पाप और उद्धार को समझना – 5
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पाप का समाधान - उद्धार - 2
पिछले लेख में हमने परमेश्वर के वचन बाइबल से उद्धार के बारे में देखना आरंभ किया था। हम इस विषय को तीन प्रश्नों के उत्तर के रूप में देखेंगे। ये प्रश्न हैं:
* यह उद्धार, अर्थात बचाव, या सुरक्षा किस से और क्यों होना है?
* व्यक्ति इस उद्धार को कैसे प्राप्त कर सकता है?
* इसके लिए यह इतना आवश्यक क्यों हुआ कि स्वयं परमेश्वर प्रभु यीशु को स्वर्ग छोड़कर सँसार में बलिदान होने के लिए आना पड़ा?
कल हमने पहले प्रश्न, किससे और क्यों को देखना आरंभ किया था; और देखा था कि पाप, अर्थात परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता करने से, और करते ही, प्रथम मनुष्यों, आदम और हव्वा में क्या परिवर्तन आ गए। उनमें अपने किए के कारण दोष का बोध आ गया; उनमें अपनी दशा को लेकर लज्जा आ गई जिससे वे उस पूर्व उन्मुक्त भाव से परमेश्वर के सम्मुख नहीं आने पाए; वे परमेश्वर से छिपने लगे; और उन्होंने अपनी लाज को ढाँपने के लिए अपने ही प्रयास तो किए, किन्तु वे अपर्याप्त और अस्थाई थे। फिर हमने शिक्षा ली थी कि मनुष्य का पाप उसके अंदर एक दोषी होने के स्थिति, एक ग्लानि को उत्पन्न करता है। पाप के कारण मनुष्य सच्चे परमेश्वर के सामने आने से कतराने लगता है। यद्यपि मनुष्य का समस्त हाल परमेश्वर के सामने बेपरदा है, बिल्कुल खुला है, फिर भी मनुष्य अपनी लज्जा को स्वीकार करने के स्थान पर उसे अपनी धार्मिकता और भलाई के कामों से ढाँपने का प्रयास करता है, जो अपर्याप्त हैं, और अपने इन प्रयासों के बावजूद फिर भी अपने आप को परमेश्वर से छुपाए रखता है, उससे दूर रहने के प्रयास करता है। पाप के कारण आए परिणामों को आज और आगे देखते हैं।
बाइबल की पहली पुस्तक, उत्पत्ति के तीन अध्याय में इस प्रथम पाप की स्थिति का वर्णन दिया गया है। परमेश्वर जब मनुष्य से संगति करने अदन की वाटिका में आया, तो उसके विचरण के शब्द को सुनकर आदम और हव्वा वाटिका के वृक्षों के बीच में जाकर उससे छुप गए। किन्तु इस पाप में गिरे और उससे छुपने का प्रयास करने वाले मनुष्य को परमेश्वर ने ऐसे ही नहीं छोड़ दिया। परमेश्वर चाहता तो सीधे से उन पर अपने उस दण्ड की आज्ञा सुना सकता था, जिसकी चेतावनी वह पहले उस वर्जित फल के विषय उनको दे चुका था (उत्पत्ति 2:17)। किन्तु उस प्रेमी, दयालु, कृपालु, अनुग्रहकारी परमेश्वर ने ऐसा नहीं किया। उसने उन्हें अपनी गलती को, अपने पाप को मान लेने का अवसर दिया। गलती मनुष्य ने की थी; पतित दशा में मनुष्य था; अपनी लज्जा और दोष के निवारण को पता करने का कर्तव्य मनुष्य का था। किन्तु उसकी इस दशा का समाधान प्रदान करने के लिए उसे ढूँढता हुआ परमेश्वर आया। जैसे प्रभु यीशु मसीह ने अपने संसार में आने के लिए कहा “क्योंकि मनुष्य का पुत्र खोए हुओं को ढूंढ़ने और उन का उद्धार करने आया है” (लूका 19:10)।
