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शनिवार, 28 अगस्त 2021

परमेश्वर का वचन, बाइबल – पाप और उद्धार - 3

 

पाप क्या है? - 3

       परमेश्वर के वचन बाइबल में, परमेश्वर द्वारा पाप के विषय सिखाई गई बातों पर ध्यान करते हुए, पिछले दो लेखों में हम इस संबंध में कुछ बहुत महत्वपूर्ण और आधारभूत बातों को देख चुके हैं कि बाइबल के अनुसार पाप क्या है। हमने देखा है कि: 

  • बाइबल के अनुसार, पाप की परिभाषा और व्याख्या किसी मनुष्य अथवा मनुष्यों के अनुसार नहीं है; वरन इसे स्वयं परमेश्वर ने बताया है। परमेश्वर जो सत्य है, शाश्वत है, सार्वभौमिक है, अपरिवर्तनीय है, युगानुयुग एक सा है (मलाकी 3:6; इब्रानियों 13:8); उसकी कही बात में भी उसके यही सभी गुण विद्यमान हैं (भजन 89:34; यहेजकेल 12:28)। उसने जो कहा और निर्धारित किया है, अन्ततः वही माना जाएगा, और उसी के अनुसार ही सब को और सब कुछ को जाँचा-परखा जाएगा, हर निर्णय लिया जाएगा (यूहन्ना 12:48; 1 कुरिन्थियों 3:11-13) 
  • पाप केवल कुछ शारीरिक कार्य करना ही नहीं है, वरन, मूलतः, परमेश्वर के नियमों, उसकी व्यवस्था का उल्लंघन करना है (1 यूहन्ना 3:4)। किसी भी प्रकार का अधर्म पाप है (1 यूहन्ना 5:17), वह चाहे किसी भी बात या परिस्थिति के अन्तर्गत अथवा उद्देश्य से क्यों न किया गया हो। 
  • इसीलिए परमेश्वर की दृष्टि में ऐसे सभी प्रकार के विचार, दृष्टिकोण, भावनाएं, मनसा, प्रवृत्ति, कार्य, व्यवहार, इत्यादि पाप हैं जो उसके द्वारा दिए गए धार्मिकता के नियमों और मानकों के अनुसार उचित नहीं हैं, उन मानकों के अनुरूप नहीं हैं।
  • पाप में होना एक मानसिक दशा है। हर प्रकार के पाप का आरंभ मन में होता है, और उचित परिस्थितियों एवँ समय में वह शारीरिक क्रियाओं में प्रगट हो जाता है (याकूब 1:14-15; मरकुस 7:20-23)। इसीलिए परमेश्वर की दृष्टि में विचारों में किए गए पाप भी वास्तव में किए गए पापों के समान ही दण्डनीय हैं (मत्ती 5:22, 28) 

 

जो भी ढिठाई से मन में पाप को रखते हुए, बाहरी रीति से धर्मी बनने का ढोंग रखते हुए परमेश्वर के पास मन के इस दोगलेपन के साथ आते हैं, परमेश्वर उनसे उनके उस दोगलेपन के अनुसार व्यवहार करता है (यहेजकेल 14:3-7)     

       परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता के संदर्भ में कुछ और विस्तार से देखते हैं: इस्राएल को दी गई अपनी व्यवस्था के आरंभ में, परमेश्वर ने सभी के लिए परमेश्वर और अन्य मनुष्यों के साथ संबंधों एवँ व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए अपनी दस आज्ञाएं दीं। ये दस आज्ञाएँ मनुष्य जीवन के प्रत्येक आयाम – परमेश्वर, परिवार और समाज से उसके संबंध एवँ व्यवहार से संबंध रखतीं हैं, उन संबंधों के लिए मार्गदर्शन करती हैं, मनुष्यों के व्यवहार को निर्धारित करती हैं। यह एक रोचक तथ्य है कि सँसार के किसी भी देश के संविधान में ऐसा कुछ भी नहीं है जो इन दस आज्ञाओं की परिधि के बाहर हो। इन दस आज्ञाओं के आरंभिक भाग में परमेश्वर ने मनुष्य के जीवन में अपने स्थान, आदर और मान को किसी भी अन्य को देना, परमेश्वर को कोई या कैसा भी भौतिक स्वरूप देना, वर्जित किया है (निर्गमन 20:1-7)। इसलिए, किसी भी व्यक्ति के द्वारा

  • अपने जीवन में परमेश्वर को उसका वह सर्वोच्च आदर एवँ स्थान प्रदान नहीं करना, जिसका वह हकदार है
  • अपने जीवन में परमेश्वर के स्थान पर सँसार की बातों या लोगों को अधिक महत्व देना
  • और सच्चे जीवते सृजनहार प्रभु परमेश्वर को, जो आत्मा है (यूहन्ना 4:24), अपने मन के अनुसार बनाए हुए कोई भी भौतिक स्वरूप, मूर्तियों या सृजी गई वस्तुओं के रूप में उपासना करना, उन मन-गढ़न्त नाशमान भौतिक वस्तुओं को ईश्वरीय आदर अथवा महत्व देना, आदि

सभी परमेश्वर की आज्ञाओं का उल्लंघन है, इसलिए पाप है। 

इन्हीं दस आज्ञाओं का शेष भाग (निर्गमन 20:8-20), मनुष्य के पारिवारिक और सामाजिक संबंधों के विषय में है। इन आज्ञाओं का उल्लंघन करना भी, अर्थात पारिवारिक एवँ सामाजिक संबंधों में परमेश्वर के निर्देशों की अवहेलना करना भी पाप है।

प्रभु यीशु मसीह से, उनकी पृथ्वी की सेवकाई के दिनों में यहूदियों के एक धार्मिक अगुवे ने उन्हें परखने के लिए एक प्रश्न किया था, और प्रभु के उत्तर से वह फिर निरुत्तर हो गया। यह वार्तालाप हमारे वर्तमान संदर्भ के लिए महत्वपूर्ण है:और उन में से एक व्यवस्थापक ने परखने के लिये, उस से पूछा। हे गुरु; व्यवस्था में कौन सी आज्ञा बड़ी है? उसने उस से कहा, तू परमेश्वर अपने प्रभु से अपने सारे मन और अपने सारे प्राण और अपनी सारी बुद्धि के साथ प्रेम रख। बड़ी और मुख्य आज्ञा तो यही है। और उसी के समान यह दूसरी भी है, कि तू अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रख। ये ही दो आज्ञाएं सारी व्यवस्था और भविष्यद्वक्ताओं का आधार है” (मत्ती 22:35-40)। प्रभु यीशु के इस उत्तर में मनुष्य के परमेश्वर तथा अन्य मनुष्यों के प्रति व्यवहार और संबंध का सार है; इसीलिए उन्होंने यह भी कहा कि परमेश्वर की सारी व्यवस्था, इन्हीं दो आज्ञाओं पर आधारित है। इसका स्पष्ट निष्कर्ष है कि मनुष्य के किसी भी विचार या व्यवहार में जहाँ भी इनमें से एक भी आज्ञा का उल्लंघन हुआ, वहीं मनुष्य पाप की दशा में आ गया; पाप का दोषी ठहराया गया।

