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पवित्र आत्मा से सीखना – 18
क्योंकि प्रत्येक नया-जन्म पाया हुआ मसीही विश्वासी पवित्र आत्मा का भण्डारी भी है, जो उस में निवास करता है, और उसके उद्धार पाने के क्षण ही में परमेश्वर के द्वारा उसे दे दिया जाता है, इसलिए उसे अपने भण्डारी होने का निर्वाह योग्य रीति से करना है। विश्वासी को परमेश्वर पवित्र आत्मा दिया गया ताकि उसके मसीही जीवन को जीने और परमेश्वर द्वारा उसे सौंपी गई सेवकाई का ठीक प्रकार से निर्वाह करने में उसका सहायक हो, मार्गदर्शक हो। पवित्र आत्मा विश्वासी का शिक्षक भी है; जिन अन्य बातों को विश्वासी को सीखना होता है, उन के अतिरिक्त, पवित्र आत्मा विश्वासी को परमेश्वर के वचन को भी सिखाता है। इसलिए प्रत्येक मसीही विश्वासी को किसी मनुष्य एवं मनुष्य की रचनाओं पर निर्भर रहने की बजाए, परमेश्वर के वचन को पवित्र आत्मा से सीखना चाहिए, जिस से कि किसी भी प्रकार की गलत शिक्षाओं में पड़ने के खतरे से बचा रहे। पिछले लेखों में हमने देखा है कि लोग क्यों पवित्र आत्मा की बजाए, मनुष्यों से सीखने पर अधिक निर्भर रहना चाहते हैं; और हमने 1 पतरस 2:1-2 से यह भी देखा है कि विश्वासी को पवित्र आत्मा से सीखने के लिए अपने आप को किस प्रकार से तैयार करना चाहिए। पिछले लेख से हमने भजन 25 से परमेश्वर द्वारा लोगों को अपने वचन और मार्गों को सीखने के बारे में देखना आरंभ किया है। यह भजन विश्वासी के परमेश्वर से वचन को सीखने के बारे में मनन करने के लिए कुछ बहुत गंभीर और महत्वपूर्ण बातों को दिखाता है; और साथ ही कुछ गलत धारणाओं का भी, जो वचन सीखने के बारे में सामान्यतः लोगों में पाई जाती हैं, निवारण कर देता है। संबंधित पदों से, जिस क्रम में वे लिखे गए हैं, पिछले लेख में हमने पद 8 और 9 से देखा था, कि परमेश्वर पापियों को सिखाता है, और वह सीखने वाले में नम्रता होने की माँग करता है। आज हम एक और पद से आगे सीखेंगे।
परमेश्वर द्वारा वचन और उसके मार्ग सिखाने से संबंधित यह अगला पद है:
- पद 12: “वह कौन है जो यहोवा का भय मानता है? यहोवा उसको उसी मार्ग पर जिस से वह प्रसन्न होता है चलाएगा।” यह पद हमारे सामने उन विश्वासियों के लिए जो परमेश्वर से सीखना चाहते हैं, दो बातों को विचार करने के लिए रखता है।
o पहली, परमेश्वर सीखने वाले में न केवल नम्रता चाहता है, लेकिन साथ ही यह भी कि वह यहोवा का भय मानता है। बहुत से लोग परमेश्वर का भय रखने का दावा तो करते हैं, किन्तु वे इसे अपने जीवन में व्यावहारिक रीति से प्रकट नहीं करते हैं। अधिकाँश के लिए परमेश्वर का भय रखने का अर्थ होता है अपनी नैतिक और धार्मिक धारणाओं का रीति के अनुसार निर्वाह करते रहना। किन्तु परमेश्वर का वचन हमारे लिए परिभाषित करता है कि वास्तव में परमेश्वर का भय क्या होता है, “यहोवा का भय मानना बुराई से बैर रखना है। घमण्ड, अहंकार, और बुरी चाल से, और उलट फेर की बात से भी मैं बैर रखती हूं” (नीतिवचन 8:13)। इसलिए, वह जो वास्तव में परमेश्वर का भय मानता है, वह हर प्रकार की बुराई से बैर रखेगा, और अपने जीवन के द्वारा उसे व्यावहारिक रीति से भी दिखाएगा। साथ ही वह इस बात के लिए भी सचेत रहेगा कि इस पद में लिखी उन अन्य बातों से भी दूर रहे जिन से परमेश्वर बैर रखता है।
o दूसरी, उसे परमेश्वर उसी मार्ग पर जिस से वह प्रसन्न होता है चलाएगा; अर्थात, परमेश्वर ने उसके लिए जो तय किया है, उसके अनुसार उसे सिखाएगा। प्रत्येक विश्वासी के लिए परमेश्वर ने पहले से ही कुछ बातें निर्धारित कर के रखी हैं (इफिसियों 2:10); और उसे के अनुसार उसे आत्मिक वरदान भी दिए हैं कि उस कार्य या सेवकाई का निर्वाह करे (रोमियों 12:6-18)। परमेश्वर उसी के अनुसार सिखाता है, जो वह चाहता है कि वह व्यक्ति उसके लिए करे। बाइबल, परमेश्वर की आशीषों और गुणों का भण्डार है, और हर कोई उस से सीख सकता है; परमेश्वर ने जो कार्य और सेवकाई विश्वासी के लिए निर्धारित की है, उसे के अनुसार सीखने और उस में बढ़ने की योग्यता और क्षमता भी उसे प्रदान करता है। विश्वासी जैसे-जैसे अपनी सेवकाई को पूरा करते हैं, परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारी और प्रतिबद्ध बने रहते हैं, परमेश्वर भी उन्हें और परिपक्व करता जाता है, और उनकी विश्वासयोग्यता के लिए उन्हें और अधिक आशीषित करता है, जैसा कि भजन 25:13-14 से प्रकट है।
इसलिए, भजन 25:4 “हे यहोवा अपने मार्ग मुझ को दिखला; अपना पथ मुझे बता दे” परमेश्वर से सीखने की इच्छा रखने वाले प्रत्येक मसीही विश्वासी की सच्चे मन से की गई प्रार्थना होनी चाहिए। परमेश्वर कभी अपने आप को किसी पर थोपता नहीं है, जब हम उस से माँगते हैं, उसे अनुमति देते हैं, तब वह हमारे जीवनों में अद्भुत कार्य करता है जिन से हमारा लाभ और परमेश्वर की महिमा होती है। अगले लेख से हम 1 कुरिन्थियों 2:12-14 से पवित्र आत्मा द्वारा सीखे जाने के बारे में देखना आरंभ करेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Learning from the Holy Spirit – 18
