बाइबल में दी गई व्यवस्था और मनुष्य के उद्धार में संबंध
बाइबल के अनुसार व्यवस्था क्या है? – 1
पिछले लेखों में हमने देखा था कि मसीही विश्वास तथा मसीही विश्वासी के लिए परमेश्वर का वचन ही भले और बुरे के मध्य अन्तर की पहचान करवाता है, उसे परिभाषित करता है। सांसारिक मानकों और बातों के आधार पर, बाइबल के परमेश्वर का और उसकी बातों एवं निर्देशों का सही आँकलन तथा उनकी वैध समीक्षा नहीं की जा सकती है। फिर हमने देखा कि मनुष्य अपने जन्म से ही पाप के साथ संसार में प्रवेश करता है, और उसकी यह दशा उसकी मृत्यु तक उसके साथ बनी रहती है। इसी कारण मनुष्य के जीवन भर उसमें तथा परमेश्वर के मध्य एक दूरी, एक अलगाव की स्थिति बनी रहती है। इसलिए कोई भी मनुष्य अपनी स्वाभाविक, अपरिवर्तित शारीरिक दशा में, न तो परमेश्वर को प्रसन्न कर सकता है, और न ही अपनी किसी भलाई, या अपने कर्मों के द्वारा कुछ ऐसा कर सकता है कि परमेश्वर को स्वीकार्य बन सके। और पिछले लेख में हमने देखा था कि बाइबल की परिभाषा के अनुसार केवल परमेश्वर ही है जो वास्तव में भला है। साथ ही हमने यह भी देखा था कि नए नियम में प्रभु यीशु मसीह ने और पुराने नियम में परमेश्वर यहोवा ने कहा है कि परमेश्वर की व्यवस्था के पालन के द्वारा मनुष्य जीवन में प्रवेश कर सकता है; जो कि अब एक विचित्र विरोधाभास की, एक विडंबना की स्थिति को उत्पन्न करने वाली बात प्रतीत होती है। इस प्रतीत होने वाले विरोधाभास या विडंबना के समाधान के लिए हमें यह समझना आवश्यक है कि जिस व्यवस्था के पालन की बात की जा रही है, वास्तव में वह है क्या?
लोगों को यह असमंजस रहता है कि जब पुराने नियम के लोगों से ज़ोर देकर उस व्यवस्था के पालन के लिए कहा गया था, उनके लिए यह करना अनिवार्य किया गया था, और साथ ही उन्हें परमेश्वर द्वारा आश्वस्त किया गया था कि व्यवस्था के पालन से वे जीवित रहेंगे, तो फिर आज हमारे लिए उसी व्यवस्था का पालन करने में क्या समस्या है? और फिर क्यों, नए नियम में, मसीही विश्वास में, यह इतना ज़ोर देकर कहा जाता है, इस बात के मानने को अनिवार्य किया जाता है कि कर्मों से, व्यवस्था के पालन से, किसी धर्म विशेष अथवा परिवार विशेष, यहाँ तक कि ईसाई धर्म और ईसाई या मसीही परिवार में भी जन्म ले लेने और उसकी मान्यताओं को निभाने से भी उद्धार या परमेश्वर को स्वीकार्य होना संभव ही नहीं है? क्यों सभी को पश्चाताप करना और प्रभु यीशु मसीह से पापों की क्षमा को व्यक्तिगत रीति से अपने लिए प्राप्त करना अनिवार्य कहा जाता है? परमेश्वर की व्यवस्था के होते हुए, और उसके द्वारा जीवन में प्रवेश मिलने की बात को प्रभु परमेश्वर द्वारा कहे जाने के बावजूद, क्यों यह कहा और सिखाया जाता है कि मसीही विश्वासियों को व्यवस्था के पालन की कोई आवश्यकता नहीं है, व्यवस्था के पालन से कोई भी लाभ नहीं होगा, और न ही कोई परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने पाएगा, या परमेश्वर को स्वीकार्य होने पाएगा?
