व्यवस्था दिए जाने का उद्देश्य
हमने 1 अप्रैल के लेख के आरंभ में तीन प्रश्न अपने सामने रखे थे, जिनके उत्तर अभी समझने शेष हैं: पहला है कि यदि उद्धार व्यवस्था के पालन से नहीं है, तो फिर पुराने और नए नियम में व्यवस्था द्वारा जीवन मिलने की बात क्यों कही गई? और दूसरा है तो फिर व्यवस्था के दिए जाने का क्या उद्देश्य है? और तीसरा प्रश्न है कि आज हम मसीही विश्वासियों, प्रभु के लोगों के लिए, क्या व्यवस्था की कोई उपयोगिता अथवा भूमिका है? पिछले दो लेखों में हम इनमें से पहले प्रश्न, व्यवस्था के द्वारा जीवन मिलने को देख और समझ चुके हैं। हमने देख लिया है कि परमेश्वर ने जो कहा है, उसे पूरा भी किया है। “व्यवस्था” की सही परिभाषा, अर्थात, परमेश्वर और मनुष्यों के साथ सही संबंध बनाने और निभाने के सही निर्वाह के द्वारा, पुराने नियम में भी और नए नियम में भी लोगों ने अनन्त जीवन में प्रवेश किया है, और आज भी कर रहे हैं। आज हम दूसरे प्रश्न, परमेश्वर के लोगों को व्यवस्था के दिए जाने के उद्देश्य को समझेंगे।
इसके लिए कृपया गलातीयों 3 अध्याय अपने सामने रखिए। इस अध्याय के पहले 12 पदों में व्यवस्था के श्राप, अर्थात उसके संपूर्ण पालन की अनिवार्यता को समझाने के बाद, 13 पद में लिखा है कि मसीह यीशु ने हमारे लिए श्रापित होकर, अर्थात, व्यवस्था का उसकी पूर्णता में पालन कर के, हमें व्यवस्था के पालन के बंधन से छुड़ा लिया है। और उसने यह इसलिए किया कि, “यह इसलिये हुआ, कि इब्राहिम की आशीष मसीह यीशु में अन्यजातियों तक पंहुचे, और हम विश्वास के द्वारा उस आत्मा को प्राप्त करें, जिस की प्रतिज्ञा हुई है” (गलातियों 3:14)। परमेश्वर ने अब्राहम को सारे जगत की आशीषों का मूल, और उसमें होकर परमेश्वर की आशीषों को संसार के सभी लोगों में पहुँचाने की प्रतिज्ञा, व्यवस्था के दिए जाने से 430 वर्ष पहले ही दे दी थी (उत्पत्ति 12:1-3; गलातीयों 3:16-18)। और जैसा गलातीयों 3:16 में लिखा है, अब्राहम को दी गई यह प्रतिज्ञा उसके वंश में से जन्म लेने वाले प्रभु यीशु मसीह में होकर संसार के सभी लोगों के लिए दी गई थी। और 3:17 के अनुसार, व्यवस्था आकर प्रतिज्ञा को टाल नहीं देती है; व्यवस्था तो प्रतिज्ञा में जोड़ी गई है। फिर परमेश्वर पवित्र आत्मा, पौलुस में होकर 3:19 में व्यवस्था के दिए जाने के उद्देश्य को बताता है, “तब फिर व्यवस्था क्यों दी गई? वह तो अपराधों के कारण बाद में दी गई, कि उस वंश के आने तक रहे, जिस को प्रतिज्ञा दी गई थी, और वह स्वर्गदूतों