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पवित्र आत्मा द्वारा सत्य को पहचानना - यूहन्ना 16:14-15
हम मसीही सेवकाई में परमेश्वर पवित्र आत्मा की कार्य-विधि का यूहन्ना 16 अध्याय में प्रभु यीशु द्वारा कही गई बातों के आधार पर अध्ययन कर रहे हैं। पिछले लेख में हमने देखा था कि पवित्र आत्मा केवल सत्य का मार्ग, अर्थात परमेश्वर के वचन और प्रभु यीशु की बातों में से बताता है; वह अपनी ओर से कुछ नया नहीं कहता है, वरन प्रभु की जो बातें सुनता है वही कहता है; और मसीही विश्वासियों को आने वाली बातों तथा परिस्थितियों के लिए सचेत और अवगत रखता है। प्रभु द्वारा मसीही विश्वासी के जीवन में परमेश्वर पवित्र आत्मा की यह कार्य-विधि उससे कितनी भिन्न है, सीधे से तुलना (contrast) में है, जो आज बहुत से मत, समुदाय, और डिनॉमिनेशन परमेश्वर पवित्र आत्मा और उनके कार्यों के बारे में कहते तथा सिखाते हैं; पवित्र आत्मा के नाम में वे जैसा व्यवहार दिखाते हैं, और फिर उस शिक्षा और व्यवहार के आधार पर यह प्रमाणित करने के प्रयास करते हैं कि यह सभी उन्हें पवित्र आत्मा की ओर से मिला है, तथा औरों को भी इन्हीं शिक्षाओं और व्यवहार का इच्छुक रहना चाहिए, उसका प्रयास करना चाहिए। यह सब हमारे सामने एक सीधा प्रश्न उत्पन्न करता है - हमें किस की बात माननी चाहिए - जो प्रभु यीशु द्वारा परमेश्वर के वचन में दी गई है, या वह जो आज प्रभु यीशु से लगभग 2000 वर्ष बाद मनुष्यों ने कहना और दिखाना आरंभ किया है, जो चाहे विचित्र-अद्भुत-आकर्षक-आश्चर्यकर्मों वाला तो है, किन्तु परमेश्वर के वचन की बहुत सी शिक्षाओं के साथ पूर्णतः मेल नहीं खाता है, बल्कि विरोधाभास (contradiction) उत्पन्न करता है?
यूहन्ना 16:12-13 की बात को आगे बढ़ाते हुए, उनकी पुष्टि में प्रभु यीशु ने पद 14-15 में वैसी ही बात फिर से कही। मसीही सेवकाई के लिए मसीही विश्वासी में होकर परमेश्वर पवित्र आत्मा की कार्य-विधि के बारे में प्रभु यीशु मसीह ने आगे कहा: “वह मेरी महिमा करेगा, क्योंकि वह मेरी बातों में से ले कर तुम्हें बताएगा। जो कुछ पिता का है, वह सब मेरा है; इसलिये मैं ने कहा, कि वह मेरी बातों में से ले कर तुम्हें बताएगा” (यूहन्ना 16:14-15)। आज पवित्र आत्मा के नाम से फैलाई जाने वाली गलत शिक्षाओं को सिखाने और फैलाने वाले बहुत दृढ़ता से यह दावा करते हैं कि उन्हें यह सब पवित्र आत्मा की ओर से मिला है, और वे इसके लिए पवित्र आत्मा की महिमा करने पर बल देते हैं, तथा लोगों को बताते और सिखाते हैं कि वे भी पवित्र आत्मा से उनके समान बातों तथा व्यवहार को प्राप्त करने की माँग करें। किन्तु उनके जीवन, व्यवहार, और शिक्षाओं में, पवित्र आत्मा के नाम के उपयोग की तुलना में, प्रभु यीशु का नाम और उनकी शिक्षाओं तथा कार्यों का उल्लेख और महत्व बहुत कम होता है। उनके द्वारा बाइबल की बातों की सही शिक्षाएं बहुत ही कम दी जाती हैं; सामान्यतः वे बाइबल की बातों को उनके संदर्भ और विषय से बाहर लेकर, उन्हें अपनी ही धारणाओं के अनुसार तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करते हैं, समझाते हैं। उनका मुख्य प्रयास और शिक्षा व्यक्ति द्वारा अपने स्वयं के लिए चमत्कारिक तथा लोगों को अद्भुत बातों से प्रभावित कर के अपनी ही ओर आकर्षित करने वाले, और आम लोगों पर अपनी धाक जमाने वाले वरदान पवित्र आत्मा से प्राप्त करने के प्रति होता है। किन्तु इसकी तुलना में यहाँ प्रभु यीशु ने दो ऐसी बातें शिष्यों को सिखाई हैं जो करिश्माई वरदानों और व्यवहार की बातों को मानने और मांगने वाले लोगों की शिक्षाओं के बिलकुल विपरीत हैं।
