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सोमवार, 16 दिसंबर 2024

The Lord Jesus - Victorious Over Death / प्रभु यीशु - मृत्यु पर जयवन्त

 

पाप और उद्धार को समझना – 24

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पाप का समाधान - उद्धार - 21

प्रभु यीशु - मृत्यु पर जयवन्त



    हम देखते आ रहे हैं कि मनुष्यों के पाप से उत्पन्न स्थिति के समाधान के लिए ऐसा मनुष्य चाहिए था जो पूर्णतः निष्पाप और निष्कलंक हो; इतना सामर्थी हो कि मृत्यु उसे वश में न रख सके; और इतना कृपालु हो कि मनुष्यों के पापों को स्वेच्छा से अपने ऊपर लेकर, उनके दण्ड को मनुष्यों के स्थान पर सह ले, और फिर प्रतिफल को मनुष्यों में सेंत-मेंत बाँट दे। ऐसा मनुष्य पाप के दण्ड को सभी के लिए चुका सकता था, और मनुष्य को मृत्यु से स्वतंत्र कर के, उनका मेल-मिलाप परमेश्वर से करवा सकता था, अदन की वाटिका में खोई गई स्थिति को मनुष्यों के लिए वापस बहाल कर सकता था। इस संदर्भ में हम देख चुके हैं कि: 

* प्रभु यीशु पूर्णतः परमेश्वर होने के साथ ही पूर्णतः मनुष्य भी थे, किन्तु उनकी मानवीय देह में पाप का दोष, और उनमें पाप की कोई प्रवृत्ति नहीं थी।

* उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन परमेश्वर पिता की आज्ञाकारिता में व्यतीत किया, बिना परमेश्वर पर कोई संदेह किए अथवा उनकी आज्ञाकारिता के लिए कोई आनाकानी किए। 

* वे साधारण और सामान्य मनुष्यों के सभी अनुभवों में से होकर निकले किन्तु निष्पाप, निष्कलंक, पवित्र बने रहे। 

* उन्होंने स्वेच्छा से मनुष्यों के पापों के लिए अपने आप को बलिदान किया, ये जानते हुए भी कि क्रूस की मृत्यु कितनी पीड़ादायक, क्रूर, और वीभत्स होगी। 


     आज से हम उनके पाप का समाधान होने के लिए आवश्यक सिद्ध पुरुष होने के एक और गुण - उनके मृत्यु पर जयवंत होने के बारे देखना आरंभ करेंगे। हम पहले के लेखों में देख चुके हैं कि परमेश्वर ने प्रथम पुरुष और स्त्री को चेतावनी दे रखी थी कि वर्जित फल को खा लेने की अनाज्ञाकारिता का परिणाम मृत्यु, अर्थात पवित्र और सिद्ध परमेश्वर से और मनुष्यों की परस्पर एक दूसरे से अपरिवर्तनीय दूरी, होगी (उत्पत्ति 2:17)। यह मृत्यु दो स्वरूप में आएगी - आत्मिक, अर्थात परमेश्वर से दूरी; और शारीरिक, अर्थात एक दूसरे से दूर हो जाना – उनका शरीर क्षय होना आरंभ हो जाएगा, और अंततः मर जाएगा, फिर से मिट्टी में मिल जाएगा, जिस से उसे बनाया गया है (उत्पत्ति 3:17-19)। इसलिए यह स्वाभाविक है, जो भी व्यक्ति पाप का समाधान करेगा, पाप के दुष्प्रभावों को मिटाएगा, वह पाप के इस सबसे घातक परिणाम, आत्मिक तथा शारीरिक मृत्यु का भी अंत करेगा, उसे मनुष्यों पर से हटा देगा। तब ही उसके द्वारा किया गया पाप के निवारण और समाधान का कार्य उचित, स्वीकार्य, और पूर्ण माना जा सकेगा। यदि सब कुछ करने के बाद भी मृत्यु अपने स्थान पर बनी रहेगी, तो जो किया गया वह अपूर्ण और व्यर्थ रहेगा। इसीलिए परमेश्वर के वचन बाइबल में प्रभु यीशु मसीह के कार्य के लिए लिखा गया है “क्योंकि जब एक मनुष्य के अपराध के कारण मृत्यु ने उस एक ही के द्वारा राज्य किया, तो जो लोग अनुग्रह और धर्म रूपी वरदान बहुतायत से पाते हैं वे एक मनुष्य के, अर्थात यीशु मसीह के द्वारा अवश्य ही अनन्त जीवन में राज्य करेंगे। इसलिये जैसा एक अपराध सब मनुष्यों के लिये दण्ड की आज्ञा का कारण हुआ, वैसा ही एक धर्म का काम भी सब मनुष्यों के लिये जीवन के निमित धर्मी ठहराए जाने का कारण हुआ। क्योंकि जैसा एक मनुष्य के आज्ञा न मानने से बहुत लोग पापी ठहरे, वैसे ही एक मनुष्य के आज्ञा मानने से बहुत लोग धर्मी ठहरेंगे। और व्यवस्था बीच में आ गई, कि अपराध बहुत हो, परन्तु जहां पाप बहुत हुआ, वहां अनुग्रह उस से भी कहीं अधिक हुआ। कि जैसा पाप ने मृत्यु फैलाते हुए राज्य किया, वैसा ही हमारे प्रभु यीशु मसीह के द्वारा अनुग्रह भी अनन्त जीवन के लिये धर्मी ठहराते हुए राज्य करे” (रोमियों 5:17-21)।


