बाइबल के अनुसार, क्या मसीही कलीसियाओं में स्त्रियों को पुलपिट से प्रचार करने और पास्टर की भूमिका निभाने की अनुमति है?
भाग 16 – उपसंहार
विषय “बाइबल के अनुसार, क्या मसीही कलीसियाओं में स्त्रियों को पुलपिट से प्रचार करने और पास्टर की भूमिका निभाने की अनुमति है?” पर, तथा इसके पक्ष में कुछ लोगों द्वारा दी जाने वाली दलीलों पर भी, बाइबल में उनके बारे में दी गई जानकारी को देखने और बाइबल के आधार पर उन सभी का विश्लेषण करने के बाद, अन्ततः हमने देखा है कि यदि ईमानदारी और वास्तविकता के साथ देखा जाए तो बाइबल में ऐसा कुछ भी नहीं है जो उपरोक्त धारणा समर्थन करता है, उसे वैध ठहरा सकता है।
बहुत बार परमेश्वर के वचन में दिए गए निर्देशों या आज्ञाओं को ठीक से समझ पाना हमारे लिए कठिन होता है। किन्तु चाहे वे हमारी समझ में न भी आएँ, चाहे उन्हें समझना और समझाना कठिन या असंगत प्रतीत हो, परन्तु प्रभु की आज्ञाकारिता का अर्थ है, तब भी, हर हाल में, उस निर्देश या आज्ञा का पालन करना ही है। जब परमेश्वर ने अब्राहम से कहा कि अपने बेटे इसहाक को बलि चढ़ा दे (उत्पत्ति 22:1-3), तब क्या यह बात उसकी समझ में आई होगी? जब पतरस सारी रात मेहनत कर के भी कोई मछली नहीं पकड़ सका, तब क्या उसे समझ में आया होगा कि प्रभु उससे एक बार फिर से जाल डालने के लिए क्यों कह रहा है (लूका 5:5)? ये, और इनके समान बाइबल के कई अन्य उदाहरण मानवीय बुद्धि एवं तर्क द्वारा न तो समझे जा सकते हैं और न ही समझाए जा सकते हैं। किन्तु प्रभु परमेश्वर की बात मानने से मिलने वाले परिणाम और आशीषें यही दिखाते हैं कि परमेश्वर की कही बात को मान लेने में ही हमारी भलाई है, वही सर्वोत्तम मार्ग है, और उसका पालन न करना दुःख और हानि का कारण होता है।
जैसा कि पहले, इस श्रृंखला के आरंभ में, कहा जा चुका है, परमेश्वर ने स्त्रियों को भी बहुत सारे वरदान और योग्यताएँ दी हैं, और उन्हें इनका उपयोग परमेश्वर द्वारा निर्धारित तरीके से करना है; इन वरदानों, योग्यताओं, और तरीकों में कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें पुरुष कभी नहीं कर सकते हैं। हम जानते हैं कि अतिथि-सत्कार, करुणा, दया, आदि ऐसी बातें हैं जिन्हें स्त्रियाँ पुरुषों से बहुधा बेहतर करती हैं। परमेश्वर का वचन कहीं पर भी स्त्रियों को सार्वजनिक प्रार्थनाओं में भाग लेने और भविष्यवाणी करने से नहीं रोकता है (1 कुरिन्थियों 11:5)। बाइबल कभी भी, सभी नया जन्म पाए हुए मसीही विश्वासियों को, जिनमें स्त्रियाँ भी सम्मिलित हैं, लिंग अथवा किसी भी अन्य आधार पर, पवित्र आत्मा के वरदानों को प्राप्त करने तथा उपयोग करने से वर्जित नहीं करती है (1 कुरिन्थियों 12; प्रेरितों 2:17-18)। पवित्र आत्मा के फलों (गलातियों 5:22–23) को जीवन में प्रदर्शित करना केवल पुरुषों ही के लिए नहीं है, वरन दोनों, पुरुषों और स्त्रियों के लिए है। स्त्रियों को अन्य स्त्रियों को सिखाने के लिए कहा गया है (तीतुस 2:3-5)। बाइबल स्त्रियों को बच्चों को सिखाने से भी नहीं रोकती है। तो फिर स्त्रियों में परमेश्वर की ओर से उन्हें निम्न दर्जे का किए जाने और परमेश्वर द्वारा कुछ बातों से वंचित किए जाने की भावना क्यों हो? इस प्रकार की भावना उत्पन्न करना, और उसके लिए उकसाना शैतानी युक्ति है, उन्हें दुःख और हानि में डालने के लिए।