पवित्र आत्मा की कार्य-विधि के विषय जो पहली बात प्रभु ने 14 पद में कही वह है “वह मेरी महिमा करेगा”! ये लोग पवित्र आत्मा की महिमा करने पर इतना बल देते हैं, और अपनी इस बात को पवित्र आत्मा से सीखा हुआ बताते है; जबकि प्रभु यीशु मसीह साफ, सीधे शब्दों में, बिलकुल स्पष्ट, दो-टूक कह रहे हैं कि पवित्र आत्मा अपनी नहीं वरन प्रभु की महिमा करेगा! हम देख चुके हैं कि परमेश्वर पवित्र आत्मा सत्य का आत्मा है, वह कभी कुछ असत्य नहीं कहता या सिखाता है। तो फिर तो प्रभु की बात सत्य है, और उन लोगों की गलत है, और यह संभव नहीं है कि परमेश्वर पवित्र आत्मा ने उन लोगों को कुछ असत्य सिखाया है, प्रचार करने के लिए कहा है। प्रभु की यह बात हमारे सामने मसीही विश्वास की शिक्षाओं का आँकलन करने का एक और मापदंड रखती है - मसीही विश्वास और सेवकाई से संबंधित जो भी शिक्षा अथवा व्यवहार प्रभु यीशु मसीह पर केंद्रित न हो, प्रभु यीशु को महिमा न दे; बल्कि प्रभु यीशु और उनके क्रूस पर दिए गए बलिदान, पुनरुत्थान, और सुसमाचार की बजाए किसी अन्य की ओर ध्यान आकर्षित करे, उसे महिमित करने का प्रयास करे, वह परमेश्वर प्रभु की ओर से नहीं है; चाहे उस महिमा का विषय परमेश्वर पवित्र आत्मा ही क्यों न हो। पवित्र आत्मा का कार्य प्रभु यीशु की महिमा करना है; वह अपनी महिमा नहीं करवाता है, और न ही ऐसी कोई शिक्षा या व्यवहार सिखाता है जो प्रभु यीशु की महिमा करने पर ध्यान न दे, अथवा न करे।
पवित्र आत्मा की कार्य-विधि के बारे में प्रभु यीशु ने जो दूसरी बात 14 और 15 में कही, उसे वे पहले भी यूहन्ना 14:26 तथा 16:13 में कह चुके हैं, और यहाँ इन दोनों पदों में फिर से दोहराया है। प्रभु द्वारा इस बात को बारंबार दोहराया जाना इस बात का सूचक है कि प्रभु की दृष्टि में यह बात कितनी महत्वपूर्ण है, और शिष्यों के ध्यान रखने के लिए कितनी आवश्यक है। प्रभु ने कहा, “वह मेरी बातों में से ले कर तुम्हें बताएगा”; जिसे हम दूसरे शब्दों में पहले भी देख चुके हैं - परमेश्वर पवित्र आत्मा अपनी ओर से कुछ नया किसी मसीही विश्वासी को नहीं कहता, सिखाता, या करवाता है। मसीही सेवकाई के लिए, मसीही विश्वासी के जीवन में, पवित्र आत्मा की शिक्षाओं और व्यवहार का दायरा प्रभु यीशु मसीह द्वारा दी गई शिक्षाओं तक ही सीमित है। फिर चाहे कोई भी कुछ भी क्यों न कहता रहे, कोई भी अद्भुत बात ‘प्रमाण’ के रूप में क्यों न दिखाता रहे, प्रभु यीशु द्वारा वचन में दे दी गई शिक्षाओं और बातों से अधिक या बाहर जो कुछ भी है, वह न तो प्रभु यीशु की ओर से है, और न पवित्र आत्मा की ओर से। इसलिए प्रभु की शिक्षाओं से अतिरिक्त और बाहर की किसी भी शिक्षा या व्यवहार को स्वीकार नहीं करना है - गलत शिक्षाओं को पहचानने का यह एक और मापदंड प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों को यहाँ दिया है।
यदि आप मसीही विश्वासी हैं, तो कुछ रुक कर अपने विश्वास के आधार का और जिन शिक्षाओं को आप मानते और बताते हैं, उनके बारे में गंभीरता से विचार और आँकलन कर लीजिए। क्या आपके विश्वास का आधार प्रभु यीशु मसीह और उसका वचन है, या सांसारिक तथा शारीरिक लाभ और चंगाई, अद्भुत आश्चर्यकर्म, विचित्र व्यवहार, और करिश्माई बातों द्वारा दिखाया गया आकर्षण है? जिन शिक्षाओं और बातों को आप मानते हैं, जिनके अनुसार व्यवहार करते हैं क्या वे परमेश्वर के वचन से हैं, या अपनी ही अलग व्याख्या के द्वारा किसी मत-समुदाय-डिनॉमिनेशन द्वारा दी जाने वाली ऐसी शिक्षाएं हैं जो परमेश्वर के वचन से पूर्णतः मेल नहीं कहती हैं? क्या आपके जीवन, व्यवहार, और गवाही से प्रभु यीशु के नाम को महिमा मिलती है; और क्या पापों से पश्चाताप तथा प्रभु यीशु में विश्वास द्वारा उद्धार के सुसमाचार को प्राथमिकता मिलती है, या फिर आप सांसारिक तथा शारीरिक लाभों, चंगाइयों, करिश्माई व्यवहार आदि की लालसाओं में ही बंधे हुए पड़े हैं? अभी, समय रहते, अपने आप को तथा अपने मसीही विश्वासी होने को परमेश्वर के वचन के अनुसार जाँच कर सही कर लीजिए।