परमेश्वर ने वाटिका में, उनके छिपने के स्थान के निकट आकर उन पर दोषारोपण नहीं किया, वरन उन्हें प्रेम से बुलाया; उनसे पूछा “तू कहाँ है?” इसलिए नहीं कि परमेश्वर को उनके बारे में पता नहीं था, वरन इसलिए ताकि वे अपने पाप का, अपनी गलती का अंगीकार कर सकें। इससे पहले कि परमेश्वर को उनपर अपने न्याय को लागू करना पड़े, वह उन्हें पूरा-पूरा अवसर दे रहा था कि वे अपनी गलती को मान लें, क्योंकि परमेश्वर का एक और अद्भुत गुण उसकी क्षमा भी है, “यदि हम अपने पापों को मान लें, तो वह हमारे पापों को क्षमा करने, और हमें सब अधर्म से शुद्ध करने में विश्वासयोग्य और धर्मी है” (1 यूहन्ना 1:9)। आदम बाहर निकल कर आया, और परमेश्वर से बात भी की; किन्तु उसे वास्तविकता बताने के स्थान पर बहाना और स्पष्टीकरण देने लगा; उसने कहा मैं तुझ से डर गया था, इसलिए छुप गया। यह पाप का मनुष्य के जीवन में एक और प्रभाव है - पाप डर उत्पन्न करता है। यह सामान्य व्यवहार की बात है, जब भी हम कोई गलती करते हैं, तो उस गलती के कारण हम में एक डर बना रहता है। मान लीजिए आप अपनी गाड़ी लेकर निकले हैं, और लाइसेंस लेना भूल गए, तो हर पुलिस वाले को देखते ही मन में डर आएगा, “कहीं इसने रोक कर लाइसेंस पूछ लिया तो परेशानी हो जाएगी!”
परमेश्वर ने उसे फिर से अपने पाप को मान लेने का एक और अवसर भी दिया साथ ही पाप का संकेत भी दिया; उससे सीधे से पूछा कि “क्या उसने वह वर्जित फल खा लिया है?” फिर से मनुष्य ने इस अवसर को गँवा दिया, और अब अपना दोष स्वीकार करने के स्थान पर, अपनी गलती दूसरों पर मढ़ने लगा। आदम ने परमेश्वर को और हव्वा दोनों को दोषी ठहराया - हव्वा को तो परमेश्वर ही ने उसे दिया था, इसलिए उसके लिए परमेश्वर ही जिम्मेदार था। हव्वा ने अपने आप को दोषी मानने के स्थान पर उसे बहकाने वाले सांप को दोषी ठहराया। गलती मान लेने और पश्चाताप करने का यह अवसर भी उन्होंने औरों पर दोषारोपण करने में गँवा दिया। आज भी हमारी स्वाभाविक प्रतिक्रिया अपनी गलती स्वीकार करने के स्थान पर किसी अन्य को उसके लिए जिम्मेदार और दोषी ठहराने की होती है। अब परमेश्वर को न्याय का कदम उठाना पड़ा।
उनपर पीड़ा, परिश्रम, और मृत्यु को लागू कर दिया गया, और उन्हें उस आशीष के स्थान अदन के वाटिका से बाहर कर दिया गया। मृत्यु, जैसा हम पहले देख चुके हैं, एक मानवीय प्रयासों से अपरिवर्तनीय बिछड़ने की दशा को दिखाता है। पाप के कारण मनुष्य की संगति परमेश्वर से टूट गई; उसकी आत्मिक मृत्यु तुरंत हो गई, और वह शारीरिक मृत्यु के लिए भी निर्धारित कर दिया गया। मूल इब्रानी भाषा में जो वाक्यांश इसके लिए उत्पत्ति 2:17 में प्रयोग हुआ है, उसका वास्तविक अंग्रेजी अनुवाद है “dying thou dost die (YLT); dying thou shalt die (SLT)” जिसका हिन्दी अनुवाद होता है “मरते मरते तू मर जाएगा”। अर्थात, “उसी दिन से तेरी निरंतर कभी न रुकने और पलटे जाने वाली मरते चले जाने की प्रक्रिया आरंभ हो जाएगी, और अंततः तू मर जाएगा।” जिस दिन आदम और हव्वा ने पाप किया उनके लिए मृत्यु दो रीति से आ गई - आत्मिक रीति से वे परमेश्वर की संगति से अलग हो गए; और शारीरिक रीति से उन्होंने मरना आरंभ कर दिया, और अंततः अपनी आयु पूरी करके मर गए, मिट्टी में मिल गए। यही दशा तब से प्रत्येक मनुष्य के साथ रहती है; वह आत्मिक रीति से परमेश्वर से दूरी की दश में और शारीरिक रीति से एक दिन-प्रतिदिन घटती जाती आयु के साथ जन्म लेता है, और आयु पूरी करके मर जाता है, मिट्टी में मिल जाता है “इसलिये जैसा एक मनुष्य के द्वारा पाप जगत में आया, और पाप के द्वारा मृत्यु आई, और इस रीति से मृत्यु सब मनुष्यों में फैल गई, इसलिये कि सब ने पाप किया” (रोमियों 5:12)।
