ई-मेल संपर्क / E-Mail Contact

इन संदेशों को ई-मेल से प्राप्त करने के लिए अपना ई-मेल पता इस ई-मेल पर भेजें / To Receive these messages by e-mail, please send your e-mail id to: rozkiroti@gmail.com

शनिवार, 17 फ़रवरी 2024

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 172 – Stewards of The Gifts of the Holy Spirit / पवित्र आत्मा के वरदानों के भण्डारी – 3

Click Here for the English Translation


“बड़े से बड़े वरदानों की धुन में रहो” को समझना – 1


    हमारे वर्तमान अध्ययन के सन्दर्भ में, और विश्वासियों के परमेश्वर के प्रावधानों के भण्डारी होने के नाते, पिछले लेख में हमने देखा था कि परमेश्वर चाहता है कि सभी मसीही विश्वासी पवित्र आत्मा द्वारा दिए जाने वाले आत्मिक वरदानों के बारे में सीखें और उनके बारे में सही समझ रखें। साथ ही हमने यह भी देखा था कि परमेश्वर द्वारा उन के लिए निर्धारित सेवकाई के अनुसार सभी मसीही विश्वासियों को उपयुक्त आत्मिक वरदान दिए जाते हैं। परमेश्वर की दृष्टि में न तो कोई सेवकाई छोटी अथवा बड़ी है, और न ही कोई आत्मिक वरदान बड़ा या प्रमुख, अथवा, छोटा या गौण है। इस प्रकार की भिन्नता या भेदभाव करना मनुष्य की प्रवृत्ति एवं भावना है, परमेश्वर की नहीं। इस विषय के लिए, 1 कुरिन्थियों 12:31 को बहुधा वरदानों के बड़े या छोटे होने के समर्थन में उपयोग किया जाता है, जो इस पद की सही व्याख्या नहीं है। इसलिए, हमें इस पद को उसके संदर्भ में सही समझना आवश्यक है।

    इस पद को, इस से पहले के पदों 1 कुरिन्थियों 12:12-27 के सन्दर्भ में देखिए। यहाँ पर पौलुस ने शरीर को रूपक के समान प्रयोग करते हुए यह निष्कर्ष दिया कि जिस प्रकार देह के सभी अंग देह के लिए समान महत्व के और देह की कार्य-क्षमता तथा कुशलता के लिए अपने-अपने स्थान पर समान रीति से आवश्यक हैं, कोई अंग कम अथवा अधिक महत्वपूर्ण, या बड़ा अथवा छोटा नहीं है, उसी प्रकार मण्डली में भी सभी मसीही विश्वासी, अपने भिन्न-भिन्न वरदानों और कार्यों के साथ, प्रभु की मण्डली रूपी देह के लिए समान महत्व रखते हैं, न तो कोई मसीही विश्वासी, न उसकी सेवकाई, न उसके वरदान, औरों की तुलना में बड़े अथवा छोटे, या कम अथवा अधिक महत्वपूर्ण है, सभी समान हैं। फिर इसके बाद पद 28 में पौलुस उस मण्डली रूपी एक ही देह, अर्थात मसीह यीशु की कलीसिया में विभिन्न जिम्मेदारियों, सेवकाइयों, और कार्यों का उल्लेख करता है। फिर पद 29-30 में पौलुस आलंकारिक प्रश्नों के पूछने के द्वारा यह दिखाता है कि हर किसी को एक ही ज़िम्मेदारी नहीं दी गई है; और न ही किसी एक को सारी ज़िम्मेदारियाँ दी गई हैं; सभी को उन्हें दी गई अपनी-अपनी ज़िम्मेदारी निभानी है। और तब पद 31 में उसके द्वारा “बड़े से बड़े वरदान” वाक्यांश का प्रयोग किया गया है। इस पद को अन्य पदों के साथ, उसके संदर्भ में देखने से यह प्रकट हो जाता है कि “बड़े से बड़े” से अभिप्राय कलीसिया में अधिक से अधिक होते रहने वाले काम से सम्बन्धित वरदान के लिए है। अर्थात पौलुस में होकर परमेश्वर पवित्र आत्मा मसीही विश्वासियों को यह बता रहा है कि मसीही मण्डली में सब से अधिक या सबसे ज्यादा काम में आने वाली ज़िम्मेदारी उठाने वाले, यानि कि प्रभु के लिए अधिक से अधिक उपयोग में आने वाले व्यक्ति होने की धुन में रहो या लालसा रखो। आगे जब हम यहाँ उल्लेखित विभिन्न सेवकाइयों के बारे में देखेंगे, तब यह बात और स्पष्ट हो जाएगी।