के द्वारा एक मध्यस्थ के हाथ ठहराई गई” (गलातियों 3:19)। अर्थात, अब्राहम को प्रतिज्ञा के दिए जाने से लेकर, मसीह यीशु में प्रतिज्ञा के पूरे किए जाने के समय यानि कि प्रभु यीशु के उद्धारकर्ता होकर आने के समय तक, लोगों को निरंतर उनके पाप की दशा का एहसास करवाए रखने के लिए (इब्रानियों 10:3), व्यवस्था का दिया जाना आवश्यक था।
व्यवस्था के कारण लोगों को उनके पाप का ही नहीं, वरन पाप के लिए उनकी जवाबदेही का भी एहसास हुआ, क्योंकि उन्हें बार-बार अपने पापों को स्वीकार करते हुए उनके लिए निर्धारित भेंट और बलिदान चढ़ाने पड़ते थे। व्यवस्था, यानि कि परमेश्वर के मानकों के द्वारा ही उन्हें पाप की पहचान हुई (रोमियों 3:20; 5:13)। व्यवस्था एक शिक्षक के समान लोगों को पाप के बारे में सिखाने, और उन्हें स्मरण दिलाते रहने के लिए कि “क्योंकि अनहोना है, कि बैलों और बकरों का लहू पापों को दूर करे” (इब्रानियों 10:4) और प्रभु के उन्हें बचाने और छुड़ाने के लिए आने तक उन्हें संभाले रखने के लिए थी (गलातियों 3:23-24)। हम देख चुके हैं कि व्यवस्था का अर्थ है परमेश्वर और मनुष्यों के साथ सही संबंध में आना और बने रहना। व्यवस्था में दिए गए सभी पर्व, भेंट, बलिदान, रीतियाँ, आदि, सभी प्रभु यीशु मसीह के चरित्र, जीवन, और समस्त मानव जाति उद्धार के लिए उनके द्वारा किए गए कार्य के विभिन्न पहलुओं के प्ररूप या प्रतीक हैं। तात्पर्य यह कि व्यवस्था में दी गई ये सभी बातें मिलकर प्रभु यीशु मसीह के संपूर्ण स्वरूप और उनके उद्धार के कार्य को उसकी परिपूर्णता में दिखाती हैं। इसीलिए व्यवस्था में दी गई इन बातों - पर्वों, भेंट, बलिदान, रीतियों, आदि को यदि निभाना है तो उनकी संपूर्णता में ही निभाना पड़ेगा, तब ही प्रभु का सम्पूर्ण स्वरूप और कार्य पूरा किया गया माना जा सकेगा। किसी भी, कोई एक भी बात को नहीं निभाना, प्रभु के उद्धार के कार्य को अधूरा छोड़ देने के समान है, और अधूरे कार्य से उद्धार नहीं है। इसीलिए यह केवल प्रभु यीशु मसीह ही कर सकता था, और उसी ने किया भी; और इसीलिए किसी भी मनुष्य के लिए प्रभु यीशु के समान संपूर्ण व्यवस्था का पालन असंभव है।
