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बालकों के समान व्यवहार और मानसिकता
पीछे के लेखों में हमने देखा है कि प्रभु के लोगों में परमेश्वर के वचन से संबंधित पाँच प्रकार की ठीक से और निरंतर की जाने वाली सेवकाइयों के द्वारा ही मसीही विश्वासियों के मसीही जीवनों में और साथ ही प्रभु की कलीसिया की उन्नति होती है; वे परिपक्वता में अग्रसर होते रहते हैं, और प्रभु परमेश्वर की महिमा का कारण ठहरते हैं। किन्तु यदि किसी कारणवश व्यक्ति प्रेरितों 2:42 में दिए गए मसीही और कलीसिया के जीवन के चार स्तंभों, वचन की शिक्षा, मसीही विश्वासियों की संगति, सामूहिक एवं व्यक्तिगत प्रार्थना का जीवन, और प्रभु की मेज़ में नियमित सम्मिलित होने में शिथिल अथवा लापरवाह हो जाए, या कमज़ोर पड़ जाए तो उसका आत्मिक विकास बाधित हो जाता है, वह आत्मिक परिपक्वता में नहीं बढ़ने पाता है, उसका आत्मिक जीवन प्रभु के लिए अप्रभावी हो जाता है, और उसके जीवन से प्रभु को महिमा नहीं मिलती है। पिछले लेख में हमने यह भी देखा था कि मसीही विश्वास में आने के बाद लोग आत्मिक शिशु-अवस्था से निकलकर आत्मिक बालक-अवस्था में आकर क्यों अटक जाते हैं - परमेश्वर पिता और उनकी अपने बच्चों के लिए देखभाल पर उनके अधूरे विश्वास, और उसके अंतर्गत पिता परमेश्वर की बजाए अपने ऊपर तथा स्वयं के प्रयासों पर भरोसा रखने के कारण! इस कारण उनका आत्मिक जीवन या तो एक स्तर पर रुका रह जाता है, या बहुत धीमे बढ़ता है; और जो कुछ भी वो कमाते हैं वह बहुत परिश्रम और थकान के साथ कमाते हैं। साथ ही इसके लिए उन्हें एक बड़ी कीमत भी चुकानी पड़ती है, अपने पारिवारिक संबंधों तथा अपने स्वास्थ्य को लेकर; साथ ही वे अपने आप को परमेश्वर की आशीषों और देखभाल से भी वंचित कर लेते हैं। तौ भी, जो वो कमाते हैं, उसका वैसा आनन्द नहीं लेने पाते हैं, जैसी कि उन्होंने अपेक्षा की थी।
जैसा हमने पिछले लेख में देखा है, इफिसियों 4:14 “ताकि हम आगे को बालक न रहें, जो मनुष्यों की ठग-विद्या और चतुराई से उन के भ्रम की युक्तियों की, और उपदेश की, हर एक बयार से उछाले, और इधर-उधर घुमाए जाते हों” में चार प्रकार की बातें दी गई हैं जो मसीही विश्वासियों और कलीसिया के मध्य, नियुक्त सेवकों द्वारा, वचन की अप्रभावी सेवकाई के कारण आए आत्मिक कुपोषण से ग्रसित व्यक्तियों या कलीसिया में घर कर जाती हैं। इनमें से पहली बात है बालक के समान व्यवहार, विचार, और दृष्टिकोण रखना; अर्थात अपरिपक्व होना। शेष तीन बातें इन बालक समान, या अपरिपक्व लोगों में देखने को मिलती हैं। ये अपरिपक्व मसीही बालक, विभिन्न प्रकार के विचारों की “बयार से उछाले, और इधर-उधर घुमाए जाते” हैं; अर्थात सूखे पत्तों या हल्की सी किसी ऐसी वस्तु के समान हो जाते हैं जो हल्की सी भी हवा चलने से एक से दूसरे स्थान पर उड़ा दिए जाएं। उनमें कोई आत्मिक स्थिरता एवं दृढ़ता, वचन की सही शिक्षाओं की समझ, मसीही विश्वास की आधारभूत बातों की जानकारी नहीं होती है। बेरिया के विश्वासियों (प्रेरितों 17:11) के विपरीत, यदि कोई भी प्रचारक आकर मसीह या परमेश्वर के नाम में कुछ भी उलटा-सीधा किन्तु आकर्षक और मनोहर रीति से कह देता है, उसे ये बालक समान अपरिपक्व लोग बिना जाँचे-परखे स्वीकार कर लेते हैं, गलत शिक्षाओं में तुरंत ही बहक और भटक जाते हैं, एक से दूसरे प्रचारक, मत, समुदाय, डिनॉमिनेशन आदि में “उछाले, और इधर-उधर घुमाए जाते” हैं। समझ और विश्वास में इस प्रकार बालक बने रहना परमेश्वर के वचन और इच्छा के विरुद्ध है, “हे भाइयो, तुम समझ में बालक न बनो: तौभी बुराई में तो बालक रहो, परन्तु समझ में सयाने बनो” (1 कुरिन्थियों 14:20)।
