मसीही विश्वासी के जीवन में व्यवस्था की उपयोगिता
व्यवस्था और व्यावहारिक जीवन से संबंधित तीन प्रश्नों में से दो को - व्यवस्था द्वारा जीवन दिए जाने, और व्यवस्था के दिए जाने के उद्देश्य को हम पिछले लेखों में देख चुके हैं। आज हम तीसरे प्रश्न, व्यवस्था की मसीही विश्वासी के जीवन में उपयोगिता और भूमिका के बारे में देखेंगे। वास्तव में व्यवस्था क्या है और उसके पालन से क्या अभिप्राय है, इसे हमने मत्ती 22:35-40 में प्रभु यीशु द्वारा एक व्यवस्थापक से हुई बातचीत से समझा था। हमने देखा था कि व्यवस्था कोई रीति-रिवाज़ों, पर्वों, भेंट-बलिदानों आदि का निर्वाह नहीं है। व्यवस्था परमेश्वर और मनुष्यों के साथ सही संबंध में आने और बने रहने के लिए परमेश्वर के निर्देश हैं, और परमेश्वर के इन निर्देशों का निर्वाह ही व्यवस्था का पालन करना है। जब मनुष्य का परमेश्वर के साथ संबंध सही हो जाता है, तो वह स्वतः ही उसके बदले हुए जीवन और अन्य मनुष्यों के साथ सही संबंध में रहने के द्वारा दिखने और प्रमाणित होने लगता है। प्रभु और व्यवस्थापक के मध्य हुई इसी बातचीत को हम आज के इस तीसरे प्रश्न के संदर्भ में लूका 10:25-28 से लेंगे, विशेषकर लूका 10:28 से, जहाँ प्रभु यीशु ने इस चर्चा के निष्कर्ष में उस व्यवस्थापक से कहा, “उसने [प्रभु यीशु ने] उस से कहा, तू ने ठीक उत्तर दिया है, यही कर: तो तू जीवित रहेगा” (लूका 10:28)। यह ध्यान देने योग्य बात है कि प्रभु यीशु ने उससे यह नहीं कहा कि “अब से तुझे यह सब करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। बस मुझ पर विश्वास कर लेना, और यह सब तेरे लिए स्वतः ही पूरा हो जाएगा।” वरन प्रभु ने जोर देकर, बात के निष्कर्ष में उससे कहा, “यही कर: तो तू जीवित रहेगा”, यानि कि, व्यवस्था की सही समझ और परिभाषा के पालन को अनिवार्य किया, और इसके बाद कभी भी अपनी कही इस बात को बदला नहीं। साथ ही एक बार फिर यह ध्यान में रखने की बात है कि प्रभु द्वारा उससे यही करने को कहना, उसके द्वारा कोई रीति-रिवाज़ों, पर्वों, भेंट-बलिदानों आदि का निर्वाह करने को कहना नहीं था। वरन, परमेश्वर और मनुष्यों के साथ सही संबंध में आना, और बने रहने को पूरा करने की बात थी, जैसा कि इसके आगे के ने क सामरी के दृष्टांत (लूका 10:29-37) से भी प्रकट है।
वर्तमान के, परमेश्वर के अनुग्रह के समय में, विश्वास द्वारा प्रभु से उद्धार को दान के रूप में प्राप्त करने के समय में, लोगों में इस तात्पर्य को लेकर एक असमंजस आ सकता है कि व्यवस्था का पालन करना तो फिर से कर्मों से धर्मी बनने की बात हो रही है, न कि विश्वास से धर्मी ठहरने की। किन्तु ऐसा नहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्रभु यीशु ने व्यवस्था को पूरा कर के हमारे सामने से उसे हटा दिया है, अब मसीही विश्वासियों को उसके पालन करने की कोई आवश्यकता नहीं रही है, अब मसीह यीशु ही हमारा उद्धार और जीवन है (कुलुस्सियों 2:13-17)। किन्तु साथ ही यहाँ पद 14 और पद 16 पर ध्यान कीजिए, “और विधियों का वह लेख जो हमारे नाम पर और हमारे विरोध में था मिटा डाला; और उसको क्रूस पर कीलों से जड़ कर सामने से हटा दिया है” (कुलुस्सियों 2:14); “इसलिये खाने पीने या पर्व या नए चान्द, या सब्तों के विषय में तुम्हारा कोई फैसला न करे” (कुलुस्सियों 2:16)। यहाँ प्रयोग किए गए शब्दों पर ध्यान कीजिए और विचार कीजिए; पद 14 के अनुसार, जो हमारे विरोध में था वह “विधियों का लेख” था, जिसे पद 16 में “खाने पीने या पर्व या नए चान्द, या सब्तों” आदि की बातें कहा गया है, “उसको क्रूस पर कीलों से जड़ कर सामने से हटा दिया है”। पिछले