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पवित्र आत्मा से सीखना – 19
नया-जन्म पाए हुए प्रत्येक मसीही विश्वासी में उसके उद्धार पाने के समय से ही पवित्र आत्मा निवास करने लगता है, और इसलिए उसे परमेश्वर के पवित्र आत्मा का योग्य भण्डारी बन कर कार्य करना सीखना है। परमेश्वर ने अपना पवित्र आत्मा प्रत्येक विश्वासी को उसका सहायक, साथी, शिक्षक, और मार्गदर्शक होने के लिए दिया है; तथा विश्वासियों को मसीही जीवन जीने और परमेश्वर द्वारा उन्हें सौंपी गई सेवकाई को पूरा करने में सहायक होने के लिए भी। क्योंकि पवित्र आत्मा विश्वासी का शिक्षक भी है, इसलिए उसे परमेश्वर का वचन भी सिखाता है, यदि वह उस से सीखने के लिए तैयार हो; और बजाए मनुष्यों पर निर्भर रहने के और उस के कारण गलत शिक्षाओं में पड़ जाने का जोखिम उठाने के। पिछले लेखों में हमने 1 पतरस 2:1-2 से सीखा है कि विश्वासी को पवित्र आत्मा से सीखने के लिए अपने आप को किस प्रकार तैयार करना चाहिए, और फिर भजन 25 से देखा है कि परमेश्वर कैसे अपने लोगों को अपना वचन और मार्ग सिखाता है। आज से हम 1 कुरिन्थियों 2:12-14 से पवित्र आत्मा से सीखने के बारे में देखेंगे।
पहले हमने यूहन्ना 14:26 से तथा यूहन्ना 16:13-15 से देखा था कि पवित्र आत्मा का मसीही विश्वासियों की सहायता और मार्गदर्शन करने का तरीका है उन्हें कोई नए दर्शन अथवा प्रकाशन देने की बजाए उन्हें प्रभु यीशु की बातों को स्मरण करवाना तथा जो प्रभु अपने शिष्यों से पहले कह चुका है उन बातों में से लेकर उन्हें बताना। यहाँ, 1 कुरिन्थियों 2:12 में, पवित्र आत्मा के द्वारा पौलुस यही बात कुछ भिन्न शब्दों में कह रहा है। पौलुस कहता है कि विश्वासियों को परमेश्वर द्वारा पवित्र आत्मा दिया गया है ताकि “हम उन बातों को जानें, जो परमेश्वर ने हमें दी हैं।” परमेश्वर कोई भी काम निरुद्देश्य नहीं करता है, और न ही किसी को कुछ भी उसे व्यर्थ गँवा देने के लिए नहीं देता है। मसीही विश्वासियों को विभिन्न वरदान और सँसाधन इसीलिए दिए गए हैं कि वे अपने मसीही जीवन को जीएँ और अपनी सेवकाई को पूरा करें। परमेश्वर ने उन्हें अपना पवित्र आत्मा दिया है कि विश्वासियों को उसके बारे में सिखाए जो कुछ उसने उन्हें सेंत-मेंत या अनुग्रहपूर्वक दिया है, तथा कैसे उसे परमेश्वर के राज्य और महिमा के लिए उपयोग करें। कोई विश्वासी यह नहीं कह सकता है कि परमेश्वर ने उसे कुछ नहीं दिया है; यह उसकी ज़िम्मेदारी है कि वह पहचाने अथवा पता लगाए कि परमेश्वर ने उसे क्या वरदान दिए हैं, और उस से कौन सी सेवकाई लेना चाहता है; और फिर पवित्र आत्मा की सहायता और मार्गदर्शन में उसका निर्वाह करे। पवित्र आत्मा उसे परमेश्वर द्वारा दिए गए सँसाधनों के बारे में सिखाने के लिए है; यह कुछ उस के समान है जिसे हमने पिछले लेख में भजन 25:12 से परमेश्वर द्वारा अपने लोगों को सिखाने के बारे में देखा था, परमेश्वर उन्हें उस के अनुसार सिखाता है जो वह चाहता है कि लोग उसके लिए करें।
विश्वासी, यदि वे अपने वरदान और सेवकाई के बारे में नहीं जानते हैं, तो उन्हें परमेश्वर से यह प्रकट करने के लिए माँगना चाहिए, उस से यह जानने के लिए सच्चे मन से प्रार्थना करने के द्वारा, तथा इस खरे, समर्पित उद्देश्य के साथ कि फिर वे परमेश्वर द्वारा सौंपे गए काम और दी गई सेवकाई को पूरा करेंगे तथा जैसा वह उन से चाहता है, वैसा ही जीवन भी जीएँगे। लोग सामान्यतः अपने वरदानों और सेवकाई को अपने जीवन पर ध्यान करने के द्वारा पहचान सकते हैं, यह देखने के द्वारा कि कलीसिया और परमेश्वर के लोगों के लिए किन कामों को वे अच्छे से करने पाते हैं, अन्य लोग उन से अकसर क्या करने के लिए और किस बात में सहायता देने के लिए कहते हैं, और वे परमेश्वर के लिए क्या करने से आनन्दित रहते हैं, आदि। सभी वरदान और सेवाकाइयाँ परमेश्वर के लिए समान महत्व और मूल्य के होते हैं, तथा सभी को एक ही वरदान अथवा सेवकाई नहीं दी गई है। इसलिए किसी को भी किसी अन्य के वरदान अथवा सेवकाई को लेकर ईर्ष्या अथवा लालच नहीं करना चाहिए। और न ही किसी को उसे जो नहीं मिला है या किसी अन्य को जो दिया गया है, उस को लेकर कुड़कुड़ाना चाहिए। प्रतिफलों के लिए होने वाले अन्तिम न्याय के समय, प्रत्येक का न्याय उसके अनुसार किया जाएगा जो उन्हें दिया गया था, और उन्होंने उसे परमेश्वर के राज्य और महिमा के लिए कि प्रकार से उपयोग किया।
