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सुसमाचार से संबंधित शिक्षाएँ – 13
पिछले लेखों में हमने देखा है कि सुसमाचार से सम्बन्धित शिक्षाओं का एक अभिन्न अंग पश्चाताप या मन-फिराव से सम्बन्धित शिक्षाएँ हैं; और व्यक्ति के जीवन में सच्चा पश्चाताप बदले हुए जीवन के द्वारा प्रमाणित होता है – साँसारिक जीवन से आत्मिक और भक्ति के जीवन की ओर, ऐसे जीवन की ओर बदलाव जो परमेश्वर को महिमा देता है। उनके लिए, जिन्होंने वास्तव में अपने पापों से पश्चाताप किया है और सच में अपने आप को प्रभु को समर्पित किया है कि उसकी और उसके वचन की आज्ञाकारिता में जीवन जीएँ, अर्थात वास्तव में नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासियों के लिए, परमेश्वर ने कम से कम तीन तरह की आशीषें और प्रतिफल रख छोड़े हैं। ये हैं, पहली, परमेश्वर उनके साथ उनके प्रेमी पिता के समान रहता है; दूसरी, परमेश्वर, अपने वचन के द्वारा उनकी सहायता करता है कि वे सम्पूर्ण और परिपक्व बनें, मसीह के डील-डौल तक बढ़ें, और ऐसे लोग हो जाएँ जो मनुष्यों की चालाकियों और झूठी शिक्षाओं के द्वारा भरमाए, भटकाए न जाएँ – इन दोनों को हम देख चुके हैं। तीसरी आशीष और प्रतिफल है कि परमेश्वर उन्हें अपने पुत्र, प्रभु यीशु मसीह की समानता में परिवर्तित करता है। इसके बारे में हम आज कुछ बातों को देखेंगे।
हम उत्पत्ति 1:26-27 से देखते हैं कि परमेश्वर ने मनुष्य को अपने ही स्वरूप में सृजा है। फिर, पवित्र शास्त्र विभिन्न स्थानों पर दिखाता है कि परमेश्वर ने सब कुछ परमेश्वर पुत्र के द्वारा और पुत्र के लिए रचा है (यूहन्ना 1:3; रोमियों 11:36; कुलुस्सियों 1:16); और अन्ततः, सब कुछ, वह चाहे स्वर्ग में हो अथवा पृथ्वी पर, वह प्रभु यीशु में एकत्र हो जाएगा (इफिसियों 1:10)। पहले पाप, अर्थात परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता (रोमियों 1:19), ने मनुष्यों के साथ सृष्टि की भी आत्मिक दशा और सुन्दरता को बिगाड़ दिया। उसी समय से सारी सृष्टि पाप के प्रभाव से छुड़ाए जाने और अपनी पूर्व निष्पाप दशा में बहाल किये जाने की प्रतीक्षा कर रही है (रोमियों 8:19-21)। लेकिन जिन्होंने अपने पापों से पश्चाताप किया है, सुसमाचार में विश्वास किया है, अर्थात नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासियों के लिए, उनके मसीह में विश्वास में आने और उद्धार पाने के पल से ही वे परमेश्वर की सन्तान बन जाते हैं (यूहन्ना 1:12-13), उसी पल से उनकी बहाली भी आरम्भ हो जाती है। वे अपने सृष्टिकर्ता के स्वरूप के अनुसार नए होने लग जाते हैं (कुलुस्सियों 3:10), जिस से कि वे मसीह के साथ संगी वारिस बन जाएँ (रोमियों 8:16-17)। ऐसा होने के लिए दो महत्वपूर्ण बातें होना आवश्यक है; पहली, जैसा कि रोमियों 8:17 में लिखा है “और यदि सन्तान हैं, तो वारिस भी, वरन परमेश्वर के वारिस और मसीह के संगी वारिस हैं, जब कि हम उसके साथ दुख उठाएं कि उसके साथ महिमा भी पाएं” मसीह के साथ संगी वारिस बनने के लिए, विश्वासियों को मसीह के साथ दुःख भी उठाना होगा, ताकि वे उसके साथ महिमा पा सकें। जैसा मसीह के लिए था (फिलिप्पियों 2:5-10), उसी तरह से विश्वासियों के लिए भी महिमा पाने का मार्ग दुःख उठाने के मार्ग से होकर जाता है (फिलिप्पियों 1:29; 2 तीमुथियुस 3:12)। दूसरी बात, यद्यपि मसीही विश्वासियों में निवास करने वाला पवित्र आत्मा, इस प्रक्रिया में से होकर निकलने के लिए उनकी सहायता और मार्गदर्शन करता है; किन्तु प्रभावी होने के लिए, पवित्र आत्मा के अधीनता में होकर विश्वासी का सक्रिय होकर कार्य करना भी अनिवार्य है; अर्थात उसे पवित्र आत्मा के निर्देशों के अनुसार करते चले जाना है (रोमियों 8:9, 13,14)।
पवित्र आत्मा, अंश-अंश कर के विश्वासियों को प्रभु के रूप में परिवर्तित करता जाता है (2 कुरिन्थियों 3:18)। जैसा कि हमने ऊपर देखा है, परिवर्तन की यह प्रक्रिया उद्धार पाने के पल से ही आरम्भ हो जाती है, लेकिन इसकी प्रगति इस में विश्वासी के सक्रिय भाग लेने पर निर्भर होती है। यदि वह प्रभु के समान दुःख उठाने के लिए तैयार नहीं है, और पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन एवं निर्देशों का पालन नहीं करता है, तो उसकी प्रगति भी उसी अनुपात में धीमी और देर से होने वाली होगी। अधिकाँश विश्वासियों की, दुःख उठाने की बात सुनकर स्वाभाविक प्रतिक्रिया होती है पीछे हट जाना, या आगे बढ़ने में संकोच करना, क्योंकि उन में उसके लिए बहुत भय होता है, और वे अपने जीवनों में उसके महत्व और आवश्यकता को जानते नहीं हैं – कि यह उनके परिपक्व होने की प्रक्रिया का एक भाग है। परमेश्वर ने कोई असीम, अनियंत्रित, असंयत, अव्यवस्थित दुःख अपने बच्चों के लिए नहीं रखे हैं। जैसा कि हम अय्यूब के उदाहरण से देखते हैं, शैतान परमेश्वर के बच्चों को केवल परमेश्वर द्वारा निर्धारित सीमा के अन्दर ही छू सकता है (अय्यूब 1:9-12; 2:6)। हमारा सृष्टिकर्ता होने के नाते, परमेश्वर जानता है कि हम कितना सह सकते हैं, और कभी भी उस सीमा तक भी हमें परीक्षा में नहीं पड़ने देता है, वरन उसके साथ ही निकासी का मार्ग भी देता है (1 कुरिन्थियों 10:13)। दुःख उठाने के द्वारा विश्वासी पाप से छूट जाते हैं (1 पतरस 4:1-12), और दुःख उठाना इस बात का प्रमाण है कि हम परमेश्वर के साथ और उसकी गवाही के लिए सही मार्ग पर अग्रसर हैं (1 पतरस 4:12-19), और ये क्लेश एक बहुत बड़ा अनन्तकालीन प्रतिफल भी तैयार कर रहे हैं (2 कुरिन्थियों 4:16-18)। जो लोग परमेश्वर से प्रेम करते हैं, उसके आज्ञाकारी रहते हैं, उनके लिए परमेश्वर सभी बातों में से कुछ भला ही उत्पन्न कर देता है (रोमियों 8:28; यिर्मयाह 29:11)। इसलिए मसीही विश्वासियों को अपने प्रभु और अपने विश्वास के लिए दुःख उठाने से न तो डरना चाहिए और न ही पीछे हटना चाहिए, वरन उन्हें प्रभु की समानता में ढलने के एक अवसर के समान स्वीकार करना चाहिए, जहाँ, दुःख उठाने के द्वारा परमेश्वर विश्वासी जन के अनावश्यक और व्यर्थ भागों को काटता और छाँटता है (यूहन्ना 15:2), और उसे उसके उद्धारकर्ता प्रभु की समानता में परिवर्तित करता है।
