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आरम्भिक बातें – 104
परमेश्वर की क्षमा और न्याय – 10
क्षमा किए और भुलाए गए पापों का स्मरण – 2
पिछले लेख में, “अन्तिम न्याय,” जो इब्रानियों 6:1-2 में दी गई छठी आरम्भिक बात है, के बारे में सीखते हुए, हमने परमेश्वर के वचन बाइबल में से देखा है कि विश्वासी के बारे में सभी कुछ स्वर्ग में लिखा जा रहा है। पाप, जिन्हें परमेश्वर ने क्षमा करके भुला दिया है, वे भी स्वर्ग की पुस्तकों में लिखे हुए हैं। न्याय के समय, प्रत्येक विश्वासी को उसके सही और उपयुक्त प्रतिफल देने के लिए, प्रत्येक बात खोलकर प्रकट की जाएगी, और प्रभु यीशु के द्वारा धार्मिकता से उसका न्याय होगा। यह हमें, दो प्रश्नों के रूप में, परमेश्वर द्वारा पापों को क्षमा करने और भुला देने के एक और पक्ष पर ले कर आता है। प्रश्न ये हैं कि यदि अन्ततः हर बात को प्रकट करना ही था, तो परमेश्वर यह स्पष्ट भी तो कह सकता था कि यद्यपि उसने पाप क्षमा तो कर दिए हैं, लेकिन न्याय के समय, वह उनका हिसाब अवश्य लेगा; उसने अपनी यह मनसा छिपा कर क्यों रखी? दूसरा, परमेश्वर ने यह आश्वासन क्यों दिया कि वह पाप क्षमा करके उन्हें भुला देता है; अब परमेश्वर द्वारा पाप भुलाए जाने की क्या आवश्यकता रह गई? आज से हम इन प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास करेंगे।
जैसा कि पाठकों को एहसास हुआ होगा, जब वे इन लेखों पर मनन करते हैं, तो यहाँ पर कही गई हर बात केवल बाइबल के पदों और खण्डों के आधार पर ही है। यहाँ इन लेखों में ऐसा कुछ भी नहीं है जो किसी भी डिनॉमिनेशन या मत की मान्यताओं या शिक्षाओं के अनुसार हो; और न ही यह किसी भी व्यक्ति द्वारा दी गई शिक्षाओं पर आधारित है, न ही बाइबल की किसी कॉममेंटरी पर या बाइबल अध्ययन की किसी सहायक पुस्तकों से है जो सामान्यतः धर्म-विज्ञान की शिक्षा प्राप्त करने वाले उपयोग करते हैं। यहाँ पर जो कुछ भी लिखा गया है, वह प्रभु परमेश्वर की पवित्र आत्मा के द्वारा सिखाई गई बातें हैं, जैसी कि प्रभु ने यूहन्ना 14:26 तथा 1 कुरिन्थियों 2:11-14 में प्रतिज्ञा दी है। मसीही या ईसाई सामान्यतः जो समझते और मानते हैं, तथा वह जो यहाँ लिखा जाता है, उसमें इतनी अधिक भिन्नता इसलिए है, क्योंकि वे मसीही या ईसाई मनुष्यों द्वारा दी जाने वाली शिक्षाओं पर निर्भर रहते हैं, बजाए उसके जैसा कि परमेश्वर चाहता है, कि उसके लोग सीधे उसी से सीखें, शर्त यह है कि लोगों को परमेश्वर के साथ समय बिताने के लिए तैयार होना चाहिए। अपने न्याय के बारे में परमेश्वर ने कुछ भी छिपा कर नहीं रखा है, सभी बातें उसके वचन में सबके लिए खुली और स्पष्ट हैं, अगर लोग परमेश्वर के वचन को परमेश्वर पवित्र आत्मा की अगुवाई में, जो प्रत्येक मसीही विश्वासी को दिया गया है, सीखने के लिए तैयार हों, तो। यदि वे पवित्र आत्मा के आज्ञाकारी रहेंगे, और जैसा वह उन्हें सिखाना चाहता है वैसे सीखना चाहेंगे तो वह उन्हें सिखाएगा। यदि वे परमेश्वर के वचन के अर्थ, सही व्याख्या, और प्रति दिन के जीवन में वचन को लागू करने के बारे में उस से माँगेंगे, तो वह यह क्यों नहीं करेगा? लेकिन इसके लिए एक अनुशासन तथा प्रतिबद्धता की आवश्यकता होती है; अपने जीवनों में परमेश्वर और उसके वचन को उनका उचित, सर्वोच्च प्राथमिकता का स्थान देने की आवश्यकता होती है, न कि जैसा अधिकांशतः किया जाता है, केवल एक औपचारिकता पूरी करने के लिए वचन का कोई अंश पढ़ या सुन भर लेना।
