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मंगलवार, 29 अगस्त 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 4 – Be a man / पुरुषार्थ कर – 1

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पुरुषार्थ करना - 1

 

    हमने पिछले लेख में देखा था कि दाऊद ने अपने पुत्र सुलैमान को 1 राजाओं 2:2-4 में परमेश्वर के साथ सही बने रहने, परमेश्वर द्वारा उसे दी गई ज़िम्मेदारियों को ठीक से पूरा करने, और आशीषित तथा सफल होने के लिए 4 निर्देश दिए थे। इन में से सबसे पहली बात जो दाऊद, सुलैमान से करने के लिए कहता है, वह है हिम्मत बांधकर पुरुषार्थ दिखा; अर्थात, चाहे जो भी परिस्थिति सामने क्यों न आए, हमेशा साहसी और दृढ़ होकर उसका सामना करने के लिए तैयार रहना होगा। सुलैमान को कभी इस तथ्य को नहीं भूलना था कि वह उस गद्दी पर परमेश्वर द्वारा नियुक्त किया गया है (1 राजाओं 10:9; 1 इतिहास 28:5-6; 29:1), और इसलिए वह परमेश्वर की ज़िम्मेदारी है। इसका अर्थ हुआ कि उसे कभी भी किसी भी व्यक्ति अथवा परिस्थिति से घबराना नहीं था; उसे हमेशा परमेश्वर पर अपना भरोसा बनाए रखना था कि वह सर्वदा उसके साथ है, उसकी सहायता करने, मार्गदर्शन करने, और हर परिस्थिति में सुरक्षित रखने के लिए।


    लेकिन उसके पिता, दाऊद, में होकर परमेश्वर द्वारा उसे इस निर्देश के दिए जाने का यह अभिप्राय भी था कि यद्यपि सुलैमान, जैसे दाऊद था, वैसे ही परमेश्वर द्वारा चुना गया और नियुक्त किया गया राजा था, किन्तु जैसा दाऊद के साथ हुआ था, वैसे ही सुलैमान के लिए भी जीवन कभी सहज और कोमल नहीं होगा। सुलैमान को हर प्रकार की परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा, और परमेश्वर द्वारा उसे दी गई ज़िम्मेदारियों के निर्वाह के लिए उसकी अच्छे से परीक्षा ली जाएगी। उस पर निश्चय ही आने वाली इन परिस्थितियों पर जयवंत होने का एक ही तरीका है कि परमेश्वर द्वारा मिली सामर्थ्य से उनका साहस और दृढ़ता से सामना किया जाए। साथ ही उनका सामना करने के लिए उसे अपने आप को उनके लिए शारीरिक, मानसिक, और आत्मिक दृष्टि से तैयार बनाए रखना था। यदि वह एक नकारात्मक अथवा हार मान लेने के दृष्टिकोण से आरम्भ करता, अपने आप को घबराया हुआ अनुभव करता; या ज़िम्मेदारियों के प्रति एक लापरवाही का, बात को यूँ ही हलके में लेने का रवैया रखता, तो फिर वह कभी कुछ नहीं करने पाता।


    इसी प्रकार से, परमेश्वर की संतानों के, मसीही विश्वास के जीवन को जीने, उसमें बढ़ते तथा परिपक्व होते जाने के लिए, यह मान कर चलना चाहिए कि हम परमेश्वर की सामर्थ्य से सब कुछ कर सकते हैं (फिलिप्पियों 4:13)। उनमें न केवल हर प्रकार की परिस्थितियों और समस्याओं के विषय एक पहले से सोचने की प्रवृत्ति और साहस के साथ उनका सामना करने की इच्छा होनी चाहिए, वरन उनके लिए तैयार भी रहना चाहिए और सामने आने वाली सभी संभावनाओं में कड़ा परिश्रम करने से भी नहीं घबराना चाहिए। अपने बच्चों की सहायता करने के लिए, जिससे कि वे परिस्थितियों के बारे में विचार कर के तैयार हो सकें, और उनका सामना करने के लिए तैयार हो सकें, परमेश्वर ने अपने प्रत्येक नया-जन्म पाए हुए विश्वासी को अपना पवित्र आत्मा दिया है (यूहन्ना 14:16, 17, 26)। कुछ डिनौमिनेशंस के द्वारा प्रचार किए और सिखाए गए बाइबल के प्रतिकूल प्रचार तथा शिक्षाओं के विप्रीत, बाइबल के अनुसार, परमेश्वर पवित्र आत्मा स्वतः ही प्रत्येक मसीही विश्वासी में, उसके प्रभु में विश्वास करने और उद्धार पाने के समय, उसी पल से ही, तुरंत ही आ जाता है (इफिसियों 1:13-14)।


