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परिचय
आज ईसाई या मसीही होना, एक धर्म का निर्वाह करने वाला होना मान लिया जाता है, जो परमेश्वर के वचन बाइबल के अनुसार सही समझ नहीं है। इस ईसाई धर्म में भी ईसाई या मसीही कहलाने वाले लोग एक साथ और एक जुट रहकर एक उद्देश्य के लिए कार्य करने वाले नहीं, वरन अनेकों डिनॉमिनेशंस, अर्थात, गुटों और समुदायों में बंटे हुए और विभिन्न उद्देश्यों के लिए कार्य करने वाले दिखाई देते हैं। उन डिनॉमिनेशंस, अर्थात, गुट या समुदायों के अनुसार, उनके ईसाई या मसीही होने के विषय उनकी मान्यताओं में बहुत भिन्नताएं देखी जाती हैं, इन भिन्न मान्यताओं को लेकर उनमें बहुत से मतभेद देखे जाते हैं, तथा इस भिन्नता के कारण कभी-कभी परस्पर कटुता, बैर, एवं एक-दूसरे का विरोध भी देखा जाता है। इन बातों के कारण यह मानना कठिन हो जाता है कि वे सभी एक ही प्रभु - यीशु मसीह, को मानने वाले लोग हैं। जो लोग प्रभु यीशु मसीह के नाम में संसार को प्रेम, बलिदान, सहनशीलता, सहयोग, नम्रता, औरों की सहायता करने, आदि सद्गुणों की बातों की शिक्षाएं देते हैं, उनके अपने जीवनों में, तथा परस्पर व्यवहार में, विशेषकर किसी दूसरे डिनॉमिनेशन, अर्थात, गुट या समुदाय के लोगों के प्रति इन्हीं बातों के पालन की बहुत कमी देखी जाती है। इस विरोधाभास के दो मुख्य कारण हैं; दोनों ही प्रभु यीशु द्वारा अपने आरंभिक शिष्यों को जाकर संसार के लोगों को शिष्य बनाने की सौंपी गई ज़िम्मेदारी (मत्ती 28:18-1-20) के पालन न करने के कारण हैं। पहला कारण है कि हर कोई जो अपने आप को मसीही अर्थात मसीह यीशु का अनुयायी कहता है, वह वास्तव में मसीही अर्थात मसीह यीशु का सच्चा और समर्पित शिष्य नहीं होता है। और इस कारण जो वास्तविक और सच्चे समर्पित शिष्य नहीं होते हैं। वे मसीह यीशु की नहीं अपने मन की, या अपने डिनॉमिनेशन के अगुवों की, यानि कि किसी-न-किसी मनुष्य की इच्छा के अनुसार चलते हैं, और उस इच्छा को पूरा करना ही अपना कर्तव्य समझते हैं। दूसरा कारण है कि जो अपने आप को मसीही या मसीह यीशु के अनुयायी कहते हैं, जिन्होंने मसीह यीशु की शिष्यता स्वेच्छा से निर्णय लेकर स्वीकार की है, उन्हें भी उनके मसीही होने, मसीह यीशु द्वारा उसका अनुयायी होने के लिए उन्हें बुलाए जाने के उद्देश्य का या तो पता नहीं है, अथवा उसका ध्यान नहीं है। वे भी प्रभु और उसके वचन की आज्ञाकारिता में चलने को वह महत्व नहीं देते हैं, जो उन्हें देना चाहिए। इसलिए प्रभु और उसके वचन की अधूरी आज्ञाकारिता के कारण उनके जीवन भी मसीह यीशु में लाए गए विश्वास की वास्तविकता को व्यावहारिक जीवन में पूर्णतः प्रकट नहीं करते हैं।
पहले कारण, वास्तव में मसीही न होने के बारे में विस्तार से पहले के लेखों में देख चुके हैं। संक्षेप में, प्रेरितों 11:26 में दी गई बाइबल की परिभाषा के अनुसार, मसीही वह है जो प्रभु यीशु मसीह का शिष्य है। किसी का शिष्य होने का अर्थ है अपने आप को उसके प्रति समर्पित कर देना और उसके कहे, उसकी शिक्षाओं के अनुसार अपना जीवन व्यतीत करना, उन शिक्षाओं का प्रसार करना, उन्हें अपने जीवन में जी कर दिखाना। यह एक स्वाभाविक और सर्वमान्य तथ्य है कि किसी की भी शिष्यता प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा स्वेच्छा से धारण की जाती है। व्यक्ति किसी का आदर कर सकता है, उसकी शिक्षाओं और जीवन को भला और अनुसरणीय मान सकता है, किन्तु यह करने से वह उसका शिष्य नहीं हो जाता है। शिष्य बनने के लिए स्वेच्छा से और समझते-बूझते हुए निर्णय लेना पड़ता है, उस निर्णय के अनुसार जीना पड़ता है। न तो कोई वंशागत रीति से शिष्यता प्राप्त करता है, और न ही किसी को बलपूर्वक, या किसी लोभ-लालच में एक वास्तविक, सच्चा और समर्पित शिष्य बनाया जा सकता है। और यदि कोई इस प्रकार अनुचित रीति से मसीह यीशु का शिष्य बन भी जाए, तो भी उसके जीवन से मसीही विश्वास की बातें और व्यवहार दिखाई नहीं देगा। वह मसीही होने के प्रभु यीशु के उद्देश्यों को कभी निभा नहीं सकेगा, कभी पूरा नहीं कर सकेगा। वह केवल नाम ही का मसीही होगा, किसी काम का या वास्तविक मसीही नहीं।
दूसरा कारण, मसीह यीशु के प्रति अपूर्ण समर्पण और अधूरी आज्ञाकारिता, के बारे में समझने के लिए प्रभु यीशु द्वारा अपनी कलीसिया या मण्डली या “Church” बनाने की बात को देखना, जानना, और समझना होगा। जो प्रभु के साथ वास्तविकता में जुड़ गए हैं, वे स्वतः ही प्रभु की मण्डली या कलीसिया के साथ भी जुड़ गए हैं। इस मण्डली या कलीसिया के लिए प्रभु की एक योजना है, प्रयोजन है, और अन्ततः मनुष्य की कल्पना से भी बढ़कर प्रतिफल भी हैं। जो मसीही विश्वासी अपने आप को प्रभु की मण्डली या कलीसिया का एक अभिन्न एवं महत्वपूर्ण अंग होने, और उसमें अपनी ज़िम्मेदारी को ठीक से समझ लेगा, फिर वह अपने मसीही जीवन को प्रभु की इच्छा के अनुसार और प्रभु की महिमा के लिए व्यतीत करेगा। आज से आरंभ होने वाली इस श्रृंखला में हम प्रभु की इस कलीसिया या मण्डली के बारे में अध्ययन आरंभ करेंगे। कलीसिया के विषय जानकारी और समझ-बूझ लेने के लिए हम बाइबल में “कलीसिया” या “Church” शब्द के प्रथम प्रयोग के पद, प्रभु यीशु द्वारा अपने शिष्य पतरस से कही गई बात, “और मैं भी तुझ से कहता हूं, कि तू पतरस है; और मैं इस पत्थर पर अपनी कलीसिया बनाऊंगा: और अधोलोक के फाटक उस पर प्रबल न होंगे” (मत्ती 16:18) से आरंभ करेंगे। इस पद में निहित कलीसिया के विभिन्न पहलुओं को देखने के बाद, फिर हम बाइबल में अन्य स्थानों से प्रभु की कलीसिया के विषय और बातों को देखेंगे, सीखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
सभोपदेशक 1-3
2 कुरिन्थियों 11:16-33
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Introduction
Today being known as a “Christian” is assumed to be the follower of a religion, commonly known as the Christian Religion, which, according to the Bible is not a correct understanding of the term “Christian.” Even in the Christian religion, the followers of this religion, instead of living together in unity and working for a common purpose, are divided into many denominations, sects, groups. Each denomination, sect, group has a different set of beliefs, rituals, and traditions; and often one set is quite different from any other. Because of these differences, usually there are serious differences of thinking and opinion, which can often result in feelings of opposition, bitterness, criticism, even going to the extent of enmity. Because of these things, it becomes difficult to believe and accept that they all are the followers of the same Lord Jesus Christ. These people, who preach and teach to the world about virtues love, sacrifice, forbearance, cooperation, humility, helping others etc., in their own lives and mutual behavior, particularly towards another denomination, sect, or group, these very things are found to be sorely lacking or minimal. There are two main reasons for this contradiction, and both are related to the non-compliance with the Great Commission (Matthew 28:18-20) given by the Lord Jesus to His disciples. The first reason is that everyone who calls himself a follower of the Lord Jesus, is not actually a true and committed disciple of the Lord Jesus. They do not do according to what the Lord Jesus has said, but according to what seems right to them, or according to what the leaders and elders of their denomination, sect, or group decide and tell them to do, and they consider it their ultimate duty to do that; in one way or another, they are committed to, and obey a man; not the Lord Jesus Christ. The second reason is that those who call themselves “Christian Believers'' or “Born-Again” Christians, those who claim to have accepted the discipleship of the Lord Jesus willingly, even they either do not know, or, do not care much about the Lord Jesus calling them to be His disciple and the Lord’s purpose for calling them. Therefore, because of their incomplete obedience to the Lord Jesus and His Word, their lives too do not practically demonstrate in their day-to-day lives the truths about their faith.
We have already seen in detail, in the previous articles, about the first reason. To recapitulate in brief, according to Acts 11:26, a Christian is one who is a disciple of the Lord Jesus Christ. To be someone’s disciple means to surrender and commit oneself to that person, and to do according to that person’s instructions, follow and propagate his teachings, to live them out in life. This is a natural and universally accepted fact that a discipleship is always accepted by a person willingly. A person can respect someone, can accept that person’s life and teachings to be good and worthy of following, but his doing this does not make him that person’s disciple. To become a disciple, one has to willingly and knowingly take a decision and live by it. Nobody can inherit a discipleship, nor can anyone be made a true and committed disciple by any kinds of fear, compulsion, inducements, enticing, etc. If someone does become a “disciple” in this manner, through any of these things, even then, the characteristics of Christian Faith will never be seen in his life and behavior. Such a person will never be able to work for and fulfill the purposes of the Lord Jesus for His disciples; he will only remain a superficial, un-committed ‘disciple’ only in name, will not truly be an actual Christian Believer.
To understand the second reason about incomplete surrender and obedience towards the Lord, one will have to know, learn, and understand the building of His Church by the Lord Jesus Christ. Those who have truly and actually joined with the Lord Jesus, they have automatically also joined with His Church or Assembly. The Lord has a plan and purpose for His Church or Assembly, and eventually heavenly rewards far beyond any human thinking or imagination. The Christian Believer who understands his being joined to and becoming an inseparable part of the Lord’s Church and realizes his responsibilities about it, he will then live his life according to the Lord’s will and for His glory. From this series, starting from today, we will begin a study about the Church or Assembly of the Lord Jesus Christ. We will start our study on this topic through studying and understanding the first use of this term “Church” in the Bible, in the conversation between the Lord Jesus and His disciples Peter, “And I also say to you that you are Peter, and on this rock I will build My church, and the gates of Hades shall not prevail against it” (Matthew 16:18). After considering the various teachings and implications related to the Church given in this verse, we will then see some other things about the Church from other places in the Bible.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Ecclesiastes 1-3
2 Corinthians 11:16-33
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