लेख में हमने देखा था कि ये सभी बातें प्रभु यीशु मसीह के चरित्र, जीवन, और समस्त मानव-जाति के उद्धार के लिए किए गए उनके कार्य के विभिन्न पहलुओं के प्ररूप और प्रतीक हैं। प्रभु यीशु ने इन सभी को अपनी देह में हमारे लिए पूरा कर के, अपने बलिदान और पुनरुत्थान के द्वारा इनके निर्वाह को हमारे सामने से हटा दिया है। प्रभु ने “व्यवस्था” को, अर्थात परमेश्वर के और मनुष्यों के साथ सही संबंध में आने और बने रहने को नहीं हटाया है, जो कि प्रभु यीशु में विश्वास लाने के द्वारा संभव होता है।
इसी प्रकार से एक अन्य संबंधित पद, रोमियों 10:4 को भी देखिए, “क्योंकि हर एक विश्वास करने वाले के लिये धामिर्कता के निमित मसीह व्यवस्था का अन्त है।” यहाँ पर भी कोई विरोधाभास नहीं है। जैसा हमने पिछले लेख में देखा था, व्यवस्था की ये बातें, जिन्हें प्रभु ने पूरा करके हमारे सामने से हटा दिया है, वे हमारे शिक्षक के समान थीं, जिन्होने हमें पाप, उसकी जवाबदेही, उसके परिणामों, और केवल उद्धारकर्ता पर विश्वास के द्वारा पापों से निवारण की बातों को सिखाकर, परमेश्वर के लोगों को अब्राहम से प्रतिज्ञा किए गए “उसके वंश,” जगत के उद्धारकर्ता प्रभु यीशु मसीह के हाथों में सौंप दिया है। अब उस शिक्षक का कार्य और भूमिका पूरे होकर समाप्त हो गए हैं। इससे आगे जो भी है, वह प्रभु यीशु में और उसके द्वारा ही है, अन्य किसी बात से नहीं। इसीलिए मनुष्य को धर्मी बनाने के लिए, “धामिर्कता के निमित मसीह व्यवस्था का अन्त है”; अर्थात अब इसके आगे व्यवस्था की उन बातों की, जिन्हें मसीह द्वारा पूरा करके हटा दिया गया है, अब कोई भूमिका नहीं रह गई है, उनका अंत हो गया है। अब जो धार्मिकता है, वह मसीह यीशु में विश्वास की धार्मिकता है, “कि यदि तू अपने मुंह से यीशु को प्रभु जानकर अंगीकार करे और अपने मन से विश्वास करे, कि परमेश्वर ने उसे मरे हुओं में से जिलाया, तो तू निश्चय उद्धार पाएगा। क्योंकि धामिर्कता के लिये मन से विश्वास किया जाता है, और उद्धार के लिये मुंह से अंगीकार किया जाता है” (रोमियों 10:9-10)।
किन्तु इन विधियों के लेख को पूरा कर के हटा लिए जाने से, व्यवस्था की, उसकी सही परिभाषा के अनुसार निर्वाह की अनिवार्यता, अर्थात हर व्यक्ति द्वारा व्यक्तिगत रीति से अपने पापों के लिए पश्चाताप करने, मसीह यीशु से उनके लिए क्षमा माँगने, और अपना जीवन उसे समर्पित कर देने के द्वारा परमेश्वर के साथ अपने संबंधों को ठीक कर लेने, परमेश्वर के साथ मेल-मिलाप कर लेने की अनिवार्यता समाप्त नहीं हुई है, वरन स्थापित तथा और दृढ़ हो गई है “सो जब हम विश्वास से धर्मी ठहरे, तो अपने प्रभु यीशु मसीह के द्वारा परमेश्वर के साथ मेल रखें” (“रोमियों 5:1)। परमेश्वर के साथ हुए हमारे इस मेल को विकसित करते जाने के लिए हमें अब किसी “विधियों के लेख” का पालन करने की नहीं, वरन प्रभु यीशु की आज्ञाकारिता और समर्पण में चलते रहने की आवश्यकता है “और वह इस निमित्त सब के लिये मरा, कि जो जीवित हैं, वे आगे को अपने लिये न जीएं परन्तु उसके लिये जो उन के लिये मरा और फिर जी उठा” (2 कुरिन्थियों 5:15)।
इसलिए आज भी मसीही विश्वासियों के लिए “व्यवस्था” का उसकी सही परिभाषा और अर्थ में पालन करने की उतनी ही आवश्यकता है, उसकी मसीही विश्वास के जीवन में उतनी ही महत्वपूर्ण भूमिका है, जितनी पहले थी। परमेश्वर का वचन, उसकी बातें कभी बदलती या टलती नहीं हैं; न परमेश्वर कभी बदलता है, और न उसका वचन कभी बदलता है “क्योंकि मैं यहोवा बदलता नहीं; इसी कारण, हे याकूब की सन्तान तुम नाश नहीं हुए” (मलाकी 3:6); “हे यहोवा, तेरा वचन, आकाश में सदा तक स्थिर रहता है। तेरी सच्चाई पीढ़ी से पीढ़ी तक बनी रहती है; तू ने पृथ्वी को स्थिर किया, इसलिये वह बनी है” (भजन 119:89-90)।
