पाप और उद्धार को समझना – 4
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पाप का परिणाम
पिछले तीन लेखों में हमने देखा है कि परमेश्वर के वचन बाइबल के अनुसार पाप क्या है, और परमेश्वर किसे पाप मानता है। संक्षेप में, बाइबल बताती है कि परमेश्वर की व्यवस्था, अर्थात, उसकी आज्ञाओं का उल्लंघन, [और साथ ही उसकी दस आज्ञाओं (निर्गमन 20:1-20) का, तथा उन दो महान आज्ञाओं (मत्ती 22:35-40) का जो परमेश्वर की सारी व्यवस्था का और उसके द्वारा अपने भविष्यद्वक्ताओं में होकर प्रकट की गई शिक्षाओं का आधार हैं, उल्लंघन भी सम्मिलित है], और हर प्रकार का अधर्म पाप है।
पवित्र, निष्पाप परमेश्वर पाप के साथ संगति नहीं कर सकता है; वह बुराई को देख ही नहीं सकता है “तेरी आंखें ऐसी शुद्ध हैं कि तू बुराई को देख ही नहीं सकता, और उत्पात को देखकर चुप नहीं रह सकता …” (हबक्कूक 1:13); पाप परमेश्वर और मनुष्य के मध्य में दीवार ले आता है, परस्पर संगति को तोड़ देता है “परन्तु तुम्हारे अधर्म के कामों ने तुम को तुम्हारे परमेश्वर से अलग कर दिया है, और तुम्हारे पापों के कारण उस का मुँह तुम से ऐसा छिपा है कि वह नहीं सुनता” (यशायाह 59:2)। परमेश्वर की सारी सृष्टि में केवल मनुष्य ही है जिसे उसे अपने स्वरूप में, अपने हाथों से रचा, और उसमें अपनी श्वास डालकर उसे जीवित प्राणी बनाया, तथा समस्त पृथ्वी और सभी प्राणियों पर उसे अधिकार प्रदान कर दिया (उत्पत्ति 1:27-28; 2:7)। परमेश्वर मनुष्य के साथ संगति करता था, उससे मिलने आया करता था (उत्पत्ति 3:8)। इसीलिए परमेश्वर ने प्रथम मनुष्यों, आदम और हव्वा को सचेत किया था कि यदि वे वाटिका के उस वर्जित फल को खाएंगे, तो मर जाएंगे (उत्पत्ति 2:17; 3:3)।
मर जाना, मानवीय क्षमताओं और संदर्भ में, एक अपरिवर्तनीय बिछड़ने को दिखाता है। जब कोई व्यक्ति शारीरिक रीति से मर जाता है, तो वह अपने सगे-संबंधियों, मित्रों, परिवार जनों, संसार से ऐसा पृथक होता है कि किसी भी मानवीय प्रयास द्वारा वह फिर न लौट सकता है और न लौटाया जा सकता है। इसी बात को आलंकारिक भाषा में संबंधों को तोड़ने के लिए भी व्यक्त किया जाता है; जब किसी से कहा जाए “आज से तू मेरे लिए मर गया” तो तात्पर्य यही होता है कि उन दोनों के मध्य का संबंध ऐसा समाप्त हो गया है मानों मृत्यु ने अलग कर दिया हो। आदम और हव्वा के द्वारा किए गए परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता के पाप के कारण, परमेश्वर और मनुष्य की यह संगति टूट गई, और मनुष्य मृत्यु, अर्थात परमेश्वर से सदा के लिए अलग रहने के खतरे में आ गया। यह बहुत महत्वपूर्ण तथा आधारभूत तथ्य है, जिसे समझे बिना उद्धार के बारे में समझना असंभव है।
अब परमेश्वर के समक्ष दो विकल्प थे - या तो वह मनुष्य को उसके पाप में पड़ा रहने दे, और उस पाप के परिणामों को भुगतने दे; अथवा, वह उन दोनों प्रथम मनुष्यों, आदम और हव्वा, को नष्ट करके नए मनुष्य सृजे और इस क्रिया को फिर से आरंभ करे। किन्तु परमेश्वर मनुष्य से इतना प्रेम करता है कि उसे इन दोनों में से कोई भी विकल्प स्वीकार्य नहीं था। न तो वह मनुष्य को पाप की दुर्दशा पड़े हुए देखना चाहता है, और न ही उसे नष्ट करना चाहता है; परमेश्वर तो दुष्ट के नाश होने से भी प्रसन्न नहीं होता है “सो तू ने उन से यह कह, परमेश्वर यहोवा की यह वाणी है, मेरे जीवन की सौगन्ध, मैं दुष्ट के मरने से कुछ भी प्रसन्न नहीं होता, परन्तु इस से कि दुष्ट अपने मार्ग से फिर कर जीवित रहे; हे इस्राएल के घराने, तुम अपने अपने बुरे मार्ग से फिर जाओ; तुम क्यों मरो?” (यहेजकेल 33:11)।
