Click Here for the English Translation
आरम्भिक बातें – 97
परमेश्वर की क्षमा और न्याय – 3
हमने इब्रानियों 6:1-2 में दी गई छठी आरम्भिक बात, “अन्तिम न्याय” के सन्दर्भ में देखा है कि यह अन्तिम न्याय मसीही विश्वासियों का किया जाएगा, ताकि उन्हें उनके प्रतिफल और उद्धार पाने के बाद से जो मसीही जीवन उन्होंने जिया है, उसके आधार पर उन्हें परिणाम दिए जा सकें। हमने देखा है कि परमेश्वर का वचन, बाइबल यह बिल्कुल स्पष्ट कर देती है कि विश्वासी की हर बात खोल कर प्रकट कर दी जाएगी, मन की छुपी हुई बातें भी, और उन सभी का प्रभु यीशु मसीह के द्वारा प्रतिफल और परिणाम देने के लिए न्याय किया जाएगा। पवित्र शस्त्र के प्रमाणों के बावजूद, इसे स्वीकार करना अधिकाँश के लिए बहुत कठिन है। लेकिन मसीही विश्वासियों के लिए इस से भी कठिन बाइबल का यह तथ्य स्वीकार करना है कि उन्होंने जो कुछ भी किया है, या अपने हृदय में रखा है, भला हो या बुरा, वह सब बाहर प्रकट किया जाएगा और उसका न्याय किया जाएगा। इस बात के विरुद्ध सबसे आम तर्क यही दिया जाता है कि बाइबल के पद यह बताते हैं कि परमेश्वर पापों को क्षमा करके अपनी पीठ के पीछे फेंक देता है, उन्हें कभी याद नहीं करता है; और हम जब भी अपने पापों को मान लेते हैं, परमेश्वर उन्हें क्षमा करने और हमें बहाल करने के लिए तत्पर रहता है – हम इन पदों को पिछले दो लेखों में देख चुके हैं। इन पदों के आधार पर विश्वासी यह तर्क देते हैं कि जिन पापों को परमेश्वर ने क्षमा कर दिया और भुला दिया, उन्हें फिर से कैसे प्रकट किया जा सकता है; क्योंकि तब तो यह क्षमा करने और भुला देने के अर्थ के ही विपरीत चला जाएगा। हम इन पदों के लागू किये जाने को पवित्र शास्त्र के अन्य खण्डों के आधार पर देखेंगे, कि वास्तव में इनका निहितार्थ क्या है; और कैसे ये पद न्याय की धारणा के विरुद्ध नहीं, बल्कि उसके पूरक हैं।
पिछले लेख में हमने यह भी देखा था कि परमेश्वर के द्वारा पापों को क्षमा कर के भुला देने की धारणा रखने वाले लोगों ने कैसे परमेश्वर के इस क्षमा करने और भुला देने के गुण का दुरुपयोग करके इसे पाप करने का एक लाइसेंस बना लिया है; जो वह है नहीं; लेकिन उनकी गलत समझ और गलत रीति से लागू किए जाने के कारण उसे इस तरह से माना और लागू किया जाता है। लेकिन विचार कीजिए, यदि ये पद वास्तव में उनकी इस धारणा का समर्थन नहीं करते हैं और जैसा वे सोचते हैं वैसा सही नहीं है, तो फिर उनके सामने कितनी बड़ी समस्या खड़ी हो गई है, और न्याय के दिन उन का क्या हाल होगा। क्योंकि तब तो उन्हें अपने द्वारा किए गए हर काम का, और मन में रखी गई हर बात का हिसाब देना होगा, और उन सभी बातों का उनके प्रतिफलों पर, स्वर्ग में उनके अनन्त जीवन के लिए परिणामों पर प्रभाव आएगा।
परमेश्वर के द्वारा पापों को क्षमा करके भुला देने की धारणा में भरोसा रखने वाले विश्वासी इस न्याय को समझाने के लिए एक और तर्क भी देते हैं, कि यह न्याय उन पापों का होगा जिन्हें विश्वासियों ने या तो अनजाने में किया है, या जिन के लिए किसी कारणवश वे अंगीकार नहीं करने पाए, उनके लिए क्षमा नहीं माँगने पाए; चाहे उन्हें याद न रख पाने के कारण, या अचानक ही किसी ऐसी शारीरिक दशा में आ जाने के कारण जिस के अन्तर्गत वे क्षमा नहीं माँग सके। इसलिए यह न्याय उन पापों का होगा; न कि विश्वासी द्वारा की गई भली अथवा बुरी हर बात का। लेकिन यह तर्क पवित्र शास्त्र के आधार पर अस्वीकार्य है, क्योंकि, पहली बात, जिन पदों को हमने देखा है, 1 कुरिन्थियों 3:13-15 और 2 कुरिन्थियों 5:10, आदि, उनमें कहीं ऐसा कोई उल्लेख नहीं है कि केवल कुछ निर्धारित बातों का, जैसे कि किसी उचित कारणवश क्षमा न माँगे गए पापों का, ही न्याय होगा। ये पद और खण्ड बिल्कुल स्पष्ट और सटीक हैं कि केवल कुछ निर्धारित बातें नहीं, बल्कि हर बात खोल कर सामने रख दी जाएगी, और उनका न्याय किया जाएगा। इसलिए इस प्रकार के तर्क और विचार कि केवल किसी उचित कारणवश अंगीकार करके क्षमा न माँगे गए पापों का ही न्याय किया जाएगा, परमेश्वर के वचन में अपनी ओर से डालना, परमेश्वर के वचन में जोड़ना, उसे तोड़ना-मरोड़ना है, और उसे वह अर्थ देना है जो न तो लेख में हैं, और न ही जिसे लेख में रखे जाने का कभी कोई इरादा था। ऐसा करना अपने आप में पाप है (व्यवस्थाविवरण :2; 12:32; नीतिवचन 30:6; प्रकाशितवाक्य 22:18-19), जिसके बड़े गम्भीर और हानिकारक परिणाम हैं।