परमेश्वर के वचन से उसके सत्यों को न सीख पाने का मूल कारण है मसीहियों में परमेश्वर के वचन बाइबल के प्रति उदासीनता। जो बाइबल पढ़ते भी हैं, उनमें से अधिकाँश कहीं से भी निकालकर एक छोटे से भाग को औपचारिकता पूरी करने के लिए पढ़ लेते हैं, और सोचते हैं कि उन्होंने अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर ली है; जबकि अधिकाँश ईसाई या मसीही तो इतना भी नहीं करते हैं। इसकी बजाए, अधिकाँश ईसाई या मसीही केवल उसी पर निर्भर रहते हैं जो उन्हें कोई मनुष्य या पादरी बता या सिखा देता है जिस पर वे अँध-विश्वास कर लेते हैं, और यह भी सप्ताह में केवल एक बार, इतवार के दिन होता है। लेकिन फिर भी लगभग सभी यह दावा करते हैं कि वे परमेश्वर से प्रेम करते हैं, प्रभु यीशु में विश्वास करते हैं, और इस जीवन में तथा पृथ्वी के बाद के जीवन में वे परमेश्वर की आशीष और देखभाल चाहते हैं। यदि उन से पूछा जाए कि उनके द्वारा परमेश्वर से प्रेम करने और प्रभु यीशु में विश्वास करने के क्या संकेत अथवा प्रमाण हैं, तो अधिकतर लोग उनके द्वारा प्रभु के नाम में किए जाने वाले भले कामों, कलीसिया और उसके कार्यों में सम्मिलित रहने, और कुछ लोग परमेश्वर के वचन से प्रचार करने या सिखाने, तथा प्रभु यीशु के बारे में गवाही देने आदि बातों को प्रमाण के समान बताएंगे।
जो लोग इस गलतफहमी में हैं कि उपरोक्त बातों के कारण वे परमेश्वर से प्रेम करने और उसके लिए कार्य करने वाले स्वीकार किए जाने चाहिएँ, उनके लिए परमेश्वर के वचन में कुछ शिक्षाएँ हैं जिन पर उन्हें गम्भीरता से विचार करना चाहिए। जो यह मानते हैं कि उनके द्वारा प्रभु के नाम में किए जाने वाले भले काम प्रमाण हैं कि वे परमेश्वर से प्रेम करते हैं, उनको प्रभु यीशु द्वारा मत्ती 7:21-23 में कही बात पर विचार करना चाहिए। अधिकाँश ईसाई या विश्वासी बस यह मान लेते हैं कि यदि वे प्रभु के नाम में भले और बाइबल से संगत काम करेंगे, तो यह परमेश्वर को प्रसन्न करेगा और उसे स्वीकार होगा। किन्तु मत्ती 7:21-23 यह स्पष्ट कर देता है कि जब तक कि ये भले और बाइबल से संगत काम परमेश्वर के निर्देश के अनुसार न किए जाएँ, तो वे परमेश्वर को स्वीकार्य नहीं हैं, उनके लिए कोई प्रतिफल नहीं है, बल्कि परमेश्वर उनका तिरस्कार कर के, उनके लिए श्राप देता है। जो यह सोचते हैं कि उनके द्वारा प्रचार करना और परमेश्वर का वचन बाँटना इस बात का प्रमाण है कि वे परमेश्वर से प्रेम करते हैं और प्रभु के लिए काम करते हैं, उन्हें स्मरण रखना चाहिए कि शैतान बाइबल के बारे में हम में से किसी से भी अधिक जानकारी रखता है, उसने तो परमेश्वर के वचन का प्रभु यीशु के सामने ही दुरुपयोग करना चाहा (मत्ती 4:1-11)। साथ ही शैतान के दूत झूठे प्रेरित, धार्मिकता के कार्य करने वाले, और धर्म के सेवक बनकर काम करते हैं, लोगों को बहकाते और भरमाते हैं (2 कुरिन्थियों 11:3, 13-15)। हम यह भी देखे हैं कि दुष्टात्माएं भी परमेश्वर के भवन में आ जाती हैं (लूका 4:33), और प्रभु यीशु के बारे में गवाही देती हैं (मरकुस 5:7; लूका 4:41; 8:28; प्रेरितों 16:17; याकूब 2:19), लेकिन उन्हें यह करने नहीं दिया गया। इसलिए परमेश्वर के वचन को बाँटना और प्रचार करना, तथा प्रभु यीशु की गवाही देना, परमेश्वर से प्रेम करने के कोई निश्चित प्रमाण नहीं हैं।
