मसीह यीशु की कलीसिया या मण्डली – 108
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सुसमाचार के विषय गलत शिक्षाएं - परिचय (2)
पिछले
लेख स हमने 2 कुरिन्थियों 11:4 में
उल्लेखित तीन बातों में से तीसरी बात, सुसमाचार के बारे में
देखना आरम्भ किया है। हम पहले के लेखों में देख चुके हैं कि ये तीन बातें, अर्थात प्रभु यीशु मसीह, परमेश्वर पवित्र आत्मा,
और सुसमाचार वे तीन विषय हैं जिन पर शैतान, गलत
शिक्षाओं के द्वारा, सबसे अधिक हमला करता है, उन्हें भ्रष्ट करने का भरसक प्रयास करता है। इनमें से पहली दो बातों को
देख लेने के बाद, पिछले लेख से हमने तीसरी बात, सुसमाचार पर विचार करना आरम्भ किया है। हमने देखा था कि शब्द
"सुसमाचार" का शब्दार्थ होता है 'अच्छा समाचार'
और इस शब्द का सबसे उल्लेख मत्ती 4:23 में आया
है, जहाँ पर प्रभु यीशु मसीह की सेवकाई का आरम्भ दिया गया
है। यहाँ से, पिछले
लेख में हमने देखा था कि प्रभु की सेवकाई से सम्बन्धित दो महत्वपूर्ण बातें हैं,
जिनका हमें अनुसरण करना है। पहली बात, जिस हम
पिछली बार देख चुके हैं, है कि प्रभु यीशु मसीह ने पृथ्वी पर
अपनी सेवकाई का आरम्भ तीन पृथक एवं भिन्न बातों को करण करने साथ किया - उन्होंने
परमेश्वर के राज्य बारे में सिखाया, सुसमाचार का प्रचार किया,
तथा बीमारों को चँगा किया। ये प्रभु की सेवकाई के तीन भाग थे,
परन्तु ये तीनों एक ही नहीं हैं, जैसा हम
पिछले लेख में देख चुके हैं। इसलिए, इनमें से चँगा करने को अत्यधिक
महत्व देना, और सुसमाचार प्रचार करने तथा परमेश्वर के राज्य
के बारे सिखाने की अनदेखी करना, या कम महत्व देना, प्रभु की सेवकाई के नमूने से सुसंगत नहीं है। और हमें अपनी सेवकाई के लिए
प्रभु की सेवकाई के नमूने का ही अनुसरण करना है। आज हम कही गई दूसरी बात के बारे
में विचार करेंगे।
(2) दूसरी बात, सुसमाचार एक राज्य के बारे में है,
किसी व्यक्ति, धारणा, धर्म,
रीति-रिवाज़, या परंपरा के बारे में नहीं है।
प्रभु ने अपनी पृथ्वी की सेवकाई का आरंभ सुसमाचार प्रचार के साथ किया, और अपने उस उदाहरण के द्वारा हमें उस सुसमाचार प्रचार का स्वरूप प्रदान
किया: उस समय से यीशु प्रचार करना और यह कहना आरम्भ किया, कि मन फिराओ क्योंकि स्वर्ग का राज्य निकट आया है (मत्ती 4:17)। यहाँ हम देखते हैं कि प्रभु द्वारा
किए जाने वाले प्रचार या उपदेश का विषय था “... मन फिराओ क्योंकि स्वर्ग का
राज्य निकट आया है”; और यही सुसमाचार का स्वरूप है। और
यह इसीलिए सुसमाचार या अच्छी खबर है क्योंकि यह शीघ्र ही नष्ट हो जाने वाली इस
नाशमान पृथ्वी और उसकी सभी नाशमान बातों से बचाए जाकर, अविनाशी
परमेश्वर के अनन्तकालीन राज्य और उसकी अनन्त आशीषों में प्रवेश प्राप्त करने तथा
सदा काल तक उसके साथ रहने के बारे में है (1 यूहन्ना 2:15-17)। सुसमाचार इस पृथ्वी पर किसी राज्य, या किसी
शारीरिक उपलब्धि, या भौतिक संपत्ति अथवा संपन्नता के बारे
में नहीं है। वह परमेश्वर के राज्य के बारे में है, जो निकट
आ गया है, स्थापित होने वाला है; और जो
कोई उसमें प्रवेश चाहता है, उसके प्रवेश पाने का पहला कदम
पश्चाताप करना है। किसी भी व्यक्ति द्वारा बिना पापों से पश्चाताप किए सुसमाचार
में कोई प्रगति या स्वीकृति नहीं है।
ध्यान
करें कि प्रभु यीशु ने यह प्रचार यहूदियों, यानि कि परमेश्वर
की चुनी हुई प्रजा के लोगों के, जो पीढ़ियों से परमेश्वर की
व्यवस्था, अपने धर्म के पर्वों, भेंटों,
बलिदानों, आदि का पालन करते थे, उनके मध्य में करना आरंभ किया। इसी से प्रकट है कि पश्चाताप करना सभी के
लिए है, चाहे वे “प्रभु परमेश्वर के लोग” ही क्यों न हों,
जो चाहे कितनी भी पीढ़ियों से अपने धर्म की मान्यताओं, परंपराओं, और रीति-रिवाजों को मानते-मनाते चले आ रहे
हों। परमेश्वर के राज्य में प्रवेश उन्हें केवल पश्चाताप से आरंभ करने के द्वारा
ही प्राप्त होगा, किसी भी अन्य बात के आधार पर नहीं। साथ ही
यह भी साधारण और स्पष्ट बात है कि पश्चाताप हमेशा ही हर व्यक्ति के द्वारा
व्यक्तिगत रीति से अपने ही पापों के लिए किया जा सकता है। माता-पिता या पूर्वजों
का किया गया पश्चाताप उनकी संतानों के लिए कार्यकारी नहीं होता है; और न ही परिवार के किसी सदस्य का उद्धार पाना और परमेश्वर की निकटता में
