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शुक्रवार, 28 अक्टूबर 2022

वचन की सही सेवकाई के प्रभाव / The Effects of Worthy Ministry of God’s Word


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मसीही विश्कवासियों एवं कलीसिया की उन्नति


पिछले कुछ लेखों में हम प्रभु यीशु द्वारा अपनी कलीसिया के कार्यों के लिए नियुक्त किए गए कार्यकर्ताओं के बारे में इफिसियों 4:11 से देखते आ रहे हैं। हमने पाँच प्रकार के कलीसिया के सेवकों और उनकी सेवकाइयों के बारे में देखा, और यह भी देखा कि समय और आवश्यकता के अनुसार, एक ही व्यक्ति एक से अधिक प्रकार की सेवकाइयों को भी कर सकता है, और आरंभिक कलीसियाओं में यह होता रहा है। इससे हमने यह तात्पर्य लिया था कि कलीसिया में महत्व इन पाँच प्रकार की सेवकाइयों के निरंतर ज़ारी रहने का है, न कि सेवकाइयों के लिए नियुक्त किए गए व्यक्तियों का। जिस कलीसिया में ये पाँच प्रकार के कार्य ज़ारी रहेंगे, वह कलीसिया उन्नति करती रहेगी, बढ़ती रहेगी, और प्रभु के लिए उपयोगी, तथा प्रभु की महिमा का कारण होगी। इफिसियों 4:12-16 में हम इन सेवकाइयों को किए जाने के प्रभावों को मसीही विश्वासियों के जीवनों में क्रमवार, और उनके उन्नत होने की एक से अगली सीढ़ी पर बढ़ते हुए देखते हैं। इफिसियों 4:11 की सेवकाइयों के प्रभावों के क्रम का आरंभ इफिसियों 4:12, “जिस से पवित्र लोग सिद्ध हों जाएं, और सेवा का काम किया जाए, और मसीह की देह उन्नति पाए” से होता है। यहाँ पर इन सेवकाइयों के द्वारा कलीसिया में होने वाले पहले तीन प्रभाव दिए गए हैं:

  1. पवित्र लोग सिद्ध हों जाएं

  2. सेवा का काम किया जाए

  3. मसीह की देह उन्नति पाए

    यहीं पर उन्नत होते जाने के क्रम को भी देखा जा सकता है - पवित्र लोग, अर्थात मसीही विश्वासी या विश्वास के द्वारा बने परमेश्वर की संतान, सिद्ध होंगे, वे सिद्ध हुए परमेश्वर के लोग सेवा के कार्य को सच्चे मन से तथा योग्य रीति से करेंगे, जिससे मसीह की देह अर्थात कलीसिया और वे स्वयं भी उन्नति पाएँगे। इस पद में, मूल भाषा के जिस शब्द का अनुवाद “सिद्ध” किया गया है, उसका शब्दार्थ होता है “पूर्णतः सुसज्जित” होना, अर्थात किसी भी कार्य या ज़िम्मेदारी के निर्वाह के लिए पूरी तरह से तैयार और आवश्यक संसाधनों एवं उपकरणों तथा समझ-बूझ से लैस होना। यहाँ “सिद्ध” शब्द का अर्थ आत्मिक और नैतिक रीति से निर्दोष, निष्पाप, निष्कलंक होना नहीं है, वरन कलीसिया के कार्यों के लिए तत्पर और तैयार हो जाना है।  साथ ही ध्यान कीजिए कि 4:12 की ये तीनों बातें कलीसिया के सभी “पवित्र लोगों” के लिए हैं, किसी विशेष नियुक्ति अथवा चुने गए कुछ विशिष्ट लोगों के लिए नहीं। अर्थात, 4:11 की सेवकाइयों के कलीसिया में भली-भांति निर्वाह के द्वारा समस्त कलीसिया, प्रभु के सभी सच्चे और समर्पित विश्वासी प्रभु के कार्य के लिए तत्पर और तैयार हो जाएंगे, परमेश्वर द्वारा निर्धारित उनकी अपनी-अपनी सेवकाई (इफिसियों 2:10) के निर्वाह के लिए उन्हें परमेश्वर पवित्र आत्मा द्वारा दिए गए आवश्यक गुणों और वरदानों  का उपयोग करेंगे।

