christian Believer and have been participating in the Lord’s Table, then please examine your life and make sure that you are actually a disciple of the Lord, i.e., are redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word. You should also always, like the Berean Believers, first check and test all teachings that you receive from the Word of God, and only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Genesis 29-30
Matthew 9:1-17
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