प्रभु यीशु मसीह के साथ क्रूस पर चढ़ाए गए डाकुओं में से पश्चाताप करने वाले के बारे में सोचिए; उसकी सेवकाई कुछ ही मिनटों की, तथा केवल एक ही वाक्य बोलने की थी। यह कदापि संभव नहीं था कि वह कहीं पर जाता या प्रभु के लिए कुछ करता; लेकिन आज भी, इस घटना के होने के 2000 वर्ष से भी अधिक बीत जाने के बाद भी, वह आज भी असंख्य लोगों से बोलता रहता है, कितनों को विश्वास में लेकर आता है, कितनों की उन के प्रभावी होकर विश्वास में बढ़ने में सहायता करता है, और उसकी सेवकाई आज भी ज़ारी है। इसी प्रकार से आज भी अनगिनत ऐसे प्रभु के सेवक और संत हैं जिन्हें यह पता ही नहीं है कि उनके जीवन तथा कार्यों ने औरों के जीवनों को किस प्रकार से प्रभावित किया है, उन्हें बदला है, और सँसार के न जाने कितने लोगों के उद्धार का कारण बने हैं। हो सकता है कि उन्होंने अपने जीवनों या कार्यों को कभी किसी योग्य भी न समझा हो, लेकिन परमेश्वर ने उन्हें बहुत सामर्थी रीति से उपयोग किया है। जो भी जीवन परमेश्वर की आज्ञाकारिता में और परमेश्वर को आदर देने के लिए जिया जाएगा, वह हमेशा ही बहुतायत से फलवन्त होगा तथा परमेश्वर द्वारा बड़े इनाम पाएगा।
कोई भी वरदान अथवा सेवकाई छोटी या महत्वहीन नहीं है; परमेश्वर की दृष्टि में, प्रत्येक वरदान और सेवकाई का समान महत्व और मूल्य है। किसी को भी 1 कुरिन्थियों 12:31 के “बड़े से बड़े वरदानों” की गलत व्याख्या से भरमाए नहीं जाना चाहिए। यह समझने के लिए कि इसका वास्तविक अर्थ क्या है, उसे उसके संदर्भ, 1 कुरिन्थियों 12:28-3 में देखिए, तथा वहाँ दिए गए आत्मिक वरदानों के क्रम पर ध्यान कीजिए – बहुधा जिस का “बड़ा” या “सर्वोच्च” वरदान होने का दावा किया जाता है और इसलिए उसका लालच किया जाता है, “अन्य-भाषा बोलने का वरदान” वह प्रथम नहीं, अन्तिम है। यह विषय एक पहले के लेख में, 28 अगस्त 2022 को विस्तार से दिया गया है, और पाठक उसे वहाँ से पढ़ सकते हैं। बजाए इसे ले कर कुड़कुड़ाने के कि उसे क्या नहीं मिला है, विश्वासियों को परमेश्वर का धन्यवाद करना चाहिए, हर उस बात के लिए जो उसने उन्हें सेंत-मेंत और अनुग्रह द्वारा प्रदान की है, तथा पवित्र आत्मा की सहायता से “उन बातों को जानें, जो परमेश्वर ने हमें दी हैं” और फिर उन्हें पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन में परमेश्वर के राज्य और महिमा के लिए उपयोग करे। अगले लेख में हम यहाँ से आगे देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Learning from the Holy Spirit – 19
Every Born-Again Christian Believer, having the Holy Spirit residing in him since the time of his salvation, must learn to function as a worthy steward of the Holy Spirit of God. God has given His Holy Spirit to every Believer, as his Helper, Companion, Teacher, and Guide; to help the Believers live their Christian lives and fulfil their God assigned ministry. The Holy Spirit is also to be the Believer’s Teacher and teaches him God’s Word, if he is willing to learn from Him; instead of the Believer relying upon men and thereby becoming prone to fall into erroneous teachings. In the previous articles we have seen from 1 Peter 2:1-2 how the Believer should prepare himself to learn from the Holy Spirit, and then from Psalm 25 about how God teaches His people His Word and ways. From today we will start considering from 1 Corinthians 2:12-14 about learning from the Holy Spirit.