जब प्रभु यीशु ने आकर उद्धार के कार्य को पूरा कर दिया, तो स्वतः ही व्यवस्था की सभी बातें पूरी होकर प्रभु के लोगों के द्वारा पालन करने से हटा ली गईं, और उस “शिक्षक” अर्थात व्यवस्था की उनके लिए आवश्यकता नहीं रही, “परन्तु जब विश्वास आ चुका, तो हम अब शिक्षक के आधीन न रहे” (गलातियों 3:25)। उस शिक्षक, व्यवस्था ने प्रभु के लोगों को पाप, उसके परिणाम, और परमेश्वर की धार्मिकता के मानकों के बारे में सिखा कर, परमेश्वर की उस धार्मिकता के सिद्ध स्वरूप प्रभु यीशु मसीह के हाथों में सौंप दिया है। अब जो कोई भी परमेश्वर की धार्मिकता को प्रभु यीशु मसीह में लाए गए विश्वास के द्वारा, उपहार के समान, प्रभु के हाथों से स्वीकार करता है, वह परमेश्वर की संतान और उसका वारिस बन जाता है, “क्योंकि तुम सब उस विश्वास करने के द्वारा जो मसीह यीशु पर है, परमेश्वर की सन्तान हो” (गलातियों 3:26), और फिर प्रभु में “अब न कोई यहूदी रहा और न यूनानी; न कोई दास, न स्वतंत्र; न कोई नर, न नारी; क्योंकि तुम सब मसीह यीशु में एक हो” (गलातियों 3:28)।
इस प्रकार, हम गलातियों 3 अध्याय से समझते हैं कि व्यवस्था का उद्देश्य था प्रतिज्ञा किए हुए उद्धारकर्ता प्रभु के आने तक, प्रभु के लोगों को एक शिक्षक के समान संभाले रखना। उन्हें पाप और उसके परिणामों के प्रति सचेत रखना, और कर्मों के द्वारा नहीं वरन केवल विश्वास के द्वारा ही पाप का निवारण संभव होना सिखाना। क्योंकि लोगों ने व्यवस्था को उसकी सही परिभाषा के अनुसार नहीं, वरन पर्वों तथा रीतियों का मनाना, और भेंट और बलिदानों को चढ़ाना समझ लिया, इसलिए वे व्यवस्था के मूल उद्देश्य को भुलाकर, एक औपचारिकता के समान उसके पूरा करने के असंभव कार्य में भटक गए। व्यवस्था का जो उद्देश्य था, उन्हें पाप की पहचान करवाना, उस की बजाए व्यवस्था के द्वारा धर्मी ठहरने की गलती में शैतान द्वारा उलझा दिए गए।
आज भी यही गलती मसीही समाज में अधिकांश लोग करने में लगे हुए हैं। आज भी वो समझते हैं कि किसी परिवार विशेष में जन्म लेने के कारण, उनके चर्च, डिनॉमिनेशन, मत, समुदायों, आदि की रीतियों के निर्वाह के द्वारा, कुछ पर्वों, रीतियों, और अनुष्ठानों, जैसे कि बपतिस्मा, प्रभु-भोज, आदि में भाग लेने, उन के निर्वाह के कारण परमेश्वर उन्हें अपनी संतान बनाने, उन्हें स्वर्ग में अपने साथ रखना स्वीकार करने के लिए बाध्य हो जाएगा। वे भी अपनी ही बनाई हुई व्यवस्था की बातों में उलझ कर पश्चाताप और विश्वास द्वारा परमेश्वर की धार्मिकता को प्राप्त करने की सच्चाई से भटके हुए हैं। कोई इस बात पर ज़रा सी भी गंभीरता से विचार नहीं करता है कि जब परमेश्वर के द्वारा दी गई व्यवस्था लोगों को उद्धार नहीं दे सकी, तो फिर मनुष्यों द्वारा बनाई, और सिखाई जाने वाली भिन्न चर्च और डिनॉमिनेशंस की विभिन्न व्यवस्थाएं कैसे यह करने पाएंगी?