पाप द्वारा उत्पन्न इस समस्या के समाधान के लिए या तो पाप को क्षमा किया जाना था; अन्यथा पाप के दोषी को पाप का दंड भुगताना था। यह एक बड़ी विडंबना थी; यदि परमेश्वर, उन दोनों के प्रति अपने महान प्रेम के अंतर्गत, आदम और हव्वा के पाप की अनदेखी करता और उन्हें ऐसे ही छोड़ देता, तो यह उसके सच्चे, खरे, न्यायी, पक्षपात रहित चरित्र और गुण के विरुद्ध होता, जो परमेश्वर को कदापि स्वीकार्य नहीं है। यदि उन्हें उनके पाप के परिणाम भुगतने के लिए छोड़ देता, तो न तो उसका प्रेमी हृदय इसे स्वीकार करता, और न ही यह उसके प्रेमी, अनुग्रहकारी, दयावान, कृपालु चरित्र और गुण के अनुरूप होता। मनुष्य के पाप ने परमेश्वर को एक बड़ी विडंबना की स्थिति में डाल दिया।
जो मनुष्य के लिए असंभव है, वह परमेश्वर के लिए संभव है “उस [यीशु] ने कहा; जो मनुष्य से नहीं हो सकता, वह परमेश्वर से हो सकता है” (लूका 18:27)। परमेश्वर ने ही इस असंभव प्रतीत होने वाली समस्या का समाधान निकाला - जो समस्त मानव जाति को परमेश्वर की ओर से सेंत-मेंत उपलब्ध करवाया गया प्रभु यीशु में लाए गए विश्वास द्वारा मनुष्यों के लिए उद्धार का मार्ग है; जिसके बारे में हम अगले लेखों में देखेंगे। परमेश्वर द्वारा बनाए और उपलब्ध करवाए गए इस उद्धार के मार्ग को जब हम बिना किसी पूर्व-धारणा के, और निष्पक्ष दृष्टिकोण रखते हुए देखते हैं, तो तुरंत प्रकट हो जाता है कि पाप की समस्या का इससे अधिक सहज, सरल, स्वीकार्य, मनुष्यों द्वारा बनाई गई धर्म-जाति-कुल-सभ्यता-स्थान आदि की सीमाओं से स्वतंत्र, संसार के सभी लोगों के लिए संपूर्णतः लाभकारी, और कोई समाधान हो ही नहीं सकता है।
अभी के लिए, आप से विनम्र निवेदन है, यदि आपने अभी तक उद्धार नहीं पाया है, परमेश्वर के इस समाधान को स्वीकार नहीं किया है, तो अभी अवसर और समय रहते यह कर लीजिए; पता नहीं फिर यह अवसर और स्थिति हो या न हो। आपके द्वारा स्वेच्छा से, सच्चे मन से पापों के लिए पश्चाताप करते हुए, की गई समर्पण की एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु, मैं स्वीकार करता हूँ कि मैंने मन-ध्यान-विचार-व्यवहार से आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किया है। मैं स्वीकार करता हूँ कि आपने मेरे पापों को अपने ऊपर लेकर, कलवरी के क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा, उनके दंड को भी मेरे लिए सह लिया; और फिर मृतकों में से पुनरुत्थान के द्वारा मेरे लिए जीवन का मार्ग बना कर दे दिया। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपना आज्ञाकारी शिष्य बना लें, और अपने साथ कर लें” आपको तुरंत ही अब से लेकर अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय जीवन में लाकर खड़ा कर देगी। निर्णय आपका है।
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Understanding Sin and Salvation – 4
Consequences of Sin
In the previous three articles we have considered what sin is according to God's Word, the Bible; and what God defines as sin. In short, the Bible states that the violation of God’s commandments, the transgression of His Law, [and also the transgression of His Ten Commandments (Exodus 20:1–20), and of the Two Great Commandments (Matthew 22:35–40) upon which all of God's Commandments and all of the instructions and the teachings given by Him through His prophets are based], and every kind of iniquity or unrighteousness is sin.