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो थोड़ा थम कर विचार कीजिए, क्या मसीही विश्वास के अतिरिक्त आपको कहीं और यह अद्भुत और विलक्षण आशीषों से भरा सौभाग्य प्राप्त होगा, कि आप जैसी भी दशा में हैं, उसी में परमेश्वर आपको स्वीकार कर लेगा, और सदा काल के लिए अपना बना लेगा। साथ ही क्या किसी पापी मनुष्य के लिए कहीं और यह संभव है कि परमेश्वर स्वयं आप में आ कर सर्वदा के लिए निवास करे; आपको धर्मी बनाए; आपको अपना वचन सिखाए; और आपको शैतान की युक्तियों और हमलों से सुरक्षित रखने के सभी प्रयोजन करके दे? और फिर, आप में होकर अपने आप को तथा अपनी धार्मिकता को औरों पर प्रकट करे, आपको खरा आँकलन करने और सच्चा न्याय करने वाला बनाए; तथा आप में होकर पाप में भटके लोगों को उद्धार और अनन्त जीवन प्रदान करने के अपने अद्भुत कार्य करे, जिससे अंततः आपको ही अपनी ईश्वरीय आशीषों से भर सके? इसलिए अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। स्वेच्छा और सच्चे मन से अपने पापों के लिए पश्चाताप करके, उनके लिए प्रभु से क्षमा माँगकर, अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आप अपने पापों के अंगीकार और पश्चाताप करके, प्रभु यीशु से समर्पण की प्रार्थना कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए मेरे सभी पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” प्रभु की शिष्यता तथा मन परिवर्तन के लिए सच्चे पश्चाताप और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
भजन 70-71
रोमियों 8:22-39
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Verifying Through the Holy Spirit - John 16:14-15
We have been studying the working of the Holy Spirit in the Christian Believer’s life and ministry on the basis of what the Lord Jesus has said in John 16. In the previous article we had seen that the Holy Spirit only tells and speaks about the way of truth, i.e., from the Word of God and from what the Lord Jesus has already said. He does not say anything new form His own side, but only says what the Lord Jesus has already said; and forewarns the Christian Believers about the things to come to keep them aware and ready in their ministry. How different is this working of the Holy Spirit stated by the Lord Jesus in the life of a Christian Believer, from what many people, sects, and denominations preach, teach, and exhibit through their behavior about the Holy Spirit today. What these people exhibit in the name of the Holy Spirit, and then on its basis try to prove that this is how the Holy Spirit works, is in direct contrast to what God’s Word says; yet they try to entice people into following their teaching and behavior, strive for doing the same as they are doing. All of this presents a very direct question before us - whom should we believe and follow - that which is given in God’s Word; or that which men have started to preach, teach, and show about 2000 years after the earthly ministry of the Lord Jesus? What these persons are preaching, teaching, and demonstrating may be very attractive, unique, having miraculous works in them, but still, it is not consistent with many things and teachings of God’s Word, rather, it presents a contradiction instead of affirmation of God’s Word.