परमेश्वर के वचन बाइबल के अनुसार, अदन की वाटिका में मनुष्य द्वारा किए गए उस प्रथम पाप के बाद से मनुष्य में पाप करने की प्रवृत्ति ने घर कर लिया, और तब से  सँसार का प्रत्येक मनुष्य पाप स्वभाव, तथा पाप करने की प्रवृत्ति के साथ जन्म लेता हैइसलिये जैसा एक मनुष्य के द्वारा पाप जगत में आया, और पाप के द्वारा मृत्यु आई, और इस रीति से मृत्यु सब मनुष्यों में फैल गई, इसलिये कि सब ने पाप किया” (रोमियों 5:12)। इसका सर्व-विदित और प्रत्यक्ष प्रमाण है, जब हम मानवीय व्यवहार एवँ क्रियाओं का, पाप के प्रति बाइबल के इन उपरोक्त व्यापक दृष्टिकोणों के संदर्भ में, आँकलन करते हैं, तो यह प्रगट हो जाता है कि परमेश्वर की दृष्टि में कोई भी मनुष्य पाप से अछूता नहीं है, सभी मनुष्य किसी-न-किसी रीति से पापी होने की परिभाषा में आ जाते हैं। इस कारण अपनी स्वाभाविक दशा में, सभी मनुष्यों ने मन-ध्यान-विचार-मनसा-दृष्टिकोण, व्यवहार या कर्मों के द्वारा पाप किया है; वे चाहे किसी भी धर्म, जाति, देश, आदि के क्यों न हों, इसलिए सभी मनुष्य परमेश्वर की महिमा से रहित और परमेश्वर के साथ संगति रखने के अयोग्य हैं, “इसलिये कि सब ने पाप किया है और परमेश्वर की महिमा से रहित हैं” (रोमियों 3:23) और सृष्टि के आरंभ में पाप के विषय परमेश्वर द्वारा कहे गए दण्ड, मृत्यु (उत्पत्ति 2:17), के भागी हैं, “क्योंकि पाप की मजदूरी तो मृत्यु है, परन्तु परमेश्वर का वरदान हमारे प्रभु मसीह यीशु में अनन्त जीवन है” (रोमियों 6:23)

पाप की इस अपरिहार्य प्रतीत होने वाली समस्या के ईश्वरीय समाधान, “... परन्तु परमेश्वर का वरदान हमारे प्रभु मसीह यीशु में अनन्त जीवन है” (रोमियों 6:23), के बारे में हम अगले लेख में देखना आरंभ करेंगे।

यदि आप ने अभी भी अपने पापों के लिए प्रभु यीशु से क्षमा नहीं मांगी है, तो अभी आपके पास अवसर है। स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ एक छोटे प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें।आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपके इस जीवन तथा परलोक के जीवन को स्वर्गीय जीवन बना देगा। 

 

बाइबल पाठ: रोमियों 3:10-19 

रोमियों 3:10 जैसा लिखा है, कि कोई धर्मी नहीं, एक भी नहीं।

रोमियों 3:11 कोई समझदार नहीं, कोई परमेश्वर का खोजने वाला नहीं।

रोमियों 3:12 सब भटक गए हैं, सब के सब निकम्मे बन गए, कोई भलाई करने वाला नहीं, एक भी नहीं।

रोमियों 3:13 उन का गला खुली हुई कब्र है: उन्होंने अपनी जीभों से छल किया है: उन के होंठों में साँपों का विष है।

रोमियों 3:14 और उन का मुंह श्राप और कड़वाहट से भरा है।

रोमियों 3:15 उन के पांव लहू बहाने को फुर्तीले हैं।

रोमियों 3:16 उन के मार्गों में नाश और क्लेश हैं।

रोमियों 3:17 उन्होंने कुशल का मार्ग नहीं जाना।

रोमियों 3:18 उन की आंखों के सामने परमेश्वर का भय नहीं।

रोमियों 3:19 हम जानते हैं, कि व्यवस्था जो कुछ कहती है उन्हीं से कहती है, जो व्यवस्था के आधीन हैं: इसलिये कि हर एक मुंह बन्द किया जाए, और सारा संसार परमेश्वर के दण्ड के योग्य ठहरे।

 

एक साल में बाइबल:

·      भजन 123; 124; 125

·      1 कुरिन्थियों 10:1-18 

शुक्रवार, 27 अगस्त 2021

परमेश्वर का वचन, बाइबल – पाप और उद्धार - 2


पाप क्या है? - 2

पिछले लेख में हमने देखा था कि परमेश्वर के वचन, बाइबल, में परमेश्वर ने बताया है कि परमेश्वर की पवित्रता एवं निर्मलता के स्तर के अनुसार पाप मनुष्यों के नियमों या बातों का नहीं, वरन परमेश्वर की व्यवस्था का उल्लंघन है; और हर प्रकार का अधर्म पाप है - वह चाहे किसी भी परिस्थिति के अंतर्गत अथवा उद्देश्य से क्यों न किया गया हो। साथ ही हमने यह भी देखा था कि परमेश्वर की दृष्टि में केवल शारीरिक कार्य ही पाप नहीं हैं; वरन मन की वे सभी भावनाएं, विचार, दृष्टिकोण, इच्छाएं, आदि, जो परमेश्वर की व्यवस्था के विरुद्ध हैं, उससे असंगत हैं, और जो किसी भी प्रकार के अधर्म के लिए उकसाती या प्रेरित करती हैं, वे भी पाप हैं। चाहे वे बाहरी रीति से व्यक्त न भी की गई हों, या शारीरिक कार्यों के द्वारा कार्यान्वित न भी की गई हों, तो भी, परमेश्वर की दृष्टि में वे उतना ही जघन्य पाप हैं, जितना उनके बाहरी प्रकटीकरण अथवा शारीरिक कार्यों में व्यक्त होने के द्वारा माना जाता। अर्थात, मन में पापमय विचार रखना भी शरीर द्वारा उस पाप को कर देने के समान ही पाप है। परमेश्वर, उस पापमय विचार को मन में स्थान देने को, उस पाप को अपने जीवन में स्थान देने के तुल्य दण्डनीय मानता है, और उसके अनुसार ही व्यक्ति का आँकलन करता है। 


पाप, पवित्रता, और निर्मलता का यह सर्वोच्च स्तर, संसार भर में अनुपम है। यह मापदण्ड केवल बाइबल में, और केवल बाइबल के परमेश्वर में देखने को मिलता है। संसार के किसी भी अन्य ग्रंथ अथवा मान्यताओं में पवित्रता का, निष्पाप होने का ऐसा उच्च स्तर देखने को नहीं मिलता है। एक बार को इस स्तर को स्वीकार करना, इसका पालन करना बहुत अटपटा लगता है, क्योंकि किसी भी मनुष्य के लिए इसके सामने खड़े रह पाना, इसका निर्वाह कर पाना असंभव है। इसलिए ऐसा लगता है कि परमेश्वर ने जान-बूझकर मनुष्यों के सामने एक असंभव बात ला कर रख दी, और मनुष्यों को इन अजेय मानकों के द्वारा ऐसा दोषी ठहरा दिया कि उनके लिए उस के पास कभी कोई समाधान हो ही नहीं सकता है। क्या परमेश्वर ने जान-बूझकर मनुष्य को वास्तव में ऐसी स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है जो मनुष्य के लिए असंभव है?