दूसरी बात, जो इस तर्क पर विश्वास रखते हैं, उन्हें अपने इस तर्क के निहितार्थ पर भी विचार करना चाहिए। निहितार्थ जो यह कहता है कि उद्धार या नया-जन्म पाने के समय, प्रभु यीशु ने व्यक्ति के उस उद्धार के पल तक के पाप तो क्षमा कर दिए; लेकिन अब उसके बाद से यह व्यक्ति की ज़िम्मेदारी है कि अपने उद्धार को बचाए रखने के लिए वह जैसे ही पाप करे, उनके लिए क्षमा भी माँग ले। लेकिन इससे उद्धार परमेश्वर के अनुग्रह और प्रभु के कार्य पर नहीं बल्कि क्षमा माँगते रहने के मनुष्य के काम पर आधारित हो जाएगा। यह बाइबल से संगत नहीं है, क्योंकि प्रभु यीशु मसीह ने कलवरी के क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा समस्त मानवजाति के सभी पापों, जो हुए, हो रहे हैं, जो किए जाएँगे, उन सभी की पूरी कीमत चुका दी है। इसका अर्थ है कि मसीही विश्वासी की इस पृथ्वी पर पहली साँस से लेकर अन्तिम साँस तक किए गए सभी पाप, परमेश्वर की दृष्टि में, प्रभु यीशु के द्वारा क्रूस पर किए गए कार्य के द्वारा, क्षमा कर दिए गए हैं। साथ ही, प्रभु यीशु प्रत्येक मसीही विश्वासी का पिता के सामने सहायक है (1 यूहन्ना 2:12), उसके लिए विनती प्रार्थना करता रहता है, इसीलिए वे कभी भी दोषी और विनाश के योग्य नहीं होते हैं। इसलिए यह तर्क, कि न्याय केवल अँगीकार नहीं किए गए और क्षमा न माँगे गए पापों का ही होगा, सही नहीं है, बाइबल के अन्य खण्डों से असंगत है, और इसे भी सुधारे जाने की आवश्यकता है।
लेकिन यह बात हमें हमारे उसी प्रश्न पर भी वापस ले आती है कि यदि पाप क्षमा कर दिए गए और भुला दिए गए, तो फिर वे कैसे खोले जाएँगे और कैसे उनका न्याय किया जा सकता है? जैसा हमने पहले कहा है, इसे समझने के लिए, और उन पदों की सही समझ रखने के लिए जो यह दिखाते हैं कि परमेश्वर पाप क्षमा करके पीठ के पीछे फेंक देता है, उन्हें भुला देता है, हमें पहले यह समझना होगा कि सँसार में पाप के प्रवेश के साथ क्या कुछ हुआ। अगले लेख से हम उन बातों कि देखना आरम्भ करेंगे जो अदन की वाटिका में पहले पाप के होने के साथ हुई थीं।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
******************************************************************
The Elementary Principles – 97
God’s Forgiveness and Justice – 3
In context of the “Eternal Judgment,” the sixth elementary principle given in Hebrews 6:1-2, we have seen that this last and final judgment will be of the Christian Believers; to ascertain their rewards and the consequences of their Christian lives they have lived since the time of their salvation. We have seen that God’s Word the Bible makes it quite clear that every aspect of every Believer will be laid open, even the hidden things in the hearts, to be judged for their rewards by the Lord Jesus. This is a hard thing for many to accept, despite Scriptural evidence in its favor. Even more difficult for the Christian Believers to accept is the Biblical fact that everything they have done, or had in their hearts – good or bad will be brought out to be judged. The most common argument against their accepting this Biblical fact are the Bible verses that say that God forgives sin, throws them behind His back, and forgets them; and whenever we acknowledge our sins, God is ready to forgive and restore us – verses we have already seen in the previous two articles. On the basis of these verses, they argue that the sins that God has forgiven and forgotten, how can they be brought out now; for that will go against the meaning or forgiving and forgetting. We will be examining the application of these verses in context of other Scriptural passages, to see what they actually imply; and how they do not contradict the concept of judgment, but complements it.
