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समीक्षा
पिछले लगभग एक महीने से हम निरन्तर इस बात पर जोर देते चले आ रहे हैं कि प्रत्येक नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी को परमेश्वर ने न केवल अपनी कलीसिया का एक अंग बनाया है, वरन उसे अपने परिवार के अन्य सदस्यों, अर्थात, अन्य उद्धार पाए हुए संतानों के साथ सहभागिता में भी रखा है। परमेश्वर के अनुग्रह से मिले इस प्रावधान के साथ एक निहितार्थ भी है, कि परमेश्वर ने अपनी प्रत्येक सन्तान को अपनी कलीसिया और अपनी सन्तानों के साथ सहभागिता रखने का भण्डारी भी बनाया है। इस तथ्य के द्वारा परमेश्वर की सन्तानों पर निहित जिम्मेदारियों को समझने और सीखने के लिए हम परमेश्वर की कलीसिया के बारे में मत्ती 16:18 से, जहाँ पर “कलीसिया” शब्द बाइबल में पहली बार आया है, देख रहे हैं कि कलीसिया क्या है और कैसे बनाई गई है। आज हम, जो कुछ हमने अभी तक सीखा है, उसकी समीक्षा करेंगे, और फिर इसके बाद के लेखों में हम कलीसिया के उद्देश्य और हमने अभी तक जो परमेश्वर की कलीसिया और उसकी सन्तानों के साथ सहभागिता के बारे में सीखा है, उसके व्यावहारिक निहितार्थों को देखेंगे।
पिछले लेखों में हमने मत्ती 16:18 में प्रभु के कहे वाक्य - “...मैं इस पत्थर पर अपनी कलीसिया बनाऊंगा...” से देखा है कि बाइबल के अनुसार कलीसिया कोई आराधना का भौतिक स्थान अथवा भवन नहीं है, वरन उन लोगों का समूह है जो प्रभु यीशु को जगत का एकमात्र उद्धारकर्ता स्वीकार करते हैं, और इस आधार पर, उन्होंने प्रभु यीशु से पापों की क्षमा और उद्धार प्राप्त करके अपने आप को पूर्णतः प्रभु को समर्पित किया है। प्रभु यीशु कहे गए इस वाक्यांश से हमने प्रभु की इस कलीसिया के विषय तीन बातें देखीं - पहली प्रभु यीशु ही अपने लोगों को एकत्रित कर रहा है, और उसके लोगों में किसी अन्य आधार पर कोई भी व्यक्ति सम्मिलित नहीं रह सकता है, प्रभु उन्हें पृथक कर देता है, या कर देगा। दूसरी बात उसके लोगों की देखभाल और रख-रखाव के लिए प्रभु की इस कलीसिया का संपूर्ण स्वामित्व प्रभु यीशु ही के पास है; प्रभु ने कुछ लोगों को कलीसिया की कुछ ज़िम्मेदारियां अवश्य दी हैं, किन्तु स्वामी वह स्वयं ही है, और अपने लोगों की जरा से भी हानि या उनके प्रति कोई भी लापरवाही उसे स्वीकार नहीं है। और तीसरी बात है कि प्रभु की कलीसिया अभी निर्माणाधीन है, प्रभु यीशु ही उसे बना रहा है; उसकी कलीसिया में कौन कहाँ पर किस प्रकार से उपयोग होगा, यह केवल प्रभु यीशु ही निर्धारित एवं कार्यान्वित करता है। अर्थात प्रभु यीशु की कलीसिया से संबंधित हर बात पूर्णतः प्रभु ही के नियंत्रण में है, किसी भी मनुष्य या मानवीय संस्था का इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं है, चाहे इस संसार में उस मनुष्य अथवा संस्था का कोई भी स्थान आया सम्मान क्यों न हो।
प्रभु यीशु ने अपने स्वर्गारोहण से पहले अपने शिष्यों को जो महान आज्ञा दी (मत्ती 28:18-20; मरकुस 16:15-19; लूका 24:47; प्रेरितों 1:8), वह सारे संसार के सभी लोगों, सभी जातियों में जा कर पापों से पश्चाताप करने और यीशु को प्रभु स्वीकार करने के द्वारा प्रभु यीशु में पापों की क्षमा और उद्धार पाने के सुसमाचार प्रचार करने के लिए थी। अर्थात, प्रभु का दृष्टिकोण केवल किसी एक स्थान विशेष के लोगों के लिए नहीं है, वरन सारे संसार के सभी लोगों के लिए है, इसलिए प्रभु यीशु की कलीसिया किसी स्थान अथवा जाति विशेष तक ही सीमित नहीं है, वरन विश्वव्यापी है। प्रभु संसार के सभी स्थानों और लोगों में से अपने विश्वासियों को एकत्रित करके अपनी विश्वव्यापी कलीसिया बनाने में लगा हुआ है। हम मसीही विश्वासी सुसमाचार प्रचार के द्वारा प्रभु के इस कार्य में उसके सहकर्मी, उसके सहायक हैं – हम सुसमाचार प्रचार के द्वारा लोगों को प्रभु के पास लाते हैं, प्रभु से जोड़ते हैं; और जो सच्चे मन तथा पूर्ण समर्पण से प्रभु के साथ जुड़ता है, उसे अपना उद्धारकर्ता स्वीकार करता है और अपना जीवन उसे समर्पित करता है, प्रभु उसे अपनी कलीसिया में उसके लिए उपयुक्त और उचित स्थान निर्धारित करके, उसे उस स्थान और दायित्व के निर्वाह के लिए तैयार करता है, प्रयोग करता है।
किन्तु साथ ही प्रभु यीशु प्रत्येक व्यक्ति के पापों से पश्चाताप और उसके प्रति उस व्यक्ति के समर्पण की वास्तविक मनोदशा भी भली-भांति जानता है, कोई उसका मूर्ख नहीं बना सकता है और न ही छल से प्रवेश कर सकता है। इसलिए उसकी कलीसिया में केवल वही बना रह सकता है, और उपयोगी हो सकता है जो प्रभु के मानकों पर सही होता है; अन्य सभी लोग देर-सवेर, अथवा जगत के अंत के समय के पृथक किए जाने में कलीसिया से बाहर निकाल कर अनन्त विनाश में भेज दिए जाएंगे (मत्ती 13:30)। इसलिए हम सभी के लिए अभी यह अवसर है कि कलीसिया में अपने होने के विषय अपनी सही जाँच-परख कर लें, और यदि कोई सुधार लाना है तो उसे अभी समय रहते कर लें, क्योंकि किसके पास समय और अवसर कब तक है कोई नहीं जानता है; इस निर्णय को टालना बहुत हानिकारक, अनन्तकाल के लिए पीड़ादायक हो सकता है (इब्रानियों 3:7-19)।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Review