    मसीही विश्वास का जीवन आराम से बैठकर बातों को यूँ ही हलके में लेने का जीवन नहीं है। प्रभु यीशु में विश्वास में आने के द्वारा नया जन्म पाना या उद्धार पाना, प्रक्रिया का पूरा होना नहीं है, बल्कि एक आरम्भ है, नए जीवन में उठाया गया पहला कदम ही है। इस नए जीवन में सभी पुरानी बातों को बदलना होगा, नई बातों को सीखना तथा उनके अनुसार जीवन जीना और उनका पालन करना सीखना होगा। यह स्वयं की संतुष्टि के लिए अपनी इच्छाओं के अनुसार जिया गया जीवन नहीं होता है, बल्कि प्रभु यीशु के लिए जिया जाने वाला जीवन होता है (2 कुरिन्थियों 5:15, 17)। मसीही विश्वास के जीवन में इस प्रकार की बढ़ोतरी और परिपक्वता की आवश्यकता की पुष्टि बाइबल के हवालों से हो जाती है, जैसे कि, 1 कुरिन्थियों 3:1-3, इब्रानियों 5:12, इफिसियों 4:13-15, 1 पतरस 2:1-2, आदि। परमेश्वर की संतान को केवल शारीरिक ही नहीं, बल्कि आत्मिक रीति से भी बढ़ते जाना है।


    बहुत से लोग, चाहे मसीही विश्वासी हों या न हों, हर बात के लिए कुड़कुड़ाने और हारा हुआ होने का रवैया रखते हैं। वे हमेशा अभिभूत रहते हैं, उनके जीवनों में होने वाली हर बात के लिए शिकायत करते हैं, बड़बड़ाते रहते हैं, और कभी कुछ नहीं करने पाते हैं। जब हम परमेश्वर पर पूरा भरोसा करना सीखते हैं, तब ही हम यह विश्वास कर सकते हैं कि परमेश्वर हमें सभी परिस्थितियों में से निकालता हुआ सभी बातों को पूरा भी करवाएगा (2 कुरिन्थियों 12:9)। और तब हम एक जयवंत तथा हासिल कर लेने वाला जीवन जीने पाएँगे, परमेश्वर की आशीषें हमारे साथ होंगी, और परमेश्वर जो ज़िम्मेदारियाँ हमें देता है, जिनके लिए उसने हमें अपनी सामर्थ्य दी है, उन्हें पूरा करने पाएंगे।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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Being a Man - 1

 

    We have seen in the previous article that David gave his son Solomon 4 instructions in 1 Kings 2:2-4 to stay right with God, properly fulfill his God given responsibilities, and be blessed and successful. The very first thing that David instructs Solomon to do is to be a man, i.e., always be strong and courageous to face whatever may come his way. Solomon was never to ignore or forget the fact that he was God's chosen appointee to the post (1 Kings 10:9; 1 Chronicles 28:5-6; 29:1); therefore, he was God’s responsibility. This meant that he was never to be daunted by anyone or anything; he had always to be trusting that God is always with him to help, guide and keep him safe in all situations, and from everyone.

    But God instructing him through his father, David, was also indirectly telling Solomon that though he was a God chosen and appointed King, like David was, still as had been for David, life would never be easy and soft for him. Solomon will have to face all kinds of situations and will be tested thoroughly in fulfilling his God given responsibilities. The only way to overcome the situations that surely will come his way was to not only be willing to face them bravely in God’s strength, but also under God’s guidance, to keep preparing himself, physically, mentally, as well as spiritually for them. If he were to start with a negative or a defeatist mentality, feeling overwhelmed; or if he had a casual and uncaring attitude towards his responsibilities, a tendency of taking things lightly, then he would never be able to accomplish anything.

    Similarly, God’s children, for living the Christian life and faith, growing and maturing in it, should always believe that we can do all things through Christ who strengthens us (Philippians 4:13). This also requires not only an anticipation and willingness to face all kinds of situations and problems bravely, but also a preparation for them, and resolute laboring to be ready for the various possibilities that may occur. For helping His children anticipate, prepare, and be ready for the situations, God has given His Holy Spirit to every Born-Again Christian Believer (John 14:16, 17, 26). Quite unlike the unBiblical doctrine preached and taught by some denominations, Biblically speaking, God the Holy Spirit spontaneously comes to reside in the Christian Believer from the very moment of his believing in the Lord and being saved (Ephesians 1:13-14).

    Christian life and living is not a life of sitting back and taking things easy. Being Born-Again or saved by coming into faith in the Lord Jesus, is not the completion, but only the first step into a new life. In this new life, all the old things have to change, new things have to be learnt, lived, and followed. It has to be a life lived not for self or self-gratification, but for the Lord Jesus (2 Corinthians 5:15, 17). Biblical passages, e.g., 1 Corinthians 3:1-3, Hebrews 5:12, Ephesians 4:13-15, 1 Peter 2:1-2 allude to this growth and maturity that is expected in a Christian Believer’s life after coming into faith. A child of God has to not only grow physically, but spiritually as well.


    Many people, whether Believers or not, live with a grumbling and defeatist attitude about everything. They are always overwhelmed, complaining, and grumbling about anything and everything in their lives, and they never can achieve anything. It is only when we learn to trust God for everything, that we can believe that God will help us go through everything and accomplish everything (2 Corinthians 12:9). And then we can live an overcoming and achieving life, have the blessings of God and be successful in accomplishing all that God wants us to do, and has empowered us for.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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