प्रभु यीशु तथा परमेश्वर से प्रेम करने का केवल एक ही निश्चित प्रमाण है, और यह प्रमाण स्वयं प्रभु यीशु ने कहा है, और इसके अतिरिक्त बाइबल में कहीं भी कोई और प्रमाण नहीं दिया गया है। और यह प्रमाण है परमेश्वर के वचन से प्रेम करना और उसका पालन करना “जिस के पास मेरी आज्ञा है, और वह उन्हें मानता है, वही मुझ से प्रेम रखता है, और जो मुझ से प्रेम रखता है, उस से मेरा पिता प्रेम रखेगा, और मैं उस से प्रेम रखूंगा, और अपने आप को उस पर प्रगट करूंगा। यीशु ने उसको उत्तर दिया, यदि कोई मुझ से प्रेम रखे, तो वह मेरे वचन को मानेगा, और मेरा पिता उस से प्रेम रखेगा, और हम उसके पास आएंगे, और उसके साथ वास करेंगे” (यूहन्ना 14:21, 23)। इसलिए जो यह दावा करते हैं कि वे परमेश्वर से प्रेम करते हैं, और यह मानते हैं कि वे उसके लिए कार्य कर रहे हैं, उन्हें अपने आप को गम्भीरता से जाँच कर देखना चाहिए कि उनके जीवनों में परमेश्वर के वचन का क्या स्थान है? क्या वे अपनी ही धारणा और मान्यता के अनुसार, परमेश्वर के नाम में काम कर रहे हैं, या वे परमेश्वर की इच्छा को जानने, उसके वचन से उस से निर्देश प्राप्त करने, और फिर उसके बाद, वही करते हैं जो परमेश्वर उनसे चाहता है कि वे करें?
इसलिए, जब तक कि ईसाई या मसीही परमेश्वर के वचन से प्रेम करना, प्रतिदिन उस दिन के लिए परमेश्वर की इच्छा जाने के लिए वचन का नियमित अध्ययन करना, और परमेश्वर के लिए उसकी इच्छा के अनुसार काम करना नहीं सीखेंगे, वे लोगों के द्वारा बहकाए और भरमाए जाते रहेंगे, तथा औरों को भी बहकाते और भरमाते रहेंगे, और सत्य को कभी नहीं जानने और सीखने पाएँगे। अन्तिम न्याय के बारे में परमेश्वर ने कुछ भी छिपा कर नहीं रखा है; बल्कि लोगों ने ही अपनी ही धारणाएँ बना रखी हैं, परमेश्वर के वचन की गलत व्याख्याओं में पड़ गए हैं, और स्वयं के लिए असमंजस उत्पन्न कर लिए हैं। अगले लेख में हम दूसरे प्रश्न को लेंगे कि यदि न्याय के लिए सभी बातें प्रकट होनी ही हैं, तो फिर परमेश्वर उन्हें भूलता क्यों है?
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Elementary Principles – 104
God’s Forgiveness and Justice – 10
Remembrance of Sin Forgiven and Forgotten - 2
In the last article, in learning about “Eternal Judgment” the sixth elementary principle given in Hebrews 6:1-2, we have seen from God’s Word the Bible that everything about every Believer is being recorded in heaven. The sins forgiven and forgotten by God are present in the record books kept in kept heaven. At the time of judgment, to give every Believer their fair rewards and consequences in a just manner, everything will be laid open and judged righteously by the Lord Jesus. This brings before us another aspect related to God’s forgiving and forgetting sins, in the form of two questions. The questions are that if everything ultimately had to be made open, then God could as well have said that though he has forgiven sin, but at judgment time, He will ask for an account about them; and then why has He kept this intention hidden? Secondly, why has God assured that he forgives sins and forgets them too; what then is the necessity of God forgetting sins? We will try to answer these questions from today.