 

इसका एक व्यावहारिक उदाहरण है थिस्सलुनीकिया की कलीसिया, जिसकी स्थापना का वर्णन हम प्रेरितों 17:1-9 में पाते हैं। प्रेरितों 17:2-4 में लिखा है कि थिस्सलुनीकिया में पौलुस की सेवकाई केवल “तीन सबत के दिन” ही की थी, जो दो या अधिक से अधिक तीन सप्ताह का समय बनता है, और इस दौरान पौलुस ने उन्हें सुसमाचार भी दिया, वचन की शिक्षाएं भी दीं, जिसके परिणामस्वरूप बहुत से लोगों ने प्रभु को उद्धारकर्ता ग्रहण किया। पौलुस द्वारा इस मण्डली को लिखी पहली पत्री के आरंभिक अध्याय में ही हम इफिसियों 4:12 में लिखी बात के प्रमाण को देखते हैं। दो या तीन सप्ताह की वचन की सेवकाई से स्थापित हुए थिस्सलुनीकिया की कलीसिया के विषय स्वयं पौलुस की गवाही थी कि उन्होंने बड़े क्लेश में भी पवित्र आत्मा के आनन्द के साथ वचन को ग्रहण किया, मकिदुनिया और आख्या के सभी विश्वासियों के लिए आदर्श बने, उन इलाकों में परमेश्वर के वचन का प्रचार किया, और उनके मूरतों से परिवर्तन, मसीही विश्वास में आने, और प्रभु के दूसरे आगमन के लिए तैयार होने की चर्चा हर जगह फैल गई (1 थिस्सलुनीकियों 1:6-10)। जैसे ही इफिसियों 4:11 की सेवकाइयों के द्वारा परमेश्वर पवित्र आत्मा को कार्य करने का अवसर और स्वतंत्रता प्राप्त हुई, थिस्सलुनीकिया के उन लोगों के जीवनों में इफिसियों 4:12 की तीनों बातें, तथा उससे और आगे के पदों की बातें भी प्रत्यक्ष दिखने लग गईं।

 

यदि आप मसीही विश्वासी हैं, तो आपके पास अभी अपने आप को जाँचने और परखने का अवसर है कि इफिसियों 4:12 के अनुसार आप “सिद्ध” अर्थात प्रभु के कार्य के लिए तत्पर और तैयार हैं कि नहीं, थिस्सलुनीकिया के विश्वासियों के समान अपने पुराने जीवन से पूर्णतः परिवर्तित होकर प्रभु की सेवा, उसके सुसमाचार के प्रचार में कार्यरत हैं कि नहीं - क्योंकि यह सभी “पवित्र लोगों” का दायित्व है। और इसके लिए आपको किसी विशेष प्रशिक्षण अथवा लंबे समय तक सिखाए जाने और अनुभव पाने की आवश्यकता नहीं है, वरन प्रभु को पूर्णतः समर्पित और उसके आज्ञाकारी होने की आवश्यकता है, जैसा हम थिस्सलुनीकिया की कलीसिया के उदाहरण से देखते हैं। उपरोक्त बातों का और प्रभु यीशु के वचनों की शिक्षा पाने और पालन करने का ध्यान रखिए। यह आपके लिए भी तथा औरों के लिए भी उन्नति का तथा परमेश्वर की महिमा का कारण ठहरेगा।

  

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 


एक साल में बाइबल पढ़ें: 