उद्धार, पापों की क्षमा, परमेश्वर की संतान बनना, और परमेश्वर को स्वीकार्य होकर उसके राज्य में स्थान पाना किसी भी व्यवस्था के पालन के द्वारा नहीं, वरन केवल पापों से पश्चाताप और प्रभु यीशु को अपना उद्धारकर्ता स्वीकार करने, उसे समर्पित हो जाने के द्वारा है। अगले लेख में हम हमारे तीसरे प्रश्न, मसीही विश्वासियों के जीवनों में व्यवस्था की भूमिका के बारे में देखेंगे। अभी के लिए, यदि आप मसीही हैं, और अपने आप को किसी भी प्रकार की “व्यवस्था” - वह चाहे परमेश्वर की हो, या आपके धर्म, मत, समुदाय, या डिनॉमिनेशन की हो - के पालन के द्वारा धर्मी बनाने के, और अपने शरीर के कार्यों के द्वारा अपने आप को परमेश्वर को स्वीकार्य बनाने के प्रयासों में लगे हैं; तो ध्यान देकर समझ लीजिए कि परमेश्वर का वचन स्पष्ट बताता है कि व्यवस्था के पालन के द्वारा नहीं, वरन, परमेश्वर के दिए हुए पश्चाताप और समर्पण करने के मार्ग का पालन करने के द्वारा ही आप परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी और उसे स्वीकार्य बन सकते हैं। अभी समय और अवसर रहते सही मार्ग अपना लें, और व्यर्थ तथा निष्फल मार्ग को छोड़ दें।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
न्यायियों 19-21
लूका 7:31-50
Why the Law was Given
At the beginning of the April 1 article, we had three questions before us, since their answers had not been understood: First, if salvation is not from the observance of the Law, then why does the Old and New Testaments speak of having life through the law? The second, then why was the Law given? And the third question is, does the Law have any utility or role, for us Christians, the people of the Lord, today? In the last two articles, we have looked at and understood the first of these questions, the receiving of life through the Law. We have seen that what God has said, He has also fulfilled it. People in the Old Testament and in the New Testament have entered eternal life, and continue to do so, through living by and the fulfilling of the correct definition of "the Law," i.e., coming into and maintaining the right relationship with God and fellow human beings. Today we'll consider the second question, the purpose of the Law being given to God's people.
For this please keep Galatians, chapter 3 before you from God’s Word, the Bible. In this chapter, after explaining the “curse of the Law”, i.e., the absolute necessity of its perfect observance, in the first 12 verses of this chapter, verse 13 states that Christ Jesus, became cursed for us, i.e., suffered and kept the Law in its fullness for us, gave us the freedom from the bondage of Law. And why did He do it, "that the blessing of Abraham might come upon the Gentiles in Christ Jesus, that we might receive the promise of the Spirit through faith" (Galatians 3:14). God had promised Abraham that he would be the source of blessings for the whole world. This promise of God's blessings coming upon all people of the world through him, was made to him 430 years before the Law was given (Genesis 12:1-3; Galatians 3:16-18). And as it is written in Galatians 3:16, this promise given to Abraham was to be made available to all the people of the world through his seed, through the Lord Jesus Christ. According to 3:17, the Law did not nullify this promise; the promise remained very much in place, awaiting its fulfillment. The Law was only added to it, as God the Holy Spirit, states through Paul, "What purpose then does the law serve? It was added because of transgressions, till the Seed should come to whom the promise was made; and it was appointed through angels by the hand of a mediator” (Galatians 3:19). From the time the promise was given to Abraham, until the fulfillment of the promise in Christ Jesus, through the coming of the Lord Jesus as Savior of the world, the Law was given, to keep people continually aware of the state of their sinfulness, by repeated reminders (Hebrews 10: 3).
The Law not only made people realize their state of sinfulness, but also of their accountability for sin, as they repeatedly confessed their sins and offered the prescribed offerings and sacrifices for them time and again. It was by the Law, i.e., by coming before God's standards, that they could learn of and identify sin in and around them (Romans 3:20; 5:13). The Law was meant to be a teacher to teach people about sin, and to keep reminding them “... For it is not possible that the blood of bulls and goats could take away sins” (Hebrews 10:4) and to safeguard them until the Lord comes to deliver and redeem them (Galatians 3:23-24). We already have seen that the actual meaning of the Law is to come into and remain in the right relationship with God and humans. All the feasts, offerings, sacrifices, rituals, etc. mentioned in the Law, are all fore-types and representations of various aspects of the character, life, and work of the Lord Jesus Christ for the salvation of all mankind. The implication is that all these things in the Law, put together, show the full nature of the Lord Jesus Christ and His work of salvation in all its fullness. That is why, if these things that are given in the Law, i.e., the feasts, offerings, sacrifices, rituals, etc. are to be fulfilled by any person, then they have to be fulfilled, in-toto, in letter and in spirit, in true reverence, by him. A partial fulfillment, or a ritualistic fulfillment will tantamount to non-fulfillment, since that leaves the life and work of Christ Jesus incomplete and therefore inefficacious to save anyone. That's why only the Lord Jesus Christ could do it, and He did it too, for us; And that is why it is impossible for any person to perfectly fulfill the Law like the Lord Jesus did.