    मसीही विश्वास के लिए वास्तविकता तो यही है कि प्रभु यीशु मसीह का पुनरुत्थान ही मसीही विश्वास का आधार है – यदि मसीही विश्वास में से पुनरुत्थान को हटा दें, या उसे झूठा प्रमाणित कर दें, तो फिर मसीही जीवन और शिक्षाएँ किसी भी अन्य धर्म की शिक्षाओं से भिन्न नहीं रह जाती हैं। इसीलिए प्रभु यीशु ने अपने पुनरुत्थान के बाद “और उसने दु:ख उठाने के बाद बहुत से बड़े प्रमाणों से अपने आप को उन्हें जीवित दिखाया, और चालीस दिन तक वह उन्हें दिखाई देता रहा: और परमेश्वर के राज्य की बातें करता रहा” (प्रेरितों 1:3)। प्रभु के लिए अपने मृतकों में से पुनरुत्थान को शिष्यों पर दृढ़ता से प्रमाणित करना, जिससे वे इसके विषय कभी धोखा न खाएं, कभी डगमगाए न जाएं अनिवार्य था - भविष्य की सारी मसीही सेवकाई इस एक बात पर निर्भर थी; और वह यह कार्य अपने पुनरुत्थान के बाद चालीस दिन तक उनके सामने करता रहा। बाइबल में 1 कुरिन्थियों 15 – पूरा अध्याय इसी विषय – पुनरुत्थान के महत्व, पर है, और पवित्र आत्मा की अगुवाई में पौलुस लिखता है कि यदि पुनरुत्थान नहीं है, यदि मसीह का पुनरुत्थान नहीं हुआ, तो मसीही विश्वास से संबंधित सभी प्रचार और शिक्षा व्यर्थ है (1 कुरिन्थियों 15:12-18)। इसीलिए, जैसा 1 कुरिन्थियों 15:12 में पूछे गए प्रश्न “सो जब कि मसीह का यह प्रचार किया जाता है, कि वह मरे हुओं में से जी उठा, तो तुम में से कितने क्योंकर कहते हैं, कि मरे हुओं का पुनरुत्थान है ही नहीं?” से प्रकट है, कलीसिया के आरंभ के साथ ही, जैसा कि प्रभु यीशु की मृत्यु के विषय हुआ था, प्रभु यीशु के पुनरुत्थान की वास्तविकता पर हमले होने, उसका इनकार करने के प्रयास आरंभ हो गए थे। पुनरुत्थान को झुठलाने के शैतान के ये प्रयास दिखाते हैं कि यह तथ्य उसके तथा उसके राज्य के लिए कितना खतरनाक है।