परमेश्वर ने अपनी बुद्धिमानी में निर्धारित किया है कि कलीसियाओं में केवल पुरुष ही आत्मिक शिक्षा देने का अधिकार रखेंगे। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि पुरुष बेहतर शिक्षक होते हैं, या स्त्रियाँ कम बुद्धिमानी वाली या कम दर्जे की होती हैं। यह तो केवल इसलिए है क्योंकि परमेश्वर ने स्त्री और पुरुष की उनके गुणों और योग्यताओं में कुछ भिन्नताओं के साथ सृष्टि की है; और इसी के अनुसार कलीसियाओं का प्रबंधन और संचालन निर्धारित किया है। जैसे पुरुषों को अपने जीवनों एवं शब्दों के द्वारा आत्मिक नेतृत्व को प्रदर्शित करना है, ठीक उसी प्रकार स्त्रियों को भी ऐसे ही उदाहरण बनकर दिखाना है, किन्तु कुछ भिन्न रीति से (1 पतरस 3:1-6)। उन्हें केवल कलीसिया में पुरुषों पर अधिकार रखने से मना किया गया है। इस आधार पर वे कलीसिया में पास्टर भी नहीं हो सकती हैं। लेकिन इससे किसी भी रीति से स्त्रियाँ कम महत्व की नहीं हो जाती हैं; वरन यह केवल उनकी सेवकाई को एक भिन्न क्षेत्र की ओर, जिसके लिए परमेश्वर ने उन्हें बनाया और तैयार किया है, केन्द्रित करने के लिए है।
कुछ स्त्रियों द्वारा कलीसियाओं में प्रचार करने और पास्टर बनने की लालसा रखने के दो मुख्य किन्तु अनकहे कारण हैं। वास्तव में ये शैतान द्वारा बहका कर फंसाने के फंदे हैं, जिनमें वे बिना अपनी इस मनोकामना की हानि का एहसास किए, फँस जाते हैं। पहला है, कलीसिया में प्रचार करने के द्वारा नाम और यश कमाना, और यह संतुष्टि रखना कि उन्हें भी कलीसिया के सदस्यों में एक उच्च दर्जा मिल गया है। वे लोगों के मध्य अपने बाइबल ज्ञान और प्रचार करने की योग्यता को दिखाना चाहती हैं, लोगों से प्रशंसा और आदर पाना तथा अपनी ओर ध्यान आकर्षित करना चाहती हैं, जो कि प्रभु यीशु द्वारा स्थापित उदाहरण (यूहन्ना 5:41) के बिलकुल विपरीत है; चाहे यह करने के लिए उन्हें परमेश्वर और उसके वचन की अनाज्ञाकारिता ही क्यों न करनी पड़े, और परमेश्वर से मिलने वाले आदर को ही क्यों न खोना पड़े (यूहन्ना 5:44)। दूसरा कारण है कलीसिया में होकर पुरुषों के ऊपर अधिकार और सामर्थ्य रखना। आज की कलीसियाओं के प्रबंधन और संचालन में एक पास्टर को कलीसिया के सदस्यों पर बहुत से अधिकार और सामर्थ्य प्राप्त है। साथ ही, पास्टर बनना पहला कदम होता है, आगे पदोन्नति मिलने तथा और भी अधिक अधिकार एवं सामर्थ्य के पदों तक पहुँचने का। जैसे अदन की वाटिका में फल के स्वरूप और आकर्षण ने हव्वा को बहकया और उकसाया, पाप करवाया, वैसे ही पद, अधिकार, और सामर्थ्य की यह लालसा उन्हें परमेश्वर के वचन की अनाज्ञाकारिता करने के लिए उकसाती है, और करवाती है। इसीलिए, बजाए इसके कि परमेश्वर द्वारा कही गई सीधी सी बात का पालन कर लें, कुछ स्त्रियाँ और उनके समर्थक, अपने अहम को संतुष्ट करने के लिए, अपने आप को सही ठहराने के लिए, परमेश्वर के वचन को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करते हैं, उसे काट-छांट कर, उसकी गलत व्याख्या करके, अपनी ही लालसाओं के अनुरूप दिखाने का प्रयास करते हैं, वचन में बहुत से व्यर्थ तर्क और मुद्दे घुसाते हैं, तथा परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता करते हैं। किन्तु लोगों से कुछ समय का नश्वर आदर और प्रशंसा पाने के लिए अपने अनन्त कालीन प्रतिफलों और आशीषों को गँवा देना (मत्ती 7:21-23) कहाँ की बुद्धिमानी है? वास्तविक लाभ परमेश्वर की आज्ञाकारिता करने से हैं, न कि उसकी अनाज्ञाकारिता करने के बहाने और तरीके ढूंढने में।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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According to the Bible, Do Women Have the Permission to Serve as Pastors and Preach from the Pulpit in the Church?
