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प्रभु की मेज़ - मूल सिद्धान्तों पर लौटें; स्वयं को जाँचें
हमने पिछले लेखों में देखा है कि पाप कलीसिया में अपने घातक परिणाम ले आया, और शैतान को कलीसिया को विभाजित करने, उसमें तबाही मचाने का अवसर मिल गया। उसके प्रभाव में आकर लोग कलीसिया को तुच्छ जान रहे थे, प्रभु की मेज़ के दुरुपयोग और गलत समझ रखने के द्वारा प्रभु भोज का अपमान कर रहे थे, किन्तु उन्हें लगता था कि वे ठीक हैं और भक्ति का जीवन बिता रहे हैं। गलतियों को सुधारने के लिए, पवित्र आत्मा, पौलुस के द्वारा, उन्हें प्रभु यीशु के द्वारा प्रभु भोज के आरंभ किए जाने पर लेकर जाता है, और उनके सामने प्रभु द्वारा उसे स्थापित करने को दोहराता है, जिससे वे मेज़ के सही स्वरूप को जान और समझ सकें और उसका अनुसरण उसी प्रकार से करने लगें, जिस स्वरूप में प्रभु ने उसे स्थापित किया था। यह माना जाता है कि पौलुस ने यह पत्री लगभग 59 ईसवी में लिखी थी, अर्थात, प्रभु के मारे जाने और जी उठने के लगभग 25-26 वर्ष के बाद। इसलिए प्रभु की मेज़ के स्थापित किए जाने को दोहराना, सुसमाचारों में दिए गए इसके वर्णन की पुष्टि और अनुमोदन करता है, क्योंकि यहाँ पर भी वैसा ही वर्णन दिया गया है जैसा सुसमाचारों में लिखा हुआ है। हम 1 कुरिन्थियों 11:23-25 से देखते हैं कि “प्रभु यीशु ने जिस रात वह पकड़वाया गया” (पद 23) प्रभु भोज की स्थापना की, और यही हम सुसमाचारों में भी लिखा हुआ पाते हैं। साथ ही यह फसह के भोजन से भिन्न था, जैसा कि यहाँ पर भी लिखा हुआ है कि प्रभु ने यह “बियारी के पीछे” (पद 25) अर्थात मुख्य भोजन के बाद किया था। यहाँ पर भी प्रभु द्वारा रोटी और दाख रस के कटोरे के लिए एक-वचन में ही बताया गया है, एक रोटी, एक कटोरा; जो इस बात का भी संकेत है कि यह केवल प्रतीक के रूप में था, संपूर्ण भोजन करना नहीं, जैसा पद 25-26 में लिखा है, प्रभु यीशु के बलिदान की यादगारी में।
यह हमारे सामने परमेश्वर के वचन में से, परमेश्वर द्वारा दी गई एक विधि को लाता है, जो मसीही विश्वासियों के लिए अपने जीवनों को जाँचने और सुधारने, तथा कलीसिया को ठीक रखने के लिए है - लौट कर मूल या आरंभ पर जाओ, देखो और समझो कि परमेश्वर ने पहली बार बात को कैसे, किस रीति से किया था। वर्तमान में जो हो रहा है उसकी तुलना आरंभिक के साथ करो, और फिर परमेश्वर द्वारा किए गए के अनुसार उसे सुधारो और ठीक करो। हमने इससे पहले दिसंबर 26 के लेख में देखा था कि परमेश्वर अपनी आराधना से संबंधित बातों के लिए बहुत विशिष्ट है, और उसे केवल वही स्वीकार्य है जो उसने कहा है, और वह भी केवल वैसे ही जैसे उसने कहा है, अन्य कुछ भी नहीं। इसलिए जो कुछ भी परमेश्वर द्वारा निर्धारित करके दिए गए नमूने से भिन्न है, उससे भटक गया है, वह परमेश्वर को अस्वीकार्य है, और उसे परमेश्वर को स्वीकार्य बनाने तथा फिर से आशीष का कारण बनने के लिए उसी स्वरूप में लाना पड़ेगा जो परमेश्वर ने बनाकर दिया था, बताया था।