पहले पाप से उत्पन्न हुई स्थिति के प्रति परमेश्वर की प्रतिक्रिया के बारे में हम और आगे अगले लेख में देखेंगे। अभी के लिए आप से निवेदन है कि अपने जीवनों की वास्तविक स्थिति का आँकलन करके देखें। पाप प्रत्येक व्यक्ति को दूसरों पर दोषारोपण करने वाला, अपनी गलती के लिए औरों को जिम्मेदार ठहराने वाला, यहाँ तक कि परमेश्वर को भी दोषी ठहराने वाला बना देता है। मनुष्य सत्य के सामने आने, उसे स्वीकारने से डरता है, और हर हाल में अपने आप को सही दिखाना चाहता है। किन्तु परमेश्वर आपकी यह वास्तविकता जानता है, फिर भी वह आप से प्रेम करता है, आपके साथ अपनी संगति को बहाल करना चाहता है। लेकिन यह संभव हो पाना आपके निर्णय पर आधारित है। आपकी स्वेच्छा और सच्चे पश्चाताप तथा समर्पित मन से की गई एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु, मैं मान लेता हूँ कि मन-ध्यान-विचार-व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता करके मैंने पाप किया है। मैं धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों को अपने ऊपर लेकर, मेरे स्थान पर उनके मृत्यु-दण्ड को कलवरी के क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा सह लिया। आप मेरे स्थान पर मारे गए, और मेरे उद्धार के लिए मृतकों में से जी भी उठे। कृपया मुझ पर दया करें और मेरे पाप क्षमा करें। मुझे अपना शिष्य बना लें, अपनी आज्ञाकारिता में अपने साथ बना कर रखें।” परमेश्वर आपकी संगति की लालसा रखता है, आपको दण्ड के अधीन नहीं, वरन आशीषित देखना चाहता है; इसे संभव करना या न करना, आपका अपना व्यक्तिगत निर्णय है।
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Understanding Sin and Salvation – 5
The Solution For Sin - Salvation - 2
From the previous article, we had begun to look from God's Word, the Bible about salvation. We will consider this topic as answers to three questions. These three questions are:
* This salvation, i.e., being saved, or delivered, is to be from what or whom, and why?
* How can one receive this salvation?
* For this, why was it so necessary for the Lord Jesus himself to leave heaven and come to the world to be sacrificed?
Yesterday we started looking at the first question, salvation from what or whom and why; and had seen about the changes that came about in the behavior of the first humans, Adam and Eve, because of sin, i.e., disobeying God. Because of their deed, there was guilt in them; they were ashamed of their condition, they could not come before the Lord God with the same freedom they did earlier; they began to hide from God; and they made their own vain, insufficient, and fallible efforts to cover up their guilt and shame. From this we learnt that man's condition of sin produces guilt and shame. Because of sin, man hesitates to come before the true God, although the actual condition of man is always open before God, yet instead of accepting his wrong-doing causing the guilt and shame, man tries to cover it with his self-righteousness and works of goodness, which are inadequate. And in spite of his efforts of being righteous, he still tries to keep himself hidden from the true God, and tries to stay away from Him. Today, we will look further at the consequences brought about by sin.
