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गुरुवार, 30 नवंबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 96 – Stewards of Holy Spirit / पवित्र आत्मा के भण्डारी – 25

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पवित्र आत्मा से सीखना – 5

 

  परमेश्वर द्वारा प्रत्येक नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी को, उसके उद्धार पाने के क्षण से ही, परमेश्वर पवित्र आत्मा प्रदान किया गया है, ताकि सर्वदा उस में निवास करे। पवित्र आत्मा, विश्वासी को उसके मसीही जीवन को सही रीति से जीने तथा परमेश्वर द्वारा उसे सौंपी गई सेवकाई का ठीक से निर्वाह करने में उस का सहायक, साथी, शिक्षक, और मार्गदर्शक होने के लिए दिया गया है। इसलिए यह अनिवार्य है कि पवित्र आत्मा का योग्य भण्डारी होने, तथा उसकी सेवाओं का उचित उपयोग करने के लिए प्रत्येक मसीही विश्वासी बाइबल में से पवित्र आत्मा के बारे में सीखे। पवित्र आत्मा के बारे में प्रभु यीशु द्वारा अपने शिष्यों को दी गई मुख्य शिक्षाएँ यूहन्ना रचित सुसमाचार के 14 से 16 अध्याय में मिलती हैं। इन लेखों में हम वहीं से उन्हें सीख रहे हैं; वर्तमान में हम यूहन्ना 14:17 से सीख रहे हैं। विश्वासी में पवित्र आत्मा के विद्यमान होने का प्रमाण वे प्रभाव, वे बदलाव हैं जो पवित्र आत्मा उस के जीवन में लाता है।


पवित्र आत्मा के प्रभावों में से एक है विश्वासी का परमेश्वर के वचन, बाइबल, को सीखना। यद्यपि पवित्र आत्मा विश्वासी में निवास करता है, उसे परमेश्वर के वचन को सिखाना चाहता है, लेकिन इसके लिए विश्वासी में पवित्र आत्मा के प्रति एक अनुशासन, सही इच्छा, पूर्ण आज्ञाकारिता, और प्रतिबद्धता का भी होना आवश्यक है। क्योंकि इस के लिए यत्न से प्रयास करने की आवश्यकता होती है, इसलिए विश्वासी, बजाए पवित्र आत्मा से सीखने के लिए मेहनत करने के, बहुधा सरल तरीका अपना लेते हैं, और मनुष्यों तथा पुस्तकों से सीखने की ओर मुड़ जाते हैं। यह उन्हें गलत शिक्षाओं में पड़ जाने के खतरे में डाल देता है; और शैतान इस अवसर का पूरा लाभ उठाता है, उनके आत्मिक जीवन को नष्ट करने या बाधित करने के लिए उनके जीवनों में कई झूठी शिक्षाएँ और गलत सिद्धान्त ले आता है। इस संदर्भ में हम देख चुके हैं कि तीन मुख्य कारण हैं जो विश्वासी को पवित्र आत्मा से सही रीति से सीखने नहीं देते हैं, और इन में से दो को हम पिछले लेखों में देख चुके हैं। आज से हम तीसरे कारण को देखना आरंभ करेंगे; यह है विश्वासी द्वारा मनुष्यों से प्राप्त की गई उन शिक्षाओं के साथ जिन पर वह भरोसा करता है, पवित्र आत्मा द्वारा दी जाने वाली शिक्षाओं को मिलाना।


