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रविवार, 9 अप्रैल 2023

परमेश्वर का वचन – बाइबल / Bible – The Word of God – 5

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अपने जाँचने और परखने के निमंत्रण में अनुपम एवं विशिष्ट

हम मसीही समाज के लोग बाइबल को ‘परमेश्वर का वचन’ कहकर संबोधित करते हैं; प्रत्येक धर्म की अपनी पुस्तकें हैं, और हर धर्म के मानने वाले भी अपने धर्म-ग्रंथों के लिए यही कहते हैं, कि उनके वे ग्रंथ भी ईश्वरीय हैं। इसके अतिरिक्त, संसार भर में साहित्य, दर्शन-शास्त्र, धर्म तथा धार्मिक व्याख्यानों, नैतिक शिक्षाओं, आदि से संबंधित कई पुस्तकें हैं जो बहुत विख्यात हैं, और उन्हें अपने प्रकार की अनुपम कृतियाँ कहा जाता है, तुलना के लिए मानक के समान प्रयोग किया जाता है। तो फिर बाइबल में ऐसा क्या है जिसके आधार पर मसीही विश्वास में उसे ‘परमेश्वर का वचन’ कहा जाता है; उसे अन्य किसी भी पुस्तक अथवा ग्रंथ से भिन्न माना जाता है, और जिसके आधार पर कहा जाता है कि केवल यही एक पुस्तक वह पुस्तक है जो वास्तव में परमेश्वर का वचन है। बाइबल में ऐसा अनुपम और विशिष्ट क्या है, जो और किसी पुस्तक अथवा धर्म-ग्रंथ में नहीं  है?

आज के इस लेख में हम बाइबल की कुछ बातों को देखेंगे जो इसे अन्य किसी भी पुस्तक से भिन्न, अनुपम, एवं विशिष्ट बनाती हैं, और इस दावे के पुष्टि करती हैं कि यही वास्तव में जीवते, सच्चे परमेश्वर का वचन है। 

1. इसे जाँचने के दावे में अनुपम: यद्यपि हर धर्म के ग्रंथ के लिए उसके परमेश्वर का वचन होने का दावा किया जाता है, किन्तु बाइबल ही एकमात्र है जो अपने दावों और बातों के लिए उसे जाँचने और परखने का निमंत्रण देती है। अन्य किसी भी धर्म में यदि उसके धर्म ग्रंथ को जाँचने, परखने,आलोचनात्मक विश्लेषण तथा तुलना करने आदि का प्रयास किया जाए तो उस धार्मिक समुदाय के लोग इसे उनके धर्म और धर्म ग्रंथ का अपमान मानते हैं, और कटु प्रतिक्रिया देने में संकोच नहीं करते हैं। संसार के इतिहास में ऐसे कितने ही उदाहरण विद्यमान हैं जब धर्म या धर्म-ग्रंथ से संबंधित बातों पर प्रश्न उठाने या उनका विश्लेषण करके उनकी मान्यताओं पर प्रश्न उठाने के कारण दंगे तथा जान-माल की हानि  हुई है। 

किन्तु बाइबल ही एकमात्र ऐसा धर्म-ग्रंथ है जो सभी को आमंत्रित करता है कि उसे जाँचें और परखें। इस संदर्भ में बाइबल के कुछ पद देखिए:
1 थिस्स्लुनीकियों 5:21 – "सब बातों को परखो: जो अच्छी है उसे पकड़े रहो।" यह बाइबल की शिक्षा है कि पहले हर बात, हर शिक्षा, हर धारणा को जाँचा जाए, और खरा उतारने पर ही उसे स्वीकार किया जाए। बाइबल अंध विश्वास को स्वीकार नहीं करती है, बढ़ावा नहीं देती है। 