यदि बाइबल में दिए गए पाप के आरंभ को देखें, उसकी पृष्ठभूमि का अध्ययन करें, तो यह स्पष्ट होता है कि इन मानकों को स्थापित करने के द्वारा परमेश्वर ने मनुष्य को फँसाया नहीं है, वरन उसे पाप से निकल पाने का मार्ग समझने के लिए तैयार किया है, मनुष्य को उसके प्रति परमेश्वर के असीम, अवर्णनीय प्रेम की ओर मुड़ने और समर्पित होने के लिए मार्ग दिया है। बाइबल के अनुसार, मनुष्य द्वारा किया गया पहला पाप क्या था; और कैसे हुआ? यह वृतांत हमको बाइबल की पहली पुस्तक, उत्पत्ति, के पहले तीन अध्यायों में मिलता है, और पाठक यदि इन अध्यायों को स्वयं पढ़ लें, तो उनके लिए बात को समझना और सहज हो जाएगा। संक्षेप में, परमेश्वर ने छः दिन में सृष्टि की रचना पूरी करने के बाद उसका अवलोकन करके उसे “बहुत ही अच्छा” कहा (उत्पत्ति 1:31)। परमेश्वर की इस बहुत ही अच्छी रचना में मनुष्य भी सम्मिलित था, जिसे परमेश्वर ने शेष सृष्टि के समान अपने शब्द के बोलने के द्वारा नहीं, वरन अपने हाथों से रचा, और उसमें अपनी श्वास डालकर उसे जीवित प्राणी बनाया (उत्पत्ति 1:27; 2:7)। सृष्टि और मनुष्य की उत्पत्ति के समय पृथ्वी पर कोई पाप नहीं था। मनुष्य सृष्टि से ही नर और नारी, जिन्हें आदम और हव्वा नाम दिया गया, रूप में था; परमेश्वर ने उसके लिए उस “बहुत ही अच्छी” पृथ्वी पर, एक वाटिका भी लगाई, जहाँ पर परमेश्वर आदम और हव्वा से संगति करने के लिए आता था; और उन्हें उस वाटिका की देखभाल की ज़िम्मेदारी भी दी। उस वाटिका में परमेश्वर ने दो विशेष वृक्ष भी लगाए; एक था “जीवन का वृक्ष,” और दूसरा था “भले और बुरे के ज्ञान का वृक्ष” (उत्पत्ति 2:9)। परमेश्वर ने मनुष्य को वाटिका के सभी फलों को खाने की खुली छूट दी, किन्तु “भले और बुरे के ज्ञान का वृक्ष” के फल को खाने से मना किया (उत्पत्ति 2:16-17), और सचेत किया कि जिस दिन उसने उस फल को खाया, वह मृत्यु के अधीन आ जाएगा।


उत्पत्ति 3 अध्याय में हम देखते हैं कि शैतान ने मनुष्य को अपने जाल में फँसाने, और उसे पाप में गिराने, परमेश्वर से पृथक कर देने के लिए सर्प का रूप लिया, और हव्वा के मन में परमेश्वर के विरुद्ध शंका उत्पन्न की; उसके मन में उनके प्रति परमेश्वर के प्रेम के विषय संदेह उत्पन्न किया; उसके मन में परमेश्वर की आज्ञाकारिता के अनुसार नहीं, वरन अपनी ही दृष्टि, बुद्धि, और समझ के अनुसार जागृत होने वाली भावनाओं और विचारों को कार्यान्वित करने को उकसाया। हव्वा शैतान के इस प्रलोभन में आ गई, उसने परमेश्वर द्वारा उन्हे दी गई व्यवस्था का पालन नहीं किया; वरन वह किया जो उसका मन उसे कहने लग गया था; और उसने “भले और बुरे के ज्ञान का वृक्ष” के फल को लेकर स्वयं भी खा लिया, और आदम को भी खिला दिया (उत्पत्ति 3:6-7)। उनकी यह परमेश्वर की व्यवस्था के प्रति अनाज्ञाकारिता ही संसार का प्रथम पाप थी। पाप उस फल में नहीं था; पाप उस फल के प्रति परमेश्वर के निर्देशों का पालन न करने से था। ध्यान कीजिए, शैतान ने उन्हें पाप करने के लिए बाध्य नहीं किया, किसी बात द्वारा उन्हें डरा या धमका कर उनसे पाप नहीं करवाया; वरन उनके मनों में परमेश्वर के नियम, उसकी व्यवस्था के प्रति संदेह उत्पन्न किया; उन्हें परमेश्वर की योजनाओं और बातों के विरुद्ध उकसा कर उनके मनों में परमेश्वर के कहे कि विपरीत विचार उत्पन्न किए, और फिर अपनी चिकनी-चुपड़ी बातों के द्वारा उन्हें उनके मन के विचारों, मनों की बात, उनके मनों में जागृत लालच और अभिलाषा को कार्यान्वित करने के लिए आगे बढ़ा दिया। आदम और हव्वा के द्वारा अपने मन की सुनने के कारण पाप ने पृथ्वी में और सृष्टि में प्रवेश किया (रोमियों 8:19-22), और उसके दुष्परिणाम हम आज तक झेल रहे हैं। 


इसीलिए, परमेश्वर ने अपने वचन में लिखवाया है कि पाप परमेश्वर की व्यवस्था का उल्लंघन है; और परमेश्वर मन में आने वाले पापमय विचारों को भी शरीर में किए गए पाप के समान ही जघन्य और दण्डनीय मानता है। वास्तविकता यही है कि शरीर में किया गया हर पाप पहले हमारे मन, ध्यान, भावनाओं, और विचारों में जन्म लेता तथा निवास करता है; एक लालसा, एक अभिलाषा बनकर हमारे अंदर घर किए रहता है, पलता रहता है, हमें अंदर ही अंदर उसे कार्यान्वित करने के लिए तैयार करता रहता है। और फिर उपयुक्त समय तथा अवसर मिलने पर हम उस पाप को अपने शरीर द्वारा कार्यान्वित कर देते हैं; पाप तो हम में उस पापमय विचार के साथ ही आ गया था, बस प्रकट समय और अवसर के अनुसार कुछ समय पश्चात हुआ। यदि मन में पापमय बातों को जन्म ही नहीं लेने दिया जाए, या उत्पन्न होते ही उन्हें तुरंत मिटा दिया जाए, तो शरीर भी पाप का व्यवहार नहीं करेगा। इसीलिए प्रभु यीशु हमारे मनों को बदलता है; प्रभु यीशु मसीह को उद्धारकर्ता स्वीकार करने वाले व्यक्ति के अंदर, उसकी सहायता और मार्गदर्शन के लिए, परमेश्वर पवित्र आत्मा आकर निवास करने लगता है।


वास्तविकता यही है कि मन ही शरीर को नियंत्रित करता है; न कि शरीर मन को। शरीर के कार्यों और प्रयासों के द्वारा मन को स्थाई रीति से नियंत्रित तथा परिवर्तित कर पाना असंभव है। प्रभु यीशु मसीह जब व्यक्ति के मन को बदलता है, तो साथ ही शरीर के कार्य और व्यवहार भी उस बदले हुए मन को प्रतिबिंबित करने लग जाते हैं। यदि आपने आज तक प्रभु यीशु मसीह को आपका मन परिवर्तित करने की अनुमति नहीं दी है, तो आप अभी, इसी समय स्वेच्छा, और सच्चे तथा समर्पित मन से की गई एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु, मैं मान लेता हूँ कि मैंने मन, ध्यान, भावनाओं, विचार, और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किया है। मैं स्वीकार करता हूँ कि आपने मेरे पापों को अपने ऊपर लेकर उनके दण्ड को मेरे स्थान पर सह लिया, मेरे पापों की पूरी कीमत क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा चुका दी है। कृपया मेरे पाप क्षमा करें, मेरे मन को बदलें, मुझे अपना आज्ञाकारी शिष्य बनाएं, और अपने साथ बना कर रखें” के द्वारा कर सकते हैं, पापों के दुष्परिणामों से मुक्त होकर अनन्त आशीष के स्वर्गीय जीवन में प्रवेश कर सकते हैं। 



बाइबल पाठ: भजन 51:1-12

भजन संहिता 51:1 हे परमेश्वर, अपनी करूणा के अनुसार मुझ पर अनुग्रह कर; अपनी बड़ी दया के अनुसार मेरे अपराधों को मिटा दे।

भजन संहिता 51:2 मुझे भलीं भांति धोकर मेरा अधर्म दूर कर, और मेरा पाप छुड़ाकर मुझे शुद्ध कर!