परमेश्वर के वचन बाइबल में दो स्थानों पर परमेश्वर पवित्र आत्मा ने इस आत्मिक बालक अवस्था के लक्षण बताए हैं, जिससे मसीही विश्वासी अपने जीवनों में झांक कर अपनी आत्मिक परिपक्वता की दशा को देख लें। बाइबल के ये स्थान, और वहाँ लिखे लक्षण हैं:
1. हे भाइयों, मैं तुम से इस रीति से बातें न कर सका, जैसे आत्मिक लोगों से; परन्तु जैसे शारीरिक लोगों से, और उन से जो मसीह में बालक हैं। मैं ने तुम्हें दूध पिलाया, अन्न न खिलाया; क्योंकि तुम उसको न खा सकते थे; वरन अब तक भी नहीं खा सकते हो। क्योंकि अब तक शारीरिक हो, इसलिये, कि जब तुम में डाह और झगड़ा है, तो क्या तुम शारीरिक नहीं? और मनुष्य की रीति पर नहीं चलते? इसलिये कि जब एक कहता है, कि मैं पौलुस का हूं, और दूसरा कि मैं अपुल्लोस का हूं, तो क्या तुम मनुष्य नहीं? (1 कुरिन्थियों 3:1-4)।
यहाँ पर दिए गए इस बालक अवस्था के, अपरिपक्वता के, लक्षण हैं:
उनसे परिपक्व आत्मिक लोगों के समान आत्मिक बात-चीत नहीं की जा सकती है; वे उसे समझ नहीं पाते हैं, ग्रहण नहीं करने पाते हैं।
वे शारीरिक या सांसारिक लोगों के समान की गई बात-चीत को ही समझने और ग्रहण करने पाते हैं।
वे बाइबल की ठोस शिक्षाओं, मसीही विश्वास और जीवन आदि की उन्नत तथा गूढ़ बातों को समझ नहीं पाते हैं, न उनका पालन, और न ही उन्हें अपने जीवन में लागू करने पाते हैं।
उनमें डाह और झगड़ा, अर्थात अहंकार, दूसरों के साथ तुलना करते रहना, अपने आप को ऊंचा और दूसरों को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति, क्षमा न करना, सहनशीलता, नम्रता और दीनता का व्यवहार न रखना, आदि बातें बनी रहती हैं।
वे बाइबल की सही शिक्षाओं पर परमेश्वर पवित्र आत्मा के चलाए नहीं चलते; वरन मनुष्यों, संस्थाओं, मानवीय मतों, समुदायों, और डिनॉमिनेशंस के नियमों के अनुसार, जहाँ से भी उन्हें लाभ मिले, उनके अनुसार चलते और जीवन जीते हैं।
उनमें मनुष्यों को महत्व देने, उन्हें अपना आदर्श बनाकर मनुष्यों के अनुसार चलने, और इस बात को लेकर औरों के साथ, जो उनके पसंदीदा आदर्श मनुष्यों को उनके समान ओहदा और आदर नहीं देते हैं, मतभेद और टकराव रखने की प्रवृत्ति देखने को मिलती है (1 कुरिन्थियों 1:10-12)।
2. “इस के विषय में हमें बहुत सी बातें कहनी हैं, जिन का समझना भी कठिन है; इसलिये कि तुम ऊंचा सुनने लगे हो। समय के विचार से तो तुम्हें गुरु हो जाना चाहिए था, तौभी क्या यह आवश्यक है, कि कोई तुम्हें परमेश्वर के वचनों की आदि शिक्षा फिर से सिखाए ओर ऐसे हो गए हो, कि तुम्हें अन्न के बदले अब तक दूध ही चाहिए। क्योंकि दूध पीने वाले बच्चे को तो धर्म के वचन की पहचान नहीं होती, क्योंकि वह बालक है। पर अन्न सयानों के लिये है, जिन के ज्ञानेन्द्रिय अभ्यास करते करते, भले बुरे में भेद करने के लिये पक्के हो गए हैं” (इब्रानियों 5:11-14)।
यहाँ पर दिए गए अपरिपक्वता के लक्षण हैं:
उनमें वचन की बातों और शिक्षाओं को सुनने और सीखने में रुचि नहीं होती है; वे उन बातों को “ऊँचा सुनते” हैं।
उनकी आत्मिक दशा, आत्मिक परिपक्वता, बाइबल की शिक्षाओं और बातों की समझ, आदि, उनके मसीही विश्वास में आने की अवधि के अनुपात में नहीं देखी जाती है।
उन्हें परमेश्वर के वचन की आदि शिक्षाओं, मसीही विश्वास की आधारभूत बातों का ही बोध नहीं रहता है। वे उन बातों को भूल गए हैं, उन्हें उन बातों को फिर से सिखाने की आवश्यकता होती है।