As the readers would realize, as they ponder over the contents of these articles, everything stated here is on the basis of verses and passages from God’s Word the Bible. There is nothing given that is according to any denominational beliefs or teachings; nor is anything stated on the basis of any person’s teachings, nor on the basis of any Commentaries and Bible study helps commonly used by those undergoing theological training and educational qualifications. Whatever has been written here, has been as the Lord God has taught through His Holy Spirit, as is His promise in John 14:26 and 1 Corinthians 2:10-14. The immense difference between what Christians generally believe, and what these articles have brought out is because of the reliance of those Christians on human beings and man’s teachings, instead of learning directly from God, as God wants us to do; provided we are willing to spend time with Him. God has not kept anything hidden from man about His judgment. It is all there in His Word, open and evident before everyone, if they care to study God’s Word under the guidance of God’s Holy Spirit who has been given the Believers to teach God’s Word to them. If they remain obedient to the Holy Spirit, and are willing to learn as He teaches them, He will teach them. If they ask Him to show them the meanings, correct interpretations, and actual applications of God’s Word in day-to-day lives, why will He not do it? But this requires discipline, and commitment; giving God and His Word the proper, the highest priority, place and time in their lives, instead of a cursory fulfilling of formality, as most Christian do with God’s Word, in their daily routines.
The underlying problem of not seeing and learning God’s truths from His Word, is the apathy Christians have towards God’s Word the Bible. It is a stark reality that the vast majority of Christians do not study God’s Word the Bible for themselves. There are few who read the Bible, but only some do it regularly and very few do it systematically. Most of those who read the Bible, only fulfill a formality by reading some short passage, usually randomly, and think they have done their part; whereas most do not even do this. Instead, most of the Christians blindly rely only on what some person, or some Pastor teaches them or tells them, and that too once week, on Sundays. And yet, practically everyone claims to love God, believe in the Lord Jesus, and wants to be blessed by God in this life as well as the next. If one were to ask them of some indicators or proof of their loving God and believing in the Lord Jesus, then the majority will speak about the good things they do in the name of the Lord, being involved in the Church and the things related to the Church, and some would also add about the preaching or sharing of God’s Word and witnessing for the Lord Jesus that they might be doing.
For those who think and believe that they are working for the Lord through the above-mentioned misconceptions, God’s Word has some teachings for them to ponder about quite seriously. Those who believe that their doing good things in the Lord’s name is proof of their loving God, they should ponder over what the Lord Jesus has said in Mathew 7:21-23. Most Christians simply assume that if they do some good and “Biblical” things in God’s name, God will be happy and pleased with them for it. But Matthew 7:21-23 makes it very clear that unless even these good and “Biblical” things are done as per God’s will and instructions, they are not accepted or rewarded by God, rather are rejected and cursed by Him. For those who think that their preaching and sharing God’s Word and witnessing for the Lord Jesus proves they love and work for the Lord Jesus, should remember that Satan knows the Bible far better than anyone one of us, he even misquoted God’s Word to the Lord Jesus (Matthew 4:1-11). Satan’s agents as false Apostles and in the guise of deceitful workers and ministers of righteousness are all the time, in every place preaching from God’s Word, and beguiling people into false teachings (2 Corinthians 11:3, 13-15). We also see that demons would come into God’s house (Luke 4:33), and they too witnessed about the Lord Jesus (Mark 5:7; Luke 4:41; 8:28; Acts 16:17; James 2:19), though they were not allowed to continue doing so. So, preaching and sharing God’s Word and witnessing about the Lord Jesus is not a definite proof of loving God.
There is only one valid proof of loving the Lord Jesus and God, and this proof has been given by the Lord Jesus Himself; other than this one proof, there is no other proof mentioned in the Bible to prove one’s love for God and the Lord Jesus. And this proof is loving the Word of God and obeying it “He who has My commandments and keeps them, it is he who loves Me. And he who loves Me will be loved by My Father, and I will love him and manifest Myself to him. Jesus answered and said to him, "If anyone loves Me, he will keep My word; and My Father will love him, and We will come to him and make Our home with him.” (John 14:21, 23). Therefore, those who claim to love the Lord Jesus, and believe they are working for Him, should examine themselves and see what place does God’s Word have in their lives? Are they assuming and doing things in the name of God, or, are they seeking God’s will, receiving God’s instructions through His Word, and then doing what God wants them to do for Him.
So, unless Christians start loving God’s Word and studying it daily to learn God’s will for them for that day; to know what God wants them to do for Him, they will keep getting misled by people, even misleading others, and never know the actual truth. God has not kept anything about the eternal judgment a secret; it is people who have assumed things, fallen for misinterpretations of God’s Word, and got themselves into a confusion. In the next article we will take up the second question, why does God forget, if things have to be brought out again for judgment.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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