परमेश्वर के वचन में इस बात का केवल यही एक उदाहरण नहीं है। इससे थोड़ा आगे 1 कुरिन्थियों 15:1-4 में हम देखते हैं कि इस पत्री के समापन की ओर आते हुए, पौलुस, पवित्र आत्मा की अगुवाई में उनके सामने मूल सुसमाचार संदेश को दोहराता है। इस पूरी पत्री में पौलुस उन्हें उनकी गलतियाँ दिखाता और उन्हें सुधारने के तरीके बताता आया है। और अब, एक संक्षिप्त सामान्य समीक्षा के रूप में, पवित्र आत्मा पौलुस को निर्देशित करता है कि उन्हें दिखाए कि उनकी सभी गलतियों का मूल कारण, मूल समस्या है कि उन्होंने सुसमाचार, जो उनके उद्धार और प्रभु के लोग बनकर उसके साथ जुड़े रहने का आधार है, के आधारभूत स्वरूप की अवहेलना करना आरंभ कर दिया है। क्योंकि वे सुसमाचार के तथ्यों और तात्पर्यों से भटक गए हैं, इसलिए बजाए प्रभु की ओर देखते रहने के, वे मनुष्यों की ओर देखने और उनकी सुनने वाले बन गए है, जिससे फिर शैतान को अवसर मिल गया है कि वह उनके मध्य गलत शिक्षाएं और झूठे सिद्धांत फैलाए। गलातिया के मण्डली को लिखी गई अपनी पत्री में (गलातियों 2:1-10)। पौलुस कहता है कि वह “ईश्वरीय प्रकाश के अनुसार” यरूशलेम गया था, अर्थात, परमेश्वर के कहने पर, कि यरूशलेम जाकर वहाँ पर अगुवों के साथ उस सुसमाचार को साझा करे जिसका प्रचार वह अन्य-जातियों के मध्य करता था, और उसकी समीक्षा करवाए। यद्यपि जो प्रचार वह करता था उसमें कुछ भी कमी या गलती नहीं निकली (2:6), लेकिन फिर भी परमेश्वर की ओर से यह तय किया गया कि समीक्षा की जाए। लेकिन इससे पौलुस और बरनबास को न केवल यरूशलेम में कलीसिया के अगुवों से अनुमोदन और समर्थन प्राप्त हो गया, बल्कि उन्हें उन लोगों का समर्थन और सहभागिता भी प्राप्त हुई।
इसी प्रकार से, प्रेरितों 2 में, पवित्र आत्मा प्राप्त करने के पश्चात, पतरस जब यरूशलेम में एकत्रित हुए भक्त यहूदियों के सामने खड़े होकर, जो हो रहा था उसके बारे में उनके असमंजस और कौतूहल के निवारण के लिए बोलना आरंभ करता है, तब उनके सामने पवित्र शास्त्र में से संबंधित बातों और भविष्यवाणियों को लेकर आता है; अर्थात, परमेश्वर द्वारा उद्धार से संबंधित मूल बातों और भविष्यवाणियों को उन्हें स्मरण करवाता है। जब वह यह करता है तब लोगों के हृदय छिद जाते हैं, पतरस उनके सामने सुसमाचार को रखता है और 3000 लोग उद्धार पाते हैं। जब स्तिफनुस को ईश-निन्दा के झूठे आरोप लगाकर पकड़ा जाता है और यहूदियों के धर्म के अगुवों की सभा के सामने न्याय के लिए प्रस्तुत किया जाता है (यहूदियों 6:10-15), तब अपने पक्ष और बचाव को प्रस्तुत करते समय, प्रेरितों 7 में, स्तिफनुस उनके सामने इस्राएल के आरंभ से उनका इतिहास रखता है और दिखाता है कि किस प्रकार वे बारंबार परमेश्वर के वचन और मार्गों से भटकते रहे और गलतियाँ करते रहे, और उसी प्रवृत्ति के अंतर्गत उन्होंने प्रतिज्ञा और भविष्यवाणियां किए हुए मसीहा को भी मार डाला (प्रेरितों 7:51-53)। अर्थात, स्तिफनुस उन्हें उनके विश्वास और परमेश्वर के साथ संबंध की आधारभूत बातों पर लेकर जाता है और उनकी गलतियों को, परमेश्वर के वचन और मार्गों से भटकते रहने को, प्रकट करता है। ऐसी ही एक घटना यहोशू की पुस्तक के 7 अध्याय में भी दर्ज है; ऐ में इस्राएलियों की बहुत शर्मनाक और अनपेक्षित हार हुई थी, यहोशू इसके कारण बदहाल होकर परमेश्वर के सामने गिड़गिड़ाता है, उससे पूछता है कि ऐसा क्यों हुआ? प्रभु उसे सीधा उत्तर देकर दोषी व्यक्ति का नाम बता सकता था, किन्तु इसकी बजाए परमेश्वर यहोशू 7:14 में एक विधि देता है, समस्याओं के कारण को समझने और पहचानने की - मूल या आधारभूत बात से आरंभ कर के, बारी-बारी से हर एक बात को जाँचते और आँकलन करते चले जाओ, जब तक कि समस्या का कारण सामने न आ जाए। यहोशू परमेश्वर की विधि को कार्यान्वित करता है (यहोशू 7:16-18), और उनकी हार के लिए दोषी व्यक्ति प्रकट हो जाता है। आकान और उसके परिवार के पास अवसर था कि वे अपने पाप को मान लें, विशेषकर जब वे देख रहे थे कि बात उनकी ओर ही बढ़ रही है, किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया, अपने अवसर को गँवा दिया, और अन्ततः परिणाम भुगतना पड़ा। अब, यहोशू पर कोई भी पक्षपात का या गलती कर देने का दोष नहीं लगा सकता था, और आकान के पास भी बचने का कोई मार्ग नहीं बचा था, उसे अपनी गलती को मानना और भुगतना ही पड़ा।