Part 16 – Conclusions
Having considered and analyzed the topic “According to the Bible, Do Women Have the Permission to Serve as Pastors and Preach from the Pulpit in the Church?”, and also having considered and analyzed the various arguments given by people in favor of the topic in detail, on the basis of the information given in God’s Word the Bible about it, the overall conclusion is that there is nothing in God’s Word that can actually and honestly be used to justify this notion.
Many times, it is not possible to understand each and every instruction or commandment given by the Lord God. But even if the instruction or commandment is inexplicable, whether or not we understand it, but obedience to the Lord means obeying that instruction or commandment, in any case. When God asked Abraham to sacrifice his son (Genesis 22:1-3), would he have understood why God was asking him to do it? After Peter had struggled the whole night to catch fish, and caught nothing, would he have understood why the Lord was asking him to cast the net again in a particular direction (Luke 5:5)? These, and many other similar examples in the Bible can neither be understood nor explained by human wisdom and logic. But the results and blessings that followed the obedience are a proof that obeying God is the best course of action, and all other things eventually lead to harm and loss.
As has been pointed out earlier, at the beginning of this series, God has given women also many gifts, which they are to use in many ways ordained for them by God, and often in ways that men can never use similar gifts. Gifts of hospitality, compassion, mercy, etc. are those where women often do much better than men. God’s Word does not restrict women in the church from public praying or prophesying (1 Corinthians 11:5). The Bible nowhere restricts women from receiving or exercising the gifts of the Holy Spirit, which are all Born Again Believers, irrespective of gender or any other criteria (1 Corinthians 12; Acts 2:17-18). The demonstration of the fruit of the Spirit in the life of Believers (Galatians 5:22–23) is not restricted only to men, but is for both men and women. Women are encouraged to teach other women (Titus 2:3–5). The Bible also does not restrict women from teaching children. So, why should women feel inferior or deprived of anything from God? To create such an impression amongst them is just a satanic ploy to mislead into harm and loss.
God in His wisdom, has ordained that only men are to serve in positions of spiritual teaching authority in the Church. This does not imply men are better teachers or that women are inferior or less intelligent. It is simply the way God created men and women with some difference in characteristics and attributes, for different purposes; and has set the functioning of His Church. Just as men are to set the example in spiritual leadership—in their lives and through their words, similarly women are also to set an example in their lives, but in a different way (1 Peter 3:1-6). The only restriction is about having spiritual teaching authority over men in the Church. This bars women from serving as pastors to men. But this does not make women less important, by any means; rather, it only gives them a ministry focused in a different area, as God has designed it for them.
There are two main hidden reasons for some women wanting to preach in the Churches and become Pastors – actually satanic traps of disobeying God’s Word, into which he has enticed and trapped some, without their realizing what has been done to them. The first is getting name and fame, and the feeling of having acquired a status in the congregation, that comes through preaching in the Church. They want to show-off their Bible knowledge and preaching abilities before the people, get the attention, praise, and honor from people, unlike the example that the Lord Jesus set (John 5:41), even if it means disobeying God and His Word, rejecting the honor that God would have given them for obeying Him (John 5:44). The second is to hold power and authority over men through having it in the Church. In today’s Church management, the Pastor has a lot of control and authority over the local congregation. Also, becoming a Pastor is the first step to getting promoted and then rising to positions of greater power and authority in the Church management hierarchy. As the appearance and attraction of the fruit enticed and seduced Eve to commit sin, similarly this lust for power and authority over others provokes them into disobeying God and His Word. Therefore, instead of simply accepting a straightforward instruction from God, some women and their supporters, merely to satisfy their ego and to prove themselves right, justify themselves, they manipulate the Word of God, trim and twist it to try to make it fit into seeming to justify their desires, they add many vain logics and arguments into it, and disobey God. But it makes no sense to gain appreciation and honor from people, temporal power and authority for some time, but lose out on eternal rewards and blessings for this short temporary worldly honor (Matthew 7:21-23). The real benefits are through obeying God, not through finding excuses and ways to disobey Him.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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