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शनिवार, 3 अगस्त 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 148

 

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आरम्भिक बातें – 110


परमेश्वर की क्षमा और न्याय – 16


क्षमा किए और भुलाए गए पापों का स्मरण – 8

 

इब्रानियों 6:1-2 में दी गई आरम्भिक बातों में से छठी बात, “अंतिम न्याय” के हमारे इस अध्ययन में, पिछले लेखों में हमने देखा है कि पाप का यह दूसरा प्रभाव, जब तक हम इस पापमय शरीर में हैं, हमारे लिए दुःख, परेशानी, परिश्रम को बनाए रखेगा; लेकिन इस में होकर भी परमेश्वर के हमारे लिए कुछ लाभकारी उद्देश्य हैं। ये लाभ केवल स्वर्गीय, या परलोक  के लिए नहीं हैं, वरन हमारे दिन-प्रतिदिन के इस पृथ्वी के जीवनों के लिए भी हैं। कुल मिलाकर, जीवन भर के इस दुःख, परेशानी, और परिश्रम के द्वारा परमेश्वर ने एक तरीका प्रदान किया है जो हमें निरन्तर पाप, अर्थात परमेश्वर की आज्ञाओं के उल्लंघन, के परिणामों को स्मरण दिलाता रहे; लेकिन इसके साथ ही परमेश्वर ने इन दुःखों में होकर हमें पृथ्वी के तथा स्वर्गीय लाभों को भी प्रदान किया है। यह पापी मनुष्य के प्रति परमेश्वर के प्रेम और देखभाल का एक अनुपम और विलक्षण उदाहरण है, उसकी इस लालसा का, कि उसके द्वारा तैयार करके दिए मार्ग – प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास करने के द्वारा, मनुष्य परमेश्वर के पास लौट आए, उस से मेल-मिलाप कर ले। पिछले लेख में, दुःखों द्वारा मिलने वाले सांसारिक लाभों के बारे में देखते हुए, हमने प्रभु द्वारा उन्हें, जो उसकी इच्छा पूरी करने के लिए, उसके द्वारा उन्हें सौंपी गई ज़िम्मेदारी का निर्वाह करने के लिए, दुःख उठाने को तैयार हैं, उन्हें मिलने वाले शारीरिक और भौतिक लाभों के बारे में देखा था। आज हम परमेश्वर की सन्तानों को इस पृथ्वी पर मिलने वाले आत्मिक लाभों के बारे में देखेंगे, जो दुःख उठाने के द्वारा उन्हें प्राप्त होते हैं; अर्थात ऐसे लाभ जो हमें हमारे मसीही जीवनों में बढ़ने और दृढ़ होने में सहायक होते हैं; और यह भी देखेंगे कि किस प्रकार से वे हमारे प्रभु में बने हुए होने के बारे में हमें आश्वस्त करते हैं।

हम देखते हैं की रोमियों 5:3-5 में लिखा है, “केवल यही नहीं, वरन हम क्लेशों में भी घमण्ड करें, यही जानकर कि क्लेश से धीरज। ओर धीरज से खरा निकलना, और खरे निकलने से आशा उत्पन्न होती है। और आशा से लज्जा नहीं होती, क्योंकि पवित्र आत्मा जो हमें दिया गया है उसके द्वारा परमेश्वर का प्रेम हमारे मन में डाला गया है।” यहाँ पर हम मसीही विश्वासियों द्वारा दुःख उठाने से, उनमें क्रमवार होने वाले चार प्रभावों को देखते हैं। ये प्रभाव हैं, धीरज, जिसके द्वारा हम में खरा निकलना होता है, जो फिर हम में आशा को उत्पन्न करता है, और आशा हमें कभी लज्जित नहीं होने देती, अर्थात हमें कभी निराश और हताश नहीं होने देती है। मसीही विश्वासियों के विरुद्ध शैतान का एक प्रबल हथियार है लज्जा, या हताशा और निराशा। यहाँ पर हम शैतान के इस हथियार को विफल करने का परमेश्वर द्वारा दिया गया उपाय देखते हैं; किन्तु इस उपाय का कार्यान्वित होना दुःख उठाने के साथ होता है। हम सभी अपने व्यक्तिगत अनुभवों से जानते हैं कि समस्याओं के उत्पन्न होने, या बढ़ जाने का एक प्रमुख कारण है हमारा धीरज नहीं रखना। हम बिना सोचे-विचारे शब्दों और कार्यों के लिए प्रतिक्रिया दे देते हैं, हम चाहते हैं कि हर बात तुरन्त या शीघ्रता से हो जाए, हम बहुत बार औरों को कई बातों के लिए थोड़ा सा भी समय देना नहीं चाहते हैं, इत्यादि; और ये सभी, अन्ततः, केवल या तो समस्याओं को उत्पन्न करते हैं, या उन्हें और बिगाड़ देते हैं।