परमेश्वर ने अपने वचन में हमें अपनी विधि दी है जिससे हम अपने जीवनों को गलतियों से बचाकर रखें और परमेश्वर के वचन से भटकने से बचे रहें - समय-समय पर अपने जीवन, व्यवहार, रवैये, और परमेश्वर की आज्ञाकारिता की स्थिति का आँकलन करते रहें। प्रभु की मेज़ हमें यह अवसर प्रदान करती है कि हम प्रार्थना के साथ, प्रभु की उपस्थिति में, उसकी सहायता से, मेज़ में भाग लेने से पहले अपने जीवनों को जाँच लें। प्रभु जो भी पाप, गलतियाँ, कमियां-कमज़ोरियाँ हमारे सामने लाए, उन्हें मान कर, स्वीकार कर के, उनके लिए क्षमा मांग कर, फिर योग्य रीति से प्रभु की मेज़ में भाग लें, प्रभु से आशीष पाएं। हमारे द्वारा सुसमाचार की मूल, आधारभूत बातों की ओर लौट कर आना और उनके अनुसार आपने जीवन को जाँचना, हमें प्रभु के निकट और घनिष्ठ संगति में बनाए रखने में बहुत सहायक होगा, और हमें शैतान और उसकी युक्तियों से, उसके चंगुल में फँसने से बचाए रखेगा।
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, और प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहे हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
उत्पत्ति 16-17
मत्ती 5:27-48
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The Lord’s Table - Back to Basics & Self-Examination
We have seen in the previous articles that sin had brought its disastrous consequences into the Church, and provided Satan the way to break up the Church, wreak havoc in it. Under its influence people were despising the Church, and denigrating the Lord’s Table by misusing and mishandling it, while thinking they were okay and behaving in a godly manner. To rectify the errors, the Holy Spirit through Paul, takes them back to the initiation of the Holy Communion by the Lord Jesus, and recounts to them the manner in which the Lord established the Communion, so that they could then emulate it, do it in the proper manner, as established by the Lord. It is believed that Paul wrote this letter in A.D. 59, i.e., about 25-26 years after the death and resurrection of the Lord Jesus. Therefore, this recounting of the institution of the Lord’s Table, serves to affirm and authenticate the Gospel accounts, since the details remain the same. We see from 1 Corinthians 11:23-25 that the Lord established the Holy Communion “on the same night in which He was betrayed” (verse 23), and as we have seen from the Gospel accounts, it was not the same as the Passover meal, as it says here it was done “after supper” (verse 25), and it was done using the elements of the Passover. Also, the Lord took a bread and a cup of grape juice, here too, stated in singular, again affirming that whenever the disciples participated in the Lord’s Table, it was not to be done as a full-fledged meal, but in a symbolic manner, as is written here in the text of verses 25-26, to be done in remembrance of the Lord’s sacrifice.