इसे बेहतर समझने के लिए, हम एक बार फिर से साँसारिक शिक्षा पाने के उदाहरण का उपयोग करेंगे। यह एक जाना-माना तथ्य और लगभग प्रत्येक माता-पिता का अनुभव है कि जब बच्चे स्कूल जाना आरंभ करते हैं, शीघ्र ही वे अपने शिक्षक पर पूरा भरोसा करने लगते हैं, उसी पर निर्भर हो जाते हैं। बच्चे के लिए, शिक्षक जो भी करता और कहता है, केवल वही सही हो जाता है; और बच्चे सामान्यतः उसे ही एकमात्र और अकाट्य सत्य समझते हैं। शिक्षक ने स्कूल में जो सिखाया और जैसा करवाया है, वे उस से भिन्न कुछ भी सुनने और करने के लिए तैयार नहीं होते हैं, चाहे उनके अपने माता-पिता भी शिक्षक क्यों न हों। बच्चे अपने शिक्षकों को ही मानक मानते हैं, और दृढ़ता के साथ उन्हीं का अनुसरण करना चाहते हैं, चाहे शिक्षक उन्हें कुछ गलत ही क्यों न बता या करवा रहा हो। यही आत्मिक शिक्षा में भी ऐसे ही देखा जाता है। एक नया विश्वासी, यद्यपि परमेश्वर के वचन से उसका परिचय करवाया जाता है, उस से उसे पढ़ने, अध्ययन करने, और सीखने के लिए कहा जाता है, लेकिन वह यह सब उसी तरह से करने की प्रवृत्ति रखता है जैसा वह, जिस कलीसिया में वह जाता है, वहाँ के प्राचीनों, प्रचारकों, और अगुवों, तथा वहाँ के अन्य सदस्यों को करते हुए देखता है। नए विश्वासी की प्रवृत्ति अपनी कलीसिया के अन्य लोगों का अनुसरण करने की ही होती है, विशेषकर उनकी जो लोगों में परमेश्वर के वचन का प्रचार करते हैं, उसकी शिक्षाएँ देते हैं, और साथ ही यह करने के द्वारा वे वहाँ के लोगों को स्वीकार्य भी बने रहना चाहते हैं।


यह केवल आज ही की बात नहीं है, यह आरंभिक कलीसिया में भी देखा जाता था (1 कुरिन्थियों 1:10-13; 3:3-7), और पौलूस को आरंभिक विश्वासियों को प्रभु की बजाए मनुष्यों का अनुसरण करने की प्रवृत्ति से बाहर निकालने के लिए बहुत परिश्रम करना पड़ा। जैसा कि इन हवालों से प्रकट है, प्रभु की बजाए मनुष्यों के पीछे चलने की इस प्रवृत्ति के कारण कलीसिया में डाह, झगड़े, और विभाजन होते हैं; यह विश्वासियों की आत्मिक उन्नति को बाधित करता है,वे अपरिपक्व बच्चों के समान ही रहते हैं; और उन्हें शारीरिक विश्वासी बना देता है। जैसा कि पहले 13 नवंबर के एक लेख में बाइबल के उदाहरणों से दिखाया गया है, कोई भी मनुष्य सिद्ध नहीं है; और सभी, सर्वाधिक भक्त जन भी, गलतियाँ कर सकते हैं, और करते भी हैं। इसलिए प्रत्येक विश्वासी को न केवल प्रेरितों 17:11 तथा 1 थिस्सलुनीकियों 5:21 की शिक्षा का पालन करना चाहिए और किसी भी शिक्षा को स्वीकार और पालन करने से पहले वचन से उसकी पुष्टि कर लेनी चाहिए, चाहे वह शिक्षा देने वाला प्रचारक या शिक्षक कोई भी हो, कितना भी भक्त और ख्याति प्राप्त क्यों न हो; साथ ही प्रत्येक विश्वासी को, यदि वह पवित्र आत्मा से सीखना चाहता है तो, अपने जीवन में केवल बाइबल के अनुसार सही शिक्षाओं को ग्रहण करने और उनका ही पालन करने के लिए भी तैयार रहना चाहिए, अन्यथा वह परमेश्वर का वचन सीखने के लिए हमेशा ही मनुष्यों पर ही निर्भर बना रहेगा, और कभी वचन में उन्नति नहीं करने पाएगा (इब्रानीयों 5:11-14)।