वे केवल बिलकुल आरंभिक शिक्षाएं ही समझ और ग्रहण करने पाते हैं; ठोस या गूढ़ शिक्षाओं को समझ पाना या उनका पालन करना उनके लिए संभव नहीं होता है।
उन्हें “धर्म के वचन” की पहचान नहीं होती है; एक प्रकार से यह इफिसियों 4:14 में लिखे “हर एक बयार से उछाले, और इधर-उधर घुमाए जाते हों” का दोहराया जाना है। वचन की सही पहचान न होने के कारण, वे जाँचे और समझे बिना ही हर प्रकार की शिक्षाओं को स्वीकार कर लेते हैं।
वे आत्मिक बातों में भले और बुरे में अंतर पहचानने में अक्षम होते हैं।
आत्मिक बालक-अवस्था के उपरोक्त लक्षण प्रकट करते हैं कि मसीही विश्वासियों में भी अधिकांश लोग अभी इस बालक-अवस्था से ऊपर नहीं बढ़ने पाए हैं। इसका कारण इब्रानियों 5:14 के मध्य भाग में दिया गया है: “... जिन के ज्ञानेन्द्रिय अभ्यास करते करते...”; ये लोग अपरिपक्व या बालक इसलिए हैं क्योंकि ये मसीही जीवन और उसमें बढ़ोतरी से संबंधित विभिन्न परिस्थितियों से होकर नहीं निकलते हैं। ये प्रभु के लिए उपयोगी होने, उसके लिए कुछ करने में रुचि नहीं रखते हैं; बस शिथिल और निष्क्रिय होकर प्रभु और उसकी आशीषों को अपने लिए प्रयोग करते रहते हैं। यदि ये उन आरंभिक मसीही विश्वासियों के समान प्रेरितों 2:42 की चारों बातों में लौलीन रहते, तो उन्हीं आरंभिक विश्वासियों के समान प्रभु के लिए उपयोगी भी होते, और मसीही जीवन के विभिन्न अनुभवों में से होकर निकलते हुए आत्मिक परिपक्वता में भी बढ़ते चले जाते हैं, और अनुभव से ही परमेश्वर की भली और भावती इच्छा को भी जानने पाते हैं (रोमियों 12:2)।
इस आत्मिक अपरिपक्वता के कारण ये लोग जिन बातों में शैतान द्वारा फँसा लिए जाते हैं, उन्हें हम अगले लेख में देखेंगे। किन्तु यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो उपरोक्त 1 कुरिन्थियों 3:1-4 और इब्रानियों 5:11-14 के आधार पर अपनी आत्मिक परिपक्वता की स्थिति को पहचान लीजिए, और उसके अनुसार जो भी आवश्यक निर्णय हों, उन्हें लेकर अपने जीवन में कार्यान्वित कर लीजिए। आप जितना प्रभु के वचन और शिक्षाओं में बढ़ेंगे, जितना वचन और प्रभु के आज्ञाकारी रहेंगे, आप उतने अधिक परिपक्व और प्रभु के लिए उपयोगी और अपने लिए आशीषित होते चले जाएंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
यिर्मयाह 22-23
तीतुस 1
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Thinking and Behaving like a Child
We have seen in the previous articles that consequent to worthily and continually carried out five kinds of ministries given in Ephesians 4:11, the Christian Believers and the Church are edified, continually grow and mature spiritually, bringing glory and honor to God. But if for some reason, a person or Church becomes careless and casual about steadfastly being obedient to the four pillars of Christian Life given in Acts 2:42 - Bible Study, Fellowship with Believers, Prayers - individual and as a Church, worthily and properly participating in the Holy Communion, then his spiritual growth is adversely affected, he stops maturing spiritually, his life no longer remains useful for the Lord and ceases to glorify God. In the previous article we had seen why most Believers after coming out of spiritual-infancy, get stuck in their spiritual childhood, stop growing spiritually any more - because of their