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“बड़े से बड़े वरदानों की धुन में रहो” को समझना – 2
प्रत्येक नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी को परमेश्वर पवित्र आत्मा ने कोई न कोई आत्मिक वरदान दिया है कि वह परमेश्वर के द्वारा उसे सौंपी गई सेवकाई को उचित रीति से पूरा कर सके। यद्यपि परमेश्वर का वचन यह दिखाता और सिखाता है कि परमेश्वर की दृष्टि में उसकी सभी सन्तान और उनकी सेवकाइयाँ समान स्तर के हैं, किन्तु कुछ लोग 1 कुरिन्थियों 12:31 की गलत व्याख्या और दुरुपयोग के द्वारा यह प्रचार करते और सिखाते हैं कि कुछ सेवकाइयाँ और वरदान अन्य से बेहतर, बढ़कर, और अधिक चाहने योग्य हैं। इस धारणा को स्वीकार करने, इसे मान लेने के बहुत गंभीर निहितार्थ हैं, जो परमेश्वर के चरित्र और गुणों पर हमला करते हैं। आज हम इसे कुछ विस्तार से देखेंगे।
यदि वरदानों और सेवकाइयों के कम या अधिक महत्व के होने, कुछ के औरों से बेहतर होने की व्याख्या को स्वीकार कर लिया जाए, तो फिर यह कलीसिया और विश्वासियों के मध्य विभाजन उत्पन्न कर देता है, जिसका आधार विश्वासी का या तो ‘पाया हुआ,’ अर्थात, उन व्यक्तियों में से एक जिन्होंने ‘बड़े’ या ‘अधिक महत्वपूर्ण’ या ‘बेहतर’ वरदान को पाया है; या फिर वह ‘नहीं पाया हुआ,’ अर्थात उन व्यक्तियों में से एक जिन्होंने ‘छोटा’ या ‘कम महत्वपूर्ण’ या ‘निम्न’ वरदान पाया है। क्योंकि 1 कुरिन्थियों 12:11 यह स्पष्ट कहता है कि किसे कौन सा वरदान देना है यह निर्णय केवल पवित्र आत्मा ही करता है, तो इसका तात्पर्य हुआ कि वह यह मन-माने तरीके से करता है, अर्थात परमेश्वर पवित्र आत्मा में भेद-भाव और पक्षपात है – क्योंकि उसने परमेश्वर की कलीसिया में, परमेश्वर के बच्चों में से कुछ को मन-माने चुनाव से ‘बड़े’ या ‘अधिक महत्वपूर्ण’ या ‘बेहतर’ वरदान दे दिए, और कुछ को ‘छोटा’ या ‘कम महत्वपूर्ण’ या ‘निम्न’ वरदान ही दिया। अन्यथा, यदि परमेश्वर पवित्र आत्मा ने ये वरदान परमेश्वर के द्वारा सौंपी गई सेवकाई के आधार पर दिए हैं, तो फिर यही सारा मन-मानी और पक्षपाती तरीके से काम करने का दोष परमेश्वर पर चला जाता है जिसने विश्वासियों के लिए कार्य सेवकाइयाँ निर्धारित किए हैं। किसी भी दृष्टिकोण से देखें, यह परमेश्वर पर एक अस्वीकार्य आरोप लगाता है कि वह मनमाने पक्षपाती तरीके से काम करता है।
साथ ही वरदानों के स्तर और श्रेणियों में भिन्नता होने को स्वीकार करने की एक स्वाभाविक मानवीय प्रतिक्रिया होती है कि जो “पाया है’ वालों में से हैं, वे अपने आप को उच्च श्रेणी का, बेहतर विश्वासी समझेंगे, ऐसे लोग जिनकी योग्यता तथा सेवकाई में प्रभावी होना औरों से बढ़कर है, और इसलिए परमेश्वर से उन्हें मिलने वाले प्रतिफल और आशीषें भी विशेष होंगे, ‘नहीं पाया हुआ’ वालों को मिलने वालों से और उत्तम होंगे। ये ‘पाया हुआ’ वाले, जान-बूझते हुए या अनजाने में, अपने बारे में, अपनी सेवकाई के बारे में, और अपने प्रभु के लिए उपयोगी होने के बारे में, एक आत्मिक घमण्ड में आ जाएँगे। यह प्रभु के लिए उनके कार्य और उनकी सेवकाई के लिए हानिकारक हो जाएगा क्योंकि प्रभु परमेश्वर किसी भी प्रकार के घमण्ड को स्वीकार अथवा सहन नहीं करता है, घमण्ड करने वाले के साथ कोई काम नहीं करता है। इस कारण ये लोग फिर शैतान के हाथों में कठपुतली बनकर रह जाएंगे, जो यही समझते रहेंगे कि वे प्रभु के लिए काम कर रहे हैं, किन्तु उनकी सेवकाई और कार्य उनके घमण्ड के कारण व्यर्थ और निष्फल होंगे। दूसरी ओर, जो ‘नहीं पाया हुआ’ वाले हैं, वे इन ‘उत्कृष्ट विश्वासियों’ के समान होने, इन ‘पाया हुआ’ वालों में सम्मिलित होने के व्यर्थ प्रयासों में पड़ जाएँगे। वे अपनी निर्धारित सेवकाई और कार्य को करने और प्रभु में उन्नति करने के बजाए, इस “बड़े से बड़े वरदानों की धुन में रहो” के अनुचित चक्करों में पड़ जाएँगे, ‘पाया हुआ’ वालों में सम्मिलित होने की लालसा में अपनी निर्धारित सेवकाई ठीक से न करने के कारण अपने प्रतिफलों और आशीषों की हानि कर लेंगे।
दोनों ही, ‘पाया हुआ’ और ‘नहीं पाया हुआ’ तरह के विश्वासियों के लिए परिणाम समान ही होगा। दोनों ही अपनी आत्मिक परिपक्वता और प्रभु के लिए उपयोगिता से गिर जाएँगे। कलीसिया में ईर्ष्या, ‘बड़े से बड़े वरदानों’ और सम्बन्धित सेवकाइयों का लालच करना, मतभेद, एक-दूसरे को ऊँचा-नीचा होने या देखने की प्रवृत्ति, कलह, और विभाजन हो जाएंगे (1 कुरिन्थियों 1:10-13; 3:1-3)। कलीसिया में और विश्वासियों में घमण्ड के इस खेल में हार केवल सुसमाचार प्रचार और प्रसार की ही होगी। ऐसे “विश्वासियों” के जीवन, व्यवहार, और गवाही को देखकर, जो या तो अपने “बड़े से बड़े” वरदानों की प्रदर्शनी करने में लगे हुए हैं, या जो उनके लालच और उन्हें पाने की लालसा के अन्तर्गत काम करने में लगे हुए हैं, लोगों को केवल प्रेम, एक-मनता, समानता और उद्धार के सुसमाचार को सुनने और मानने से निरुत्साहित ही करेगी; और जीत शैतान ही की होगी।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Understanding Earnestly Desire the “Best Gifts” – 2