When the Lord Jesus came and completed the work of salvation, all things of the Law were automatically fulfilled and then were removed from being necessary for being observed by the Lord's people; i.e., then onwards, that “teacher” was no longer required for them, “but when faith has come, we are no longer under a tutor" (Galatians 3:25). That teacher, the Law, having taught the Lord's people about sin, its consequences, accountability for sin, and the standards of God's righteousness, then handed us over to the perfect incarnation of God's righteousness, into the hands of the Lord Jesus Christ. Now whosoever accepts the righteousness of God, as a gift, from the hands of the Lord, by coming into faith in the Lord Jesus Christ, becomes a child of God and His heir, “For you are all sons of God through faith in Christ Jesus" (Galatians 3:26), and then in the Lord "There is neither Jew nor Greek, there is neither slave nor free, there is neither male nor female; for you are all one in Christ Jesus" (Galatians 3:28).
Thus, we understand from Galatians 3 that the purpose of the Law was to, as a teacher, safeguard the Lord's people until the Lord, the promised Savior, came. Keeping them conscious of sin and its consequences, and to teach them that their redemption from sin is possible not through any works but only through coming into faith in the redeemer. Because people did not understand the Law according to its true definition, but misinterpreted it as a formality of regularly observing the feasts and rituals, and the offering of gifts and sacrifices, they lost sight of the true purpose of the Law, and got lost in the impossible task of fulfilling it. Instead of letting them recognize sin through the Law as had been intended, they were entangled by Satan in the mistake of trying to be justified by the Law.
Even today most people in Christendom remain entangled in making the same mistake. Even today they assume that by virtue of being born in a particular religion or family, because of their observances of the customs set by their church, denominations, sects, and communities, etc., in the form of certain days and festivals, traditions and rituals, and by participating in sacraments such as baptism, Holy Communion, etc. they are safe, and God is under compulsion to accept them as His children, to accept them to be with Him in heaven. By engaging in the things of their own making, they too have strayed from the truth of receiving God's righteousness through repentance and faith. Sadly, no one gives the slightest thought to the fact that when the Law given by God could not save people, how can the different laws of different churches and denominations, created and taught by man, deliver them?
Salvation, forgiveness of sins, becoming a child of God, and being accepted into God's kingdom, is not through observance of any Law, but only by repenting of sins and accepting the Lord Jesus as Savior, surrendering to Him. In the next article, we'll look at our third question, the role of the law in the lives of Christians. For now, if you are a Christian, and are hoping to justify yourself by observing any sort of "law" — whether that of God, or of your religion, creed, community, or denomination — and are trying to make yourself acceptable to God by being ‘good’ through the works of the flesh; then pay heed and understand that God's Word clearly states that you become righteous and acceptable to God, not by keeping the Law, but only by following the God given path of repentance and submission to the Lord. Therefore, while you have the time and the opportunity, take the right decision, decide on the right path, and leave the useless and fruitless path.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. By asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily submit yourself sincerely and with a committed heart to his Lordship in your life - this is the only way to salvation and heavenly life. You have to say only a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ, willingly and meaningfully, while simultaneously completely committing your life to Him. You can say this prayer of repentance and submission in a manner something like this, “Lord Jesus, I thank you for taking my sins upon yourself for their forgiveness and because of them you died on the cross in my place, were buried, you rose again on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God. Please forgive my sins, take me under your shelter, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and submissive heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
Read the Bible in a Year:
Judges 19-21
Luke 7:31-50
Veer mashi
जवाब देंहटाएं