सामान्यतः लोग समझते हैं कि व्यवस्था से अर्थ है पुराने नियम में, मूसा द्वारा लिखित पहली पाँच पुस्तकों में दिए गए भेंट, बलिदानों, पर्वों, विधियों, नियमों आदि का निर्वाह। किन्तु वास्तविकता यह है कि ये बातें व्यवस्था नहीं हैं। ये सभी बातें तो व्यवस्था के मानकों के अनुसार दोषी पाए गए मनुष्यों को उनके पाप-दोष की दशा, और उस दोष के समाधान के लिए किसी निर्दोष के उनके पापों को अपने ऊपर उठाने और उनके लिए अपना जीवन बलिदान देने को स्मरण करवाते रहने की विभिन्न प्रक्रियाएं हैं, जो प्रभु यीशु मसीह के जीवन, कार्य और बलिदान के पुराने नियम में दिए गए विभिन्न प्रतीक एवं प्ररूप हैं। ये परमेश्वर के कार्यों और गुणों को स्मरण करवाने वाली विधियाँ हैं; ये विधियाँ पाप को केवल स्मरण करवा सकती हैं, कभी पाप को हटा नहीं सकती हैं (इब्रानियों 10:3-4)।
तो फिर व्यवस्था क्या है? प्रभु यीशु मसीह द्वारा, उनसे परमेश्वर की सबसे बड़ी आज्ञा के विषय प्रश्न करने वाले एक व्यवस्थापक को दिए गए उत्तर से ही इसे समझिए और जानिए: “उसने उस से कहा, तू परमेश्वर अपने प्रभु से अपने सारे मन और अपने सारे प्राण और अपनी सारी बुद्धि के साथ प्रेम रख। बड़ी और मुख्य आज्ञा तो यही है और उसी के समान यह दूसरी भी है, कि तू अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रख। ये ही दो आज्ञाएं सारी व्यवस्था और भविष्यद्वक्ताओं का आधार है” (मत्ती 22:37-40; 35-40 + रोमियों 13:9)। व्यवस्था को और अधिक जानने और बेहतर समझने को हम अपने अगले लेख में ज़ारी रखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Relationship Between the Law and Salvation in the Bible
What is the Law according to the Bible? – 1
In previous articles we have seen that in the Christian faith and for the Christian Believers it is God's Word that defines good, and identifies the difference between good and evil. The God of the Bible and His Word and instructions cannot be correctly evaluated and assessed on the basis of worldly standards and things. Then we saw that man, right from his birth, enters the world with sin and this condition remains with him till his death. That is why throughout the life of man there remains a separation between him and God. Therefore, no man, in his natural, unregenerate physical condition, can ever please God; neither by his goodness, nor by any of his actions, can he do anything to become acceptable to God. And in the previous article, we saw that by the Biblical definition it is only God who really is good. We also saw that in the New Testament the Lord Jesus Christ, and in the Old Testament the God Jehovah have said that man can enter life by obeying God's Law; which now appears to be a strange paradox, an inexplicable situation. To solve this apparent contradiction or paradox, it is necessary for us to understand what exactly is the Law that is being talked about?
People are confused that when for Old Testament people it was made mandatory to keep that Law, it was strongly emphasized that they do so, and at the same time they were assured by God that by keeping the Law they would live, then what's the problem with our obeying and following the same Law today? And then why, in the New Testament, in the Christian faith, is it emphasized so much that it is necessary to realize and accept that by good deeds, by the observance of the Law, by being born in a particular religion or family, even being born in Christian religion or in a Christian family and following its beliefs does not ever make a person saved or acceptable to God? Why is it necessary for everyone to individually repent and personally receive the forgiveness of sins from the Lord Jesus Christ? Why then is it said and taught that Christians have no need to keep the Law, despite it being God's Law, and the Lord God speaking of entering life by observing it? And why is it taught in the New Testament that no one will benefit from keeping the Law, nor by observing it will anyone be able to enter the kingdom of God, or be acceptable to God?
The general understanding of the people is that the Law of the Old Testament, means the observance of the offerings, sacrifices, festivals, statutes, ordinances given in the first five books of Moses. But the reality is that these things are not the Law. All these things are various processes of reminding us of being guilty according to the standards of the Law, about the state of our sinfulness, and the fact for us an innocent animal must bear our sins and its life be sacrificed; all of these are various symbols and forms given in the Old Testament of the life, work and sacrifice of the Lord Jesus Christ. These are rituals to remind us of the works and qualities of God. Though these rituals and methods can repeatedly remind us of our sin, but they can never permanently take away our sin (Hebrews 10:3-4).
Then what is the Law? Let us understand and learn this from the answer given by the Lord Jesus Christ to a Scribe, who asked him about the greatest commandment of God: “Jesus said to him, "'You shall love the Lord your God with all your heart, with all your soul, and with all your mind.' This is the first and great commandment. And the second is like it: 'You shall love your neighbor as yourself.' On these two commandments hang all the Law and the Prophets” (Matthew 22:37-40; see from 35-40 + Romans 13:9). We will continue learning more and understanding better about the Law in the next article.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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