हम अगले लेख में इस से आगे देखेंगे और देखेंगे कि क्यों मनुष्यों से मिलने वाली शिक्षाओं पर भरोसा बनाए रखने और उन्हें थामे ही रहने के कारण परमेश्वर पवित्र आत्मा से सीखना गंभीर रीति से बाधित हो जाता है।

 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation

Learning from the Holy Spirit – 5

 

God the Holy Spirit has been given by God to every Born-Again Christian Believer, to reside in him at all times, from the very time of his salvation. The Holy Spirit has been given to be the Believer’s Helper, Companion, Teacher, and Guide in living his Christian life and fulfilling his God entrusted ministry. Therefore, it is imperative for the Believers, to be worthy stewards of the Holy Spirit, and to well utilizes His services, they learn about the Holy Spirit from the Bible. The Lord Jesus’s main teachings to His disciples about the Holy Spirit are given in John’s gospel, chapters 14 to 16. In these articles we are learning about Him from there; presently we are learning from John 14:17. The presence of the Holy Spirit in the Believer is evidenced by the effects He produces, the changes He brings in the Believer’s life.

 

One of the effects the Holy Spirit produces is the Believer learning God’s Word, the Bible. Although the Holy Spirit residing within the Believer is ready and willing to teach him the Word of God, but, learning from Him also requires a certain discipline, appropriate willingness, complete obedience, and a firm commitment from the Believer. Therefore, the Believers, instead of putting in diligent efforts to learn from the Holy Spirit, often prefer to take a ‘short-cut’, and go after learning from men and books. This makes them prone to receiving and following erroneous teachings; and Satan fully exploits the opportunity to bring in many false teachings and wrong doctrines into their lives to destroy or hamper their spiritual lives. In this context we have seen that there are three main reasons for the Believer not being properly able to learn from the Holy Spirit, and we have seen the first two of them in the previous articles. Today, we will begin with the third reason, i.e., the Believers wanting to mix up the teachings given to them by men, that they have received and rely upon, with the teachings given by the Holy Spirit to them. 


To understand this better, once again we will take help from the example of secular education. It is a well-known fact and the experience of nearly every parent, that when children start going to school, very soon they develop an absolute reliance and trust in their teachers. For the child, whatever the teacher says and does, only that is what is right; and the children often take that as the absolute and only truth. They are unwilling to do anything in any other way than what the teacher has told and taught them in school, even if their own parents are teachers. The children look up to their teachers as standards to emulate, and do this resolutely. The same holds true in spiritual learning as well. A new Believer, though he is introduced to, and asked to read, study, and learn God’s Word, but he tends to do it in the same way as the elders, preachers, and leaders of the Church he attends, do. The new Believer’s natural tendency is to emulate the people in their Church, especially those who preach and teach God’s Word, and also in so doing, to remain acceptable to them. 


This is not a present day phenomenon, it was present even in the first Church (1 Corinthians 1:10-13; 3:3-7), and Paul strived to get the early Believers out of this tendency of following men rather than the Lord. As is apparent from these references, this tendency to follow men rather than the Lord and His Word, gives rise to envy, strife, and divisions within the Church; prevents the spiritual growth of the Believers, leaving them as immature children; and makes them carnal Christians. We always need to keep in mind, as has been shown through Biblical examples in an earlier article of 13th November, that no man is perfect; and everyone, even the most godly, can, and do make mistakes. Therefore, every Believer not only needs to follow the teaching of Acts 17:11 and 1 Thessalonians 5:21, and first verify from God’s Word before accepting any teaching from anyone, no matter how godly and reputed the preacher or teacher may be; but the Believers should also be willing and ready to accept and apply Biblically based corrections to their lives, if they desire to learn from the Holy Spirit; else they will remain dependent upon men to learn God’s Word, and never really grow up in it (Hebrews 5:11-14).


We will carry on from here in the next article, and see further why reliance or insistence on adhering to man’s teachings will seriously hamper learning from God the Holy Spirit.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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