अगले लेख से हम एक नई शृंखला आरंभ करेंगे। यदि आप मसीही हैं, और अपने आप को किसी भी प्रकार की “व्यवस्था” - वह चाहे परमेश्वर की हो, या आपके धर्म, मत, समुदाय, या डिनॉमिनेशन की हो - के पालन के द्वारा धर्मी बनाने के, और अपने शरीर के कार्यों के द्वारा अपने आप को परमेश्वर को स्वीकार्य बनाने के प्रयासों में लगे हैं; तो ध्यान देकर समझ लीजिए कि परमेश्वर का वचन स्पष्ट बताता है कि व्यवस्था के पालन के द्वारा नहीं, वरन, परमेश्वर के दिए हुए पश्चाताप और समर्पण करने के मार्ग का पालन करने के द्वारा ही आप परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी और उसे स्वीकार्य बन सकते हैं। अभी समय और अवसर रहते सही मार्ग अपना लें, और व्यर्थ तथा निष्फल मार्ग को छोड़ दें।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
रूत 1-4
लूका 8:1-25
The Law in the Living by the Christian Faith
In the previous articles, we have seen two out of the three questions related to the Law and practical life; the questions regarding the giving of life by the Law, and regarding the purpose behind giving of the Law. Today we'll look at the third question, the utility and role of the Law in the life of a Christian Believer. We had understood from the Lord Jesus' conversation with a Scribe in Matthew 22:35-40 what the term “the Law” actually stands for, and what it means to follow the Law. We had seen that the Law is not the fulfilling of any rituals, feasts, offerings, sacrifices, etc. Rather, the Law are God's instructions to come into and live in the right relationship with God and with fellow humans; the living by and fulfilling God’s instructions regarding these is the observance of the Law. When man comes into a correct relationship with God, he automatically begins to demonstrate and affirm it by his changed life, and by living in the right relationship with other human beings too. We'll take this same conversation between the Lord and the Scribe in the context of considering our third question today, but from Luke 10:25-28, especially Luke 10:28, where the Lord Jesus concluded this discussion by saying to the Scribe, "And He [The Lord Jesus] said to him, ‘You have answered rightly; do this and you will live’" (Luke 10:28). It is of great importance and certainly worth noting that the Lord Jesus did not say to him that "from now on you will no longer need to do all this. Just believe in me, and it will all be done automatically for you." But, at the conclusion of the talk, the Lord insisted and said to him, "Do this: then you will live", i.e., made fulfilling the correct understanding and interpretation of the Law mandatory, and never changed His words after that. Once again, it is to be noted that the Lord’s asking him to do “this” was not asking him to fulfill the performing of any rituals, feasts, offerings, sacrifices etc. Rather, He was asking to get into, and stay in the right relationship with, God and humans; as is evidenced by the parable of the Samaritan in following verses (Luke 10:29-37).
