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आराधना के भौतिक लाभ (1)
आराधना के बारे में अपने इस अध्ययन में हम देख चुके हैं कि परमेश्वर की आराधना करना क्या है, आराधना के विभिन्न स्वरूप और अभिव्यक्तियाँ क्या हैं, परमेश्वर की आराधना करने की आवश्यकता और महत्व क्या हैं, तथा आराधना के आत्मिक लाभ क्या हैं। अभी तब आत्मिक लाभों के बारे में हमने देखा है कि सच्ची आराधना किस प्रकार से हमारे लिए लाभकारी और सहायक होती है; उससे हम:
परमेश्वर के लिए उपयोगी बनते हैं
हमारी प्रार्थनाएँ प्रभावी हो जाती हैं
परमेश्वर में हमारा भरोसा दृढ़ और उन्नत होता रहता है
हम सुसमाचार प्रचार में प्रभावी और फलवन्त हो जाते हैं
हम शैतान द्वारा पाप और संसार में फंसने तथा भ्रष्ट हो जाने से बचे रहते हैं
लेकिन क्या आराधना से संबंधित बस इतना ही है - केवल आत्मिक बातें, शारीरिक लाभ का कुछ भी नहीं? क्या सच्ची आराधना किसी भी प्रकार से हमें कोई भौतिक या शारीरिक लाभ प्रदान करती है, और पृथ्वी के हमारे जीवन में किसी प्रकार से हमारे लिए लाभकारी होती है?
अवश्य! आराधना हमारे पृथ्वी के जीवन के लिए भी लाभकारी होती है। सच्ची आराधना न केवल वर्तमान में हमारे आत्मिक तथा भविष्य के लिए हमारे परलोक के जीवन के लिए लाभकारी है; बल्कि जब तक हम इस संसार में जीते और कार्य करते हैं, हमें भौतिक और शारीरिक लाभ भी प्रदान करती है।
लेकिन किसी गलतफहमी में नहीं पड़ें; यह भौतिक संपन्नता तथा सांसारिक लाभ के लिए सुसमाचार के उपयोग का प्रचार बिलकुल भी नहीं है। कोई भी यह नहीं समझे कि आराधना के द्वारा वे परमेश्वर को चालाकी से फंसा लेंगे, उसे बाध्य कर लेंगे कि किसी भी प्रकार से उनके द्वारा की गई आराधना के प्रत्युत्तर में परमेश्वर उन्हें कोई शारीरिक या भौतिक लाभ प्रदान करे।
यूहन्ना 4:23-24 पर वापस जाइए - परमेश्वर ऐसे लोगों को ढूँढ़ रहा है जो आत्मा और सच्चाई से उसकी आराधना करते हैं। इन पदों में शब्द “आत्मा” पवित्र आत्मा के लिए नहीं आया है, वरन व्यक्ति की अपनी आत्मा के लिए प्रयोग किया गया है। जैसा हम पहले देख चुके हैं, अभिप्राय है कि परमेश्वर ऐसे लोगों को ढूँढ़ रहा है जो उसे पूरी तरह से समर्पित हों, उसके पूर्णतः आज्ञाकारी हों, उसके समक्ष सदा नतमस्तक बने रहें। उनका यह परमेश्वर को प्रोसक्यूनियोस करना एक बाहरी दिखावा नहीं, उनके अन्दर से उनके मन और आत्मा से आने वाला हो; इसका संबंध उनकी किसी भौतिक इच्छाओं, लाभ, या सांसारिक लालच से नहीं हो।
यदि आराधना करने का उद्देश्य परमेश्वर को अपने हाथों की कठपुतली बनाकर उससे कुछ सांसारिक या भौतिक लाभ प्राप्त करना है, तो यह स्वार्थी और स्वयं की महिमा के लिए की जाने वाली आराधना है; वह सच्ची आराधना नहीं है जो परमेश्वर चाहता है और जिससे परमेश्वर की महिमा होती है; और इस आधार पर यह स्वतः ही उस मानक पर असफल हो जाती है जो परमेश्वर चाहता है; व्यक्ति के लिए व्यर्थ एवं निष्फल हो जाती है। किन्तु यदि हम सच्चे मन और सही भावना से परमेश्वर की आराधना उसका गुणानुवाद करने, उसकी महिमा करने के लिए करते हैं, तो परमेश्वर अपने समय में, अपने तरीके से, हमें वे भौतिक तथा शारीरिक वस्तुएँ दे सकता है, जो वह सोचता है कि हमारे लिए आवश्यक और लाभकारी हैं, हमारे द्वारा उसकी सेवकाई के लिए हमारी सहायता कर सकती हैं। परमेश्वर न केवल हमारी आत्मिक भलाई, उन्नति और आवश्यकताओं के लिए हमारी देख-भाल करता है, वरन शारीरिक और भौतिक आवश्यकताओं के लिए भी करता है। हमारा स्वर्गीय प्रेमी पिता होने के नाते, उसे हमारी सभी आवश्यकताओं के बारे में पता है, और वह उनके लिए प्रावधान करता है, उन्हें उपलब्ध भी करवाता है - हमारे लालच और लालसाओं के अनुसार नहीं, बल्कि हमारी आवश्यकताओं के अनुसार (फिलिप्पियों 4:19)।
इस प्रकार से हम देखते हैं कि सच्ची आराधना के केवल आत्मिक ही नहीं शारीरिक और भौतिक लाभ भी हैं, किन्तु यह केवल परमेश्वर ही निर्धारित करता है कि किसे क्या देना है, कब देना है, किस प्रकार से देना है, कितना देना है, आदि। हम आराधना का उपयोग उसे बाध्य करने या उससे अपनी इच्छानुसार कुछ प्राप्त करने के लिए नहीं कर सकते हैं। अगले लेख में हम इसके बारे में कुछ और बातें देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