Taking the statements of John 16:12-13 further and in their support, the Lord Jesus said something similar again in verses 14-15. Regarding the working of the Holy Spirit in Christian Ministry, the Lord said, “He will glorify Me, for He will take of what is Mine and declare it to you. All things that the Father has are Mine. Therefore, I said that He will take of Mine and declare it to you” (John 16:14-15). Today, those who preach and teach many wrong things about the Holy Spirit, emphatically claim that they receive all those things from the Holy Spirit. Therefore, they not only emphasize upon glorifying the Holy Spirit, but also tell the people to ask the Holy Spirit for things and behavior like theirs, to do the same as they are doing. But in their lives, behavior, preaching and teachings, in contrast to the use of the name of the “Holy Spirit”, the name of the Lord Jesus and His teachings, works, and instructions etc. have hardly any mention; true Biblical teachings from the Word of God are hardly ever stated, usually they speak of their own interpretation of Biblical things, after taking them out of their context, and presenting them in a manner suitable to their teachings. Their main emphasis and efforts are directed towards attracting people to themselves through their externally impressive and charismatic speaking and behavior, and doing wondrous things; and they emphatically ask the people about asking and receiving those gifts of the Holy Spirit through which they can show-off to other persons. But in contrast to this, here the Lord Jesus has taught two things to His disciples, which are diametrically opposite to the teachings and behavior of these charismatic preachers and teachers.
The first thing that the Lord Jesus said about the working of the Holy Spirit in verse 14 is, “He will glorify Me”! These people place so much emphasis on glorifying the Holy Spirit, and claim to have received this from the Holy Spirit; but the simple straightforward words of the Lord Jesus so very clearly tell us that the Holy Spirit does not glorify Himself, rather, He glorifies the Lord Jesus. We have seen that God the Holy Spirit is “the Spirit of truth”; He never says, teaches, or does anything that is false or not according to God’s Word. Therefore, what the Lord Jesus has said is correct, and what these people are preaching, teaching, and demonstrating is false and unacceptable; because it is impossible that the Holy Spirit has taught them something unBiblical, different from what the Lord Himself has said. What the Lord Jesus has said over here, provides us with another standard to gauge and ascertain the veracity of the Christian teachings being given out by people - any Christian teaching that is not based on the Lord Jesus, does not glorify the Lord Jesus; and instead of directing the audience towards the Cross of Calvary and the sacrifice of the Lord Jesus, His resurrection, His Gospel message, directs the attention and thoughts of the listeners to anything else and tries to glorify something or someone else, even though the subject of that glorification is God the Holy Spirit, is not from the Lord God and His Word. The work of the Holy Spirit is to glorify the Lord Jesus; He does not glorify Himself, nor does He teach any message or behavior that does not direct the listener towards glorifying the Lord Jesus, or does not glorify the Lord Jesus.
The second thing that the Lord Jesus repeatedly said, in verses 14 and 15, is what He had already said earlier in John 14:26 and 16:13. The Lord’s repeating the same thing is an indication of how important that thing is from the Lord’s perspective. The Lord said, “He will take of what is Mine and declare it to you”; something we have already seen stated earlier that God the Holy Spirit does not teach or ask to be done anything other than what has already been said by the Lord and given in God’s Word. In Christian Ministry, the role of the Holy Spirit and His teachings is limited to the teachings already taught and given by the Lord God and His Word. Beyond this, no matter what anyone says, no matter what wonderous or miraculous works they show to support their claims, anything that is more than or outside the things said and taught in God’s Word is neither from the Lord nor from the Holy Spirit. Therefore, nothing, absolutely nothing, outside the teachings and behavior given in the Lord’s teachings and Word is to be accepted and followed - here the Lord has provided another measure to gauge and recognize false teachings.
If you are a Christian Believer, then pause for a moment and examine and evaluate the basis of the teachings and behavior you believe in and accept; ponder over this seriously and deeply. Is the basis of your faith and belief the Word of God and the teachings of the Lord Jesus Christ; or are you following after people because of their attractive and impressive behavior, physical healings and promises of worldly gains and prosperity? The teachings and things you believe in, things which direct and determine your behavior, are they from the Word of God; or are they someone’s interpretation of parts and pieces of God’s Word, taken out of their context? Are the teachings and preaching that you follow consistent with the facts of God’s Word, or are they what a particular person, sect, or denomination teaches and preaches and insists that people follow only that? Does your life, behavior, and witnessing bring glory to the Lord Jesus? Are you a Christian Believer by repentance of sins and accepting the Gospel of the Lord Jesus, or because of being attracted by physical healings, worldly benefits, temporal prosperity, attractions of charismatic behavior, etc.? Examine and evaluate, and come to the right decision now, while you have time and opportunity to correct whatever needs to be corrected.
If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Psalms 70-71
Romans 8:22-39
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