  • यिर्मयाह 15-17 

  • 2 तिमुथियुस 2


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English Translation

The Growth & Edification of the Church and the Believers


In the past few articles, we have seen from Ephesians 4:11 that for the works and functioning of His Church, the Lord Jesus has set some ministries and appointed some workers for those ministries. We have seen that these ministries are related to the ministry of God’s Word in the Churches. We have also seen that just as the Lord Jesus served as a Teacher, an Evangelist, and through other ministries, and so did the Apostles in the first Church, similarly, as had been happening in the initial Churches, today too one person can serve in more than one ministry. From this fact we can infer that in the Churches, the importance is of these five ministries being steadfastly carried out, and not of individual workers being present for the ministries. In whichever Christian Believer’s life, and in the Church of the Lord Jesus these five kinds of ministries are regularly carried out, that person and that Church will continue to grow, be edified, will be useful for the Lord, and will serve to glorify God. After Ephesians 4:11, from verse 12-16, we find the progressively increasing effects of these ministries in the Church and in a Believer’s life, in a step-by-step manner. The first effect, or, the beginning of the steps in growth after the fulfilling of Ephesians 4:11 is in Ephesians 4:12, “for the equipping of the saints for the work of ministry, for the edifying of the body of Christ.” In this verse we find three effects, or the first three steps:

  1. Equipping of saints [the original Greek word translated as ‘Equipping’ means being fully made ready; therefore, some translations have used ‘prepared’, or ‘perfected’, or ‘trained’ instead of ‘Equipping’].

  2. Work of ministry

  3. Edifying of the body of Christ


A progression can be seen here - the saints, i.e., the Christian Believers or the children of God by Faith, will be perfected or prepared, these perfected or prepared people of God will carry out their ministries worthily and diligently, which will result in the growth and edification of the Church and their own lives. Here, ‘equipping’ does not mean simply being provided with required ways and methods, nor ‘perfected’ means being made pure, sinless, and spotless, spiritually; but being ready and prepared to do the work assigned by the Lord, prepared to sincerely carry out the entrusted ministry. Also take note that these three steps or effects of 4:12 are for all “saints”, i.e., all the Christian Believers, and not just for a select few. This means that by the steadfast carrying out of the five ministries of Ephesians 4:11, will result in the Church and the saints of the Church being uplifted and prepared to carry out their other ministries, prepared beforehand by God for them (Ephesians 2:10), and for which the Holy Spirit has given them various gifts (1 Corinthians 12:7-11).


A practical example of this is the Church of Thessalonica; we read about its being established in Acts 17:1-9. It is written in Acts 17:2-4, that Paul’s ministry in Thessalonica was only of “three Sabbaths”, which means a duration of two or at most three weeks. In this time period, Paul shared the gospel with them and taught God’s Word also, as a result many people accepted the Lord Jesus as their savior. In the first chapter of the first letter written by Paul to this Church, we see the effects mentioned in Ephesians 4:12 being practically evident. This Church, established consequent to a ministry of just two or three weeks, Paul himself testifies for them that in the midst of a lot of persecution and problems, they still gladly accepted God’s Word, they not only became an example for the Christian Believers in Macedonia and Achaia, but they also preached the Word in those regions so diligently, that the report of their turning away from idols, coming into the Christian Faith, and preparing for the second coming of the Lord spread to the surrounding regions (1 Thessalonians 1:6-10). In other words, as soon as God the Holy Spirit got the freedom and opportunity to fulfill the ministries of Ephesians 4:11 amongst the Thessalonians, the initial steps of Ephesians 4:12 and the effects of the subsequent verses started becoming readily evident in that Church and the Believers in it.


If you are a Christian Believer, then you have an opportunity and the time to examine and evaluate your life and ascertain whether or not you are ‘prepared’ or ‘perfected’ for carrying out the Lord’s work? Like those initial Believers in Thessalonica, have you completely turned away from your old worldly life and have become involved in carrying out the ministry given by God to you; since this is the responsibility of every “saint” of God. For doing this, as we see from the life of the Thessalonian Believers, you do not need any special training or being taught for a long time. All that is required is to be fully surrendered and committed to being obedient to the Lord God and His Word. As a Believer, take care to learn the Word of God and follow the aforementioned things. By doing this, you will grow and be edified, and through you others too will come to the Lord, grow in Him, be edified, and God will be glorified.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours. 


Through the Bible in a Year: 

  • Jeremiah 15-17 

  • 2 Timothy 2



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