incomplete trust or lack of trust in God’s intention and ability to look after them and provide for the needs of His spiritual children. Therefore, instead of trusting God, they start falling back upon their own abilities, efforts, other people, and the ways of the world to accomplish or achieve their desires. So, while they may gain materially and physically, but they end up loosing God’s care and blessings, their spiritual growth either stagnates or gets stunted, and whatever they do gain materially, is through much toil and labor, often at the cost of other things, especially family life and their own health, and never get to enjoy it as they had expected to do.
As we have seen in the previous article, in Ephesians 4:14 “that we should no longer be children, tossed to and fro and carried about with every wind of doctrine, by the trickery of men, in the cunning craftiness of deceitful plotting” are given four causes of spiritual immaturity, which are the result of spiritual malnourishment due to an improper and inadequate ministry of God’s Word amongst the Christian Believers and the Churches. The first amongst these four is behaving like children. The next three are seen in those who live and behave immaturely like children. These spiritually immature and child-like people get “tossed to and fro and carried about with every wind of doctrine”; i.e., they become light-weight and unstable like dried up leaves, that can easily be blown around by even a light breeze. They have no spiritual stand or firmness, because they have no proper understanding about God’s Word and the basic, foundational truths of Christian Faith. Unlike the Christian Believers of Berea (Acts 17:11), any Christian preacher who comes and preaches anything in the name of the Lord Jesus and God, attractively and in a pleasant or appealing manner, these child-like Believers, without examining and evaluating it, readily accept it all, and are very easily carried away in wrong doctrines and false teachings. They keep getting tossed around from one preacher to another, from one group, sect, or denomination, to another.
In God’s Word the Bible, God the Holy Spirit has given the characteristics of these children, i.e., spiritually immature people at two places, so that all Christian Believers can today look at and examine their lives on their basis and ascertain the state of their own spiritual maturity. These two places, and the characteristics given there are:
1. “And I, brethren, could not speak to you as to spiritual people but as to carnal, as to babes in Christ. I fed you with milk and not with solid food; for until now you were not able to receive it, and even now you are still not able; for you are still carnal. For where there are envy, strife, and divisions among you, are you not carnal and behaving like mere men? For when one says, "I am of Paul," and another, "I am of Apollos," are you not carnal?” (1 Corinthians 3:1-4).