भजन संहिता 51:3 मैं तो अपने अपराधों को जानता हूं, और मेरा पाप निरन्तर मेरी दृष्टि में रहता है।

भजन संहिता 51:4 मैं ने केवल तेरे ही विरुद्ध पाप किया, और जो तेरी दृष्टि में बुरा है, वही किया है, ताकि तू बोलने में धर्मी और न्याय करने में निष्कलंक ठहरे।

भजन संहिता 51:5 देख, मैं अधर्म के साथ उत्पन्न हुआ, और पाप के साथ अपनी माता के गर्भ में पड़ा।

भजन संहिता 51:6 देख, तू हृदय की सच्चाई से प्रसन्न होता है; और मेरे मन ही में ज्ञान सिखाएगा।

भजन संहिता 51:7 जूफा से मुझे शुद्ध कर, तो मैं पवित्र हो जाऊंगा; मुझे धो, और मैं हिम से भी अधिक श्वेत बनूंगा।

भजन संहिता 51:8 मुझे हर्ष और आनन्द की बातें सुना, जिस से जो हडि्डयां तू ने तोड़ डाली हैं वह मगन हो जाएं।

भजन संहिता 51:9 अपना मुख मेरे पापों की ओर से फेर ले, और मेरे सारे अधर्म के कामों को मिटा डाल।

भजन संहिता 51:10 हे परमेश्वर, मेरे अन्दर शुद्ध मन उत्पन्न कर, और मेरे भीतर स्थिर आत्मा नये सिरे से उत्पन्न कर।

भजन संहिता 51:11 मुझे अपने साम्हने से निकाल न दे, और अपने पवित्र आत्मा को मुझ से अलग न कर।

भजन संहिता 51:12 अपने किए हुए उद्धार का हर्ष मुझे फिर से दे, और उदार आत्मा देकर मुझे सम्भाल।


एक साल में बाइबल:

·   भजन 120; 121; 122

·   1 कुरिन्थियों 9

गुरुवार, 26 अगस्त 2021

परमेश्वर का वचन, बाइबल – पाप और उद्धार - 1

 

पाप क्या है? - 1  

       पिछले तीन सप्ताह से हम देखते आ रहे हैं कि बाइबल मनुष्यों की कल्पनाओं, धारणाओं, विचारों, और प्रयासों से रची गई पुस्तक नहीं है, वरन संसार की अन्य सभी पुस्तकों से, सभी ग्रंथों से पृथक, अद्भुत, विलक्षण, और अनुपम रचना है, जो अपने लेखों और गुणों के द्वारा अपने आप को प्रमाणित करती है कि वह वास्तव में सृष्टिकर्ता परमेश्वर द्वारा सारे संसार के दृष्टिकोण से, हर काल-समय में कार्यकारी, संसार के सभी लोगों की भलाई और उपयोग के लिए लिखवाया गया सच्चा विश्वासयोग्य वचन है। इस वर्तमान श्रृंखला के आरंभिक लेख (अगस्त-1 - परमेश्वर का वचन – बाइबल – परिचय) में हमने देखा था कि बाइबल मनुष्य के प्रति परमेश्वर के प्रेम, मनुष्य के पाप में गिरकर परमेश्वर से दूर हो जाने, और मनुष्य की इस पाप में पतित स्थिति में भी उसके प्रति परमेश्वर के प्रेम की अभिव्यक्ति है। 

बाइबल बताती है कि किस प्रकार मनुष्य की अपने साथ संगति को बहाल करने के लिए परमेश्वर ने साधारण, सामान्य, निर्धन मनुष्य - यीशु के रूप में पृथ्वी पर जन्म लिया, उन्होंने एक निष्पाप, निष्कलंक जीवन बिताया, और समस्त मानव जाति के पापों को अपने ऊपर लेकर, उनके दण्ड, मृत्यु, को भी अपनी ऊपर ले लिया; वह सभी मनुष्यों के स्थान पर क्रूस पर बलिदान हुए, मारे गए, गाड़े गए, और तीसरे दिन फिर मृतकों में से जी उठे। उस लेख में हमने देखा था कि मनुष्य और परमेश्वर की संगति में बाधा उत्पन्न, एक को दूसरे से पृथक करने वाली समस्या पाप है; और पाप का निवारण, उसका परमेश्वर और मनुष्य के मध्य से हटाया जाना ही इस समस्या का समाधान है। आज से हम इन बातों को थोड़ा और विस्तार से देखना आरंभ करेंगे। विनम्र निवेदन है कि कृपया उस प्रथम लेख को एक बारफिर पढ़ लें, जिससे आगे के लिए सहज हो जाए। 

       आज हम परमेश्वर के वचन के अनुसार पाप क्या है, इस पर विचार आरंभ करेंगे। सामान्यतः लोग समझते हैं कि पाप करने का अर्थ है शारीरिक रीति से कोई जघन्य अपराध करना, जैसे कि हत्या, व्यभिचार, चोरी-डकैती, लूट, धोखा, इत्यादि। सामान्य प्रयोग में अभद्र भाषा, छिछोरा व्यवहार या वार्तालाप, बिना कुछ भी कहे किसी को कुदृष्टि से देखना, सामान्य व्यवहार में झूठ बोलने अथवा बहाने बनाने या बात को छिपाने, उसे उसकी सच्चाई से भिन्न स्वरूप में व्यक्त करने आदि को लोग आम तौर से पाप नहीं मानते हैं। कुछ तो यह भी कहते हैं कि किसी की भलाई के लिए यदि इस प्रकार का व्यवहार कर भी लिया जाए तो वह भला कार्य ही है, कोई पाप नहीं है। इसलिए ऐसी बातों के लिए चिंतित नहीं होना चाहिए, उन्हें लेकर किसी असमंजस में नहीं पड़ना चाहिए। किन्तु ये मनुष्यों की धारणाएं हैं, मनुष्यों द्वारा अपनी सुविधा और आवश्यकता के अनुसार, अपने आप को संतुष्ट रखने के लिए अपने मन से गढ़ी गई बातें हैं। इनमें से कोई भी बात बाइबल के पवित्र निष्पाप सृष्टिकर्ता परमेश्वर द्वारा दी गई पाप की परिभाषा और व्याख्या से मेल नहीं खाती है। 

बाइबल के अनुसार पाप, मूलतः, परमेश्वर के नियमों, उसकी व्यवस्था का उल्लंघन करना हैजो कोई पाप करता है, वह व्यवस्था का विरोध करता है; ओर पाप तो व्यवस्था का विरोध है” (1 यूहन्ना 3:4); किसी भी प्रकार का अधर्म पाप हैसब प्रकार का अधर्म तो पाप है . . .” (1 यूहन्ना 5:17), वह चाहे किसी भी रीति से, किसी भी बात या परिस्थिति के अन्तर्गत, किसी भी उद्देश्य से क्यों न किया गया हो। बाइबल के अनुसार पाप में होना एक मानसिक दशा है; पाप का निवास, उसकी जड़ मनुष्य के मन में है; उसके बाहरी प्रकटीकरण का आरंभ मनुष्य के मन में से ही होता है, और उचित परिस्थितियों एवँ समय में वह शारीरिक क्रियाओं में प्रकट हो जाता है:

  • याकूब 1:14-15 “परन्तु प्रत्येक व्यक्ति अपनी ही अभिलाषा में खिंच कर, और फंस कर परीक्षा में पड़ता है। फिर अभिलाषा गर्भवती हो कर पाप को जनती है और पाप जब बढ़ जाता है तो मृत्यु को उत्पन्न करता है
  • मरकुस 7:20-23 “फिर उसने कहा; जो मनुष्य में से निकलता है, वही मनुष्य को अशुद्ध करता है। क्योंकि भीतर से अर्थात मनुष्य के मन से, बुरी बुरी चिन्ता, व्यभिचार। चोरी, हत्या, परस्त्रीगमन, लोभ, दुष्टता, छल, लुचपन, कुदृष्टि, निन्दा, अभिमान, और मूर्खता निकलती हैं। ये सब बुरी बातें भीतर ही से निकलती हैं और मनुष्य को अशुद्ध करती हैं
  • गलतियों 5:19-21 “शरीर के काम तो प्रगट हैं, अर्थात व्यभिचार, गन्‍दे काम, लुचपन। मूर्ति पूजा, टोना, बैर, झगड़ा, ईर्ष्या, क्रोध, विरोध, फूट, विधर्म। डाह, मतवालापन, लीलाक्रीड़ा, और इन के जैसे और और काम हैं, इन के विषय में मैं तुम को पहिले से कह देता हूं जैसा पहिले कह भी चुका हूं, कि ऐसे ऐसे काम करने वाले परमेश्वर के राज्य के वारिस न होंगे