Every Born-Again Christian Believer has received some spiritual gift or the other from God the Holy Spirit to help him worthily fulfil his God assigned ministry. Although, God’s Word shows and teaches that in God’s eyes all of His children, and their ministries are of the same status, but some people misinterpret and misuse 1 Corinthians 12:31 to teach and preach about some ministries and gifts being better, superior, and more desirable than others. There are serious implications of this notion that the attack the character and attributes of God, and accepting this notion, believing in it denigrates God. We will consider this today in some detail.
If this interpretation of gifts and ministries being of greater and lesser importance and some being better than the others is accepted, then it creates divisions in the Church and amongst Believers, on the grounds of a Believer either being one of the ‘haves’ i.e., one of those people who have the ‘greater’ or ‘more important’ or ‘better’ gifts; or being one of the ‘have nots’ i.e., those people who have the ‘lesser’ or ‘less important’ or ‘inferior’ gifts in the Church. Since 1 Corinthians 12:11 categorically states that it is the Holy Spirit who decides which gift to give to whom, this then implies that He does this arbitrarily, i.e., in doing so there is favoritism or partiality in God the Holy Spirit – for in the Church of God, to some of God’s children He has arbitrarily chosen to give ‘greater’ or ‘more important’ or ‘better’ gifts, and to other of God’s children He has arbitrarily chosen to give the ‘lesser’ or ‘less important’ or ‘inferior’ gifts. Or, if the Holy Spirit has given the gifts according to the ministry assigned by God, then the same argument of being arbitrary and showing favoritism and partiality gets transferred to God who decided on each Believer’s ministry and work. In either case, it brings an untenable accusation against God of His being unfair and arbitrary.
Moreover, accepting a differentiation in the status and category of gifts, then naturally leads to the human tendency that the ‘haves’ will think of themselves of being superior or of a better category, being people with better ability and effectivity in ministry, and therefore having a claim to better rewards and blessings from God than the ‘have nots.’ Intentionally or unintentionally, these ‘haves’ will develop a spiritual pride about themselves, about their ministry, and about their being useful for the Lord. This will be counterproductive in their ministry and work for the Lord, since and the Lord God can neither accept, nor tolerate, nor work with any pride. This will effectively reduce them to being nothing more that puppets in the hands of Satan, i.e., of people working in the name of the Lord but not accomplishing anything for the Lord God because of the pride within them. This division will also drive the ‘have nots’ into making vain efforts to join these ‘elite Believers,’ the ‘haves’, so that they too can receive similar status, blessings and rewards. So now, the ‘haves’ will live with a sense of spiritual superiority and pride, and will try to dominate the ‘have nots’; while the ‘have nots’ instead of working for the Lord in their ministries, and growing in the Lord will be spending their time and efforts to “earnestly desire the best gifts” and catch up with the ‘haves.’
The net result will be the same for either of the Christian Believers, whether one of the ‘haves’ or of the ‘have-nots.’ Both will fall and fail in their spiritual maturity and effectiveness for the Lord. There will be jealousy, coveting of gifts and ministries, disagreements, feelings of superiority-inferiority, quarrels, and the Church breaking up (1 Corinthians 1:10-13; 3:1-3). The only looser because of this game of vanity in the Church and amongst the Believers will be the preaching and propagation of the Gospel. The lives, activities, and witness of these “Believers” engaged in either showing off their “best gifts,” or earnestly desiring and working to acquire the “best gifts” will only serve to discourage people from listening to and accepting the Gospel of love, unity, and uniformity, and salvation; and Satan would be the winner.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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