In the last article we have seen how, those who hold on to the sins forgiven and forgotten by God concept have turned God’s forgiving and forgetting into a license to sin; which it actually is not, but it is taken as a license because of a faulty understanding and application of those verses. But if these verses do not actually imply their notion, and what they assume and believe is not true, then they have a very serious problem in hand, ahead of them at judgment time, since their every misuse of God’s forgiveness and forgetting will have to be explained, accounted for, and all that they did will have an effect on their eternal rewards, will have consequences on their eternal life in heaven.
Another line of argument that the Believers holding on to the sins forgiven and forgotten by God concept is that the judgment will be of those sins that a person has either committed unknowingly and therefore did not confess and apologize for them, or forgot to confess and apologize for, or landed in some situation which did not let him confess and apologize those sins. So, it is these unconfessed and unforgiven sins is that will be judged; and not whatever good or bad any person has done since salvation, all of that will be judged. But this line or argument is Scripturally unacceptable because, firstly, the passages we already have considered in this context like 1 Corinthians 3:13-15 and 2 Corinthians 5:10, etc., make no mention of circumstantially unconfessed sins in these verses and passages. They are very clear and to the point that not certain specified kinds of things, but everything, all things, will be brought out and laid open for judgment. Therefore, to bring in this thinking of only those sins being judged, which somehow, for whatever seemingly plausible reason, went unconfessed, is adding into God’s Word, and manipulating it, giving it meanings that are neither there in the text, nor were ever intended to be in the text. Doing this by itself is a sin (Deuteronomy 4:2; 12:32; Proverbs 30:6; Revelation 22:18-19), that has very serious and harmful consequences.
Secondly, those who hold to this argument, need to ponder on the implication of this argument, that on being saved or Born-Again, while the Lord Jesus forgave all the sins committed by that person till that moment of his salvation; but after that it is every saved person’s responsibility to maintain their salvation, they have to keep seeking forgiveness every time they sin. But this is makes one’s salvation dependent not upon the grace of God and the work of the Lord, but on the work of man of confessing and asking forgiveness. This is unBiblical, because the Lord Jesus through His sacrifice on the Cross of Calvary paid in full for all the sins of all of mankind, for all the sins that mankind had ever committed or would ever commit. That means all the sins the Believer may commit from his first breath to his last breath on earth, have already been forgiven in God’s eyes because of the Lord’s atoning sacrifice on the Cross. Also, the Lord Jesus is our advocate, interceding for us before God against the accusations of Satan (1 John 2:1-2). Therefore, despite even the Believer’s sinning, they still remain without condemnation and saved. Therefore, this interpretation, that the judgment will be of unconfessed sins whose forgiveness has not been asked, is incorrect; it is inconsistent with the other related passages of the Bible, and needs to be corrected.
But it also brings us back to the earlier question, if sin has been forgiven and forgotten, then how come it will all be brought out, laid open and judged? As we said earlier, to understand this, and the correct application of the verses that show sins being forgiven, forgotten, and thrown behind God’s back, we first need to see what all happened with sin’s entry into the world. From the next article we will start considering things that happened with the first sin in the Garden of Eden.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें