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शुक्रवार, 2 जून 2023

Miscellaneous Questions / कुछ प्रश्न - 24b - Pastors Asking for Worldly Things / पास्टरों द्वारा भौतिक वस्तुएँ माँगना (2)

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पास्टरों द्वारा कलीसिया के लोगों से सांसारिक वस्तुएँ लेना (2)

        पुराने नियम में लेवी के गोत्र को परमेश्वर ने कनान में कोई भूमि आवंटित नहीं की थी; लेवी के घराने के लोगों, अर्थात लेवियों और याजक समाज का भरण-पोषण मंदिर में भेंट और चढ़ावे के लिए लाए जाने वाले पशुओं, फसलों, दश्मांशों और अन्य सामग्री द्वारा किया जाता था (गिनती 5:9; 18:24; व्यवस्थाविवरण 14:29)। इसके लिए परमेश्वर द्वारा यह निर्धारित था कि आराधनालय में भेंट करने या चढ़ाने के लिए जो भी लाया जाता था, वह चाहे पशु हो अथवा वनस्पति, उसे उत्तम गुणवत्ता का होना आनिवार्य था (लैव्यवस्था 22:18-25; 22:22)। किसी भी प्रकार का दोषयुक्त पशु या सामग्री भेंट के लिए नहीं लाई जा सकती थी; ऐसा करना परमेश्वर का अपमान करना था (मलाकी 1:8)। इसलिए यह कहा जाता है कि ‘परमेश्वर के दास’ के लिए उत्तम वस्तुएँ लानी चाहिएँ। लेकिन बात केवल इतनी ही नहीं है वरन इससे बहुत बढ़कर है; परमेश्वर ने केवल यह ही निर्धारित नहीं किया था कि उत्तम वस्तुएँ लाई जाएँ, उसने साथ ही यह भी निर्धारित करके दिया था कि क्या लाना है, कितना लाना, कब लाना है, और उसे कैसे अर्पित करना है। लेवी या याजक इन बातों को निर्धारित नहीं करते थे, वे केवल परमेश्वर द्वारा निर्धारित बातों का निर्वाह करते थे और लाई गई भेंट को स्वीकार करते थे। जब मंदिर के अधिकारियों ने परमेश्वर की निर्देशित विधि को बिगाड़ दिया, तब प्रभु यीशु ने इसके लिए उनकी भर्त्सना भी की (यूहन्ना 2:13-16; मत्ती 21:13)। किन्तु आधारभूत वास्तविकता यह थी कि जो लाया जाता था वह परमेश्वर को अर्पित करने के लिए लाया जाता था न कि याजक को देने के लिए। यद्यपि उस भेंट का प्रयोगकर्ता अन्ततः याजक या लेवी ही होता था, फिर भी जो कुछ भी आराधनालय में भेंट में चढ़ाए जाने के लिए लाया जाता था, वह विधि अनुसार परमेश्वर को चढ़ाए जाने के बाद ही याजक के उपयोग के लिए होता था। बाइबल में हम यह भी देखते हैं कि एली के पुत्रों ने परमेश्वर के इन निर्देशों की अवहेलना की और बहुत भारी दण्ड चुकाया (1 शमूएल 2:12-17, 22-25, 30-34)। इसके अतिरिक्त, याजक का यह दाय्तिव भी था कि वह परमेश्वर का दूत बनकर लोगों को परमेश्वर के वचन की सही शिक्षा भी दे (मलाकी 2:7)। कहने का तात्पर्य यह है कि निःसंदेह याजक, लोगों की उत्तम भौतिक वस्तुओं का हकदार था, परन्तु साथ ही वह उत्तम आत्मिक बातें एवँ सेवा लोगों को देने के लिए भी उतना ही उत्तरदायी भी था।

           जैसा ऊपर कहा गया है, पुराने नियम के समय में भेंट और बलिदान मंदिर में व्यवस्था की बातों को पूरा करने के अन्तर्गत, याजकों को देने के लिए नहीं परन्तु परमेश्वर को देने के लिए, अनिवार्यतः लाए जाते थे; और परमेश्वर को अर्पित होने बाद ही फिर वहाँ से याजकों में बांटे जाते थे। जबकि अब नए नियम की कलीसिया में भेंट के लिए कोई सामग्री लाने का कोई निर्देश नहीं है; यद्यपि ऐसा करना वर्जित तो नहीं है, किन्तु यह करना केवल स्वेच्छा से है, अनिवार्य नहीं है। यह बात तब में और अब में यह एक बहुत महत्वपूर्ण अन्तर है, जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता है। वर्तमान में जो व्यक्ति परमेश्वर के दास को कुछ दे रहा है, वह अपनी इच्छा से दे रहा है, ऐसा करने के लिए वह बाध्य नहीं है। न ही यह आवश्यक है कि अगुवे को दी जाने वाली वस्तु परमेश्वर को अर्पित भेंट समझी जाए, या परमेश्वर को अर्पित किए जाने बाद ही कलीसिया के अगुवे को दी जाए। पुराने नियम की भेंटों की तुलना में, नए नियम की कलीसियाओं में भेंट देना, पूर्णतः देने वाले पर निर्भर है (2 कुरिन्थियों 9:7)। किसी भी व्यक्ति को परमेश्वर के नाम से बाध्य करके उससे अपनी आवश्यकता के लिए कुछ ऐंठना सर्वथा अनुचित है, परमेश्वर के नाम और वचन का दुरूपयोग है।

           यदि कलीसिया का कोई अगुवा कलीसिया के लोगों से उत्तम पाने की लालसा इसलिए रखता है क्योंकि पुराने नियम में याजक, लेवी, और मंदिर के सेवक को उत्तम पहुंचता था, तो फिर उस अगुवे को पुराने नियम के उस याजक या मंदिर के सेवक के समान भौतिक संपत्ति – विशेषकर भूमि से संबंधित, न रखने, एवँ आराधनालय तथा वचन की सेवा करने से संबंधित दायित्व का भी वैसा ही निर्वाह भी करना चाहिए। अर्थात वर्तमान समय का वह अगुवा कलीसिया के लोगों से लेकर अपने लिए सांसारिक संपत्ति जोड़ने और बनाने की बजाए कलीसिया के लोगों के लिए एक आदर्श बने, और परमेश्वर के वचन का गहन अध्ययन करके परमेश्वर से ही वचन की शिक्षा प्राप्त करे, तथा परमेश्वर के लोगों को वचन की सही शिक्षाएँ भी देने के लिए तत्पर और तैयार रहे। साथ ही हम यह भी देखते हैं कि जब लेवियों और याजकों ने परमेश्वर के निर्देशों के अनुसार अपने दायित्वों का निर्वाह नहीं किया तो परमेश्वर ने उन्हें दण्ड भी दिया (यहेजकेल 34:7-19; मलाकी 2:1-9)। उसी प्रकार से वर्तमान के उन अगुवों को जो पुराने नियम के निर्देशों के आधार पर कलीसिया से उत्तम प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें यह ध्यान भी रखना चाहिए कि यदि वे कलीसिया में परमेश्वर की इच्छानुसार सेवकाई नहीं करेंगे तो परमेश्वर फिर उन्हें भी उन अनाज्ञाकारी याजकों और लेवियों के समान ही दण्डित भी करेगा।

           आज परमेश्वर के दास से अपेक्षित है कि वह अपने प्रथम कर्तव्य, अर्थात कलीसिया की सेवा करने में उद्यमी रहे, जैसा कि पौलुस ने अपने जीवन के उदाहरण से सिखाया है – 1 थिस्सलुनीकियों 2 अध्याय पढ़िए; यहाँ अपनी सेवकाई का वर्णन करते हुए 9 पद में पौलुस यह भी लिख रहा है कि वह किसी पर बोझ नहीं बना, वरन परिश्रम करके वह स्वयँ ही अपना भरण-पोषण करता था, और ऐसा करते हुए वह साथ ही बहुत परिश्रम तथा लगन के साथ परमेश्वर के वचन को भी सिखाता और सुनाता था  (साथ ही प्रेरितों 18:3; प्रेरितों 20:34-35; 1 कुरिन्थियों 4:12; 1 थिस्सलुनीकियों 4:11; 2 थिस्सलुनीकियों 3:8-9 भी देखें)। साथ ही, यह सिखाने के बाद कि कलीसिया को परमेश्वर के सेवकों का ध्यान करना चाहिए उनकी आवश्यकताओं को पूरा करना चाहिए, 1 कुरिन्थियों 9:15 में पौलुस अपनी सेवकाई के बदले में स्वयँ के लिए कलीसिया से कुछ लेने से स्पष्ट और बलपूर्वक मना करता है; सेवकाई के बदले लोगों से कुछ लेने की बजाए वह मर जाना अधिक उत्तम समझता है। यदि आज कलीसिया के अगुवे, या परमेश्वर के दास को परमेश्वर के वचन से उदाहरण, आधार, और आदर्श लेकर कलीसिया से कुछ भौतिक वस्तुएँ प्राप्त करने की अपेक्षा रखनी है तो फिर पुराने नियम के आधार पर क्यों? वर्तमान के लिए दिए गए नए नियम में पौलुस के उदाहरण से वे प्रेरणा और शिक्षा क्यों नहीं लेते हैं (1 कुरिन्थियों 11:1; थिस्सलुनीकियों 3:9)? वे पौलुस को अपना आदर्श बनाकर उसका अनुसरण क्यों नहीं करते हैं?