The holy, sinless God cannot associate with sin; since He is so pure that He cannot even see evil “You are of purer eyes than to behold evil, And cannot look on wickedness…” (Habakkuk 1:13); Sin creates a barrier between God and man, and breaks down the fellowship "But your iniquities have separated you from your God; And your sins have hidden His face from you, So that He will not hear" (Isaiah 59:2). In all of God's creation, man is the only one whom He created in His image, with His hands, and by breathing life into him made him into a living being, and gave Him authority over all the earth and all creatures (Genesis 1:27–28; 2:7). God used to have fellowship with man, and used to visit him (Genesis 3:8). That is why God had warned the first humans, Adam and Eve, that if they ate the forbidden fruit of the Garden, they would die (Genesis 2:17; 3:3).
To die shows an irreversible separation; irreversible both in terms of human capabilities and context. When a person dies physically, he is so permanently separated from his relatives, friends, family members, and everyone in the world that he cannot return or be brought back by any human effort. The same thing is also expressed in figurative language to break ties permanently; when someone is told "from today you have died for me", it means that the relationship between them has so permanently ended, as if death has separated them. Because of the sin of disobedience towards God, committed by Adam and Eve, this fellowship between God and man was broken, and man came into the danger of death, i.e., eternal separation from God. Without clearly understanding this very important and fundamental fact, it is impossible to grasp the Biblical understanding of salvation.
Now God had two options - either to allow man to stay in his sin, and to suffer the consequences of that sin; Or, he destroys those first two humans, Adam and Eve; and then creates new humans, and starts the process all over again. But God loves man so much that neither of these two options were acceptable to him. Neither did He want to see man suffering in the plight of sin, nor did He want to destroy him. He is such a loving God, that He is not pleased even with the death of the wicked. "Say to them: 'As I live,' says the Lord God, 'I have no pleasure in the death of the wicked, but that the wicked turn from his way and live. Turn, turn from your evil ways! For why should you die, O house of Israel?'" (Ezekiel 33:11).
The solution to this problem caused by sin was to either forgive the sin; or else, the one guilty of sin had to suffer the penalty of sin. It was a great dilemma; If God, in His great love for both of them, ignored the sin of Adam and Eve and left them unpunished, it would go against His true, upright, just, non-partisan character and attributes; which is never acceptable to God. If he had left them to suffer the consequences of their sin, neither his loving heart would accept it, nor would it conform to his loving, gracious, caring, and merciful character and attributes. Man's sin had put God in a position of great dilemma.
What is impossible for man is possible for God, “But He [Jesus] said, ‘The things which are impossible with men are possible with God’” (Luke 18:27). God Himself solved this seemingly impossible problem — He freely made available the way of salvation for all of mankind through faith in the Lord Jesus; about which we will see in the coming articles. When we, without any preconceived notions, and with an impartial perspective, ponder over this way of salvation created and provided by God, it immediately becomes apparent that there can be no solution to the problem of sin, that is so comprehensively beneficial to all the people of the world, absolutely free of all the man-made limits of religion-caste-clan-civilization-place etc. that divide the people.
For now, I humbly request you, if you haven't yet been saved, haven't accepted God's solution, then please do it now while you have the opportunity and time; for you never know whether this opportunity or situation will remain, or, for how long will it remain. A short prayer of submission made by you voluntarily, while sincerely repenting of your sins, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, and have committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." This sincere decision to allow the Lord to change your heart and mind, taken with an honest heart will make this life of yours and the life of the hereafter into heavenly life. The decision is yours.
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