Earlier, we had seen from John 14:26 and from John 16:13-15 that the way the Holy Spirit helps and guides the Christian Believers is not by giving any new revelations or teachings, but by bringing to their remembrance and declaring to the Lord’s disciples what the Lord has already taught to them. Here, in 1 Corinthians 2:12, Paul, through the Holy Spirit is saying the same thing, in different words. Paul says that the Holy Spirit has been given to the Believers by God, so that “we might know the things that have been freely given to us by God.” God does not do anything without a purpose, and does not give anything to anyone to be wasted away. Having given various gifts and provisions to the Christian Believer, to live his Christian life and fulfil his ministry, God has also given the Holy Spirit to teach the Believers about what He has freely or graciously given to them, and how to put it use for God’s Kingdom and glory. No Believer can say that God has not given him anything; it is his responsibility to recognize or find out the gifts God has given him, the ministry God wants done through him, and then carry it out through the help and guidance of the Holy Spirit. The Holy Spirit is there to teach the Believers about the things that God has given him; this is something like what we saw in the last article, from Psalm 25:12 about God teaching His people that which He choses to teach them, according to what He wants to have them do for Him.
The Believers, if they are not aware of their ministry and gifts, should ask God to reveal it to them, by earnestly praying to Him about it, with a sincere desire to then work to fulfil their God assigned ministry and live for Him the way He wants them to live. They can usually recognize their gifts and ministry by reviewing their lives and seeing what they usually are good at doing for the Church and God’s people; the things people often ask to help them out with; the things they enjoy doing for God, etc. Every gift and ministry are of equal value and importance for God, and not everyone has been given the same gift or ministry. So, none should feel envious about someone else’s gift and ministry, nor covet it. Neither should anyone grumble about what they have not received and what others have received. At the final judgment for rewards, everyone will be judged for what was given to them, and how they put it to use for the Kingdom and glory of God.
Consider the penitent thief on the cross, when the Lord Jesus was crucified; his ministry was only of a few minutes, and of speaking one single sentence. There was no way that he could go anywhere or do anything for the Lord after his repentance; but till today, over 2000 years after the incidence, he still continues to speak to countless people, and bring so many to faith, or make so many grow in their faith – effectively, his ministry continues even today. Similarly, there are numerous saints and servants of God, who don’t even know how their lives and works have impacted others, changed them, and saved so many people in the world. They may not even have considered their lives and efforts worthwhile, but God has still used it mightily. The life lived in obedience to, and for honoring God, will always bring abundant fruits and be greatly rewarded by God.
No gift or ministry is small or insignificant; in God’s eyes, every gift and every ministry is of equal value. No one should get carried away because of misunderstanding “best gifts” of 1 Corinthians 12:31. To understand what it actually means, see it in its context of 1 Corinthians 12:28-31, and consider the sequence in which the spiritual gifts are mentioned there – the often touted and coveted as ‘the best,’ the gift of ‘tongues’ is the last one, not first. This topic has been covered earlier in another article of 28th August 2022 in detail, and the readers can read about it there. Instead of grumbling about what he has got or not got, the Believer should thank God for whatever God has graciously or ‘freely’ given to him, and through the help of Holy Sprit “know the things that have been freely given to us by God,” then put them to use under His guidance for God’s Kingdom and glory. We will carry on from here in the next article.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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