           दुःख की बात है कि वर्तमान में परमेश्वर के वचन और कार्य के प्रति ऐसा अपेक्षित एवँ वाँछित समर्पण बहुत कम ही देखने को मिलता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि लगभग सभी कलीसियाओं में परमेश्वर के नियमों और विधियों के स्थान पर, उनके डिनौमिनेशन या मत के अनुसार, मनुष्यों द्वारा, परमेश्वर के नाम से प्रतिपादित नियम और विधियाँ लागू कर दी गई हैं। अब यद्यपि कलीसिया के ऐसे प्रबंधकों को परमेश्वर के वचन को तोड़ने और उसकी अनाज्ञाकारिता करने में लेश-मात्र भी ग्लानि अथवा हिचकिचाहट नहीं होती है; फिर भी वे इस बात पर बहुत दृढ़ और कठोर रहते हैं कि उनके द्वारा दिए गए नियमों का पूर्णतः पालन हो, कोई अवहेलना न हो, अन्यथा परिणाम अच्छे नहीं होंगे। कलीसिया के सभी दायित्वों के निर्वाह के लिए नियुक्ति परमेश्वर के मानकों और उसकी विधि के अनुसार नहीं वरन मनुष्यों द्वारा स्थापित मानकों, योग्यताओं, गुणों, और डिनौमिनेशन या मत की विधियों के अनुसार की जाती है। इसीलिए कलीसिया के अगुवों के लिए यह अब परमेश्वर द्वारा उन्हें सौंपा गया दायित्व नहीं, अपितु “नौकरी” हो गया है, जिसपर उन्हें उस डिनौमिनेशन या मत के मानने वाले मनुष्यों ने नियुक्त किया है। और क्योंकि यह “नौकरी” मनुष्यों ने उन्हें मानवीय मानकों, गुणों, तथा “योग्यताओं” के आधार पर दी है, इसीलिए आज के अधिकांश अगुवे परमेश्वर को नहीं वरन अपने डिनौमिनेशन या मत के सांसारिक “अधिकारियों” को प्रसन्न करने की चेष्टा में रहते तथा कार्य करते हैं, क्योंकि वे अधिकारी न केवल उनके “नौकरी” में बने रहने को प्रभावित कर सकते हैं, वरन उनके भविष्य, उन्नति, और डिनौमिनेशन या मत के साथ जुड़ी उनकी संभावित भलाई को भी प्रभावित कर सकते हैं – यह पौलुस द्वारा गलातियों 1:10 में कही बात के साथ कैसा अद्भुत विरोधाभास प्रस्तुत करता है। इसलिए इसमें कोई अचरज की बात नहीं है कि यद्यपि वे परमेश्वर का नाम तो लेते हैं, परन्तु उनमें परमेश्वर का कोई भय नहीं है, उन्हें परमेश्वर को अपना हिसाब देने की कोई चिंता नहीं है, उन्हें सौंपी गई मण्डली के प्रति उनका केवल एक औपचारिक लगाव है, और वे परमेश्वर का नाम लेकर केवल अपना ही काम निकालना, अपनी ही इच्छाएं पूरी करना चाहते हैं। उनमें से कोई भी उनके अधिकारियों द्वारा किए जा रहे किसी भी गलत, या अनैतिक, या बाइबल की शिक्षाओं के प्रतिकूल बात के लिए न तो विरोध करता है और न ही कुछ बोलता है (गलातियों 2:11-18 के साथ तुलना कीजिए); वरन वे परमेश्वर का नाम लेते हुए औपचारिकता से काम करते रहते हैं, और उन ही ओहदों पर पहुँच कर वहाँ मिलने वाले सांसारिक लाभों का मज़ा लेने की लालसा रखते हैं (कुलुस्सियों 3:1-5 से तुलना कीजिए)। परमेश्वर का नाम और काम उनके लिए “पेट-पालने” का माध्यम बन गया है (रोमियों 16:18; फिलिप्पियों 3:19), और उनकी निष्ठा तथा समर्पण परमेश्वर के प्रति नहीं अपितु उनके सांसारिक “अधिकारियों” के प्रति हो गए हैं – पौलुस ने ऐसों को “मसीह के क्रूस के बैरी” बताया है (फिलिप्पियों 3:18)।

