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आरम्भिक बातों से संबंधित शिक्षाएँ – 1
परिचय - 1
इस श्रृंखला, परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी, के आरम्भ के आरंभिक विचारों में, हमने देखा था कि अपने आत्मिक उन्नति और बढ़ोतरी के लिए प्रत्येक मसीही विश्वासी को परमेश्वर के सम्पूर्ण वचन से अवगत होना चाहिए; जैसे-जैसे वह परमेश्वर के वचन में बढ़ेगा वह अपने आत्मिक जीवन में भी बढ़ता और परिपक्व होता चला जाएगा। क्योंकि कलीसिया मसीही विश्वासियों का समूह है, इसलिए जैसे-जैसे विश्वासी आत्मिक रीति से बढ़ते और परिपक्व होते हैं, वैसे-वैसे कलीसिया भी आत्मिक रीति से परिपक्व होगी, उसमें बढ़ोतरी होगी। हमने यह भी देखा था कि तीन प्रकार की बाइबल की शिक्षाएँ मसीही जीवन में बढ़ोतरी और परिपक्वता के लिए आधारभूत हैं। ये हैं: सुसमाचार से सम्बन्धित शिक्षाएँ; आरम्भिक बातों से सम्बन्धित शिक्षाएँ; व्यवहारिक मसीही जीवन जीने से सम्बन्धित शिक्षाएँ। इन तीन प्रकार की शिक्षाओं में से हमने पिछले लेख में सुसमाचार से सम्बन्धित शिक्षाओं के अध्ययन का समापन किया है। आज से हम दूसरे प्रकार की शिक्षाओं को देखना आरम्भ कर रहे हैं, अर्थात इब्रानियों 6:1-2 में दी गई छः प्रकार की आरम्भिक बातों से सम्बन्धित शिक्षाएँ। इससे पहले कि हम बारी-बारी से इन छः आरंभिक बातों को देखना आरम्भ करें, इनके परिचय के रूप में इससे से ठीक पहले के खण्ड, इब्रानियों 5:11-14, पर थोड़ा विचार करना लाभदायक रहेगा
इब्रानियों 5 के इस खण्ड में, इब्रानी विश्वासियों को लिखी इस पत्री का लेखक उन्हें फटकार लगाता है, क्योंकि वह उन्हें इब्रानियों 5 के पहले दस पदों के विषय, याजकीय सेवकाई और मलिकिसिदक, के बारे में सिखाने में अपने आप को असमर्थ पा रहा था। लेखक पद 11 में उन से कहता है, कि उसके पास कहने के लिए तो बहुत कुछ है और उन बातों को समझना भी कठिन है क्योंकि वे, अर्थात उसके पाठक ऊँचा सुनने लगे हैं। उनसे यह कहने के द्वारा “कि तुम ऊंचा सुनने लगे हो” लेखक यह सन्देश दे रहा है कि एक समय पर वे लोग इन शिक्षाओं को ग्रहण करने योग्य और परिपक्व थे, किन्तु अब उनकी आत्मिक परिपक्वता गिर गई है और वे “ऊँचा सुनने” लगे हैं, अर्थात सीखने में धीमे हो गए हैं। दूसरे शब्दों में, अब वे उन्हें जो सिखाया जाता है, उसे ग्रहण कर पाने और समझने के योग्य नहीं रह गए हैं।
यह हमारे सामने परमेश्वर के वचन को सीखने और अध्ययन करने से सम्बन्धित एक महत्वपूर्ण बात को लाता है कि, व्यक्ति परमेश्वर के वचन को सीखने और समझने में उन्नति भी कर सकता है और कमज़ोर पड़कर नीचे गिर भी सकता है। ध्यान कीजिए कि इस पत्री का लेखक अपने पाठकों से यह नहीं कह रहा है कि उन्होंने अपना विश्वास खो दिया है, अविश्वासी हो गए हैं; न ही वह उनसे यह कह रहा है कि वास्तव में वे कभी विश्वास में थे ही नहीं, और अब उनकी वास्तविकता प्रकट हो गई है क्योंकि वे अपने आप को उन्हें दी गईं परमेश्वर के वचन की शिक्षाओं में बनाए नहीं रख सके। किन्तु किसी कारण से उनके आत्मिक जीवनों में एक निष्क्रियता आ गई थी, और वे ऊँचा सुनने या सीखने में धीमे हो गए थे। इसलिए शिक्षा यही है कि मसीही विश्वासियों को परमेश्वर के वचन का अध्ययन करने और उसे सीखने में रुचि बनाए रखनी चाहिए, सक्रिय रहना चाहिए, अन्यथा उन्होंने जो सीखा है, उसे वे शीघ्र ही भूल जाएँगे, तथा उससे ऊपर के स्तर की शिक्षाओं को नहीं समझने पाएँगे, क्योंकि उसके लिए मौलिक बातों का आधार होना आवश्यक है। इससे हमारे सामने यह महत्वपूर्ण बात भी आती है कि केवल परमेश्वर के वचन को सुनना मात्र ही काफी नहीं है। प्रत्येक मसीही विश्वासी को उस पर मनन भी करना चाहिए, उसे याद रखना चाहिए, उसकी जुगाली करते रहना चाहिए, तब ही वह वचन से अधिकाई से प्राप्त कर सकेगा। जैसा कि यशायाह में लिखा है, नियम पर नियम रख कर शिक्षा को बनाया जाता है (यशायाह 28:10); इसके लिए आधारभूत शिक्षाओं में स्थापित होना अनिवार्य है, तब ही गूढ़ बातें सीखी जा सकती हैं। यदि मौलिक बातें खो गईं, तो फिर गूढ़ बातों को न तो ग्रहण किया जा सकता है, और न समझा जा सकता है। इसीलिए इसके बाद के पदों में लेखक आधारभूत बातों पर लौटने पर जोर देता है, और इसे हम अगले लेख में देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Teachings Related to the Elementary Principles – 1
