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मंगलवार, 20 सितंबर 2022

मसीह यीशु की कलीसिया या मण्डली - "कलीसिया" की समझ / The Church, or, Assembly of Christ Jesus - Understanding "Church"


Click Here for the English Translation

शब्द “कलीसिया” को समझना


मसीही जीवन और सेवकाई को तब ही उचित रीति से समझा और किया जा सकता है, जब “मसीही” होने के तात्पर्य और उद्देश्य को ठीक से समझ लिया जाए। अन्यथा, शैतान हमें अनेकों गलत धारणाओं, शिक्षाओं, और मन-गढ़न्त बातों में फंसा कर परमेश्वर के मार्गों से भटका देगा, और हम इसी भ्रम में पड़े रह जाएंगे कि हम परमेश्वर को स्वीकार्य, परमेश्वर की इच्छा के अनुसार कार्य कर रहे हैं, और जीवन जी रहे हैं, जब कि वास्तविकता में हम शैतान के बताए और सिखाए अनुसार कर रहे होंगे। हम पहले के लेखों में देख चुके हैं कि बाइबल के अनुसार “मसीही” होने का अर्थ है प्रभु यीशु मसीह का समर्पित और प्रतिबद्ध शिष्य होना (प्रेरितों 11:26)। शब्दार्थ एवं पहचान के रूप में “मसीही” होने की यही सही परिभाषा है, और इसी के अनुसार मसीही या प्रभु यीशु के शिष्य होने को समझा जाना चाहिए, शिष्यता के कर्तव्यों का निर्वाह किया जाना चाहिए। किन्तु इसके साथ ही यह भी जानना और समझना आवश्यक है कि प्रभु यीशु ने संसार में से लोगों को “मसीही” या अपने शिष्य होने के लिए क्यों बुलाया; क्यों उन्हें यह आदर और ज़िम्मेदारी प्रदान की? मसीही जीवन और सेवकाई में परमेश्वर पवित्र आत्मा तथा आत्मिक वरदानों की भूमिका के अध्ययन में हम देख चुके हैं कि परमेश्वर ने अपने प्रत्येक जन के लिए कोई न कोई भला कार्य पहले से निर्धारित कर रखा है (इफिसियों 2:10), और परमेश्वर द्वारा सौंपे गए इस कार्य को करने में सहायता के लिए, उसे सुचारु रीति से करवाने के लिए परमेश्वर पवित्र आत्मा प्रत्येक मसीही विश्वासी को उस की सेवकाई के लिए उपयुक्त आत्मिक वरदान निर्धारित करता एवं प्रदान करता है। मण्डली, या मसीही विश्वासियों के समूह में सब की भिन्न सेवाकाइयाँ और वरदान हैं, किन्तु सभी फिर भी एक ही नाम “मसीही” के द्वारा जाने, पहचाने, और संबोधित किए जाते हैं। अर्थात, मसीही होना, मसीहियों के अपने समूह में सेवकाई एवं वरदानों के प्रयोग के उन दायित्वों और कार्यों के निर्वाह से बढ़कर या ऊपर के स्तर के बात है; और जो मसीही है, वही परमेश्वर द्वारा सेवकाई और वरदानों के सौंपे जाने का हकदार है। सेवकाई और वरदान उसे मसीही नहीं बनाते हैं, वरन, उसके मसीही, परमेश्वर के लोग, परमेश्वर की सन्तान, होने के द्वारा उस पर आई ज़िम्मेदारियाँ, उससे परमेश्वर की अपेक्षाएं और उद्देश्य उसे वह सेवकाई और संबंधित वरदान दिए जाने के लिए योग्य ठहराते हैं। मसीहियों से परमेश्वर की अपेक्षाएं और उद्देश्य जानने और समझने के लिए यह “कलीसिया” या “मण्डली” के दर्शन को समझना बहुत आवश्यक है।

 

जैसा हमने पिछले लेख में देखा है, “कलीसिया” शब्द का परमेश्वर के वचन बाइबल में सर्वप्रथम प्रयोग, प्रभु यीशु मसीह द्वारा मत्ती 16:18 में हुआ है - “और मैं भी तुझ से कहता हूं, कि तू पतरस है; और मैं इस पत्थर पर अपनी कलीसिया बनाऊंगा: और अधोलोक के फाटक उस पर प्रबल न होंगे।” आज सामान्यतः “कलीसिया” शब्द से लोग एक विशेष भवन या इमारत या बिल्डिंग की कल्पना करते हैं, जहाँ पर ईसाई या मसीही धर्म को मानने वाले अपनी पूजा-अर्चना, आराधना, रीति-रिवाजों के पालन, आदि के लिए एकत्रित होते हैं। और साथ ही इस सामान्य धारणा के अनुसार उनके ध्यान में उस विशेष भवन या इमारत या बिल्डिंग का एक विशिष्ट स्वरूप भी आ जाता है। किन्तु मूल यूनानी भाषा के जिस शब्द का अनुवाद ‘कलीसिया’ या मण्डली किया गया है, वह है “ekklesia, एक्कलेसिया” जिसका शब्दार्थ होता है, “व्यक्तियों का एकत्रित होना”, या “व्यक्तियों का समूह” या “व्यक्तियों की सभा”; और प्रेरितों 19:32, 39 में “ekklesia, एक्कलेसिया” शब्द का अनुवाद “सभा” किया गया है।

 

मसीही विश्वास के प्रारंभिक दिनों में लोग घरों में (रोमियों 16:5; 1 कुरिन्थियों 16:19; कुलुस्सियों 4:15; फिलेमोन 1:2), खुले स्थानों पर, जैसे कि नदी के किनारे (प्रेरितों 16:13), आदि स्थानों पर आराधना के लिए एकत्रित हुआ करते थे। घरों में आराधना, उपासना के लिए एकत्रित होने की सभा के लिए उपरोक्त सभी  हवालों में “ekklesia, एक्कलेसिया” प्रयोग किया गया है।  इसमें किसी भी विशिष्ट प्रयोग के लिए किसी वस्तु के द्वारा बनाए गए किसी विशेष भवन या इमारत का कोई अभिप्राय ही नहीं है। उन आरंभिक मसीही विश्वासियों के लिये शब्द “एक्कलेसिया” का सीधा और सामान्य अर्थ था प्रभु परमेश्वर की आराधना के लिये एकत्रित समूह। इसलिए, जब प्रभु यीशु ने पतरस से उपरोक्त वाक्य कहा, तो उसने तथा उसके साथ के अन्य शिष्यों ने भी इसी शब्दार्थ के साथ प्रभु के इस वाक्य “और मैं [इस पत्थर पर] अपनी कलीसिया बनाऊँगा” को कुछ इस प्रकार से समझा होगा, “...और मैं अपने लोगों को एकत्रित करूंगा...”। जैसे ही हम “कलीसिया” शब्द के मूल अर्थ के साथ प्रभु के इस वाक्य और अन्य स्थानों पर इस शब्द के प्रयोग को देखते हैं, तो स्वतः ही “कलीसिया” शब्द के साथ जुड़ी अनेकों भ्रांतियों और गलत समझ एवं अनुचित शिक्षाओं का आधार समाप्त हो जाता है; उन बातों के मिथ्या एवं व्यर्थ होने की बात प्रकट हो जाती है, जैसे हम आने वाले दिनों के लेखों में देखेंगे।

 

इसकी तुलना में, अंग्रेज़ी शब्द Church यूनानी भाषा के शब्द ‘कुरियाकॉन’ से आया है, जिसका शब्दार्थ होता है “प्रभु का घर” अर्थात “उपासना या आराधना का स्थान”; किन्तु नए नियम की मूल यूनानी भाषा के लेखों में यह शब्द पूरे नए नियम में कहीं पर भी प्रयोग नहीं किया गया है। तो फिर “ekklesia, एक्कलेसिया” से “Church, चर्च” कैसे आ गया? इसे हम प्रभु यीशु के शिष्यों के समूह को बाइबल में जिन विभिन्न रूपकों या उपनामों से संबोधित किया गया है उसे देखते समय समझेंगे। अभी के लिए हम यही ध्यान रखते हैं कि नए नियम में मसीही विश्वास एवं शिक्षाओं के संदर्भ में, मूल यूनानी भाषा में “ekklesia, एक्कलेसिया” शब्द न तो किसी भौतिक भवन या आराधना स्थल के लिए, और न ही ईसाई लोगों की किसी संस्था के लिए प्रयोग किया गया है। वरन, नए नियम में मसीही विश्वास एवं शिक्षाओं के संदर्भ में, यह शब्द प्रभु यीशु मसीह के शिष्यों के समूह या समुदाय के लिए ही विभिन्न अभिप्रायों के साथ प्रयोग किया गया है, जिन्हें हम आगे के लेखों में देखेंगे।


यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो ध्यान कीजिए कि किसी भी शिक्षा या शब्द को उसके मूल और वास्तविक प्रयोग के अनुसार समझना कितना आवश्यक है। जब इस बात का ध्यान नहीं किया जाता है, तो शैतान को कैसे अपनी गलत शिक्षाएं ले आने और फैलाने का खुला अवसर मिल जाता है। इसलिए बाइबल में दिए गए बेरिया एवं थिस्सलुनीकिया के विश्वासियों के उदाहरणों (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 1:6-8; 5:21) के समान, गलत शिक्षाओं को सीखने और सिखाने से बचे रहने के लिए, हर बात को परमेश्वर के वचन से परखने और जाँचने के बाद ही स्वीकार करने की आदत बना लें। इसे कठिन या सामान्य लोगों के लिए न मानी जा सकने वाली बात न समझें -  बेरिया एवं थिस्सलुनीकिया के ये विश्वासी न तो कोई वचन के ज्ञानी और विद्वान थे, और न ही किसी बाइबल कॉलेज या सेमनरी के छात्र। ये सभी मेरे और आपके समान साधारण लोग थे, अधिक पढ़े लिखे भी नहीं थे - शिक्षा उन दिनों दुर्लभ हुआ करती थी, इनके हाथों में केवल पुराना नियम ही था, इनके पास पुराने नियम की व्याख्या करने वाली कोई पुस्तकें नहीं थीं, मसीही विश्वासी होने के कारण ये उस समय के वचन के विद्वानों - फरीसियों, सदूकियों, और शास्त्रियों, द्वारा तिरस्कार किए हुए थे, उन से पूछ और सीख नहीं सकते थे - यदि उन्हें यह सुविधा उपलब्ध भी होती, तो केवल उन प्रभु यीशु के विरोधियों की गलतियों को ही सीखते परमेश्वर के वचन की सच्चाइयों को नहीं। ये केवल परमेश्वर पवित्र आत्मा के द्वारा सिखाए जाने पर निर्भर थे। और जब उन्होंने सच्चे मन और विश्वास से पवित्र आत्मा से सीखने के लिए अपने हाथ फैलाए, तो पवित्र आत्मा ने उन्हें सिखाया भी, और उन्हें हमारे अनुसरण के लिये हमेशा के लिये परमेश्वर के वचन में भले उदाहरण के रूप में आदर के साथ लिखवा दिया। जैसे पवित्र आत्मा ने तब उन्हें सिखाया था, वेसे ही आज मुझे भी सिखा रहा है, और वह आपको भी सिखाने के लिए तत्पर और तैयार है; यदि आप सच्चे और समर्पित मन से उससे सीखने के लिए तैयार हों और सीखने का प्रयास करें।


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


एक साल में बाइबल पढ़ें: 

  • सभोपदेशक 4-6 

  • 2 कुरिन्थियों 12


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English Translation

Understanding “Church”


Christian life and Ministry can only be understood, properly and worthily fulfilled when one properly and correctly understands the meaning of being a “Christian.” Else Satan will entangle us into many wrong concepts and false notions, unBiblical teachings, and contrived doctrines, through them beguile and mislead us away from God’s ways. Then, under the deception that we are working for God, in a manner acceptable to God, living and doing according to God’s will, we will carry on actually being away from God, and working according to Satan’s devious strategies against us. We have seen in the previous articles that Biblically speaking, to be “Christian” is to be a committed disciple of the Lord Jesus (Acts 11:26). In the literal sense of the word, and as an identity, this is the only and correct meaning of being a “Christian.” It is only according to this meaning or definition that being a “Christian” should be understood and seen, and the responsibilities of a disciple of Christ should be carried out. But along with this, it is necessary to also understand, why the Lord Jesus called out people from the world to be His disciples i.e., “Christians;” why did He give them this honor and responsibility. Through our study on the role of God the Holy Spirit and His Spiritual gifts in Christian life and Ministry we have seen that God has determined some “good work” or the other for each and every one of His people (Ephesians 2:10). The Spiritual gifts that God the Holy Spirit gives to God’s children are according to their God determined works or ministries, to help them carry them out properly and worthily. It is only the Holy Spirit who decides and gives which gifts to give to whom. In the Church or the Assembly of God, every Believer has his own ministry, his own assigned works, and different Spiritual gifts given to them accordingly. Yet, they are all known, recognized, and addressed by one name “Christians.” This means that to be a “Christian” is over and above being known for one’s work, ministry, and gifts; and those who actually are “Christians” are the ones who are given works, ministries, and Spiritual gifts by God. We need to take note of and understand that works, ministries, and Spiritual gifts do not ever make anyone a “Christian”; rather the person’s being a “Christian Believer” brings upon him certain responsibilities, and accordingly, to fulfill His purposes through him God assigns some works, ministries and Spiritual gifts to them, because God has certain expectations from them who are His family, His children. To understand the concept of fulfilling the purposes and expectations of God, it is necessary to understand the concept of the “Church” or “Assembly” of the Lord Jesus Christ.


As we have seen in the previous article, the word “Church” was first used in the Bible by the Lord Jesus in Matthew 16:18 - “And I also say to you that you are Peter, and on this rock I will build My church, and the gates of Hades shall not prevail against it.” Today, generally speaking, on hearing the word Church, people usually think of a particular building or a particular physical structure, where the followers of the Christian religion gather for their worship, religious ceremonies, feasts, and festivals etc. Often the concept of this building is also associated with a particular shape of the building too. But the word translated as “Church,” in the original Greek language is “ekklesia,” which literally means “the gathering of people”, or, “an assembly of people;” and in Acts 19:32, 39 the word ekklesia has been translated as “assembly.”


In the initial days of the Christian Faith, people would gather in homes and houses (Romans 16:5; 1 Corinthians 16:19; Colossians 4:15; Philemon 1:2), in open places, e.g., a riverside (Acts 16:13), etc. for their worship. In all these instances, the Greek word “ekklesia” has been used to denote the gathering of people for worship. At no place does the use of this word imply or indicate a special building constructed for this purpose. For those initial Christians, the word “ekklesia” simply meant a gathering together for worshipping the Lord God. Therefore, when the Lord Jesus first used this word while talking to Peter, Peter and the disciples would have understood the Lord’s statement “...and I will build my Church” as something like “... and I will gather my people together.” As soon as we place the original meaning of the word into this statement of the Lord and into the other places where “ekklesia” is used, automatically, the very basis of many false notions and wrong concepts, wrong teachings and false doctrines related to the Church gets eliminated, and the vanity, the falsehood of all such contrived, unBiblical teachings becomes apparent, as we will see in the days to come.


In contrast, it is interesting to note that the English word “Church” has actually come from the Greek word “kuriakon” which literally means “the Lord’s House”, i.e., “a place of worship”; and in the original Greek language texts, this word has never been used in the whole of the New Testament. Then how did “Church” come into use in place of “ekklesia”? We will see this when we are considering the various metaphors used for the assembly of the Lord’s disciples. For now, we will only keep in mind that in context of the Christian Faith and its teachings, the Greek word ekklesia has never been used for a physical building or place of worship, nor for any organization of Christians. Rather, in the New Testament, in context of the Christian Faith and teachings, this word has been used with various meanings and implications for a gathering together of the disciples and followers of the Lord Jesus, as we will see in the coming articles.


If you are a Christian Believer, then learn and understand how important it is to see words and teachings as given in the original language. When this basic fact is not kept in mind, it gives Satan an open opportunity to bring in his false teachings and wrong doctrines. Therefore, according to the examples of the Berean and Thessalonian Christian Believers given in the Bible (Acts 17:11; 1 Thessalonians 1:6-8; 5:21), to avoid falling into and propagating wrong teachings, make it a habit to always first cross-check and verify everything from God’s Word, and only then accept and follow it. Do not make the mistake of considering this to be a difficult exercise, or something impossible for the general public to follow and do; these Christian Believers of Berea and Thessalonica were neither scholars of the Scriptures, nor were they students of any Seminary or Bible College. They were all simple, common people like you and me, not much educated either - education was a very limited and rare opportunity in those days. They only had the Old Testament with them, and no expository books and commentaries to explain the Scriptures to them. Being Christian Believers, they were people who had been rejected and cast away by the Scriptural Scholars, the Pharisees, Sadducees, and the Scribes of their times, and could not go to them to ask or clarify or learn anything - which in a way was good, since if they could learn from these Scholars, they would only have learnt wrong things, things against the Lord Jesus and His teachings, and not the actual truths of God’s Word. They were dependent only upon God the Holy Spirit to teach them the Word of God. And, when with a committed and true heart, an honest intention, they spread out their hands to the Holy Spirit to learn God’s Word, then the Holy Spirit not only taught them, but also placed them as an honorable example for us to emulate in the Word of God for eternity.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.



Through the Bible in a Year: 

  • Ecclesiastes 4-6 

  • 2 Corinthians 12




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