           यह कलीसिया के लोगों और अगुवों, दोनों को ही परमेश्वर की ओर से दी गई ज़िम्मेदारी है कि वे अपने-अपने दायित्वों के अनुसार एक दूसरे की आवश्यक्ताओं का ध्यान रखें, एक-दूसरे की आवश्यक्ताओं की पूर्ति करें, और सदा इस बात का ध्यान रखें कि एक दिन, उन्हें अपने-अपने दायित्वों के निर्वाह का उत्तर प्रभु को अवश्य ही देना होगा, और प्रभु से अपना प्रतिफल भी उसी के अनुसार लेना होगा; न तो कोई प्रभु को उत्तर देने से और न ही कोई प्रभु से अपने किए के प्रतिफल को लेने से बच सकता है । तैयार रहें; हिसाब लेने और देने का वह दिन शीघ्र ही आने वाला है।

        यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

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Pastors Seeking Worldly Things from Church Congregations (2)

        In the Old Testament the tribe of Levi had not been allotted any land in Canaan; the descendants of Levi, i.e. the Priests and Levites met their needs from the offerings and donations brought by the people to the Temple, to offer to God, in form of animals, crops, tithes and other things (Numbers 5:9; 18:24; Deuteronomy 14:29). It had been decreed by God that those who brought their offerings to the Temple, whether it was animal or crops, had to bring them of a good quality (Leviticus 22:18-25; 22:22). No defective animal or object could be brought as an offering; to do so was to insult God (Malachi 1:8). Therefore, the idea has developed that things of a good quality should be brought for the Church Elder or Care-taker. But there is far more to it; God had not only decreed that only good things be brought for His offerings, but had also decreed what was to be brought, how much had to be brought, when it was to be brought, and how it had to be offered. The Levites or the Priests were not the ones to decide about these things, they could only act upon and accept that which had been decreed by God. In Jesus’ time, since the Temple officials had corrupted God’s instructions, we see that the Lord Jesus severely reprimanded them (John 2:13-16; Matthew 21:13). But the basic fact was that whatever was brought, was brought to be offered to God; it was never brought with the intention of giving to the priest. Even though the Priest was the end recipient, still whatever was brought to the Temple as an offering was provided to the Priest only after it had first been offered to God. We see in the Bible that when the sons of Eli transgressed God’s commands regarding this, they as well as their father, all had to pay a very heavy price for their misdemeanor (1 Samuel 2:12-17, 22-25, 30-34)In addition, the Priest, as God’s spokesman, was also under and obligation to teach the people the Word of God correctly (Malachi 2:7). In other words, undoubtedly, while the Priest was deserving of good quality physical things from the peoplehe was also equally responsible to impart good quality spiritual services and teachings to the people.

           As stated abovein the Old Testament times the gifts and offerings brought to the Temple were brought to fulfill the Law; not to give to the priests but to offer to the Lordand only once they had been offered to the Lord could they be distributed to the priests. Whereas now, in the New Testament there is no instruction to bring any such offering into the Church; although not forbidden, but doing this is voluntary, not compulsory, nowadays. This is a very significant difference between then and nowand it cannot be overlooked or ignored. Presently, whoever is giving anything to a God’s servant is doing so voluntarilyhe is under no compulsion to do so. Neither is it in any way necessary that the thing given to the Elder should be considered as something offered to Godor that the thing should first be offered to God and only then be accepted by the Elder. In the New Testament Churches, unlike offerings of the Old Testament, the giving of any offerings is entirely dependent upon the person wanting to give it (2 Corinthians 9:7). To compel any person to make an offering in the name of God, and to thus use the people for providing the desires of the Church leader is a misuse of God’s name and His Word.