बहुधा मसीही विश्वासियों की, उनके विश्वास के लिए, सँसार के लोगों के द्वारा उनमें तथा अन्य मसीही विश्वासियों में विद्यमान गलतियों और अपूर्णताओं को दिखाते हुए, आलोचना की जाती है, उन्हें ठट्ठों में उड़ाया जाता है। यह पद, 2 कुरिन्थियों 3:18, इस आलोचना का भी एक उत्तर उपलब्ध करवाता है। जैसा इसमें स्पष्ट लिखा है, प्रभु के रूप में होने वाला परिवर्तन, पवित्र आत्मा के द्वारा अंश-अंश करके किया जाता है, अर्थात, उद्धार पाने के समय पर यह प्रक्रिया पूरी नहीं हुई, केवल आरम्भ हुई है। साथ ही यह एक निरन्तर ज़ारी रहने वाली प्रक्रिया है “बदलते जाते हैं;” और विश्वासी के जीवन भर यह प्रक्रिया ज़ारी रहेगी – कमियाँ और अपूर्णताओं की धीरे-धीरे छँटाई होती चली जाएगी, और सिद्धता बढ़ती और प्रकट होती चली जाएगी। इसलिए, किसी भी समय पर, प्रत्येक विश्वासी के जीवन में, कमियों, गलतियों और सिद्धताओं का, साँसारिक और आत्मिक बातों का, एक मिश्रण पाया जाएगा। बाइबल में यह कहीं नहीं लिखा है कि नया-जन्म पाते ही विश्वासी पूर्णतः सिद्ध हो जाता है। प्रत्येक मसीही विश्वासी का एक आत्मिक ‘शिशु’ के समान नया-जन्म होता है, और फिर वह धीरे-धीरे आत्मिक रीति से परिपक्व वयस्क, और परमेश्वर के लिए उपयोगी जन बनता। बाइबल में उल्लेखित परमेश्वर के लोगों में से कोई भी, कभी भी, सिद्ध नहीं था; किन्तु उनकी गलतियों और आत्मिक कमियों के बावजूद परमेश्वर ने उन्हें उपयोग किया, उनकी प्रशन्सा की, अपने वचन में उन्हें ऊंचे पर उठाया, सिर्फ इसलिए क्योंकि वे हर परिस्थिति में परमेश्वर के लिए उपलब्ध, उसके आज्ञाकारी, और उसके प्रति प्रतिबद्ध, उसके लिए दुःख उठाने के लिए तैयार, बने रहे।
अगले लेख में हम पश्चाताप से सम्बन्धित शिक्षाओं से हटकर सुसमाचार पर विश्वास करने से सम्बन्धित शिक्षाओं के बारे में सीखना आरम्भ करेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Teachings Related to the Gospel – 13
In the previous articles we have seen that an integral part of Biblical teachings related to the gospel, are teachings about repentance; and true repentance in a person’s life is evidenced through a changed life – turning from a worldly and sinful life to a godly and spiritual life, one that glorifies God. For those who have sincerely repented of their sins and really have fully submitted themselves to the Lord to live in obedience to Him and His Word, i.e., for the truly Born-Again Christian Believers, God has prepared and kept at least three blessings and rewards. These are, firstly, God living with them as a loving Father; secondly, God helping them to become complete and mature through His Word, to grow up to the stature of Christ and become people who will not be deceived by the trickeries of and false teachings of men – these two we have considered. The third blessing and reward is God transforming them into the likeness of His Son, the Lord Jesus Christ. We will consider some things about this today.