Introduction - 1
At the beginning of this series on Growth through the Word of God, in the preliminary considerations, we had seen that for their spiritual growth, every Christian Believer ought to be well versed in the whole of God’s Word; as he grows in God’s Word, he will also mature and grow in his spiritual life. Since the Church is the congregation of the Christian Believers, therefore, as the Believers mature and grow spiritually, the Church will also mature and grow spiritually. We had also seen that three categories of Biblical teachings are fundamental for Christian growth and maturity. These are: Teachings related to the gospel; Teachings related to the elementary principles; Teachings related to practical Christian living. Of these three categories, we have concluded about the teachings related to the gospel in the last article. From today we are starting on the second category, i.e., teachings related to the six elementary principles, that are given in Hebrews 6:1-2. Before we start on these six principles, one-by-one, it will be helpful to see the immediately preceding section, Hebrews 5:11-14, as an introduction to these principles.
In this section of Hebrews 5, the author of the letter to the Hebrew Believers chides his readers, since he finds himself unable to explain to them about the Priesthood and Melchizedek – the subject of the first ten verses of Hebrews 5. The author, in verse 11 says to them that he has much to say, but is finding it hard to explain, since they – the readers, have become dull of hearing. By saying to them that “you have become dull of hearing” the author is indicating that at one time they were capable and mature to receive these teachings, but now their spiritual maturity has come down and they have become “dull of hearing;” or, as the NIV puts it, “slow to learn.” In other words, although there was time when they were capable of it, but now they are no longer capable of receiving and comprehending that which is taught to them.
This brings before us an important thing to keep in mind about studying and learning God’s Word; a person can both, grow strong, as well as grow weak and come down in his learning and understanding of God’s Word. Notice, that the author of this letter is not saying to his readers that they have lost their faith, become unbelievers; nor is he saying that since they never were actually in the faith, therefore, eventually their truth became apparent and they could not maintain themselves in the teachings of God’s Word given to them. But for some reason there was a stagnation in their spiritual lives, and they became dull of hearing or slow to learn. So, the lesson is that Christian Believers have to actively maintain their interest in studying and learning God’s Word, otherwise they will soon forget what they had learnt, and will not be able to comprehend the higher level of teachings, which require the basics to build up on. This also brings before us another important aspect, merely listening to God’s Word is not enough. Every Believer needs to meditate upon it, keep remembering and ruminating over it, to get the most out of it. As it says in Isaiah precept is built upon precept (Isaiah 28:10); it requires being well grounded in the basics, to learn the deeper things. If the basics are lost, then higher things cannot be received and comprehended. That is why in the subsequent verses the author emphasizes going back to learn the basics, and we will consider about this in the next article.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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