बढ़ना, परिवार के अन्य सदस्यों को उद्धार प्रदान करता है।
यदि
आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो आपके लिए यह जानना और समझना
अति-आवश्यक है कि आप प्रभु परमेश्वर से संबंधित किसी भी बात के बारे में गलत
शिक्षाओं में न पड़े हों या पड़ जाएं; न खुद भरमाए जाएँ,
और न ही आपके द्वारा कोई और भरमाया जाए। लोगों द्वारा कही जाने वाले
ही नहीं, वरन वचन में लिखी हुई बातों पर भी ध्यान दें,
और लोगों की बातों को वचन की बातों से मिला कर जाँचें और परखें। यदि
आप इन गलत शिक्षाओं में पड़ चुके हैं, तो अभी वचन के अध्ययन
और बात को जाँच-परख कर, सही शिक्षा को, उसी के पालन को अपना लें।
यदि
आपने अभी तक प्रभु की शिष्यता को स्वीकार नहीं किया है, तो
अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी उसके पक्ष में
अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके
वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और
सुरक्षा भी है। यदि आपने अभी तक नया जन्म, उद्धार नहीं पाया
है, प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा नहीं माँगी है,
तो अभी आपके पास समय और अवसर है कि यह कर लें। प्रभु यीशु से अपने
पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से
अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही
एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी
प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित
करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और
समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे
स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और
आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें।
मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” परमेश्वर आपके साथ संगति रखने
की बहुत लालसा रखता है तथा आपको आशीषित देखना चाहता है, लेकिन
इसे सम्भव करना आपका व्यक्तिगत निर्णय है। सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक
प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक
के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
क्या आप अभी समय और अवसर होते हुए, इस प्रार्थना को नहीं
करेंगे? निर्णय आपका है।
कृपया इस संदेश के लिंक को औरों को भी भेजें और साझा करें
और
कृपया अपनी स्थानीय भाषा में अनुवाद और प्रसार करें
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The Church,
or, Assembly of Christ Jesus - 108
Wrong Teachings
Related to the Gospel - Introduction (2)
Since the
previous article, we have started to look up the third of the three things
mentioned in 2 Corinthians 11:4, that Satan tries his utmost to correct through
wrong teachings, i.e., the Gospel. In the preceding articles, we have already considered
the other two things named in this verse, i.e., the Lord Jesus Christ, and God
the Hoy Spirit. In the last article we have seen that the word Gospel literally
means 'Good News.' This term, preaching the gospel has been used for the first
time in Matthew 4:23, where the beginning of the ministry of the Lord Jesus is
first mentioned. From this, we also saw in the last article that there are two
important things related to the Lord's ministry that we must follow. The first,
which we considered last time, is that the Lord Jesus
began His earthly ministry by doing three separate and different things -
taught about the Kingdom of God, preached the gospel, and healed the sick.
These were the three components of His ministry; but these three are not one
and the same thing, as we saw in the previous article. Therefore, giving
excessive importance to healings, and neglecting preaching the gospel and
teaching about the Kingdom of God, are not consistent with the pattern given to
us to follow through the Lord's ministry. Today, we will take up and consider
the second thing.
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