व्यवस्थाविवरण 30-31
मरकुस 15:1-25
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The Material Blessings of Worship (1)
In this study on worship, we have seen what worship is, the forms or expressions of worship, the necessity and importance of worshipping God, and the spiritual benefits of worshipping God. We have seen how true worship benefits us spiritually through:
Making us usable by God
Making our prayers effective
Helping us in developing and maintaining trust in God
Making our sharing the Gospel effective and fruitful
Keeping us safe from getting drawn into and corrupted by the world
But is that all there is to it – everything spiritual, nothing physical? Does true worship, in any manner, benefit us physically and materially, and help us in our life on earth?
Yes! Most certainly it does; true worship not only benefits us spiritually, both, presently as well as for the coming world; but also benefits physically and materially while we live and work in this world.
But this is not advocating a Prosperity Gospel, or encouraging the worshippers to think they can manipulate and coax God into providing material benefits to them, because of their worshipping Him in any of the various ways we have seen so far.
Go back to John 4:23-24 – God is looking for those who worship Him in spirit and in truth. In both these verses, the word “spirit” is in small letters, whereas in English, wherever the Holy Spirit is spoken of, the ‘S’ is capitalized to indicate the difference – as in v.24 – “God is Spirit…worship in spirit and truth”. The implication is that true worship, the kind that God is looking for – the complete prostrating before Him and submitting to Him in total obedience – the proskuneos has to happen from within – one’s spirit, or, non-physical inner aspect; and has to be unrelated to any material desires, gain, or greed.
If the intention of worship is to manipulate God so as to extract physical and material benefits from Him, then it is a selfish and self-glorifying worship; not the true worship that exalts God and glorifies Him – so it fails the test of what God is looking for! If we worship to exalt and glorify God, then God in His time and manner can and will bless us with those material things that He decides are required for us and can help us in our ministry for Him. God cares not only about our spiritual well-being and requirements, but our physical and material well-being and requirements as well. As our loving and caring Father, He knows and provides for our all kinds of necessities - not according to our greed, but according to our need (Philippians 4:19).
So we see that besides spiritual benefits, the physical and material benefits too are definitely a reward for true worship, but it is God who decides – what to give, when to give, how to give, and how much to give; we cannot use worship to force His hand or demand a particular material benefit from Him. In the next article we will consider about this some more.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Deuteronomy 30-31
Mark 15:1-25
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Good morning Sir wakai ham kisi bhi baato k liye prabhu ko majbur nhi kar sakate prameshawar hamari baato ko sune agar ham yesa sochate h to hame bhi moosa k saman vishawasi hona hoga. Jis deen apani sansarik baato se pehale prabhu ko call karane lgenge uss deen wakai prabhu k pyare bachche ban jayenge.
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