 

इसीलिए परमेश्वर की दृष्टि में केवल शारीरिक क्रियाएं नहीं, उन क्रियाओं के पीछे के सभी प्रकार के अपवित्र, अधर्मी विचार पाप हैं - चाहे वे क्रियाओं में परिवर्तित नहीं भी हुए हों, तो भी।  परमेश्वर की दृष्टि में विचारों में किए गए पाप भी वास्तव में किए गए पापों के समान ही दण्डनीय हैंपरन्तु मैं तुम से यह कहता हूं, कि जो कोई अपने भाई पर क्रोध करेगा, वह कचहरी में दण्ड के योग्य होगा: और जो कोई अपने भाई को निकम्मा कहेगा वह महासभा में दण्ड के योग्य होगा; और जो कोई कहेअरे मूर्खवह नरक की आग के दण्ड के योग्य होगा

परन्तु मैं तुम से यह कहता हूं, कि जो कोई किसी स्त्री पर कुदृष्टि डाले वह अपने मन में उस से व्यभिचार कर चुका” (मत्ती 5:22, 28)

इसलिए बाइबल का परमेश्वर, प्रभु यीशु मसीह में होकर, हमारे मन में बसे पाप को मिटाता है; वह हमारे धर्म को नहीं, हमारे मन को बदलता है, जहाँ पर पाप की जड़ छुपी हुई है; और वहाँ से हमारे मनों में जमी हुई पाप की उस जड़ को उखाड़ कर फेंक देता है। मनुष्य अपनी सामर्थ्य से पाप की इस जड़ को नहीं उखाड़ सकता है; वो अपने कर्मों और धार्मिकता के कार्यों आदि से कुछ समय के लिए उस जड़ में से नई डालियाँ फूटना और उन डालियों में नई कोंपलें उत्पन्न होना चाहे दबा लें, किन्तु पापमय विचारों को जो शरीर में तो प्रकट नहीं होते, प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देते, उन मन में होने वाले पापों को नहीं रोक सकता है। पाप की जड़ पर निर्णायक प्रहार और मन में बसे पाप का स्थाई निवारण केवल प्रभु परमेश्वर के द्वारा ही संभव है। 

       कल हम बाइबल के अनुसार पाप की इस व्याख्या को और आगे देखेंगे। 

 

बाइबल पाठ: यिर्मयाह 17:7-11 

यिर्मयाह 17:7 धन्य है वह पुरुष जो यहोवा पर भरोसा रखता है, जिसने परमेश्वर को अपना आधार माना हो।

यिर्मयाह 17:8 वह उस वृक्ष के समान होगा जो नदी के तीर पर लगा हो और उसकी जड़ जल के पास फैली हो; जब घाम होगा तब उसको न लगेगा, उसके पत्ते हरे रहेंगे, और सूखे वर्ष में भी उनके विषय में कुछ चिन्ता न होगी, क्योंकि वह तब भी फलता रहेगा।

यिर्मयाह 17:9 मन तो सब वस्तुओं से अधिक धोखा देने वाला होता है, उस में असाध्य रोग लगा है; उसका भेद कौन समझ सकता है?

यिर्मयाह 17:10 मैं यहोवा मन की खोजता और हृदय को जांचता हूँ ताकि प्रत्येक जन को उसकी चाल-चलन के अनुसार अर्थात उसके कामों का फल दूं।

यिर्मयाह 17:11 जो अन्याय से धन बटोरता है वह उस तीतर के समान होता है जो दूसरी चिडिय़ा के दिए हुए अंडों को सेती है, उसकी आधी आयु में ही वह उस धन को छोड़ जाता है, और अन्त में वह मूढ़ ही ठहरता है।

 

एक साल में बाइबल:

·      भजन 119:89-176

·      1 कुरिन्थियों 8

बुधवार, 25 अगस्त 2021

परमेश्वर का वचन – बाइबल – और विज्ञान – 13

 

बाइबल और भौतिक-विज्ञान – 2

       पिछले लेख में हमने पानी के चक्र के बारे में देखा था, और यह भी देखा था कि जब प्रदूषण और जल-वायु के बिगड़ने की कोई समझ या ज्ञान अथवा संभावना का भी संसार के लोगों को पता नहीं था, तब ही 2000 वर्ष पहले, परमेश्वर ने अपने वचन बाइबल में लिखवा दिया था कि पृथ्वी को बिगाड़ने वालों को उनके किए के लिए परमेश्वर के न्याय का सामना करना पड़ेगा। आज हम भौतिक विज्ञान की, पानी के चक्र से भी जटिल बातों के संबंध में बाइबल में लिखी कुछ बातों के बारे में देखेंगे, जो हमारे पहले कहे गए एक तथ्य की पुष्टि करती हैं कि परमेश्वर की सृष्टि, अपने रचयिता के पक्ष में ही गवाही देगी, उसके विरुद्ध नहीं।

  • सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक सर आइज़क न्यूटन ने प्रकाश के बारे में बहुत खोज की, उसके गुणों का, और उसके विषय कुछ नियमों पता लगाया। जैसे कि, उन्होंने दिखाया, सूर्य के प्रकाश को सात रंगों में फैलाया जा सकता है और उन्हें फिर से एक साथ कर के पहले जैसे प्रकाश में परिवर्तित किया जा सकता है; और यह कि प्रकाश का अपना का एक निश्चित मार्ग होता है, जिसके अनुसार वह जाता है। आज से लगभग 4000 वर्ष पहले रहने वाले अय्यूब के वृतांत में, सृष्टि के विषय अय्यूब से प्रश्न करते समय, परमेश्वर ने उससे पूछा और लिखवा दिया था, “उजियाले के निवास का मार्ग कहां है, और अन्धियारे का स्थान कहां है?” (अय्यूब 38:19); “किस मार्ग से उजियाला फैलाया जाता है, ओर पुरवाई पृथ्वी पर बहाई जाती है?” (अय्यूब 38:24); अर्थात, प्रकाश के जाने का एक निर्धारित मार्ग है और उजियाले को फैलाया [बाइबल के विभिन्न अंग्रेजी अनुवाद यहफैलायासे और भी अधिक सटीक शब्द divided, parted, diffused, dispersed आदि के प्रयोग द्वारा व्यक्त करते हैं] जा सकता है। जिस वैज्ञानिक तथ्य को पहचानने और प्रमाणित करने में न्यूटन जैसे वैज्ञानिक को समय और परिश्रम लगाना पड़ा, उसे परमेश्वर ने एक सामान्य मनुष्य पर पहले ही प्रकट कर दिया था। 
  • अय्यूब के साथ अपने वार्तालाप में परमेश्वर उससे एक और अद्भुत प्रश्न पूछता है, “क्या तू बिजली को आज्ञा दे सकता है, कि वह जाए, और तुझ से कहे, मैं उपस्थित हूँ?” (अय्यूब 38:35)। मूल इब्रानी भाषा के जिस शब्द का अनुवाद यहाँ परबिजलीकिया गया है, उसका शब्दार्थ होता हैचमकने वाली”; अर्थात प्रकाश याचमकमें वह गुण है कि उसको एक से दूसरे स्थान पर भेजा जा सकता है, और उसे ध्वनि में परिवर्तित किया जा सकता है, इस गुण की सहायता से उसके माध्यम से संदेश भेजे जा सकते हैं। जिसे परमेश्वर ने 4000 वर्ष पहले कहा था, उसे विज्ञान ने अब पहचाना है कि प्रकाश, रेडियो तरंगें, और ध्वनि तरंगें एक ही प्रकार की ऊर्जा के, उसकी भिन्न आवृत्तियों (frequencies) के अनुसार, भिन्न स्वरूप हैं, एक से दूसरे स्थान पर स्वरूप परिवर्तित करके भेजे जा सकते हैं और इस गुण के उपयोग के द्वारा संदेश एक से दूसरे स्थान पर भेजे जा सकते हैं - हमारे टी.वी. रेडियो, फोन, औडियो और वीडियो कौल प्रणालियाँ, आदि सभी इसी सिद्धांत पर कार्य करती हैं, जिसे परमेश्वर ने इन बातों के पता होने से पहले ही पहले ही साधारण शब्दों में व्यक्त कर दिया था। 
  • पहले यह माना जाता था कि वायु में कोई भार नहीं है। किन्तु अय्यूब की पुस्तक में ही परमेश्वर द्वारा वायु का तौल निर्धारित करने की बात कही गई हैजब उसने वायु का तौल ठहराया, और जल को नपुए में नापा” (अय्यूब 28:25)। जिसे विज्ञान को पहचानने में सदियाँ लग गईं, उसे परमेश्वर ने 4000 वर्ष पहले बता दिया था।
  • सृष्टि के आरंभ, उत्पत्ति के समय से ही परमेश्वर ने आकाश की ज्योतियों और तारागणों को  चिह्नों, दिन और रात के समय निर्धारण, दिनों और वर्षों के निर्धारण के लिए बनाया था, “फिर परमेश्वर ने कहा, दिन को रात से अलग करने के लिये आकाश के अन्तर में ज्योतियां हों; और वे चिन्हों, और नियत समयों, और दिनों, और वर्षों के कारण हों। और वे ज्योतियां आकाश के अन्तर में पृथ्वी पर प्रकाश देने वाली भी ठहरें; और वैसा ही हो गया। तब परमेश्वर ने दो बड़ी ज्योतियां बनाईं; उन में से बड़ी ज्योति को दिन पर प्रभुता करने के लिये, और छोटी ज्योति को रात पर प्रभुता करने के लिये बनाया: और तारागण को भी बनाया” (उत्पत्ति 1:14-16)। मनुष्य ने परमेश्वर के इस उद्देश्य को हजारों वर्ष बाद पहचाना और उसका सही उपयोग किया। 
  • जगत के अंत और न्याय होने के लिए परमेश्वर के सम्मुख खड़े होने के समय की भविष्यवाणी करते समय प्रभु यीशु का शिष्य पतरस, जो पहले एक अनपढ़ मछुआरा हुआ करता था, लिखता है, “परन्तु प्रभु का दिन चोर के समान आ जाएगा, उस दिन आकाश बड़ी हड़हड़ाहट के शब्द से जाता रहेगा, और तत्‍व बहुत ही तप्‍त हो कर पिघल जाएंगे, और पृथ्वी और उस पर के काम जल जाऐंगे। तो जब कि ये सब वस्तुएं, इस रीति से पिघलने वाली हैं, तो तुम्हें पवित्र चाल चलन और भक्ति में कैसे मनुष्य होना चाहिए। और परमेश्वर के उस दिन की बाट किस रीति से जोहना चाहिए और उसके जल्द आने के लिये कैसा यत्‍न करना चाहिए; जिस के कारण आकाश आग से पिघल जाएंगे, और आकाश के गण बहुत ही तप्‍त हो कर गल जाएंगे” (2 पतरस 3:10-12), जो परमाणु हथियारों के प्रयोग का सटीक वर्णन है, अंत के समय के लिए भविष्यवाणी है। आज से 2000 वर्ष पहले, जब ऐसे कोई हथियार या तरीके नहीं थे, जिनसे तत्व बहुत ही गर्म होकर पिघल जाएं, पृथ्वी और उस पर के काम जल जाएं, भयानक ध्वनि हो, आकाश की उपस्थिति दृष्टि से लुप्त हो जाए, तब इन बातों को बताना, जिन्हें आज हम परमाणु अस्त्रों के प्रयोग के परिणाम के रूप में जानते हैं, क्या किसी मानवीय बुद्धि की कल्पना से हो सकता है?

 

       इसमें कोई संदेह नहीं है कि आज संसार परमाणु युद्ध की कगार पर खड़ा है। परमाणु अस्त्र रखने वाली शक्तियाँ एक-दूसरे पर अपना वर्चस्व स्थापित करने की होड़ में लगी हैं। संसार भर में हर स्थान, हर जाति, हर देश में तनाव है; बात-बात में एक-दूसरे पर चढ़ाई करने की या तो धमकी दी जाती है अथवा हमला कर दिया जाता है। सबसे अधिक भय अब इस बात का होने लगा है कि आतंकी संघटन और देश अब परमाणु हथियारों को अर्जित करने के प्रयास में लग गए हैं, और कर भी लेंगे। ऐसे में परमाणु विश्व-युद्ध को रोक पाना यदि असंभव नहीं तो बहुत कठिन अवश्य हो जाएगा। संसार के हालात, प्रकृति में होने वाली अप्रत्याशित, अभूतपूर्व विनाशकारी बातें, सभी 2000 वर्षे पहले प्रभु यीशु की भविष्यवाणियों (मत्ती 24 अध्याय) के अनुसार, प्रभु के दूसरे आगमन और जगत के अंत तथा सभी मनुष्यों न्याय के शीघ्र ही होने की ओर संकेत कर रही हैं। अब यह आपको विचार करना है कि क्या आप इस अवश्यंभावी परिस्थिति का सामना करने के लिए तैयार हैं कि नहीं। 

चाहे जगत का अंत आपके जीवन काल में न भी हो, तो भी जीवन समाप्त होने के पश्चात, प्रभु परमेश्वर के सामने जीवन का हिसाब देने के लिए तो खड़ा होना ही है। यदि आत्मा पर पाप के दाग लिए हुए जाएंगे, तो फिर परमेश्वर के साथ नहीं रह पाएंगे। आज ही स्वेच्छा से, प्रभु यीशु से अपने पापों की क्षमा माँगकर पापों के दागों को धो लीजिए, परमेश्वर के साथ अनन्तकाल की आशीष और सुख में रहने के लिए तैयार हो जाइए। सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना, आपके जीवन को विनाश से आशीष में लाकर खड़ा कर सकती है - निर्णय आपका है। आपको बस कुछ इस प्रकार से सच्चे मन से, स्वेच्छा से, पापों के लिए पश्चाताप की मनसा के साथ प्रभु को पुकारना है, “हे प्रभु यीशु, मैं स्वीकार करता हूँ कि मैं आपकी अनाज्ञाकारिता का दोषी हूँ, पापी हूँ। मैं मानता हूँ कि आपने मेरे सभी पाप अपने ऊपर लेकर, क्रूस पर अपना बलिदान देने के द्वारा उनके सारे दण्ड को मेरे लिए सह लिया, मेरे स्थान पर आपने उनकी पूरी कीमत चुका दी। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, अपना आज्ञाकारी शिष्य बनाएं, और अपने साथ बनाकर रखें।समय रहते सही निर्णय कर लें, कही बाद में बहुत देर न हो जाए, मौका हाथ से निकाल न जाए। 

 

बाइबल पाठ: यहूदा 1:14-23 

यहूदा 1:14 और हनोक ने भी जो आदम से सातवीं पीढ़ी में था, इन के विषय में यह भविष्यवाणी की, कि देखो, प्रभु अपने लाखों पवित्रों के साथ आया।

यहूदा 1:15 कि सब का न्याय करे, और सब भक्तिहीनों को उन के अभक्ति के सब कामों के विषय में, जो उन्होंने भक्तिहीन हो कर किये हैं, और उन सब कठोर बातों के विषय में जो भक्तिहीन पापियों ने उसके विरोध में कही हैं, दोषी ठहराए।

यहूदा 1:16 ये तो असंतुष्ट, कुड़कुड़ाने वाले, और अपने अभिलाषाओं के अनुसार चलने वाले हैं; और अपने मुंह से घमण्ड की बातें बोलते हैं; और वे लाभ के लिये मुंह देखी बड़ाई किया करते हैं।

यहूदा 1:17 पर हे प्रियो, तुम उन बातों को स्मरण रखो; जो हमारे प्रभु यीशु मसीह के प्रेरित पहिले कह चुके हैं।

यहूदा 1:18 वे तुम से कहा करते थे, कि पिछले दिनों में ऐसे ठट्ठा करने वाले होंगे, जो अपनी अभक्ति के अभिलाषाओं के अनुसार चलेंगे।

यहूदा 1:19 ये तो वे हैं, जो फूट डालते हैं; ये शारीरिक लोग हैं, जिन में आत्मा नहीं।

यहूदा 1:20 पर हे प्रियो तुम अपने अति पवित्र विश्वास में अपनी उन्नति करते हुए और पवित्र आत्मा में प्रार्थना करते हुए।

यहूदा 1:21 अपने आप को परमेश्वर के प्रेम में बनाए रखो; और अनन्त जीवन के लिये हमारे प्रभु यीशु मसीह की दया की आशा देखते रहो।

यहूदा 1:22 और उन पर जो शंका में हैं दया करो।

यहूदा 1:23 और बहुतों को आग में से झपट कर निकालो, और बहुतों पर भय के साथ दया करो; वरन उस वस्‍त्र से भी घृणा करो जो शरीर के द्वारा कलंकित हो गया है।

 

एक साल में बाइबल:

·      भजन 119:1-88  

·      1 कुरिन्थियों 7:20-40

मंगलवार, 24 अगस्त 2021

परमेश्वर का वचन – बाइबल – और विज्ञान – 12

 

बाइबल और भौतिक-विज्ञान - 1

 

       न केवल जीव-विज्ञान, वरन अन्य प्रकार के विज्ञान से संबंधित बातें भी परमेश्वर के वचन बाइबल की पुस्तकों में हजारों वर्ष पहले लिख दी गईं हैं। इनमें से कुछ को हम पहले सृष्टि की रचना, अंतरिक्ष, आदि शीर्षकों में देख चुके हैं। भौतिक विज्ञान से संबंधित कुछ अन्य बातों को हम आज से देखेंगे। 

एक बहुत ही सामान्य सी बात से आरंभ करते हैं – पानी का चक्र - किस प्रकार पानी सागर, आकाश और पृथ्वी के मध्य एक निरंतर चलती रहने वाली क्रिया में घूमता रहता है, और सारी पृथ्वी की सिंचाई होते रहती है, तथा सभी के पीने के लिए पानी उपलब्ध बना रहता है। किन्तु मनुष्य ने अपने स्वार्थ के लिए औरज्ञानके नाम पर परमेश्वर द्वारा बनाए गए और सुचारु रीति से चलते रहने वाले इस पूरे चक्र बिगाड़ दिया है जिससे आज स्थान-स्थान पर या तो सूखा पड़ रहा है, अथवा अप्रत्याशित और अनपेक्षित बाढ़ आ रही हैं, जिससे सभी के लिए बहुत खतरा उत्पन्न हो गया है। यह कि प्रकृति के विधान मनुष्यों के द्वारा इस प्रकार से बिगाड़ दिए जाएंगे भी परमेश्वर ने अपने वचन में पहले से ही लिखवा रखा है।

पहले पानी के चक्र को देखते हैं - आज यह सामान्य ज्ञान में स्कूलों में सिखाया जाता है कि सागर का पानी, सूर्य की गर्मी से भाप बनकर उठता है, हवा के साथ बहकर ठन्डे इलाकों, मैदानों, पहाड़ों आदि की ओर जाता है, ओस और वर्षा के रूप में उन सभी स्थानों पर पड़ता है। यहाँ से उसका कुछ भाग धरती में सोख लिया जाता है वह पृथ्वी के भीतरी भागों में स्थित जलाशयों में भी जाता है और सतह पर बहने वाली नदियों में भी जाता है, तथा फिर नदी के साथ बहकर सागर में जा मिलता है। आज जो खोज-बीन तथा उपकरणों आदि के माध्यम से उपलब्ध जानकारी हमें साधारण, सामान्य ज्ञान की बात लगती है, उसे आज से हजारों वर्ष पहले रहने वाले मनुष्यों के लिए जान पाना कितनी जटिल और असंभव सी बात रही होगी, इसकी कल्पना कीजिए। उस समय बहुत कम आबादी थी, शिक्षा बहुत सीमित थी, तथा मुख्यतः स्थानीय बातों से संबंधित होती थी; आज के समान यातायात के साधन नहीं थे, लंबी दूरी की यात्राएँ करना जान जोखिम में डालने की बात होती थी; जानकारी एकत्रित करके उसका परस्पर ताल-मेल बैठाने और विश्लेषण करने की ऐसी क्षमता नहीं थी जैसी आज है। जो पर्वतों पर या उनके आस-पास रहते थे उनमें से अधिकांश यह नहीं जानते होंगे कि सागर भी होते हैं। इसी प्रकार जो सागर तट के आस-पास रहते थे उन्हें पहाड़ों और पर्वतों की जानकारी होने की कम ही संभावना होगी, और जो विशाल मैदानी क्षेत्रों में रहते थे, उनके लिए पर्वत और सागर, दोनों के बारे पता भी होगा कि नहीं, यह कल्पना की बात है। ऐसे में पानी कहाँ से आया, कहाँ को गया, और कैसे, यह सब यदि उस समय के जीवन के आधार पर देखें, तो इसका विश्लेषण करना और उसकी सटीक जानकारी लिख दिया जाना, और वह भी ऐसे व्यक्ति के द्वारा जो न विज्ञान और न वैज्ञानिक जानकारी रखने वाला व्यक्ति हो, लगभग असंभव बात है। 

अब बाइबल के कुछ पदों को देखिए:

अय्यूब 36:27-28 क्योंकि वह तो जल की बूंदें ऊपर को खींच लेता है वे कुहरे से मेंह हो कर टपकती हैं, वे ऊंचे ऊंचे बादल उंडेलते हैं और मनुष्यों के ऊपर बहुतायत से बरसाते हैं। 

आमोस 9:6 जो आकाश में अपनी कोठरियां बनाता, और अपने आकाशमण्डल की नेव पृथ्वी पर डालता, और समुद्र का जल धरती पर बहा देता है, उसी का नाम यहोवा है।

यिर्मयाह 10:13 जब वह बोलता है तब आकाश में जल का बड़ा शब्द होता है, और पृथ्वी की छोर से वह कुहरे को उठाता है। वह वर्षा के लिये बिजली चमकाता, और अपने भण्डार में से पवन चलाता है

सभोपदेशक 1:7 सब नदियां समुद्र में जा मिलती हैं, तौभी समुद्र भर नहीं जाता; जिस स्थान से नदियां निकलती हैं; उधर ही को वे फिर जाती हैं।

साथ ही इस तथ्य पर भी विचार कीजिए कि अय्यूब आज से लगभग 4000 वर्ष पहले का एक समृद्ध जमींदार था; आमोस आज से लगभग 2750 पहले का एक चरवाहा था; यिर्मयाह आज से लगभग 2600 वर्ष पूर्व परमेश्वर का भविष्यद्वक्ता था; और सभोपदेशक के लेखक राजा सुलैमान ने यह पुस्तक लगभग 3000 वर्ष पहले लिखी थी। उस समय के इन लिखने वाले लोगों के जीवन, ज्ञान, और वैज्ञानिक समझ तथा विश्लेषण करने की क्षमता के बारे में विचार कर के, बाइबल के उपरोक्त पदों पर विचार कीजिए - क्या यह सामान्य, साधारण मानवीय बुद्धि में आने वाली, और उससे उत्पन्न होने वाली बात हो सकती है