प्रेरितों 17:11 – "ये लोग तो थिस्सलुनीके के यहूदियों से भले थे और उन्होंने बड़ी लालसा से वचन ग्रहण किया, और प्रति दिन पवित्र शास्त्रों में ढूंढ़ते रहे कि ये बातें यों ही हैं, कि नहीं।" यह पद बेरिया नामक एक स्थान पर मसीही विश्वासियों की एक मँडली में पौलुस द्वारा परमेश्वर के वचन के प्रचार की जाने के विषय में है। पौलुस नए नियम का बहुत प्रमुख और आदरणीय पात्र है; उसी के द्वारा नए नियम के लगभग दो-तिहाई पुस्तकें  लिखी गई हैं। जब पौलुस ने बेरिया के मसीही विश्वासियों के मध्य प्रभु यीशु मसीह के विषय प्रचार किया, तो, जैसा पद में लिखा है, उन लोगों ने तुरंत ही उन बातों पर इसलिए विश्वास नहीं कर लिया कि पौलुस जैसा सुविख्यात परमेश्वर के जन ने उन्हें वे बातें बताईं और सिखाईं थीं।  वरन, उन्होंने प्रतिदिन पहले जा कर पौलुस की शिक्षाओं को उनके पास उपलब्ध पुराने नियम की पुस्तकों और शिक्षाओं के साथ मिलाकर जाँचा, और जब पौलुस की शिक्षाओं को सत्य पाया, तब ही उनपर विश्वास किया। किन्तु साथ ही उनके द्वारा याह जाँच-परख करने के लिए उनकी कोई आलोचना नहीं की गई, वरन उन्हें अन्य यहूदियों से जिन्होंने मसीह पर विश्वास किया था, इस बात के लिए, 'भला' कहा गया। 

आज यदि किसी धर्म-प्रचारक की शिक्षाओं के प्रति कोई सवाल-जवाब कर ले, तो बहुत समस्या खड़ी हो जाती है; ऐसा करने वालों की निन्दा तथा ताड़ना की जाती है। केवल बाइबल ही है जो साफ, खुला, दो-टूक कहती है कि आओ और जाँचो, और संतुष्ट होने पर ही विश्वास करो। 

भजन 34:8 – "परखकर देखो कि यहोवा कैसा भला है! क्या ही धन्य है वह पुरुष जो उसकी शरण लेता है।" बाइबल ही एकमात्र ऐसी पुस्तक है जो ना केवल अपने आप को जाँचने का निमंत्रण देती है, वरन उस परमेश्वर 'यहोवा' को भी, जिसका बाइबल वचन है, परख कर देखने के लिए आमंत्रित करती है। यह बाइबल की खुली शिक्षा है कि कोई भी आकर बाइबल के परमेश्वर के भले होने को जाँच-परख कर देख ले; इसमें बुरा मानने या एतराज़  करने की कोई बात नहीं है। प्रभु यीशु मसीह ने अपने आलोचकों को खुली चुनौती दी, "परन्तु मैं जो सच बोलता हूं, इसीलिये तुम मेरी प्रतीति नहीं करते। तुम में से कौन मुझे पापी ठहराता है? और यदि मैं सच बोलता हूं, तो तुम मेरी प्रतीति क्यों नहीं करते? जो परमेश्वर से होता है, वह परमेश्वर की बातें सुनता है; और तुम इसलिये नहीं सुनते कि परमेश्वर की ओर से नहीं हो” (यूहन्ना 8:45-47); और कोई उसके विरुद्ध कुछ प्रमाणित नहीं कर सका, उसकी चुनौती का सामना नहीं कर सका - तब से लेकर आज तक भी नहीं। 

यह केवल बाइबल अध्ययन के कौलेजों (सेमीनरी) में ही पाया जाता है कि इस प्रकार का बाइबल विश्लेषण एवं जाँचना परखना, पाठ्यक्रम का एक महत्वपूर्ण और अभिन्न अंग है, और छात्रों को बाइबल की बातों को परखने और जाँचने की विधियों की शिक्षा दी जाती है। साथ ही, यह केवल बाइबल अध्ययन के कौलेजों (सेमीनरी) में ही पाया जाता है कि बाइबल का अध्ययन करने वालों के लिए अन्य धर्मों की मान्यताओं की शिक्षा भी प्रदान की जाती है, और छात्रों को प्रत्येक धर्म के बारे में विस्तृत जानकारी दी जाती है, कौलेज (सेमीनरी) की लाइब्रेरी में सभी धर्मों से संबंधित पुस्तकें भी रखी जाती हैं, जिससे छात्र स्वयं पढ़ सकें और जान सकें कि तुलना में बाइबल और अन्य धर्म तथा उनके धर्म-ग्रंथ परस्पर कहाँ खड़े हैं। 