The description related to this first sin is given in chapter three of the first book of the Bible, Genesis. When God came to the Garden of Eden to fellowship with man, on hearing the sound of His walking, Adam and Eve hid from Him in the midst of the trees of the Garden. But God did not ignore and leave man alone, who had fallen into sin and was trying to hide from Him. If God had wanted to, He could have directly ordered the punishment that He had previously warned them about eating the forbidden fruit (Genesis 2:17). But that loving, compassionate, merciful, gracious God did not do so. He gave them the opportunity to admit their mistake, their sin. The mistake was made by man; it was man who was in a fallen condition; therefore, it was the duty of man to find out the way of redressal for his sin and the consequent shame and guilt. Instead, to provide a divine, eternal solution to man’s condition, God came looking for him. As the Lord Jesus Christ said about the purpose of His coming into his world "for the Son of Man has come to seek and to save that which was lost" (Luke 19:10).
God, on coming near their hiding place in the Garden, did not accuse them, but lovingly called them, asking them "Where are you?" It is not that God didn't know about them, but so that they could come out and confess their sin, their mistake. Before God felt compelled to impose His judgment on them, He was giving every possible opportunity to them to admit their mistake, because another wonderful quality of God is His forgiveness, “If we confess our sins, He is faithful and just to forgive us our sins and to cleanse us from all unrighteousness" (1 John 1:9). Adam came out, and also spoke to God; But instead of telling him the reality, he started giving excuses and explanations; he said I was scared of you, so I hid. This is another effect of sin in man's life - sin generates fear. It is a matter of normal behavior, whenever we make a mistake, there is a fear in us because of that mistake. Suppose you have gone out driving your vehicle, but have forgotten to take your driving license, then every time you see a policeman on the road, you will feel scared on seeing him, the constant thought at the back of your mind will be, “If he stops me and asks for the license, then I will be in trouble!”
God again gave him another opportunity to confess his sin; while also indicating that he knew about his sin; God asked him directly "Have you eaten that forbidden fruit?" Again, man made a mess of this opportunity, and now instead of accepting his fault, he started blaming others for his mistake. Adam blamed both God and Eve - Eve was God’s creation and given to him by God, so God was responsible for her. Instead of accepting her fault, Eve too blamed the snake who had enticed her to sin. They lost this opportunity also, to admit their mistake and repent, by blaming others for their condition. Even today, our natural reaction is to blame others and hold others responsible for our mistakes and faults, instead of admitting them. Now God had to take the step of passing judgment on them.
Pain, toil, and death were imposed on them, and they were thrown out of the place of blessing, the Garden of Eden. As we have seen earlier, death refers to a state of humanly irreversible separation. From the moment man's fellowship with God was broken because of sin; he died spiritually from that instant, and from that moment onwards, he was also condemned to die physically. The literal English translation of the phrase used for this in Genesis 2:17 in the original Hebrew language is "dying thou dost die” (YLT); or, “dying thou shalt die” (SLT) which translates as “by dying, you will die”. Meaning that “from that day onwards a continuous and non-reversible process of dying will begin for you, and eventually you will die.” The day Adam and Eve sinned, death came to them in two ways - spiritually they were separated from the company of God; And physically they started to die, and eventually died on completing their life-time, returning back to dust. This condition has remained with every human being since then; he is born in a state of being spiritually separated from God, and physically with a day by day decreasing age, dies at the end of his life-time, and eventually turns into dust "Therefore, just as through one man sin entered the world, and death through sin, and thus death spread to all men, because all sinned" (Romans 5:12).
We'll see more in the next article about God's response to the situation created by the first sin. For now, it is a humble request that you self-assess the real situation of your life and see where you stand. Sin makes everyone blame others for their mistakes, hold others - even God, responsible for their faults. Man is fearful of facing the truth, of accepting it, and wants to show himself right in any case. But God, though He well knows your reality, yet He loves you even in the state you are, wants to restore His fellowship with you. But making it possible is dependent upon your decision. A short prayer from a willing heart, with sincere repentance for sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, and have committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company, wants to see you blessed; but to make this possible or not, is your personal decision.
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