    यदि इस पद को वरदानों और सेवकाइयों में बड़े-छोटे स्तर और महत्व होने के लिए समझा जाए तो फिर पद 12-27 में दी गई चर्चा व्यर्थ है; फिर तो प्रभु की मण्डली रूपी देह में सभी समान स्तर रखने वाले या समान महत्व के नहीं हैं, और पवित्र आत्मा ने बड़े या छोटे आत्मिक वरदान देने के द्वारा विश्वासियों में भेद-भाव किया है। और यह बात परमेश्वर के स्वरूप और वचन की शिक्षाओं के साथ बिल्कुल मेल नहीं खाती है, इसलिए स्वीकार्य भी नहीं है। हम इस भेद-भाव के निहितार्थों को अगले लेख में कुछ विस्तार से देखेंगे।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

कृपया इस संदेश के लिंक को औरों को भी भेजें और साझा करें

******************************************************************

English Translation


Understanding “Earnestly Desire the Best Gifts” – 1

 

    In the previous article we had seen that as stewards of God’s provisions, and in context of our present study, all God desires that Christian Believers should learn and have a correct understanding about the gifts of the Holy Spirit. We had also seen that for help in carrying out their God assigned works and ministry, every Believer is given gifts appropriate to their requirement. In God’s eyes, no ministry is small or big, nor of greater or lesser importance; and no spiritual gift is of greater or lesser importance. Thinking in terms of such differentiation is man’s tendency, not God’s. A verse that is often misinterpreted and misused to support this concept of gifts being greater or lesser is 1 Corinthians 12:31. Therefore, it is essential to understand this verse in its context and properly.

    Consider the context through the preceding verses 1 Corinthians 12:12-27, where Paul through using the human body as a metaphor has concluded that in the body all the parts are of equal importance, and their utility, presence, and functioning is equally essential in the location they have been placed. Similarly, in the Church - the body of Christ, all Christian Believers, with their different gifts and ministries, are equally important in their respective positions and for works assigned to them. No Christian Believer, and no one’s ministry or gift is greater or lesser in comparison to the others, and their works are also of equal importance, no work is more or less important. Then after this, in verse 28 Paul mentions the various responsibilities, ministries, and works in that one body, i.e., the Church of the Lord Jesus. After this, in verses 29-30, Paul through his rhetorical questions emphasizes that everybody has not been given the same responsibility, nor has anyone been given all of the responsibilities; everyone has to fulfil their own given responsibility. It is then, in verse 31, that he uses the phrase “the best gifts”. By looking at this verse along with and in context of the other verses, it becomes apparent the implication of “the best gifts” is gifts with the most often used responsibilities in the Church. In other words, through Paul, the Holy Spirit is telling the Christian Believers that they should desire to be the ones who take the greatest or the most often used responsibilities in the Church - the body of the Lord, i.e., earnestly desire to be the ones in the Church who serve the most. Later, when we see about the various ministries mentioned here, this will become clearer.

    If this verse is taken to understand that it is indicating ministries or gifts being of greater or lesser importance or category, then Paul’s discussion of verse 12-27 is vain; since then in the body of the Lord - His Church, everybody does not have the same importance and status. It also means that God the Holy Spirit has differentiated between Believers by giving greater or smaller gifts. And this is not at all consistent with the teachings of Word of God, therefore is unacceptable. We will consider the implications of this differentiation in detail in the next article.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

Please Share the Link & Pass This Message to Others as Well

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें