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बपतिस्मा समझना - (7) – पवित्र आत्मा से बपतिस्मा और 1 कुरिन्थियों 12:13
पिछले दो लेखों में हमने देखा और समझा है कि “पवित्र आत्मा से भरना” कोई पृथक या किसी-किसी को ही प्राप्त होने वाला विलक्षण अनुभव नहीं है; और न ही यह “पवित्र आत्मा से बपतिस्मा” के साथ संबंधित है, या उसके समान है। आज हम “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” कहकर गलत शिक्षाओं के फैलाने वालों के द्वारा प्रयोग किए जाने वाले बाइबल के एक और पद की व्याख्या के द्वारा उनकी गलत शिक्षाओं को देखेंगे और समझेंगे।
इस संदर्भ में हमारे आज के मन्ना के लिए महत्वपूर्ण पद है 1 कुरिन्थियों 12:13 “क्योंकि हम सब ने क्या यहूदी हो, क्या युनानी, क्या दास, क्या स्वतंत्र एक ही आत्मा के द्वारा एक देह होने के लिये बपतिस्मा लिया, और हम सब को एक ही आत्मा पिलाया गया”; इस पद को देखिए, उसपर विचार कीजिए, और उसकी बातों पर ध्यान दीजिए:
ध्यान दीजिए कि यहाँ पर भी बपतिस्मे के संबंध में प्रयोग किया गया वाक्यांश है “आत्मा के द्वारा”, न कि “आत्मा का” - जैसा अन्य उदाहरणों में हम पहले देख चुके हैं कि पवित्र आत्मा केवल माध्यम है जिसमें विश्वासी को ओत-प्रोत किया या बप्तिस्मा दिया जाता है, पवित्र आत्मा का अपना अलग से कोई बपतिस्मा नहीं है।
दूसरी बात, मसीही विश्वासियों की मण्डली में विभिन्न पृष्ठभूमियों से आए हुए लोगों के प्रभु यीशु में विश्वास के द्वारा एक हो जाने के विषय में पवित्र आत्मा की अगुवाई से लिखते हुए पौलुस प्रेरित ने कुरिन्थुस के मसीही विश्वासियों को पवित्र आत्मा के द्वारा मिले बपतिस्मे का उद्देश्य समझाया - “हम सब ने क्या यहूदी हो, क्या युनानी, क्या दास, क्या स्वतंत्र एक ही आत्मा के द्वारा एक देह होने के लिये बपतिस्मा लिया”! कितना स्पष्ट लिखा गया है कि पवित्र आत्मा से बपतिस्मा सभी मसीही विश्वासियों को एक दूसरे के साथ एकता में ले आने के लिए है; सबको प्रभु में एक देह कर देने के लिए। अब इसके समक्ष कोई भी जन किस आधार पर कह सकता है कि पवित्र आत्मा से बपतिस्मा कुछ ही विश्वासी पा सकते हैं? या यह कि इसकी आवश्यकता अधिक सामर्थी होकर सेवकाई करने, आश्चर्यकर्म करने और चंगाइयाँ देने के लिए है? यहाँ पर तो ऐसा कुछ नहीं लिखवाया गया है; वरन पवित्र आत्मा ने स्वयं लिखवा दिया कि उसमें मिलने वाले बपतिस्मे से लोग एक देह किए जाएंगे, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं होगा। तो फिर अब इस उद्देश्य और प्रयोजन को छोड़ कर, और ही बातें पवित्र आत्मा से बपतिस्मा पाने के साथ जोड़ना क्या वचन में मनुष्यों की बातों, विचारों, और धारणाओं की मिलावट करना नहीं है? क्या यह करना परमेश्वर के वचन में मिलावट करके उसे भ्रष्ट करना नहीं है? क्या ऐसा करना उचित है, स्वीकार्य है? क्या सच्चे और समर्पित मसीही विश्वासियों के द्वारा परमेश्वर के वचन के साथ इस प्रकार की हेरा-फेरी स्वीकार की जा सकती है (2 कुरिन्थियों 4:2)?
इसी पद की तीसरी बात पर ध्यान कीजिए, लिखा है, “बपतिस्मा लिया; baptized into”; पवित्र आत्मा ने यहाँ पर ‘भूत काल’ (past tense) का प्रयोग करवाया है। तात्पर्य यह, कि पवित्र आत्मा से यह बपतिस्मा सभी मसीही विश्वासियों द्वारा (“हम सब ने क्या यहूदी हो, क्या युनानी, क्या दास, क्या स्वतंत्र”) पहले लिया जा चुका है; यह पूरी की गई बात या घटना है। अब उसे दोहराने के लिए या उसे मांगने के लिए किसी प्रयास अथवा प्रार्थना की कोई आवश्यकता नहीं है; ऐसा करना व्यर्थ है। न ही यह सिखाया गया है कि भावी मसीही विश्वासी भी इसकी लालसा रखें और इसके लिए प्रयास करते रहें।
इस पद के द्वारा भी एक बार फिर उन गलत शिक्षाओं को देने वालों का झूठ और आधार-रहित बातें कहना और सिखाना प्रकट है। वे कहते हैं “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” प्राप्त कर लेने के लिए प्रयास करो जिससे सामर्थी बन कर कार्य कर सको, पवित्र आत्मा से भरे जा सको। जबकि पवित्र आत्मा अपने द्वारा लिखवाए वचन में कहता है बपतिस्मा पवित्र आत्मा से है, पवित्र आत्मा का नहीं है; और उसका उद्देश्य सभी मसीही विश्वासियों को मसीह की देह में एक कर देना है; इसके अतिरिक्त या इससे अधिक और कुछ नहीं है। पवित्र आत्मा से भरने का अर्थ है उद्धार प्राप्त करते ही मसीही विश्वासी में आ कर रहने वाले परमेश्वर पवित्र आत्मा से निरंतर सीखते रहना और उनके प्रति समर्पण तथा आज्ञाकारिता में होकर उनकी सामर्थ्य से कार्य करते रहना। पवित्र आत्मा से बपतिस्मे का उद्देश्य मसीह में विश्वास के द्वारा सभी विश्वासियों को एक देह करना है; उन्हें आश्चर्यकर्म और सामर्थ्य के कार्य करने के लिए सामर्थी बनाना नहीं। पवित्र आत्मा के नाम से गलत शिक्षाएं देने वाले सिखाते हैं कि भविष्य में भी इस बपतिस्मे को प्राप्त करने के प्रयास करना है, जबकि पवित्र आत्मा ने लिखवाया है कि यह बपतिस्मा सभी विश्वासियों को स्वतः ही उनके बिना किसी अतिरिक्त प्रयास या मांगने के पहले ही दे दिया गया है। अब किस की शिक्षा सच्ची, अनन्तकालीन, और विश्वास योग्य है जिसे माना जाए - इन गलतियों से भरे हुए मनुष्यों की, या परमेश्वर पवित्र आत्मा की?
इसी पद में दी गई एक और बात पर ध्यान कीजिए - ऐसी बात जो पवित्र आत्मा से, मसीही विश्वासी में उनके कार्य से सीधे से संबंधित है, किन्तु जिसका कोई उल्लेख, कोई प्रयोग, जिसकी कोई बात ये गलत शिक्षाएं देने वाले नहीं करते हैं। 1 कुरिन्थियों 12:13 के अंतिम वाक्य “और हम सब को एक ही आत्मा पिलाया गया” पर ध्यान कीजिए। परमेश्वर पवित्र आत्मा के नाम का प्रयोग करते हुए इन गलत शिक्षाएं देने वालों में से क्या आज तक कभी किसी को यह कहते सुना है कि “हमें पवित्र आत्मा को पीना या पिलाया जाना भी आवश्यक है; इसलिए पवित्र आत्मा को पी लेने की प्यास रखो, या पवित्र आत्मा के लिए अपने जीवन में प्यास विकसित करो?” यदि वे “पवित्र आत्मा से बपतिस्मा” लेने की बात को “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” बताकर फिर उसे इतना महत्व दे सकते हैं, उससे संबंधित इतने मन-गढ़न्त सिद्धांत बना सकते हैं, इतने बलपूर्वक उनका प्रचार कर सकते हैं, उन मन-गढ़न्त सिद्धांतों को मानने के लिए इतना ज़ोर दे सकते हैं, तो फिर इस वचन के अनुसार “पवित्र आत्मा के पी लेने” के विषय क्यों चुप हैं? सच तो यह है कि यह पूरा पद उनकी शिक्षाओं और सिद्धांतों के विरुद्ध जाता है, उनकी झूठी शिक्षाओं की पोल खोलता है, इसलिए वे इस पद को छिपाए रखते हैं; या बस इसके एक वाक्यांश “पवित्र आत्मा द्वारा बपतिस्मा लिया” भर को लेकर, उसपर अपने ही अर्थ लगा कर, उसका दुरुपयोग अपनी गलत शिक्षाओं और धारणाओं को अनुचित समर्थन देने के लिए करते हैं।
परमेश्वर ने हम मसीही विश्वासियों को अपनी पवित्र आत्मा के द्वारा, हमारे उद्धार पाने के साथ ही मसीही जीवन एवं सेवकाई के लिए आवश्यक सामर्थ्य तथा अपने वचन के द्वारा उपयुक्त मार्गदर्शन दे रखा है; अब यह हम पर है कि हम उसका सदुपयोग करें और प्रभु के योग्य गवाह बनें।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
भजन 100-102
1 कुरिन्थियों 1
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Understanding Baptism - (7) – Holy Spirit Baptism & 1 Corinthians 12:13
In the previous two articles we have seen and understood that being “filled with the Holy Spirit” is not a separate or different experience, nor is it for some select few. We also saw that it is not related to the baptism with the Holy Spirit, nor is it something like it. Today we will consider a Bible verse, a part of which is often misused by those who preach and teach wrong things about the so-called “Baptism of the Holy Spirit”, and we will evaluate their wrong teachings and doctrines through this verse.
The verse for our today’s consideration is 1 Corinthians 12:13 “For by one Spirit we were all baptized into one body--whether Jews or Greeks, whether slaves or free--and have all been made to drink into one Spirit”; let us look carefully at what the verse says and ponder over it:
Take note, the phrase used in context of baptism here is “by one Spirit”, and not “of the Spirit” - as we have seen earlier through other examples, the Holy Spirit is only the medium into which a Believer is soaked within and without, or baptized; the Holy Spirit does not have His own separate baptism.
The second thing, in the Christian Assemblies, different people, coming from different backgrounds, become one people by their coming into faith in the Lord Jesus. In context of this becoming one people, under the guidance of the Holy Spirit, Paul while writing to the Christian Believers in Corinth, explains to them the purpose in their being baptized with the Holy Spirit - “we were all baptized into one body--whether Jews or Greeks, whether slaves or free”! It has been written so very clearly over here that the baptism with the Holy Spirit is meant to bring all the Christian Believers into unity, to make them all a part of the one and the same body of the Lord Jesus. In face of this, how can anyone claim that only a select few can receive the baptism with the Holy Spirit? Or, that this baptism is meant to provide some extra power and ability to some to be able to do miraculous works, healings in ministry? Nothing like this, or alluding to anything like this has been written here in this verse. Rather, the Holy Spirit Himself has got it written that through the baptism that the Believers will receive in Him, they will all become part of one body - nothing more, nothing less, nothing other than this one simple straightforward fact. So then, leaving aside this stated purpose, and instead adding other contrived notions and doctrines into this verse and its interpretation, does it not tantamount to adding human thoughts, wisdom, and concepts to God’s Word? Is this not corrupting God’s Word? Is it at all permissible and acceptable? Should true and committed Christian Believers go along with such crafty and deceitful handling of God’s Word (2 Corinthians 4:2)?
Consider a third thing written in this verse; it is written “we were all baptized into one body” - God the Holy Spirit has used the past tense in getting this written. The implication is evident, all the Christian Believers (“whether Jews or Greeks, whether slaves or free”) had already received this baptism into the Holy Spirit; it is an accomplished event. Now there is no need to get it repeated or ask for it again; that is vain. Nor is there any instruction given here that the future Christian Believers should also desire this experience and keep striving for it.
Through this verse, once again the doctrinal lies and false teachings of those who preach and teach wrong things related to the Holy Spirit become quite apparent. These people say that Believers should strive to receive “the baptism of the Holy Spirit” and to “be filled with the Holy Spirit” so that they can become more powerful and able to do the ministry. In contrast, the Holy Spirit, in the Word written through His guidance and inspiration, has got it written that the baptism is with, not of the Holy Spirit; and it is meant to unify all the Believers into one body of Christ; nothing else, nothing more. Also, as we have seen earlier, the meaning of “to be filled with the Holy Spirit” is to continually learn from the Holy Spirit who has come to reside in the Believer at the moment of his salvation, remain submitted to Him, and by being obedient to Him to be able to do His works through His strength, wisdom and guidance. Where in the Bible, if anywhere at all, does it say that the purpose of Holy Spirit Baptism or Holy Spirit Filling is to empower the Christian Believer to do miraculous works and healings? These preachers and teachers of wrong teachings and doctrines teach that future Believers too have to strive to receive this baptism and filling; whereas the Holy Spirit has had it written that this baptism and filling has already automatically been given to all Believers without their asking for it or making any extra efforts for it. Now, whose teachings should be accepted as true, eternal, to be believed in and followed - those given by these fallible and full of errors humans, or those given by God the Holy Spirit?
Take note of another thing written in this verse - something directly related to the work of the Holy Spirit in the ministry of a Christian Believer, but something these preachers and teachers of wrong doctrines and teachings never make any mention of. Look at the last sentence of this verse, which says “and have all been made to drink into one Spirit”! Those who so emphatically say and teach so many contrived, imaginary things about God the Holy Spirit, have you ever heard any of them ever say something to the effect “It is essential for us to drink the Holy Spirit; therefore, we should have a thirst for the Holy Spirit, we should learn to develop a thirst for the Holy Spirit”? If they can change “baptism with the Holy Spirit” to “baptism of the Holy Spirit” and then using only a part of this verse as a supporting verse build up so many teachings and doctrines around their own contrived notions, and teach them so emphatically, then why are they silent about this last part “and have all been made to drink into one Spirit” of this verse?
The truth is that this whole verse actually goes contrary to their teachings and doctrines, exposes the fallacy of their teachings. Therefore, they take only a part of this verse “by one Spirit we were all baptized”, out of its context, impose their own meanings and implications upon it, then leaving aside the rest of this verse, lest their falsehood becomes apparent, misuse their misinterpretation to support their self-developed wrong teachings. God has given to us Christian Believers, His Holy Spirit from the moment of our salvation, to guide and to teach us in our Christian life and living through God’s Word, and to empower us for our Christian Ministry to be carried out for His glory. Now it is up to us to properly use God’s provision and become the worthy witnesses of the Lord Jesus.
If you are a Christian Believer, then it is mandatory for you to learn the teachings related to the Holy Spirit from the Word of God, seriously ponder over them, understand them, and obey them. You should learn the truth and accordingly live and behave appropriately and worthily, and should teach only the truth from the Bible. You will have to give an account of everything you say to the Lord Jesus (Matthew 12:36-37). When you have God’s Word in your hand, and the Holy Spirit is there with you to teach you, then how will you be able to answer for yourself for getting deceived by wrong doctrines and false preaching and teachings? How will you justify your giving credibility to the persons, sects, and denominations teaching and preaching wrong things in the name of the Holy Spirit, and being part of their false teachings?
If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Psalms 100-102
1 Corinthians 1
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