इसलिए, हमें धीरज सिखाने के लिए, परमेश्वर हमें अकसर दुःखदायी परिस्थितियों में जा लेने देता है, जहाँ पर हमारे पास परमेश्वर के द्वारा दिए गए उपाय के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं होता है, और हमें परमेश्वर के द्वारा हमें उस परिस्थिति से बाहर निकाले जाने के लिए धीरज धरना ही पड़ता है। समय के साथ, जब हम हर बात और हर परिस्थिति के लिए परमेश्वर पर निर्भर होना, उस पर भरोसा रख कर धीरज धरना सीखते हैं, तो यह हमारे चरित्र को निखारता है और हमें खराई से रहना सिखाता है, लोगों को दिखने लगता है कि हम सँसार के अन्य लोगों से भिन्न हैं। हमारा धीरज, हमारा खराई से रहना, परमेश्वर के साथ हमारे अनुभव, हमें परमेश्वर में हमेशा भरोसा रखते हुए जीवन जीते रहने में सहायता करते हैं। और जब हम परमेश्वर में भरोसा और आशा रखते हुए जीवन जीते हैं, तो शैतान के पास हमें लज्जित करने, या हमें हताश और निराश करने, और हमें परमेश्वर के मार्गों से बहका देने के लिए कारगर कोई भी युक्ति शेष नहीं रहने पाती है। यह एक उपाय है, जिसके द्वारा परमेश्वर हमें इस पृथ्वी पर हमारे आत्मिक जीवनों में उन्नति करने और दृढ़ बने रहने में सहायता करता है। याकूब ने भी इसी बात को दोहराया है “हे मेरे भाइयों, जब तुम नाना प्रकार की परीक्षाओं में पड़ो तो इसको पूरे आनन्द की बात समझो, यह जान कर, कि तुम्हारे विश्वास के परखे जाने से धीरज उत्पन्न होता है। पर धीरज को अपना पूरा काम करने दो, कि तुम पूरे और सिद्ध हो जाओ और तुम में किसी बात की घटी न रहे” (याकूब 1:2-4)।

एक और बात जो परीक्षाएँ और दुःख हमारे जीवनों में करते हैं, वह है इस बात का प्रमाण प्रदान करना कि हम सही मार्ग पर अग्रसर हैं, परमेश्वर के पथ पर हैं। परमेश्वर का वचन कहता है “फिर यदि मसीह के नाम के लिये तुम्हारी निन्दा की जाती है, तो धन्य हो; क्योंकि महिमा का आत्मा, जो परमेश्वर का आत्मा है, तुम पर छाया करता है” (1 पतरस 4:14)। दूसरे शब्दों में हमें अपने विश्वास के लिए जिस निन्दा का सामना करना पड़ता है, जो दुःख उठाने पड़ते हैं, वे इस बात का प्रमाण हैं कि “महिमा का आत्मा” हम पर छाया करता है। इसे यशायाह 59:2 के साथ देखिए, जहाँ पर लिखा है “परन्तु तुम्हारे अधर्म के कामों ने तुम को तुम्हारे परमेश्वर से अलग कर दिया है, और तुम्हारे पापों के कारण उस का मुँह तुम से ऐसा छिपा है कि वह नहीं सुनता;” अर्थात, यदि हम में कोई अधर्म या बुराई होगी, तो उस के कारण हम में और परमेश्वर में दूरी आ जाएगी, वह हमारी नहीं सुनेगा, और हम परमेश्वर के लिए उपयोगी नहीं रहेंगे। जब हम परमेश्वर से दूर होंगे, परमेश्वर हमारी नहीं सुन रहा होगा, हम परमेश्वर के लिए अनुपयोगी होंगे, तब शैतान अपनी चालों और शक्तियों को हम पर क्यों लगाएगा? इसलिए हम पर उसके हमले कम और हल्के हो जाएँगे, और हम, तुलना में, एक कम कष्टों और समस्याओं वाला जीवन व्यतीत करने लगेंगे। दूसरे शब्दों में प्रभु के लिए एक सक्रिय विश्वासी के जीवन में शैतानी हमलों का घट जाना इस बात का संकेत है कि वह किसी शैतानी युक्ति में फँस गया है, और अब सही मार्ग पर, परमेश्वर के पथ पर नहीं चल रहा है। लेकिन जब तक हम परमेश्वर की आज्ञाकारिता में परमेश्वर के पीछे-पीछे चलते रहेंगे, तो यह शैतान के लिए समस्याएँ उत्पन्न करता रहेगा, इसलिए, फिर वह भी हमें परेशान करता रहेगा। अर्थात, मसीही विश्वासी के जीवन में दुःखों या समस्याओं का बना रहना, इस बात का संकेत है कि वह सही मार्ग पर, परमेश्वर के पथ पर चल रहा है, और प्रभु के लिए उपयोगी बना हुआ है।

