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शुक्रवार, 22 मार्च 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 17


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सुसमाचार से संबंधित शिक्षाएँ – 14

 

    हमने इस श्रृंखला के आरम्भ में देखा था कि मसीही विश्वासियों और कलीसिया की उन्नति एवं बढ़ोतरी के लिए, उन्हें सम्पूर्ण बाइबल और उसकी शिक्षाओं को अच्छे से जानना चाहिए। बाइबल की जिन शिक्षाओं को जानना और सीखना चाहिए, उनमें से तीन प्रकार की शिक्षाएँ – सुसमाचार से सम्बन्धित, आरंभिक बातों के बारे में, और व्यवहारिक मसीही जीवन जीने से सम्बन्धित शिक्षाएँ आधारभूत और अनिवार्य हैं। इन तीन में से हमने सुसमाचार से सम्बन्धित शिक्षाओं के बारे में सीखना आरम्भ किया है; और हमने मरकुस 1:14-15 से देखा है कि सुसमाचार से सम्बन्धित शिक्षाओं के दो मुख्य भाग हैं मन-फिराव या पश्चाताप, तथा सुसमाचार पर विश्वास करना। हाल ही के लेखों में हम मन-फिराव या पश्चाताप से सम्बन्धित शिक्षाओं के विभिन्न पक्षों के बारे में देख रहे थे; आज से हम सुसमाचार पर विश्वास करने से सम्बन्धित कुछ बातों के बारे में विचार करना आरम्भ करेंगे।

    सुसमाचार से सम्बन्धित शिक्षाओं की इस श्रृंखला के आरम्भ में, हमने देखा था कि शब्द “सुसमाचार” का शब्दार्थ है “भला या अच्छा समाचार;” और पहले तीन सुसमाचार वृतांतों में इस शब्द के प्रथम उपयोग से हमने निष्कर्ष निकाला था कि सुसमाचार परमेश्वर के राज्य के बारे में है, जिसे परमेश्वर के पुत्र प्रभु यीशु के जीवन और सेवकाई के द्वारा सारी मानवजाति के साथ-साथ कंगालों और तुच्‍छों को भी उपलब्ध करवाया गया है। सुसमाचार का प्रचार करना, परमेश्वर के राज्य के भले समाचार को बताना है (मत्ती 9:35; 24:14; मरकुस 13:10; लूका 9:6)। इन तीनों हवालों से, तथा सुसमाचार शब्द से सम्बन्धित सुसमाचार के वृतांतों में से अन्य हवालों में ध्यान कीजिए कि शब्द “सुसमाचार” प्रभु द्वारा परमेश्वर के राज्य के सन्दर्भ में उपयोग किया गया है, उसकी अपनी पृथ्वी की सेवकाई की बातों में भी तथा उसके शिष्यों की सेवकाई में भी। सुसमाचार के वृतांतों में शब्द “सुसमाचार,” लगभग सभी स्थानों पर, प्रभु यीशु के क्रूस पर चढ़ाए जाने, मारे जाने, गाड़े जाने, और पुनरुत्थान से पहले, अर्थात, सँसार के पापों के प्रायश्चित के लिए उनके द्वारा दिए गए अपने बलिदान से पहले ही उपयोग किया गया है। इसलिए, उस सन्दर्भ में, जितनों ने भी प्रभु और उसके शिष्यों से प्रभु की मृत्यु और पुनरुत्थान से पूर्व, इस अभिव्यक्ति को सुना होगा, तो वे इसे प्रभु के बलिदान और उसमें विश्वास द्वारा मिलने वाले उद्धार के सन्दर्भ में, जैसा कि हम आज उसे समझते हैं, नहीं समझने और स्वीकार करने पाए होंगे; क्योंकि तब तक यह बात हुई ही नहीं थी। उनके लिए तो इस का बस यही अर्थ रहा होगा कि परमेश्वर के राज्य के आगमन की उनकी लम्बे समय से चली आ रही प्रतीक्षा अब समाप्त हुई है। परमेश्वर का वचन हमें दिखाता है कि प्रभु यीशु की पृथ्वी की सेवकाई के समय में लोग प्रतिज्ञा किये हुए मसीहा की, छुड़ाने वाले की, जो आ कर उन्हें बन्धुआई से स्वतन्त्र करेगा, के आगमन की प्रत्याशा में जी रहे थे। लेकिन बहुतेरों के लिए बन्धुआई से मुक्ति का अर्थ उन पर वर्तमान रोमी शासन से मुक्ति मिलना भर ही था।