Since every Born-Again Christian Believer is a steward of the Holy Spirit, who resides in him, and has been given to him by God at the very moment of his being saved, therefore, he has to ensure fulfilling his stewardship worthily. God the Holy Spirit has been given to him to help and guide him in his Christian life and for fulfilling his God given ministry. The Holy Spirit is also the Believer’s Teacher; besides other things that he needs to learn, He teaches him God’s Word the Bible. Therefore, every Christian Believer should learn the Word of God from the Holy Spirit, instead of relying upon men and their works, to avoid falling into any possible erroneous teachings. In the previous articles we have seen why people rely more upon men to learn God’s Word, than learn from the Holy Spirit; and have seen from 1 Peter 2:1-2 how the Believer should prepare himself to learn from the Holy Spirit. Since the last article, we have started to see from Psalm 25, about God’s teaching His people. This Psalm shows us some very important points to ponder over in learning from God; and it also dispels many common misconceptions related to learning God’s Word and ways, seen amongst the people. From the relevant verses, in the order of the verses, we have seen from verses 8 and 9 in the last article, that God teaches sinners, and He requires humility in the learner. Today we will carry on learning from one more verse.
The next verse related to God’s teaching His Word and ways is:
Verse 12: “Who is the man that fears the Lord? Him shall He teach in the way He chooses.” This verse puts before us two points for the Believers wanting to learn from God, to consider.
Firstly, God not only wants humility in the learner, but also that he should be a man that fears the Lord. Many people claim to fear the Lord, but they do not practically demonstrate it through their lives. For most, being in the fear of the Lord usually means a ritualistic observance of their religious and moral beliefs. But God’s Word defines for us, what fear of the Lord actually is, “The fear of the Lord is to hate evil; Pride and arrogance and the evil way And the perverse mouth I hate” (Proverbs 8:13). Therefore, the person who actually does fear the Lord, will hate evil in all its forms, and demonstrate it practically through his life. And he will also be careful to see that the other things mentioned in this verse that God hates, do not have a place in his life.
Secondly, God will teach that person; but Him shall He teach in the way He chooses; i.e., will teach according to what God has chosen for him. For every Believer, God has prepared somethings to do beforehand (Ephesians 2:10); and has given him spiritual gifts accordingly, to fulfil that work or ministry (Romans 12:6-8). God teaches according to what He wants that person to do for Him. The Bible is a treasure trove of God’s blessings and abilities, and everyone can learn from it; God will give the ability to learn and grow in the work or ministry that He has assigned to every Believer. As the Believers fulfil their ministry, remain obedient and committed to God in it, God will continue to teach them more, mature them further, and be blessed because of their faithful service, as is borne out from Psalm 25:13-14.
Therefore, Psalm 25:4 “Show me Your ways, O Lord; Teach me Your paths” should be the heartfelt prayer of every Christian Believer, to learn from God. God never imposes Himself on anyone, when we ask Him and allow Him to, He does wonderful things in our life that will benefit us and glorify Him. In the next article we will begin to see from 1 Corinthians 2:12-14 about the Holy Spirit’s teaching the Believers.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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