    प्रभु यीशु की मृत्यु और पुनरुत्थान को झुठलाने के एक प्रयास को हम पिछले लेख में देख चुके हैं - लोगों में यह मनगढ़ंत कहानी प्रचलित कर दी गई कि प्रभु यीशु मरा नहीं था, बेहोश हुआ था, और कब्र के ठन्डे वातावरण में जब उसे होश आया, तो वह उठकर कब्र से बाहर आ गया और कहीं चला गया। इसी प्रकार से और भी कुछ कहानियाँ पुनरुत्थान को झुठलाने के लिए बनाई गई हैं, जिन्हें हम अगले लेख में देखेंगे। किन्तु बारीकी से जाँचने पर इनमें से कोई भी कहानी बाइबल में दिए गए विवरणों पर खरी नहीं उतरती है। लेकिन पुनरुत्थान को झुठलाने के ये प्रयास दिखाते हैं कि प्रभु यीशु का पुनरुत्थान कितनी महत्वपूर्ण घटना है, और शैतान इसे नकारने के लिए कितना बेचैन है। इसी से यह भी समझ में आने पाता है कि क्यों प्रभु ने चालीस दिन तक अपने शिष्यों को इस बात में दृढ़ किया कि वह वास्तव में शारीरिक रीति से जी उठा है, उसका पुनरुत्थान कोई कल्पना या छलावा या सामूहिक सम्मोहन द्वारा दिमाग में डाली गई बात नहीं है। 


    वह जो मृत्यु के इस पार और उस पार, दोनों स्थितियों से भली-भांति अवगत है, वह आपसे, आपके प्रति अपने महान और समझ से बाहर प्रेम के अंतर्गत, अपने शिष्यों में होकर, इन लेखों में होकर, संसार की घटनाओं के प्रमाणों में होकर निवेदन कर रहा है “...मानो परमेश्वर हमारे द्वारा समझाता है: हम मसीह की ओर से निवेदन करते हैं, कि परमेश्वर के साथ मेल मिलाप कर लो” (2 कुरिन्थियों 5:20)। शैतान की किसी बात में न आएं, किसी गलतफहमी में न पड़ें, अभी समय और अवसर के रहते स्वेच्छा और सच्चे मन से अपने पापों से पश्चाताप कर लें, अपना जीवन उसे समर्पित कर के, उसके शिष्य बन जाएं। स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें।” आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपके इस जीवन तथा परलोक के जीवन को स्वर्गीय जीवन बना देगा।  

 

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 Understanding Sin and Salvation – 24

English Translation

The Solution For Sin - Salvation - 21

The Lord Jesus - Victorious Over Death


    We have been seeing that to atone for man’s sin and provide the solution to the problem of sin for mankind, such a man was required, who would be completely sinless and blameless; so powerful that death would be unable to have any hold on him; and so gracious that he would be willing to take all the sins of the entire mankind upon himself, suffer their punishment in the place of mankind, and then distribute the results of this sacrifice freely amongst all of mankind. Only such a man could pay the punishment of sin for everyone else, free man from death, and reconcile man with God, restoring the condition of man to as it was in the Garden of Eden. In this context, we have seen so far that:

* The Lord Jesus was fully God and was fully man as well; but His human body had no stain of sin, and He had no tendency to sin.

* He lived His whole life in obedience to God, without ever doubting Him for anything and never ever being reluctant in any way for obedience to God.

* He went through all the experiences of a common man, but remained sinless, spotless, and holy throughout.

* He sacrificed Himself voluntarily for the sins of mankind, knowing how cruel, painful, and inhuman the death on the cross would be.