    पुराने नियम में, इस छुड़ाने वाले तथा उस के द्वारा उन्हें मिलने वाले छुटकारे के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई है। इसलिए प्रभु यीशु मसीह की पृथ्वी की सेवकाई के दिनों में, लोगों में यह तीव्र प्रत्याशा थी कि उन भविष्यवाणियों के पूरा होने का समय आ गया है; मुक्तिदाता का जन्म और उसका प्रकट होना कभी भी हो सकता है, और वे सभी उस की प्रतीक्षा कर रहे थे। यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले ने भी अपनी सेवकाई ऐसी ही प्रत्याशा के साथ आरम्भ की थी, और जब प्रभु उसके पास आया, तो यूहन्ना ने उसे पहचान भी लिया, “दूसरे दिन उसने यीशु को अपनी ओर आते देखकर कहा, देखो, यह परमेश्वर का मेम्ना है, जो जगत के पाप उठा ले जाता है” (यूहन्ना 1:29)। यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के शिष्य अन्द्रियास ने, यूहन्ना के कहने पर प्रभु यीशु को मसीह स्वीकार कर लिया, “उसने पहिले अपने सगे भाई शमौन से मिलकर उस से कहा, कि हम को ख्रिस्तुस अर्थात मसीह मिल गया” (यूहन्ना 1:41)। सामान्य लोगों में भी यही प्रत्याशा थी, जैसा कि सामरी स्त्री ने प्रभु यीशु से कहा, “स्त्री ने उस से कहा, मैं जानती हूं कि मसीह जो ख्रीस्‍तुस कहलाता है, आने वाला है; जब वह आएगा, तो हमें सब बातें बता देगा। आओ, एक मनुष्य को देखो, जिसने सब कुछ जो मैं ने किया मुझे बता दिया: कहीं यही तो मसीह नहीं है?” (यूहन्ना 4:25, 29)। प्रभु यीशु की मृत्यु और पुनरुत्थान के बाद भी, उसके स्वर्ग पर उठाए जाने से ठीक पहले तक भी, जबकि वह चालीस दिन तक अपने शिष्यों को उनकी आने वाली सारे जगत में जाकर सुसमाचार प्रचार करने की सेवकाई के लिए तैयार चुका था, लेकिन फिर भी वे शिष्य अभी भी पृथ्वी पर ही राज्य स्थापित किये जाने और यहूदियों को सौंप दिए जाने के दृष्टिकोण से ही विचार कर रहे थे (प्रेरितों 1:6)। इस प्रकार से, उस समय के लोगों के लिए, शब्द “सुसमाचार” का तात्पर्य मुख्यतः पृथ्वी पर ही परमेश्वर के राज्य के स्थापित किये जाने और उसका संचालन यहूदियों को सौंप दिए जाने से ही सम्बन्धित था।

    हम अगले लेख में कुछ और सम्बन्धित बातों को देखेंगे, और यह भी कि शब्द “सुसमाचार” किस प्रकार से स्वर्गीय राज्य, पापों से छुड़ाए जाने, और उद्धार से सम्बन्धित है।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


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English Translation


Teachings Related to the Gospel – 14

 

    We had seen at the beginning of this series that for the growth and edification of the Christian Believers and the Church, they must be well versed in the whole of the Bible and its teachings. Of the various Biblical teachings that the Believers need to learn and know, three kinds of teachings – about the gospel, about the fundamental principles, and about Christian living, are fundamentally essential. Of these three, we have started to learn about the teachings related to the gospel; and had seen from Mark 1:14-15 that repentance and believing in the gospel are two key components of the teachings related to the gospel. In the recent articles we had been considering various aspects related to repentance; today we will begin considering some aspects about believing in the gospel.

    At the beginning of this series on teachings related to the gospel, we had seen that the word “gospel” literally means “good news;” and from the first use of the word “gospel” in the first three Gospels we had surmised that it is about the Kingdom of God, made available by God to all of mankind, including even the poor and lowly, through the life and ministry of His son the Lord Jesus Christ. To preach the gospel, is to preach the good news of the Kingdom of God (Matthew 9:35; 24:14; Mark 13:10; Luke 9:6). Notice in all of these, and other references in the gospel accounts, the word “gospel” has been used by the Lord in relation to the Kingdom of God, during His earthly ministry, as well as the ministry of His disciples. In the Gospel accounts, in nearly all the places, the word “gospel” has been used before the crucifixion, death, burial, and resurrection of the Lord Jesus, i.e., before His atoning sacrifice for the sins of the world. Hence, in that context, all who heard this expression from the Lord and the disciples, during their ministry before the death and resurrection of the Lord, would not have related it to the Lord’s sacrifice and salvation through believing in it, as we relate it today, since this had not happened at that time. To them, it would have simply conveyed the sense that their long wait for the arrival of the Kingdom of God was over. The Word of God shows us that the people at the time of the Lord Jesus’s earthly ministry were living in anticipation of the promised Messiah, the deliverer who would come and release them from bondage. But for many, this deliverance from bondage meant deliverance from the rule of the Roman empire over them.

    In the Old Testament, detailed information is given about the deliverer, the savior, and about the deliverance through him. Therefore, during the days of the Lord Jesus’s earthly ministry, the people already had a strong anticipation that the time of fulfillment of these prophecies was complete; the savior was about to be born and revealed, and they were all waiting for Him. John the Baptist too, began his ministry with a similar anticipation, and recognized Him when He came to him “The next day John saw Jesus coming toward him, and said, "Behold! The Lamb of God who takes away the sin of the world!” (John 1:29). Andrew, the disciple of John the Baptist, on hearing this from John accepted Christ Jesus, also called his brother, Simon Peter to meet the Lord “He first found his own brother Simon, and said to him, "We have found the Messiah" (which is translated, the Christ)” (John 1:41). Even the general public had a similar anticipation about Him, as the Samaritan woman at the well said to the Lord Jesus “The woman said to Him, "I know that Messiah is coming" (who is called Christ). "When He comes, He will tell us all things. Come, see a Man who told me all things that I ever did. Could this be the Christ?"” (John 4:25, 29). Even after the death and resurrection of the Lord, and just before His ascension, and having prepared the disciples for forty days for their coming world-wide ministry of preaching the gospel of salvation, the disciples were still thinking in terms of an earthly kingdom that would be established and handed back to the Jews (Acts 1:6). So, to the people at that time, the word “gospel” essentially signified the establishment of God’s Kingdom on earth, with the charge of the Kingdom being given to the Jews.

    We will see more in the next article, and how the term “gospel” relates to the heavenly kingdom, deliverance from sins, and salvation.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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