For the past month we have been repeatedly emphasizing that every Born-Again Christian Believer has not only been made a member of His Church by God but has also been placed in fellowship with the other members of God’s family, i.e., the other saved children of God. Inherent in this gracious provision from God is the fact that God has also made every one of His children, stewards of His Church and of fellowshipping with each other. To be able to understand the responsibilities this fact places upon the children of God, we have been studying about God’s Church from Matthew 16:18, where the word “Church” is first use in the Bible – what it is, and how it is built. Today we will review what we have learnt so far, and then in the subsequent articles we will look at the purpose of the Church, and the practical implications of what we have learnt about God’s Church and fellowshipping with His children.
In the previous articles, we have been looking at important things from the Lord’s statement, “...on this rock I will build My church…” (Matthew 16:18). We have seen that, Biblically, the Church is not a building or a physical place of worship; it is a group of people called-out and gathered by the Lord Jesus Christ, those that accept Him as the one and only God appointed savior of the world, and on this basis they have asked for forgiveness of their sins from the Lord Jesus, and have surrendered their lives to Him, to live in His obedience. Related to this sentence, we had seen three things about the Church: First, it is the Lord Jesus Himself who is gathering together His people; none can become ‘His people’ and join His Church on any other basis or criteria - Lord separates them out, or will do it eventually. Second, the Lord Himself looks after and takes care of His people in the Church; He alone has the full ownership and authority of His Church. Although the Lord has given some responsibilities for the managing and functioning of the Church to some people chosen by Him for this, but only He has the ownership, and will take an account from those He has appointed to look after the Church. The Lord does not tolerate any carelessness or harm to His Church from anyone. Thirdly, the Church of the Lord Jesus is still “Under Construction;” the Lord Jesus Himself is building it. He alone determines who will do what, where, and when in His Church, no man, whoever he may be, has any say in this. So, everything related to the Church of the Lord Jesus is under the control of the Lord Himself; no person or organization has any say or interference in it, whatever be the status, or respect, or ranking of that person or institution in this world.
The Great Commission that the Lord gave to His disciples, before His ascension to heaven (Matthew 28:18-20; Mark 16:15-19; Luke 24:47; Acts 1:8), was for them to go into the world and preach the gospel to all people, to tell them about repentance of their sins and receiving forgiveness of sins by accepting Jesus as Lord and committing their lives to Him. In other words, the Lord’s perspective was not just for a particular place or people, but for everyone in the world. Therefore, the Church of the Lord too is not confined to any particular place or people, but is universal. The Lord Jesus is engaged in gathering His people from all over the world to build His Universal Church. The truly Born-Again Christian Believers are the Lord’s co-workers, His helpers in this, through preaching the gospel. Through the preaching of the gospel, we bring people to the Lord, join them to the Lord, and those who join with the Lord with a true heart and full submission, those who accept the Lord Jesus as their savior and Lord, the Lord then assigns that person a place in His Church, and starts preparing him to take that place and work for Him accordingly.
But along with this, the Lord also fully well knows the actual condition of the repentance, faith, and submission to Him of every person, none can fool Him or bluff their way through. Therefore, in His Church, only those will remain and be useful who satisfy the standards and criteria of the Lord; else, sooner or later, or eventually at the time of separation that will be done at the end of world, everyone not truly Born-Again, will be cast out of the Church into eternal destruction (Matthew 13:30). Therefore, for all of us, this is a time and opportunity to examine ourselves about our being a part of the Lord’s Church, and carry out whatever rectifications that are required to ensure we actually are a part of His Church. Ignoring or postponing this decision can have disastrous eternal consequences (Hebrews 3:7-19).
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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