अब पृथ्वी को बिगाड़ने वालों के बारे में बाइबल में लिखा हुआ देखते हैं। आज से लगभग 2000 वर्ष पूर्व, जब प्रदूषण और उसके प्रभावों के बारे में कोई जानकारी नहीं थी, तब बाइबल की अंतिम पुस्तक, प्रकाशितवाक्य, जो जगत के अंत और संसार के सभी लोगों के न्याय किए जाने की भविष्यवाणी की पुस्तक है, उसमें परमेश्वर ने प्रभु यीशु मसीह के शिष्य यूहन्ना के द्वारा, जो प्रभु का शिष्य बनने से पहले मछुआरा हुआ करता था, यह लिखवाया था, “और अन्यजातियों ने क्रोध किया, और तेरा प्रकोप आ पड़ा और वह समय आ पहुंचा है, कि मरे हुओं का न्याय किया जाए, और तेरे दास भविष्यद्वक्ताओं और पवित्र लोगों को और उन छोटे बड़ों को जो तेरे नाम से डरते हैं, बदला दिया जाए, और पृथ्वी के बिगाड़ने वाले नाश किए जाएं” (प्रकाशितवाक्य 11:18)। विवाद उत्पन्न करने, और तर्क देने वाले यह कह सकते हैं कि जिसबिगाड़की बात की गई है वह नैतिक पतन और भ्रष्टाचार भी हो सकता है। किन्तु मूल यूनानी भाषा में जो शब्द प्रयोग किया गया है, और जिसका अनुवादबिगाड़नाकिया गया है, वह हैडायाफ्थीरियोजिसका शब्दार्थ होता है पूर्णतः सड़ा-गला कर नष्ट कर देना। यह वही शब्द है जिससे घातक बीमारीडिफथीरियाका नाम आया है।

क्रमिक विकासवाद (Evolution) कहता है कि मनुष्य, पृथ्वी, और सृष्टि सुधर रहे हैं, उन्नत होते जा रहे हैं; जबकि हमारे समक्ष विदित व्यावहारिक वास्तविकता इसके बिल्कुल विपरीत, और परमेश्वर के वचन बाइबल की बातों के अनुरूप है - मनुष्य, पृथ्वी और सृष्टि बिगड़ते जा रहे हैं, अपने अंतिम दिनों में पहुँच चुके हैं। सारे संसार भर में हर जाति, हर सभ्यता का मनुष्य शारीरिक, भौतिक, नैतिक, और आध्यात्मिक, हर रीति से सुधरने की बजाए बिगड़ता ही जा रहा है।

अब यह आपके लिए विचार करने और निर्णय लेने का समय है - क्या आप परमेश्वर के उस अवश्यंभावी न्याय का सामना करने, उसके सामने खड़े होकर अपने जीवन के हर एक पल का हिसाब देने, अपने मन, ध्यान, विचार, और व्यवहार की हर बात, हर सोच, हर कल्पना का हिसाब देने को तैयार हैं? क्योंकि परमेश्वर के दृष्टि से कुछ छिपा नहीं है, कुछ अज्ञात नहीं है, जैसा दाऊद ने अपने पुत्र सुलैमान को समझायाऔर हे मेरे पुत्र सुलैमान! तू अपने पिता के परमेश्वर का ज्ञान रख, और खरे मन और प्रसन्न जीव से उसकी सेवा करता रह; क्योंकि यहोवा मन को जांचता और विचार में जो कुछ उत्पन्न होता है उसे समझता है। यदि तू उसकी खोज में रहे, तो वह तुझ को मिलेगा; परन्तु यदि तू उसको त्याग दे तो वह सदा के लिये तुझ को छोड़ देगा” (1 इतिहास 28:9); और बाद में इब्रानियों के लेखक ने भी कहा, “क्योंकि परमेश्वर का वचन जीवित, और प्रबल, और हर एक दोधारी तलवार से भी बहुत चोखा है, और जीव, और आत्मा को, और गांठ गांठ, और गूदे गूदे को अलग कर के, वार पार छेदता है; और मन की भावनाओं और विचारों को जांचता है। और सृष्टि की कोई वस्तु उस से छिपी नहीं है वरन जिस से हमें काम है, उस की आंखों के सामने सब वस्तुएं खुली और बेपरदा हैं” (इब्रानियों 4:12-13)

परमेश्वर आपको अवसर दे रहा है; यदि आज तक भी आपने उसकी आपको दी जाने वाली पापों की क्षमा के इस अवसर को स्वीकार नहीं किया है, तो अभी फिर आपके पास मौका है। आप अभी स्वेच्छा से, सच्चे मन से, अपने पापों के लिए पश्चातापी मन के साथ यह छोटी सी प्रार्थना कर सकते हैं, “हे प्रभु यीशु मैं स्वीकार करता हूँ कि मैंने मन, ध्यान, विचार, और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किया है। मैं यह भी मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों की सजा को अपने ऊपर उठाया लिया, और उसे पूर्णतः चुका दिया है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और अपना आज्ञाकारी शिष्य बना लें, और अपने साथ बनाकर रखें।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी यह छोटी सी प्रार्थना आपके मन और जीवन को बदल देगी, आपको परमेश्वर की संतान बनाकर, पापों के दण्ड से मुक्ति तथा अब से लेकर अनन्तकाल तक के लिए स्वर्गीय आशीषों का वारिस बना देगी। निर्णय आपका है।  

बाइबल पाठ: यशायाह 64:1-9

यशायाह 64:1 भला हो कि तू आकाश को फाड़कर उतर आए और पहाड़ तेरे सामने कांप उठे।

यशायाह 64:2 जैसे आग झाड़-झंखाड़ को जला देती वा जल को उबालती है, उसी रीति से तू अपने शत्रुओं पर अपना नाम ऐसा प्रगट कर कि जाति जाति के लोग तेरे प्रताप से कांप उठें!

यशायाह 64:3 जब तू ने ऐसे भयानक काम किए जो हमारी आशा से भी बढ़कर थे, तब तू उतर आया, पहाड़ तेरे प्रताप से कांप उठे।

यशायाह 64:4 क्योंकि प्राचीनकाल ही से तुझे छोड़ कोई और ऐसा परमेश्वर न तो कभी देखा गया और न कान से उसकी चर्चा सुनी गई जो अपनी बाट जोहने वालों के लिये काम करे।

यशायाह 64:5 तू तो उन्हीं से मिलता है जो धर्म के काम हर्ष के साथ करते, और तेरे मार्गों पर चलते हुए तुझे स्मरण करते हैं। देख, तू क्रोधित हुआ था, क्योंकि हम ने पाप किया; हमारी यह दशा तो बहुत काल से है, क्या हमारा उद्धार हो सकता है?

यशायाह 64:6 हम तो सब के सब अशुद्ध मनुष्य के से हैं, और हमारे धर्म के काम सब के सब मैले चिथड़ों के समान हैं। हम सब के सब पत्ते के समान मुर्झा जाते हैं, और हमारे अधर्म के कामों ने हमें वायु के समान उड़ा दिया है।

यशायाह 64:7 कोई भी तुझ से प्रार्थना नहीं करता, न कोई तुझ से सहायता लेने के लिये चौकसी करता है कि तुझ से लिपटा रहे; क्योंकि हमारे अधर्म के कामों के कारण तू ने हम से अपना मुंह छिपा लिया है, और हमें हमारी बुराइयों के वश में छोड़ दिया है।

यशायाह 64:8 तौभी, हे यहोवा, तू हमारा पिता है; देख, हम तो मिट्टी है, और तू हमारा कुम्हार है; हम सब के सब तेरे हाथ के काम हैं।

यशायाह 64:9 इसलिये हे यहोवा, अत्यन्त क्रोधित न हो, और अनन्तकाल तक हमारे अधर्म को स्मरण न रख। विचार कर के देख, हम तेरी बिनती करते हैं, हम सब तेरी प्रजा हैं।

 

एक साल में बाइबल:

·           भजन 116-118 

·           1 कुरिन्थियों 7:1-19  

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