In the present times, the time of God's grace, the time of receiving salvation from the Lord as a gift, by faith, people may be confused about understanding the application of this teaching, of keeping the Law, misinterpreting it as again going towards becoming righteous by works. But it is not so. There is no doubt, no going back on the fact that the Lord Jesus has fulfilled the law and removed it from us, Christian Believers in the Lord Jesus are no longer required to observe these requirements of the Law, Christ Jesus and He alone is our salvation and life (Colossians 2:13-17). But also note here verse 14 and verse 16, “having wiped out the handwriting of requirements that was against us, which was contrary to us. And He has taken it out of the way, having nailed it to the cross” (Colossians 2:14); "So let no one judge you in food or in drink, or regarding a festival or a new moon or sabbaths" (Colossians 2:16). Pay attention and consider the words used here; According to verse 14, what was against us was the “handwriting of requirements” which in verse 16 is referred to as “food or in drink, or regarding a festival or a new moon or sabbaths” etc. It is these that the Lord Jesus “has taken it out of the way, having nailed it to the cross.” In the previous article we saw that all of these things are types and symbols of different aspects of the character, life, and work of the Lord Jesus Christ done for the salvation of all mankind. The Lord Jesus, having lived by and fulfilled all of these works for us in His body, has removed their requirement for us through His sacrifice and resurrection. The Lord has not removed the "Law," i.e., our coming into and living in a proper relationship with God and fellow human beings, which happens by coming into faith in the Lord Jesus.
Similarly, consider another related verse, Romans 10:4, "For Christ is the end of the law for righteousness to everyone who believes." Even here, there is no contradiction. As we saw in the previous article, these things of the Law, which the Lord has accomplished and removed from us, were like our teacher, who taught us about sin, our accountability for sin, its consequences, and deliverance from sin through faith in the Savior alone and has handed over God's people to the promised “seed of Abraham,” Lord Jesus Christ, the promised Savior of the world. Now the work and role of that teacher has been completed. Whatever is beyond this is in and through the Lord Jesus, nothing else. That is why in order to make man righteous, "Christ is the end of the law for righteousness"; That is, now those things of the Law, which have been done away with by Christ, no longer have any role, they have come to an end. The righteousness that exists now is the righteousness of faith in Christ Jesus, "that if you confess with your mouth the Lord Jesus and believe in your heart that God has raised Him from the dead, you will be saved. For with the heart one believes unto righteousness, and with the mouth confession is made unto salvation” (Romans 10:9-10).
But the completion and taking away of these requirements of the Law, has not taken away the necessity of observing the Law by every person, in its correct definition and understanding; i.e., every person has to personally repent of their sins, ask the Lord Jesus to forgive sins, and surrender his life to the Lord Jesus, thereby come into the correct relationship with God and be reconciled with Him, and then continually live in that relationship; this application of the Law has been even more firmly established and confirmed “Therefore, having been justified by faith, we have peace with God through our Lord Jesus Christ” (Romans 5:1). In order to continually develop this peace and reconciliation with God, we no longer need to follow any "requirements of the Law" but to walk in obedience and submission to the Lord Jesus "and He died for all, that those who live should live no longer for themselves, but for Him who died for them and rose again" (2 Corinthians 5:15).
That's why there is just as much need for Christians today to follow the "Law" in its true definition and meaning, and it has an as important role in the life of Christian faith as it had earlier. The Word of God, His words never alter or change; God never changes, and his Word never changes “For I am the Lord, I do not change; Therefore you are not consumed, O sons of Jacob" (Malachi 3:6); “Forever, O Lord, Your word is settled in heaven. Your faithfulness endures to all generations; You established the earth, and it abides" (Psalm 119:89-90).
From the next article we will start a new series. If you are a Christian, and consider yourself righteous and acceptable to God by observance of any kind of “law”—whether of God, or of your religion, creed, community, or denomination—and by the actions of your flesh; then, pay heed and understand that God's Word clearly states that you can become righteous and acceptable to God, not by keeping the requirements of the Law, but by following God's path of repentance and submission. Now, while you have the time and opportunity, take the right step, and leave the useless and fruitless path that you may have been walking upon till now.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. By asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily submit yourself sincerely and with a committed heart to his Lordship in your life - this is the only way to salvation and heavenly life. You have to say only a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ, willingly and meaningfully, while simultaneously completely committing your life to Him. You can say this prayer of repentance and submission in a manner something like this, “Lord Jesus, I thank you for taking my sins upon yourself for their forgiveness and because of them you died on the cross in my place, were buried, you rose again on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God. Please forgive my sins, take me under your shelter, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and submissive heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
Read the Bible in a Year:
Ruth 1-4
Luke 8:1-25
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