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पुनःअवलोकन एवं सारांश - (1) - अनिवार्यता और प्राप्ति
मसीही सेवकाई में परमेश्वर पवित्र आत्मा की भूमिका पर हमने पिछले अठारह लेखों में अध्ययन किया है। इन लेखों में जिन बातों को हमने देखा और सीखा है, वे मसीही विश्वासी और उसकी मसीही सेवकाई के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। आज, प्रभु यीशु की पृथ्वी की सेवकाई के लगभग 2000 वर्ष बाद, परमेश्वर पवित्र आत्मा को लेकर अनेकों ऐसी गलत शिक्षाएं और व्यवहार देखे और सिखाए जाते हैं, जो न तो प्रभु की सेवकाई के दिनों में विद्यमान थीं और न ही आरंभिक कलीसिया में देखी जाती थीं, और जो परमेश्वर के वचन बाइबल की बातों के अनुसार कदापि नहीं हैं, वरन, बाइबल की कुछ बातों को उनके संदर्भ से बाहर लेकर, एक विचारधारा का समर्थन करने के लिए; अनुचित धारणाओं को वैध ठहराने के लिए प्रयोग किए जाते हैं। अगले लेखों में जाने से पहले इन महत्वपूर्ण शिक्षाओं को दोहराने और स्मरण रखने में सरलता के लिए हम उन शिक्षाओं का एक सारांश देखेंगे, जो हमने पिछले लेखों में देखी हैं।
आरंभ में हमने देखा था कि प्रभु ने अपने शिष्यों से कहा कि वे मसीही सेवकाई पर निकलने से पहले पवित्र आत्मा की सामर्थ्य प्राप्त करने की प्रतीक्षा करें, और तब ही सेवकाई पर निकलें। अर्थात, प्रभु यीशु से लगभग साढ़े तीन वर्ष तक सीखने और उस दौरान प्रभु द्वारा सेवकाई पर भेजे जाने के बावजूद शिष्य उनके साथ पवित्र आत्मा की उपस्थिति होने पर ही मसीही सेवकाई के लिए सक्षम हो सकते थे। यह सेवकाई कुछ प्रशिक्षण या अनुभव प्राप्त कर लेने पर निर्भर नहीं है; इसके लिए परमेश्वर की उपस्थिति साथ होना अनिवार्य है।
फिर हमने देखा कि यह इसलिए आवश्यक है क्योंकि मसीही सेवकाई आरंभ करते ही शिष्यों का सामना शैतान से होना था, जिसके वश में सारा संसार पड़ा है (1 यूहन्ना 5:19)। शैतान अपनी चतुराई से परमेश्वर के लोगों को बहका सकता है, धार्मिकता और बाइबल की बातों के विषय में विश्वासियों को भरमा सकता है (2 कुरिन्थियों 11:3, 13-15)। वह फाड़ खाने वाले सिंह के समान मसीही विश्वासियों की हानि करने के लिए तैयार खड़ा है (1 पतरस 5:8)। इसलिए उसका सामना करने और उसकी युक्तियों पर जयवंत होने के लिए परमेश्वर की सामर्थ्य साथ होना अनिवार्य है।
इसीलिए प्रभु परमेश्वर ने यह प्रयोजन करके दे रखा है कि जैसे ही कोई व्यक्ति अपने पापों से पश्चाताप करता है, प्रभु यीशु से उनके लिए क्षमा माँगता है, प्रभु यीशु द्वारा कलवरी के क्रूस पर दिए गए बलिदान और उसके मृतकों में से पुनरुत्थान को स्वीकार करके, प्रभु यीशु को अपना उद्धारकर्ता ग्रहण कर लेता है, और प्रभु की आज्ञाकारिता में चलते रहने के लिए अपना जीवन प्रभु यीशु को समर्पित कर देता है, ठीक उसी पल से परमेश्वर पवित्र आत्मा उस उद्धार पाए हुए नए विश्वासी में आकर निवास करने लगता है (प्रेरितों 11:17; इफिसियों 1:13-14; गलातीयों 3:2)। वचन की इस सीधी सी स्पष्ट शिक्षा को लेकर पवित्र आत्मा के नाम पर गलत और भ्रामक शिक्षा फैलाने वालों ने अपनी ही धारणाएं बना रखी हैं, और उन गलत शिक्षाओं का प्रचार करते हैं। वे सिखाते हैं कि उद्धार पा लेने के बाद पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए अलग से कुछ विशेष प्रयास करने पड़ते हैं - जिसका वचन में कोई समर्थन अथवा शिक्षा नहीं है। एक नवजात मसीही विश्वासी को प्रभु कैसे शैतान से हानि उठाने के लिए अकेला छोड़ सकता है? साथ ही वे लोग “पवित्र आत्मा से बपतिस्मे” को लेकर भी एक अलग ही सिद्धांत सिखाते हैं, कि यह एक भिन्न या दूसरा अनुभव और भरा जाना है, जबकि वचन में यह स्पष्ट लिखा गया है कि प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास करने के साथ ही पवित्र आत्मा प्राप्त करना और पवित्र आत्मा से बपतिस्मा प्राप्त करना एक ही बात हैं; एक ही तथ्य की दो अलग अभिव्यक्तियाँ हैं (प्रेरितों 1:5, 8; 11:15-17)।
यदि आप मसीही विश्वासी हैं, और इन भ्रामक तथा गलत शिक्षाओं फँसाए गए हैं, तो प्रभु परमेश्वर से प्रार्थना करें कि वह आपको सही और गलत शिक्षा की पहचान दे, और गलत शिक्षाओं से निकालकर बाइबल की सही शिक्षाओं में स्थापित करे; अपने वचन को सिखाए, और अपने लिए उपयोगी पात्र बनाकर आप को अपनी सेवकाई में प्रयोग करे। ध्यान रखिए, अन्ततः, पृथ्वी के इस जीवन के बाद, आपका न्याय किसी व्यक्ति, मत, समुदाय, या डिनॉमिनेशन की शिक्षाओं और बातों के अनुसार नहीं होगा, वरन परमेश्वर के वचन के अनुसार होगा (यूहन्ना 12:47-48)। इसलिए किसी भी मनुष्य को प्रसन्न करने की, या मनुष्य के द्वारा बनाए गए विचारों और धारणाओं का पालन करते रहने की गलती ना करें (गलातियों 1:10); वरन देख-परख कर परमेश्वर के वचन के सत्य को ही थामें और निभाएं (1 थिस्सलुनीकियों 5:12; प्रेरितों 17:11-12)।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी उसके पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
भजन 72-73
रोमियों 9:1-15
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Recapitulation and Summary - (1) - Necessity & Receiving