The signs and indicators of immaturity and being child-like, given here are:
One cannot speak or converse with them regarding spiritual things, as can be done with mature people. They are unable to understand those things, are unable to accept them.
They can only understand and accept the carnal things of the world, and what is said in a worldly manner.
They are neither able to utilize the “solid food”, i.e., understand the deeper things of God’s Word and the advanced things of the Christian Faith and life, nor apply them in their lives, obey them, or live by them.
They have envy, strife, divisions, comparisons with others, etc. in their fellowship and lives. They have the tendency of showing themselves better than the others and others as lesser than them. Patience, forbearance, humility, putting up with others, etc. is either hardly ever seen, or seen very little.
They do not walk according to the correct teachings of the Bible in the guidance of the Holy Spirit; instead, their Christian living is dictated and determined by rules and regulations determined by people, human organizations man-made groups, sects, and denominations etc.; and they keep shifting to wherever they can get better temporal benefits, and live accordingly.
They have a tendency of giving importance to other men, putting up other human beings as their role models and then emulating them; because of this they have conflicts and differences of opinion with others who do not look up to their human role-models (1 Corinthians 1:10-12).
2. “of whom we have much to say, and hard to explain, since you have become dull of hearing. For though by this time you ought to be teachers, you need someone to teach you again the first principles of the oracles of God; and you have come to need milk and not solid food. For everyone who partakes only of milk is unskilled in the word of righteousness, for he is a babe. But solid food belongs to those who are of full age, that is, those who by reason of use have their senses exercised to discern both good and evil” (Hebrews 5:11-14).
The signs and indicators of immaturity and being child-like, given here are:
They have no or very little interest in listening to spiritual things, they have “become dull of hearing.”
Their spiritual condition, spiritual maturity, understanding and following of the things of the Bible, etc., is not in proportion to their time since they have come to the Christian Faith; they are lagging far behind.
They do not have the knowledge or understanding of the initial principles of Christian life and Faith. They have forgotten them and have to be taught over and over again.
They are able to comprehend only the very fundamental Christian teachings; it is difficult or impossible for them to understand or follow the “solid” or deep things.
They are unable to understand and partake “the word of righteousness”; this is like getting “tossed to and fro and carried about with every wind of doctrine” of Ephesians 4:14. Not having a proper understanding of the teachings of God’s Word, they accept all kinds of teachings, without examining and evaluating them.
They are unable to discern good or evil about spiritual things.
The above characteristics and signs of being children, or spiritually immature indicate that in Christendom and even amongst Christian Believers, most have not yet grown out of this child-like immaturity. The reason for this is given in the mid-part of Hebrews 5:14 “...who by reason of use have their senses exercised...” - these people are immature or child-like because they have not gone through the various situations and circumstances related to Christian living and growth. They are not interested in doing anything for the Lord, for being used by Him. All they want is to be inactive, stay-put at a place, and keep begging for the Lord’s blessings and using them up for themselves. If they had been steadfastly involved in the four things of Acts 2:42, as the initial Christian Believers were, then like those Believers they too would have been useful for the Lord, and because of passing through various experiences and situations, as the initial ones had, would have grown in spiritual maturity too, and through their experiences would learn to know the perfect will of God for them (Romans 12:2).
Because of this spiritual immaturity, the way Satan traps them in various ways, we will see in the next article. But if you are a Christian Believer, then examine and evaluate your state of spiritual maturity through aforementioned 1 Corinthians 3:1-4 and Hebrews 5:11-14; take whatever appropriate decisions have to be taken, and implement them in our life. The more you grow in the Word and teachings of the Lord, the more obedient you are to His Word, the more mature and useful for the Lord you will be, and therefore that much more blessed.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Jeremiah 22-23
Titus 1
Iss jeevanpurak margdarshan ke liye me aapaki aabhari hu prabhu aapako bahut Aashish de
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