इस प्रकार से, जब तक हम इस पृथ्वी पर हैं, दुःख, परेशानियाँ, परिश्रम हमारे लिए शारीरिक और भौतिक लाभ लाएंगे, हमें आत्मिक या मसीही जीवन में बढ़ने और दृढ़ होने में सहायता करेंगे, और हमें आश्वस्त रखेंगे कि हम अपने जीवनों के लिए परमेश्वर के मार्गों पर बने हुए हैं। अगले लेख में हम दुःखों से होने वाले स्वर्गीय या परलोक के लाभों के बारे में देखेंगे।

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


The Elementary Principles – 110


God’s Forgiveness and Justice – 16


Remembrance of Sin Forgiven and Forgotten - 8

   

In this study on “Eternal Judgement,” the sixth elementary principle given in Hebrews 6:1-2, in the previous articles we have seen that the second effect of sin, i.e., life long suffering and toil while we are in this physical body with a sin nature, has some God given and beneficial purposes in our lives. These benefits are not just heavenly, i.e., only for the next world, but are also for this world as we live our day-to-day lives. In effect, through this life-long suffering, problems, and toil, God has put in place a mechanism for us to live with a constant reminder of the consequences of sin, i.e., of transgressing God’s law; but at the same time God has also put in place earthly as well as heavenly benefits through the sufferings. This is a unique, remarkable evidence of the love and care of God for sinful man, and His desire that man be reconciled with Him, by coming to Him through the way He has prepared – through faith in the Lord Jesus Christ. In the last article, while looking at the earthly benefits through suffering, we had seen about the physical or material blessings promised by the Lord for those who are willing to suffer in His will and for His work assigned to them by Him. Today we will look at some spiritual blessings for God’s children, that come through sufferings; i.e., blessings that help us to build up and grow in our Christian lives, and will see how they also assure us of our standing with the Lord.

We find written in Romans 5:3-5 “And not only that, but we also glory in tribulations, knowing that tribulation produces perseverance; and perseverance, character; and character, hope. Now hope does not disappoint, because the love of God has been poured out in our hearts by the Holy Spirit who was given to us.” Here we have four sequential effects, one thing leading to another, because of tribulations faced by the Christian Believers. These effects are perseverance or patience, which develops our character, which in turn gives us hope, and the net effect is that we do not live a disappointed life. One of Satan’s potent weapons against God’s people is to discourage and disappoint them about many things. Here we have God’s antidote to this satanic device of disappointments; but it starts with tribulations. We well know from our experiences, that one major cause of problems getting created or aggravated is our lack of patience. We react to words and actions without thinking over it, we want things done in a hurry, we are often very reluctant to give others a little time about many things, etc. and all of these eventually only lead to problems or aggravate them.

Therefore, to teach us patience, God often allows us to get into painful situations, where we have no other way out, than the one God provides, and we can do nothing other than patiently wait for Him to deliver us from the situation. With time, as we learn to trust and wait on the Lord in and for every situation, it develops our character, makes it evident to the people around us that we are different from the people of the world. Our patience and character, our experiences with God, help us to live lives ever hopeful in God; and when we are trusting and hopeful in God, Satan cannot beguile us away through disappointments and discouragement. This is one way through which God helps us to develop and grow in our spiritual lives on earth. James also says the same “My brethren, count it all joy when you fall into various trials, knowing that the testing of your faith produces patience. But let patience have its perfect work, that you may be perfect and complete, lacking nothing” (James 1:2-4).

Another thing the presence of trials and afflictions do in our lives is provide proof that we are on the right path, the way of God. God’s Word says “If you are reproached for the name of Christ, blessed are you, for the Spirit of glory and of God rests upon you. On their part He is blasphemed, but on your part He is glorified” (1 Peter 4:14). In other words, the reproaches that we suffer for our faith in the Lord, these sufferings are a proof that the “the Spirit of glory and of God” rests upon us. Consider this in relation to Isaiah 59:2 “But your iniquities have separated between you and your God, and your sins have hid [his] face from you, that he will not hear” i.e., if there is any iniquity in our lives, it creates a distance between us and God, and He does not hear us; making us ineffective for God. When we are away from God, God is not hearing us, we are no longer effective for God, why would Satan concentrate his energies and efforts on us, so his attacks against us will decrease and we will start living a relatively “trouble free” life. In other words, for an active Christian Believer, the lack or diminution of satanic attacks is an indication that he has fallen for some satanic ploy, and is no longer on the right way, on God’s path. But so long as we are obeying and following God, it will keep bothering Satan, and he will keep troubling us to make us fall away from God. The implication is that the constant presence of problems in a Christian Believers life, is an indicator, that he is on the right path – God’s way, and is effective for God.

So, while we are here on earth, sufferings, problems, trials, and toil bring physical and temporal benefits, help us grow and mature in our spiritual lives, and keep us assured that we are on God’s path for our lives. In the next article, we will consider the heavenly or the next world benefits of sufferings.

If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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