    From today we will look into another aspect of His being the perfect person required for the solution of sin, i.e., about His being victorious over death. We had seen in the earlier articles that God had warned the first man and woman, Adam and Eve, the consequence of disobeying God and eating the forbidden fruit would be death, i.e., a humanly irreversible separation between the holy and perfect God and man (Genesis 2:17). This death would be in two forms – spiritual, i.e., separation from God; and physical, i.e., their body would start to decay or die off, and eventually the body would die and return to dust, from which it had been made (Genesis 3:17-19). Therefore, it is only natural that the man who would provide the solution to sin, and would take away the effects of sin, would also end the most serious of the consequences of sin, i.e., spiritual and physical death, and would take away the hold of death from man. Only then would the remedy and solution to the problem of sin provided by him be effective, acceptable, and complete. If even after doing everything else, death had still remained in its place, then whatever was done would be vain and incomplete. Therefore, it is written about the Lord Jesus’s work in God’s Word the Bible that, “For if by the one man's offense death reigned through the one, much more those who receive abundance of grace and of the gift of righteousness will reign in life through the One, Jesus Christ. Therefore, as through one man's offense judgment came to all men, resulting in condemnation, even so through one Man's righteous act the free gift came to all men, resulting in justification of life. For as by one man's disobedience many were made sinners, so also by one Man's obedience many will be made righteous. Moreover, the law entered that the offense might abound. But where sin abounded, grace abounded much more, so that as sin reigned in death, even so grace might reign through righteousness to eternal life through Jesus Christ our Lord” (Romans 5:17-21).


    The reality about the Christian Faith is that the resurrection of the Lord Jesus is the foundational truth of the Christian Faith. If the resurrection of the Lord Jesus is taken away from the Christian Faith, or if it is proven to be false, then the teachings and beliefs of the Christian Faith remain no different from the teachings and beliefs of any other religion of the world. That is why, after His resurrection, “to whom He also presented Himself alive after His suffering by many infallible proofs, being seen by them during forty days and speaking of the things pertaining to the kingdom of God” (Acts 1:3). It was absolutely essential, and mandatory, for the Lord Jesus to impress the fact of His resurrection from the dead, upon His disciples so firmly and effectively, that they would never falter about it, would never be deceived about it, and would always remain firmly established in their faith about it, always. Their whole future Christian Ministry depended upon this one fact; and the Lord continued to do this with His disciples for forty days after His resurrection. 


In the Bible, the whole chapter of 1 Corinthians 15 is on this theme – the fact, application, and implications of the Lord’s resurrection; and under the guidance of the Holy Spirit, the apostle Paul writes in this chapter that if there was no resurrection, if Christ did not rise from the dead, then all preaching and teaching related to the Christian Faith is vain (1 Corinthians 15:12-18). Hence, as is evident from the question raised in 1 Corinthians 15:12, “Now if Christ is preached that He has been raised from the dead, how do some among you say that there is no resurrection of the dead?”, with the birth and beginning of the activities of the Church, as had happened about the death of the Lord Jesus, the fact of the Lord’s resurrection also came under satanic attacks to try to disprove it, to try to show it to be a figment of imagination. These attempts by Satan to try to falsify and disprove the resurrection of the Lord, starting immediately after the Lord’s resurrection, show how fatal this fact is for his reign and kingdom on earth.


    We have already seen and considered one attempt to falsify the Lord’s death and resurrection in the previous article – a concocted story was spread amongst people that the Lord had not died on the cross, but had only become unconscious, then in the cool environment of the tomb He revived, and walked out of the tomb and went to some unknown place. Similar stories to deny the Lord’s resurrection were concocted and spread as well; and we will take a look at them in the next article. We will also see that when carefully examined, none of these stories can stand up to the descriptions given in the Bible about the resurrection. But these attempts at denying and falsifying the resurrection show how important an event the resurrection of the Lord actually is, and that is why Satan is trying so hard to somehow negate or disprove it. This also makes clear why the Lord for forty days continued to establish His disciples in His resurrection, that they would be sure of it and never be deceived into thinking that it was an imaginary event or a story planted, or an effect of mass hypnotism implanted in the minds of people.


      He who is well aware of the conditions on this side and the other side of death, because of His great love for you, which is beyond human understanding, through His disciples, through these articles, through the evidence of the happenings in the world, is pleading with you, “… as though God were pleading through us: we implore you on Christ's behalf, be reconciled to God” (2 Corinthians 5:20). Please do not fall for any satanic deception, do not be misguided or misled, now, while you have the time and opportunity to repent of your sins and accept the salvation being offered by the Lord, submit your life to him, and voluntarily accept being His disciple.


    If you are still not Born Again, have not obtained salvation, have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heart-felt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company, wants to see you blessed; but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours. 

 

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