    जाँचने, परखने, समझने का यह व्यवहार बाइबल और मसीही विश्वास में अनूठा एवं अनुपम है, क्योंकि न बाइबल और न ही मसीही विश्वास किसी को किसी छल अथवा कपट के द्वारा प्रभावित करने में विश्वास रखता है, वरन उसकी हर बात खुली, स्पष्ट, और अवलोकन के लिए उपलब्ध है। 

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

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Unique and Special in Asking to be Examined


We Christians refer to the Bible as the 'Word of God'; Every religion has its own books, and the believers of every religion also say this for their scriptures, that their scriptures are also divine. In addition, there are many books around the world relating to literature, philosophy, religion and religious discourses, moral teachings, etc. all very well known and appreciated. They are all called unique, and may even be used as standards to refer to about morality and righteousness. What, then, is so different and unique in the Bible, that in Christianity it is called the 'Word of God'? On what basis is it considered different from any other religious book or text? On what basis is it said to be the only book that actually is the Word of God? What is so unique and special in the Bible, which is not seen in any other book or scripture?


In today's article, we'll look at some of the things in the Bible that make it different, unique, and special than any other book, and corroborates the claim that it really is the Word of the living, true God.


1. Unparalleled in its claim to be put to test: Although every religious text is claimed to be the word of the god of that religion, the Bible is the only one that actually invites people to examine and test it for its claims and writings. In any other religion, if an attempt is made to examine, test, critically analyze and compare its scripture, then the people of that religious community consider it an insult to their religion and scripture, and do not hesitate to react bitterly and retaliate. There are many such examples in the history of the world when there have been riots with loss of life and property due to the questioning or analyzing and stating things related to a religion, or their scriptures, or because of questioning their beliefs.


But the Bible is the only scripture that invites all to examine and evaluate it. See some Bible verses in this context:

1 Thessalonians 5:21 - "Test all things; hold fast what is good." It is the teaching of the Bible that everything, every teaching, every concept should be tested first, and only when it is confirmed, it should be accepted. The Bible does not accept, does not encourage, blind faith.


Acts 17:11 - "These were more fair-minded than those in Thessalonica, in that they received the word with all readiness, and searched the Scriptures daily to find out whether these things were so." This verse is about Paul preaching the Word of God to a congregation of Christians at a place called Berea. Paul is a very prominent and respected figure in the New Testament; About two-thirds of the books of the New Testament are written by him. When Paul preached about the Lord Jesus Christ among Christians in Berea, they did not immediately believe what he preached because a man of God as famous as Paul had preached and taught to them, as the verse says. Rather, they first went every day to check Paul's teachings with the Old Testament books and teachings available to them, and only when they found Paul's teachings to be true, they believed them. But at the same time, they were never criticized or questioned for doing this testing; on the contrary this was appreciated and they were called 'better' than the other Jews who had believed in Christ.


Today, if someone questions and asks for answers from a religious preacher about his preaching and teachings, then a lot of problems arise; and those who raise questions are condemned and chastised. It is only the Bible that says clearly, openly, and forthrightly, come and check, and believe only when you are satisfied.


Psalm 34:8 - "Oh, taste and see that the Lord is good; Blessed is the man who trusts in Him!" The Bible is the only book that invites not only its own examination, but also to examine the God 'Jehovah', whose Word the Bible is. It is the open teaching of the Bible that anyone can come and taste the goodness of the God of the Bible; there is nothing to feel bad about or object to, for doing so. The Lord Jesus Christ openly challenged his critics, "But because I tell the truth, you do not believe Me. Which of you convicts Me of sin? And if I tell the truth, why do you not believe Me? He who is of God hears God's words; therefore you do not hear, because you are not of God" (John 8:45-47); and no one could prove anything against Him, none came forward to face his challenge, and nobody has, since then to date.


It is found only in Seminaries, the institutions of Bible education, that this type of Bible analysis and testing is an important and integral part of the curriculum; and students are taught methods of critically examining and evaluating everything the Bible says. Also, it is only found in Bible study colleges (Seminaries) that teaching the beliefs of other religions is also offered to those who study the Bible, and students are given detailed information about each religion. The library of these colleges also houses books on all religions, so that students can read for themselves and know where the Bible and other religions and their scriptures stand in comparison.


This practice of examining, evaluating, understanding is exclusive and unique in the Bible and Christianity, because neither the Bible nor Christianity believes in influencing anyone by any deceit or hiding any truth, but everything is open, clear, and available for perusal.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.



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