This brings before us a God given method, recorded in His Word, for checking and correcting errors in the life of the Believers and functioning of the Church - go back to the initiation, see how God did it or had it done the first time, compare with what is happening now, and then take the remedial measures to restore what God had said and done. We had seen in an earlier article of December 26 that God is very particular about His worship and only what He has said, what He has ordained, is acceptable to Him, nothing else. Therefore, anything that has deviated away from God’s established pattern and method, has become unacceptable to the Lord, will have to be restored back to its God ordained form and manner for it to become acceptable to the Lord and again become a source of blessings.
This is not the only instance of such a pattern being given or used in God’s Word. A little later, in 1 Corinthians 15:1-4, as he comes towards concluding this letter, through the Holy Spirit, Paul recounts to them the basic Gospel. Throughout this letter, from the very beginning, he has been pointing out to them their errors and the way to correct them. Now as a general summation of it all, the Holy Spirit directs Paul to show them that the basic problem with them is that they have started overlooking the basic Gospel, the basis of their salvation and association with the Lord as His people. Since they had deviated away from the fact and implications of the Gospel, therefore, instead of looking to the Lord, they had started to look up to men and listen to them, providing Satan an opportunity to spread wrong teachings and false doctrines amongst them. In his letter to the Galatians (Galatians 2:1-10), Paul says that he went “by revelation” i.e., under instructions from God, to Jerusalem to share with them, to have a review with the elders in Jerusalem about the gospel he was preaching amongst the Gentiles. Although there was nothing wrong found in what he was preaching (2:6), but yet God deemed it necessary that a review be done. But this also provided an opportunity for Paul and Barnabas to not only have the approval but also the support and fellowship of the Church elders in Jerusalem.
Similarly, in Acts 2, after receiving the Holy Spirit, when Peter stands up to address the devout Jews gathered in Jerusalem for the feasts to clear their confusion and curiosity about what was happening, Peter recounts to them from their Scriptures the pertinent prophecies recorded by God, i.e., takes them back to the basics of the prophecies related to salvation written in the Scriptures. As he does so, the people are convicted in their hearts and Peter presents the Gospel to them, and 3000 are saved. When Stephen is caught on trumped up charges of blasphemy, and is brought before the council of the Jewish religious leaders to be judged (Acts 6:10-15), then, in putting up his defense, in Acts 7, Stephen recounts to them the history of Israel from its inception, to show them how they have repeatedly erred from the Word and ways of God, and in that same error have crucified the promised and prophesied Messiah (Acts 7:51-53); i.e., Stephen takes them back to the basics of their faith and relationship with God to expose their deviating from God’s Word and falling away from God’s ways. A similar instance is recorded in the book of Joshua chapter 7; Israel suffered an unexpected and humiliating defeat at Ai, Joshua is distraught about it, is pleading to the Lord to show why this happened. Lord could have given him the name of the guilty person straightaway, instead God gives in Joshua 7:14 the method of zeroing down to identifying the problems - review and analyze step-by-step starting from the basics, the very root, and carrying on till the current, till the problem is identified. Joshua implements God’s method (Joshua 7:16-18) and the culprit for the defeat is exposed. Achan and his family had the opportunity to confess straightaway, or even in between, as they saw the process zeroing in towards them. But they did not do so, frittered away their opportunity, and eventually had to pay the penalty. No one could accuse Joshua of any partiality or mistake or wrongdoing, and Achan too had no avenue of escape left, he had to confess his wrong doing and suffer for it.
God in His Word, has given to us His method for us to keep our lives free from errors and slipping up on God’s Word - periodically keep reviewing and analyzing ourselves, our behavior, our attitude, our living, our state of obedience to the Lord and His Word, etc. The Lord’s Table provides to us an opportunity to prayerfully, in the presence of the Lord, with His help, to review our lives before partaking of the Holy Communion, confess the sins, errors, and short-comings the Lord brings up before us, ask His forgiveness for them and then to go ahead and participate worthily, and be blessed by the Lord. Our returning back to the basics of the Gospel and our faith and reviewing our life accordingly will go a long way to keep us in close fellowship with the Lord, and safe from Satan and his ploys.
If you are a Christian Believer and have been participating in the Lord’s Table, then please examine your life and make sure that you are actually a disciple of the Lord, i.e., are redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word. You should also always, like the Berean Believers, first check and test all teachings that you receive from the Word of God, and only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Genesis 16-17
Matthew 5:27-48
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