We see from Genesis 1:26-27, that God had created man in His own image. Then, various other Scriptures show that God created everything through and for God the Son (John 1:3; Romans 11:36; Colossians 1:16); and eventually all things, in heaven or on earth, will be gathered together in the Lord Jesus (Ephesians 1:10). The first sin, disobedience of God’s command (Romans 1:19), marred the spiritual state and the beauty of the creation, including that of mankind. Since then, the whole creation is awaiting the deliverance from the effects of sin; to be restored to its original sinless state (Romans 8:19-21). But for those who have repented of their sins, believed in the gospel, i.e., the Born-Again Christian Believers, from the moment of their salvation by coming to faith in the Lord Jesus, they become the children of God (John 1:12-13). From that moment onwards, their restoration, their being renewed according to the image of their creator (Colossians 3:10) begins, so that they become joint heirs with Christ (Romans 8:16-17), into whose image they are being conformed (Romans 8:29). There are two important pre-conditions for this; firstly, as it says in Romans 8:17 “and if children, then heirs--heirs of God and joint heirs with Christ, if indeed we suffer with Him, that we may also be glorified together” a very important part of becoming joint heirs with Christ, is that the Believers will have to suffer with Christ, so that they are also glorified with Him. As it was for Christ (Philippians 2:5-10), for the Believers too, the path to being glorified is through sufferings (Philippians 1:29; 2 Timothy 3:12). Secondly, although the Holy Spirit residing in the Believers helps and guides them in this process; but for it to be effective, an active participation of the Believer under the guidance of the Holy Spirit must be present; he must live and do according to the promptings of the Holy Spirit (Romans 8:9, 13, 14).
The Holy Spirit, bit by bit, changes the Believers into the image of the Lord (2 Corinthians 3:18). As we have seen above, this process of transformation begins from the moment of salvation, but its progress depends upon the active participation of the Believer. If he is not willing to go through the sufferings like the Lord Jesus did, and is not obedient to the guidance of the Holy Spirit, then his progress in the transformation will be proportionately slowed down and delayed. Most Believers, reflexly, draw back or, hesitate in moving ahead, at the mention of sufferings, because they have an excessive fear of it, and neither do they know about its importance and necessity in their lives – it is a part of their maturation process. God has not ordained an unlimited, uncontrolled, unmoderated, random sufferings for His children. As we see from the example of Job, Satan can touch the children of God only to the extent that God permits (Job 1:9-12; 2:6). As our creator, our Lord God knows how much we can bear, and will never allow anything even up to that limit, let alone beyond it; and along with the temptations, will also provide a way out (1 Corinthians 10:13). Through sufferings the Believers cease from sin (1 Peter 4:1-2), sufferings confirm being on the right path with God and witness about God (1 Peter 4:12-19), and the sufferings work a great eternal reward for them (2 Corinthians 4:16-18). For those who love God, are obedient to Him, God works out something good for them through everything (Romans 8:28; Jeremiah 29:11). Therefore, the Christian Believers should not fear and draw back from suffering for their Lord and faith in Him, but take it as an opportunity to be conformed to His image, where, through the suffering God prunes and trims away the unnecessary and vain portions of the Believer (John 15:2) and transforms him into the likeness of his savior Lord.
Often, the Christian Believers are criticized and mocked for their faith by the people of the world, who point out imperfections and errors in their lives, as well as the lives of other Believers. The verse, 2 Corinthians 3:18, also provides an answer to such criticism. As is clearly stated, the transformation into the image of the Lord is happening bit by bit through the Holy Spirit; i.e., at the moment of their coming to faith and salvation this process of transformation has only been initiated, it has not been completed. Moreover, it is an on-going, continual process, the Believers are “being transformed;” and will continue throughout the life-span of the Believer – imperfections will gradually be trimmed off, and perfections will continually keep manifesting. Therefore, at any given moment of time, at every stage of life, in every Believer, there will be both, perfections as well as imperfections, worldly as well as spiritual things. Nowhere does the Bible say that the Believer becomes perfect from the moment of being Born-Again. Every Christian Believer is Born-Again as a spiritual ‘babe,’ and gradually matures into spiritually grown-up ‘adult’ useful and effective for the Lord. None of the people of God in the Bible were ever perfect; but God used them, praised them, exalted them in His eternal Word, despite their spiritual faults and errors, simply because in all circumstances they remained available to Him, obedient and committed to Him, willing to suffer for Him.
In the next article from the teachings about repentance, we will move on to learning some teachings about believing in the gospel.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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