In the previous 18 articles on the role of the Holy Spirit in Christian Ministry, we have seen and learnt some things that are very important for a Christian Believer and his Christian ministry. Today, about 2000 years after the earthly ministry of the Lord Jesus, many wrong teachings, preaching, doctrines, and behavior are rampant about the Holy Spirit, which, which were not seen during the Lord’s ministry or in the early Church, and have no basis or support from God’s Word the Bible. Instead, these are based on taking words, verses and portions of the Bible out of their context, and forcing interpretations upon them that are meant to suit a particular way of thinking, certain contrived doctrines and notions of some sects and denominations, to make them seem correct. To help us in our further studies on this topic, it would do us well to recapitulate and summarize what we have seen and learnt so far.
In the beginning we had seen that the Lord had asked His disciples to wait till they received the power of the Holy Spirit before embarking on their ministry of preaching and propagating the Gospel. In other words, despite having remained with the Lord Jesus for about three and a half years and having been trained by Him, having learnt from the Lord, it was only the presence of the Holy Spirit with them that would empower and enable them to be able to carry out their ministry and be effective. The implication is evident, Christian ministry is not through having been trained and taught, not even by the Lord Jesus; but through the presence of the Holy Spirit to guide and empower the one engaged in Ministry.
We then saw that this presence of the Holy Spirit was mandatory for the disciples, because immediately on stepping out for their ministry, they would have to confront Satan, under whose sway the whole world lies (1 John5:19). Satan, is quite capable of beguiling the people of God, misguide and mislead them about righteousness and teachings of God’s Word (2 Corinthians 11:3, 13-15); and he is standing as a roaring lion ready to harm the Christian Believers (1 Peter 5:8). Therefore, to confront and overcome him, it is essential for every Christian Believer to have the presence, power, and guidance of God continually.
It is for this reason that the Lord has made available this provision of the Holy Spirit, who comes to reside in every Christian Believer, the moment they repent of their sins, ask the Lord’s forgiveness for them, believe in the sacrifice of the Lord on the Cross of Calvary and His resurrection from the dead and accept the Lord Jesus as his savior, to live a life of submission and obedience to Him (Acts 11:17; Ephesians 1:13-14; Galatians 3:2). In spite of the clear, straightforward teaching of the Word of God on this subject, these preachers and teachers of false doctrines have made up their own notions about it and emphatically preach and teach them, misguide and mislead people into wrong ideas and thinking. They preach and teach that after being saved, to receive the Holy Spirit one has to make some extra efforts - which has no support from God’s Word. How can the Lord leave a newly Born-Again spiritual infant alone and helpless to be harmed by Satan? They also propound a new doctrine of “baptism of the Holy Spirit”, as a “second experience” or “second filling”; whereas it is very clearly and unambiguously written in the Word of God that receiving the Holy Spirit at the moment of being saved is the same as being baptized with the Holy Spirit; these are two ways of stating the same fact (Acts 1:5, 8; 11:15-17).
If you are a Christian Believer, and have got caught in these wrong teachings and false doctrines, then pray to the Lord Jesus to give you the discernment and understanding for the right teachings and doctrines, to deliver you from the wrong teachings and doctrines and establish you in the correct ones; that He may correctly teach you His Word and make you useful for His ministry. Bear in mind, that after the earthly life, your judgment will not be according to the teachings, doctrines, and beliefs of any person, sect, or denomination, but according to the word of God (John 12:47-48). Therefore, do not make the mistake of trying to please any person, sect, or denomination and their doctrinal notions by deliberately adhering to them (Galatians 1:10). But be very diligent and firm to examine and evaluate everything by the Word of God and only hold on to the truth of God’s Word and nothing else (1 Thessalonians 5:12; Acts 17:11-12). We will continue with this recapitulation and summary in the next article.
If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Psalms 72-73
Romans 9:1-15
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