           If any Elder or leader of the Church expects to receive good quality things from the people of the Church because in the Old Testament times the Priests, Levites and those serving in the Temple received the good quality thingsthen that Elder or Church leader should also, like the Priest or Levite of the Old Testament, refrain from possessing worldly things especially related to possessing landand they should also fulfill their responsibilities towards the House of God and the Word of God just as the Priests and Levites used to do at that time. Therefore, that Elder or Church leader, instead of acquiring worldly possessions and physical abundance from the people of the Church, should first strive to be a spiritual model and mentor for the people of the Church. Hence, he should spend time diligently studying and learning the Word of God from the Lord, and providing factual and correct teachings to the people. We also see that when the priests and Levites did not fulfill their responsibilities as per the instructions of the Lord, then the Lord also penalized them (Ezekiel 34:7-19; Malachi 2:1-9). Similarly, those Elders and Church leaders who desire to receive good quality things from the people on the basis of the instructions given to the Old Testament people of Godshould also be careful to see that if they do not serve the Church as per the instructions of the Lord, then they too will be penalized just as the disobedient priests and Levites had been penalized.

           Today it is expected from the servant of the Lord serving as a Care-taker of the Church, to be diligent in his primary responsibility of serving the Church of Godas Paul has taught from the example of his own life. Study Thessalonians, chapter 2; here in verse 9, Paul is writing that in his missionary services of preaching and Church planting, he never became a burden upon anyone; he used to labor to earn to provide for his needsand while doing this he also taught the Word of God diligently and devotedly (also see Acts 18:3; 20:34-35; 1 Corinthians 4:12; 1 Thessalonians 4:11; 2 Thessalonians 3:8-9). Alsoafter teaching that the Church should look after and provide for the needs of those working for the service of the Lord amongst them, Paul in 1 Corinthians 9:15 goes on to clearly and emphatically refuse seeking for or accepting anything from the Church in lieu of his spiritual services rendered to themso much so, that he prefers to die rather than take something from the Church for his work amongst them. If today an Elder, or a Care-taker of the Church, on the basis of examples and instances from God’s Word desires to receive some physical and worldly things from the Church, then why should he make the Old Testament the basis for thisWhy don’t they take Paul as an example and model from the present day applicable New Testament teachings, and learn from him, emulate him (1 Corinthians 11:1; 2 Thessalonians 3:9)?

           Quite sadly, nowadays, such desired and expected commitment to God’s Word and work is rarely seen. This is because in nearly all the Churches, the instructions and decrees of God for the people and leaders of the Churches have been replaced by denominational laws, rules and ways that have been decided by men in the name of God, and applied to be followed in the Churches. And while these Church managers have no hesitation or remorse for their breaching and disobeying God’s Laws for His Churches; yet they are very particular and rigid in their stand that their given rules and laws should not be breached or neglected, else dire consequences will follow. To fulfill the responsibilities related to the functioning of the Church people are now appointed not according to God’s standards and instructions but according to standards, qualifications, criteria and methods determined by men. Therefore the Leaders and Care-takers of the Church hardly ever see it as a God given responsibilitybut more often they see this responsibility as a “job” to which they have been appointed by certain men, in a certain Denomination or Sect. And since this “job” has been given to them based on certain man determined criteria, qualifications, and “abilities,” therefore most of the Care-takers of the Churches live and work to please not God but their denominational human officials and superiors who not only have appointed them, but can also influence not only their continuing in their “job” but also their future prospects, promotions, and their welfare in the denomination where they are employed – what a striking contrast to Paul’s statement of Galatians 1:10. So it is no surprise that though they use the name of God, they have no fear of God, no sense of accountability to God, and only a perfunctory concern for their congregation; their primary concern is to serve and satisfy their officials, and fulfill their own needs and purposes through the congregation. None of them dares to point out or speak up against anything wrong, unethical, or unBiblical being asked or done by their superiors (compare with Galatians 2:11-18); rather, while perfunctorily serving in the name of God they aspire and strive to reach those positions of authority and superiority by any means – fair or foul, so that they too can enjoy the worldly benefits of that position (compare with Colossians 3:1-5)God’s name and service has become a means to serve their own bellies for them (Romans 16:18; Philippians 3:19), and their commitment and sincerity has come to be directed not towards God and His Word but towards their worldly, human officers and superiors – Paul has called them “enemies of the Cross of Christ” (Philippians 3:18).

           It is the God given responsibility of the Church congregation as well as of the Care-takers of the Churches that both sides fulfill their God ordained obligations towards each-other and meet each-other’s physical and spiritual needs; always bearing in mind that one day they will have to answer to the Lord for the fulfillment of their responsibilities. No one can escape having to give an account to the Lord, nor can anyone escape receiving due rewards – good or bad, for what they have done, or not done. Be ready; the day of reckoning is coming soon.

        If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

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