ई-मेल संपर्क / E-Mail Contact

इन संदेशों को ई-मेल से प्राप्त करने के लिए अपना ई-मेल पता इस ई-मेल पर भेजें / To Receive these messages by e-mail, please send your e-mail id to: rozkiroti@gmail.com

बुधवार, 24 जनवरी 2024

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 148 – Stewards of The Church / कलीसिया के भण्डारी – 30

Click Here for the English Translation


कलीसिया का उद्देश्य 

    इस से पिछले समीक्षा-लेख में हमने देखा था कि प्रत्येक नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी के लिए परमेश्वर की कलीसिया और परमेश्वर की सन्तानों के साथ सहभागिता रखने के बारे में सीखना क्यों आवश्यक है – यह हमें परमेश्वर के द्वारा सौंपा गया भण्डारीपन है, और हमें योग्य रीति से इसका निर्वाह करना है, क्योंकि अन्ततः हमें इसका हिसाब उसे देना ही होगा। हम कलीसिया के बारे में मत्ती 16:18 से सीख रहे हैं, जहाँ पर शब्द “कलीसिया” बाइबल में पहली बार उपयोग किया गया है। हमने लेखों में, तथा समीक्षा लेख में भी देखा है कि प्रभु यीशु ने अपनी कलीसिया के किसी भी पक्ष को अपने अतिरिक्त किसी अन्य के हाथों में कदापि नहीं छोड़ा है, जो इस बात का सूचक है कि कलीसिया उसके हृदय के कितने निकट है, उसके लिए कितनी महत्वपूर्ण है। यह तथ्य सर्वोच्च महत्व का है, और आज, कलीसिया के उद्देश्य के द्वारा हम देखेंगे कि ऐसा क्यों है। फिर इसके बाद के जो हमने कलीसिया के बारे में सीखा है, उसके व्यावहारिक निहितार्थों के द्वारा हम सीखेंगे कि हमें कलीसिया में किस प्रकार रहना और व्यवहार करना चाहिए।

    इस कलीसिया को बनाने का, हम मनुष्यों को अपने साथ इतनी बारीकी से जाँच-परख कर (1 कुरिन्थियों 3:13-15), जोड़ने के पीछे, प्रभु यीशु का क्या उद्देश्य है, क्या उपक्रम है? इसे समझने के लिए हमें सृष्टि के आरंभ के समय में, अदन की वाटिका में घटित हुई पहले पाप की घटना पर जाना पड़ेगा, जब शैतान ने हव्वा को बहका कर आदम और हव्वा से परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता करवाई, और पाप को सृष्टि में प्रवेश मिल गया, पाप के दुष्प्रभाव ने सारी सृष्टि को बिगाड़ दिया (रोमियों 8:19-22)। इस दुखद घटना से पूर्व, मनुष्य निष्पाप दशा में परमेश्वर के साथ संगति और सहभागिता रखता था, जो पाप के कारण टूट गई। मनुष्य के साथ इसी संगति और सहभागिता को पुनः स्थापित करने, शैतान द्वारा मनुष्यों में बोए गए पाप के ‘बीज’ को निकाल बाहर करने, और मनुष्य को उसका वह आदर और स्थान (रोमियों 8:15-17; 1 कुरिन्थियों 6:2-3) बहाल करने के लिए जो परमेश्वर ने उसकी रचना करने के समय उसे दिया था (उत्पत्ति 1:28), प्रभु परमेश्वर अपने लोगों को उस भाल की गई स्थिति में अपने साथ रहने के लिए एकत्रित कर रहा है (इफिसियों 5:25-27)। इसीलिए वह इतनी बारीकी से देखभाल कर, स्वयं ही इस पूरी प्रक्रिया को पूरा कर रहा है, जिससे शैतान का कोई अंश भी उसमें न रह जाए। इसीलिए, वह हमारे चरित्र, व्यवहार, और परस्पर संगति में सँसार, मनुष्यों, और शैतान की बातों के अंश और आदतें नहीं, केवल अपने और अपने वचन की बातों को देखना चाहता है। और, विश्वासी का केवल प्रभु और उसके वचन में, न कि किसी मनुष्य की गढ़ी हुई बातों में बने रहना (1 यूहन्ना 2:3-6); मनुष्यों को नहीं वरन केवल प्रभु ही को प्रसन्न करने का जीवन जीना (गलतियों 1:10), ही इस बात का प्रमाण है कि वह प्रभु द्वारा उसे बेदाग और बेझुर्री किए जाने का वास्तविकता में पालन कर रहा है।

    यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो एक बार फिर आप से आग्रह है कि अभी समय रहते अपनी वास्तविक स्थिति को जाँच-समझ लें। किसी भी परिवार विशेष में जन्म लेने, किसी भी डिनॉमिनेशन के नियम, रीतियाँ, प्रथाएं, और त्यौहार-व्यवहार आदि का निर्वाह करने, अपने परिवार के लोगों के कितनी भी पीढ़ियों से मसीही या ईसाई होने या अभी वर्तमान में भी किसी मसीही सेवकाई में लगे होने, आदि बातों के द्वारा कोई भी प्रभु की कलीसिया का अंग नहीं बनता है। यह केवल व्यक्तिगत रीति से, समझते-बूझते हुए, अपने पापों से पश्चाताप करने और यीशु को प्रभु स्वीकार करके अपना जीवन उसे समर्पित कर देने, और फिर केवल उसी की आज्ञाकारिता में जीवन जीने से होता है (प्रेरितों 17:30-31; रोमियों 10:9-10)। यदि आप को अपने नया-जन्म पाए हुए होने के विषय जरा सा भी संदेह है, तो आपसे विनम्र निवेदन है कि अभी इस कार्य को कर लें, कदापि कोई आनाकानी न करें, इस निर्णय को टालें नहीं।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

कृपया इस संदेश के लिंक को औरों को भी भेजें और साझा करें

******************************************************************

English Translation


Purpose of the Church


    In the previous review-article we have seen why it is necessary for every Born-Again Christian Believer to learn about the Church of God and fellowshipping with God’s children – it is a stewardship entrusted to us by God, and we have to fulfil it worthily, since eventually we will have to give an account of it to Him. We have been learning about the Church from the Lord Jesus’s statement in Matthew 16:18, where the word “Church” is first used in the Bible. We have seen in the articles, as well as the review, that the Lord Jesus has not in the least left any aspect of His Church in the hands of anyone other than Himself, which shows how important and dear to His heart the Church is. This fact is of paramount importance, and today, through the purpose of the Church, we will see why this is so. Then, in the subsequent articles on practical implications of what we have learnt about the Church, we will see how we need to live and behave in the Church.

    What is the purpose of the Lord in building His Church, and in so minutely examining us (1 Corinthians 3:13-15), before joining us to His Church? To understand this, we need to go back to the first sin committed in the Garden of Eden, when Adam and Eve, beguiled by Satan, disobeyed God, which opened the way for sin to enter into creation and its harmful effects spread into and spoilt the whole of creation (Romans 8:19-22). Before this sad and painful event, man had an open, unbroken fellowship with God, which was broken by sin. Since then, God is engaged in the process of restoring back this fellowship with man, to remove the seeds of sin sown by Satan in the lives of men, and to give back to man the place and position (Romans 8:15-17; 1 Corinthians 6:2-3) He had given to him at the time of his creation (Genesis 1:28), and gather man to be with Him in that fully restored status (Ephesians 6:25-27). That is why He is so minutely managing and carrying out this whole process, all by Himself, so that nothing of Satan has any chance of remaining behind to once again ruin things. That is why, in our character, behavior, and mutual fellowship, He does not want to see anything whatsoever of the world, man, and Satan, but only those things which are of Him and His Word. And, a Believer’s abiding only in the Lord and His Word, not in anything made-up or created by man (1 John 2:3-6); living to only be a God pleaser, not a man-pleaser (Galatians 1:10), are the evidence that he actually is obeying the Lord’s making him without any spot or wrinkle.

    If you are a Christian Believer, then once again it is our humble but ardent request that you earnestly examine and ensure your actual status with the Lord, now while you have the time and opportunity. By being born in a particular family, or by following and fulfilling the rules, regulations, rites, rituals, feasts, festivals, and ceremonies of any sect or denomination, or because of any number of one’s previous generations being ‘Christians’ in the past does not make anyone a person of the Lord and a member of His Church. This only happens by a person’s taking a willing, conscious decision to repent of one’s sins, ask Him for forgiveness of sins, accept the Lord Jesus as savior and Lord, fully surrender and commit one’s life to Him, to live in obedience to Him and His Word (Acts 17:30-31; Romans 10:9-10). If you have any doubts whatsoever about your being Born-Again, then please get them clarified and settled now; please do not ignore, delay, or postpone doing so.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

Please Share the Link & Pass This Message to Others as Well

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें