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रविवार, 20 नवंबर 2022

पवित्र आत्मा तथा सुसमाचार से संबंधित गलत शिक्षाएं / Wrong Teachings Regarding the Holy Spirit & the Gospel


Click Here for the English Translation

पवित्र आत्मा से संबंधित गलत शिक्षाएं - पुनःअवलोकन

तथा

सुसमाचार के विषय गलत शिक्षाएं (1) - परिचय


हम पिछले लेखों से देखते आ रहे हैं कि बालकों के समान अपरिपक्व मसीही विश्वासियों की एक पहचान यह भी है कि वे बहुत सरलता से भ्रामक शिक्षाओं द्वारा बहकाए तथा गलत बातों में भटकाए जाते हैं (इफिसियों 4:14)। इन भ्रामक शिक्षाओं को शैतान और उस के दूत झूठे प्रेरित, धर्म के सेवक, और ज्योतिर्मय स्‍वर्गदूतों का रूप धारण कर के बताते और सिखाते हैं (2 कुरिन्थियों 11:13-15)। ये लोग, और उनकी शिक्षाएं, दोनों ही बहुत आकर्षक, रोचक, और ज्ञानवान, यहाँ तक कि भक्तिपूर्ण और श्रद्धापूर्ण भी प्रतीत हो सकती हैं, किन्तु साथ ही उनमें अवश्य ही बाइबल की बातों के अतिरिक्त भी बातें डली हुई होती हैं। जैसा परमेश्वर पवित्र आत्मा ने प्रेरित पौलुस के द्वारा 2 कुरिन्थियों 11:4 में लिखवाया है, “यदि कोई तुम्हारे पास आकर, किसी दूसरे यीशु को प्रचार करे, जिस का प्रचार हम ने नहीं किया: या कोई और आत्मा तुम्हें मिले; जो पहिले न मिला था; या और कोई सुसमाचार जिसे तुम ने पहिले न माना था, तो तुम्हारा सहना ठीक होता”, इन भ्रामक शिक्षाओं और गलत उपदेशों के, मुख्यतः तीन विषय, होते हैं - प्रभु यीशु मसीह, पवित्र आत्मा, और सुसमाचार। साथ ही इस पद में सच्चाई को पहचानने और शैतान के झूठ से बचने के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण बात भी दी गई है, कि इन तीनों विषयों के बारे में जो यथार्थ और सत्य हैं, वे सब वचन में पहले से ही बता और लिखवा दिए गए हैं। इसलिए बाइबल से देखने, जाँचने, तथा वचन के आधार पर शिक्षाओं को परखने के द्वारा सही और गलत की पहचान करना कठिन नहीं है।

 

पिछले लेखों में हमने इन गलत शिक्षा देने वाले लोगों के द्वारा, पहले तो प्रभु यीशु से संबंधित सिखाई जाने वाली गलत शिक्षाओं को देखा; फिर उसके बाद, परमेश्वर पवित्र आत्मा से संबंधित सामान्यतः बताई और सिखाई जाने वाली गलत शिक्षाओं की वास्तविकता को वचन की बातों से देखा है, जो संक्षिप्त में निम्नलिखित थीं: 

  • प्रत्येक सच्चे मसीही विश्वासी के नया जन्म या उद्धार पाते ही, तुरंत उसके उद्धार पाने के पल से ही परमेश्वर पवित्र आत्मा अपनी संपूर्णता में आकर उसके अंदर निवास करने लगता है, और उसी में बना रहता है, उसे कभी छोड़ कर नहीं जाता है; 

  • और इसी को पवित्र आत्मा से भरना या पवित्र आत्मा से बपतिस्मा पाना भी कहते हैं। 

  • वचन स्पष्ट है कि पवित्र आत्मा से भरना या उससे बपतिस्मा पाना कोई दूसरा या अतिरिक्त अनुभव नहीं है, वरन उद्धार के साथ ही सच्चे मसीही विश्वासी में पवित्र आत्मा का आकर निवास करना ही है। 

  • प्रेरितों 2 अध्याय में जो अन्य भाषाएं बोली गईं, वे पृथ्वी ही की भाषाएं और उनकी बोलियाँ थीं; कोई अलौकिक भाषा नहीं।

  • उन लोगों के द्वारा “अन्य-भाषाओं” को अलौकिक भाषाएं बताना, और परमेश्वर के वचन के दुरुपयोग के द्वारा इससे संबंधित कई और गलत शिक्षाओं को सिखाने के बारे में भी हम देख चुके हैं कि यह भी एक ऐसी गलत शिक्षा है जिसका वचन से कोई समर्थन या आधार नहीं है। 

  • हमने यह भी देखा था कि वचन में इस शिक्षा का भी कोई आधार या समर्थन नहीं है कि “अन्य-भाषाएं” प्रार्थना की भाषाएं हैं। 

  • हमने यह भी देखा था कि उन लोगों के सभी दावों के विपरीत, 

    • न तो प्रेरितों 2:3-11 में प्रभु के शिष्यों द्वारा अन्य-भाषाओं में बोलना कोई “सुनने” का आश्चर्यकर्म था, 

    • न ही अन्य भाषाएं प्रार्थना करने की गुप्त भाषाएँ हैं, ताकि प्रार्थनाएँ शैतानी शक्तियों से गुप्त रहें, 

    • और न ही ये पृथ्वी के अन्य स्थानों की भाषाएं किसी को भी यूं ही दे दी जाती हैं, जब तक कि व्यक्ति की उस स्थान पर सेवकाई न हो, जहाँ की भाषा बोलने की सामर्थ्य उसे प्रदान की गई है।  

  • “अन्य-भाषाएं” बोलना ही पवित्र आत्मा प्राप्त करने का प्रमाण है, के भी झूठ होने और परमेश्वर के वचन के दुरुपयोग पर आधारित होने को हमने देखा है। 

  • व्यक्ति “अन्य-भाषा” बोलने के द्वारा सीधे परमेश्वर से बात करता है, इसके तथा कुछ संबंधित और बहुत महत्वपूर्ण बातों के बारे में हम देख चुके हैं कि उनका यह दावा भी वचन की कसौटी पर बिलकुल गलत है, अस्वीकार्य है।

सुसमाचार से संबंधित गलत शिक्षाएं 

आज हम 2 कुरिन्थियों 11:4 में गलत शिक्षाओं के तीसरे विषय सुसमाचार से संबंधित गलत शिक्षाओं पर विचार आरंभ करेंगे। हम पहले इस विषय का परिचय लेंगे, फिर देखेंगे कि सुसमाचार क्या है; क्योंकि जब तक किसी भी बात के “असली” या “वास्तविकता” की जानकारी और पहचान नहीं होगी, तब तक उसके “नकली” या “अवास्तविक” को जानना और पहचानना कठिन होगा। और फिर देखेंगे कि कैसे शैतान उसे बिगाड़ता है, भ्रष्ट करता है, अप्रभावी करता है, और फिर वचन से सही और गलत सुसमाचार को पहचानने और उनमें भिन्नता करने की बातों को देखेंगे। 

सुसमाचार का परिचय

जैसा कि शब्द “सुसमाचार” से ही प्रकट है, इसका शब्दार्थ है भला समाचार या अच्छी खबर, जो मूल यूनानी भाषा में प्रयोग किए गए शब्द के अनुरूप ही है; अर्थात यह एक भला या अच्छा समाचार है, जानकारी है। तात्पर्य यह कि सुसमाचार लोगों के पास किसी बात के बारे में अच्छा समाचार पहुंचाता है। उन तक पहुंचाए गए उस समाचार या जानकारी को स्वीकार अथवा अस्वीकार करना, प्रत्येक सुनने वाले का अपना निर्णय है। इससे प्रश्न उठता है कि यह जानकारी या समाचार किस बात के विषय है और इसे भला क्यों कहते हैं? परमेश्वर के वचन बाइबल में शब्द “सुसमाचार” का किया गया प्रथम प्रयोग इसके विषय हमें बताता है: “और यीशु सारे गलील में फिरता हुआ उन की सभाओं में उपदेश करता और राज्य का सुसमाचार प्रचार करता, और लोगों की हर प्रकार की बीमारी और दुर्बलता को दूर करता रहा” (मत्ती 4:23)। यह बात प्रभु यीशु द्वारा उनकी पृथ्वी की सेवकाई आरंभ करने के समय कही गई है, अर्थात प्रभु यीशु ने अपनी पृथ्वी की सेवकाई का आरंभ उपदेश करने, राज्य के सुसमाचार का लोगों की सभाओं में प्रचार करने, तथा लोगों को बीमारियों और दुर्बलताओं से चंगा करने के साथ किया।


यहाँ पर प्रभु की इस बात में ध्यान देने योग्य दो महत्वपूर्ण बातें हैं - 

(1) पहली बात, इस पद के अनुसार प्रभु यीशु ने तीन कार्य किए - उपदेश दिया, सुसमाचार का प्रचार किया, और लोगों को उनकी बीमारियों और दुर्बलताओं से चंगा किया। अर्थात, सुसमाचार में, और उपदेश देने में तथा लोगों को बीमारियों से चंगा करने में अन्तर है; तीनों एक ही नहीं हैं; प्रभु यीशु ने अपनी सेवकाई के आरंभ से ही इन तीनों अलग-अलग कार्यों को किया। आज यह गलत धारणा लोगों में फैली हुई है कि इन तीनों में से किसी एक का किया जाना, शेष दोनों को भी किए जाने के बराबर है; जो सही नहीं है। हम पहले भी देख चुके हैं कि इफिसियों 4:11 के अनुसार कलीसिया के कार्यों के लिए उपदेश देना प्रभु द्वारा स्थापित की गई एक पृथक सेवकाई है, और सुसमाचार प्रचार करना एक भिन्न सेवकाई है। साथ ही, 1 कुरिन्थियों 12:9 के अनुसार चंगा करना परमेश्वर पवित्र आत्मा का एक वरदान है, जो अन्य वरदानों के समान पवित्र आत्मा के द्वारा, उसकी इच्छा के अनुसार, किसी किसी को दिया जाता है, सभी को एक ही वरदान नहीं दिए जाते हैं। क्योंकि ये तीनों, उपदेश देना, सुसमाचार प्रचार करना, और चंगा करना अलग-अलग सेवाकाइयाँ हैं, इसलिए किसी एक पर अत्यधिक ज़ोर देना, और शेष की अनदेखी करना उचित नहीं है।

 

प्रभु यीशु ने जब अपने शिष्यों को उनकी पहली प्रचार सेवकाई के लिए भेजा था, तब भी उन से इन तीनों कार्यों को करने के लिए कहा था: “फिर उसने अपने बारह चेलों को पास बुलाकर, उन्हें अशुद्ध आत्माओं पर अधिकार दिया, कि उन्हें निकालें और सब प्रकार की बीमारियों और सब प्रकार की दुर्बलताओं को दूर करें।” “और चलते चलते प्रचार कर कहो कि स्वर्ग का राज्य निकट आ गया है। बीमारों को चंगा करो: मरे हुओं को जिलाओ: कोढिय़ों को शुद्ध करो: दुष्टात्माओं को निकालो: तुम ने सेंतमेंत पाया है, सेंतमेंत दो” (मत्ती 10:1,7-8)। और अपनी अंतिम महान आज्ञा में भी इन तीनों कार्यों को करने के लिए ही कहा, “इसलिये तुम जा कर सब जातियों के लोगों को चेला बनाओ और उन्हें पिता और पुत्र और पवित्रआत्मा के नाम से बपतिस्मा दो। और उन्हें सब बातें जो मैं ने तुम्हें आज्ञा दी है, मानना सिखाओ: और देखो, मैं जगत के अन्‍त तक सदैव तुम्हारे संग हूं।” (मत्ती 28:19-20); “और उसने उन से कहा, तुम सारे जगत में जा कर सारी सृष्‍टि के लोगों को सुसमाचार प्रचार करो। जो विश्वास करे और बपतिस्मा ले उसी का उद्धार होगा, परन्तु जो विश्वास न करेगा वह दोषी ठहराया जाएगा। और विश्वास करने वालों में ये चिन्ह होंगे कि वे मेरे नाम से दुष्टात्माओं को निकालेंगे। नई नई भाषा बोलेंगे, सांपों को उठा लेंगे, और यदि वे नाशक वस्तु भी पी जाएं तौभी उन की कुछ हानि न होगी, वे बीमारों पर हाथ रखेंगे, और वे चंगे हो जाएंगे” (मरकुस 16:15-18)। और फिर प्रेरितों के कार्य में भी, जो पहली कलीसिया के आरंभ और कार्यों का इतिहास है, हम प्रभु के शिष्यों और प्रेरितों को यही तीनों कार्य करते हुए देखते हैं।


आज की परेशानी यह है कि कुछ लोग केवल चंगाइयों पर ही इतना ज़ोर देते हैं कि वही उनके प्रचार और सेवकाई का मुख्य विषय रहता है। इसके अतिरिक्त वे लोगों द्वारा पापों से क्षमा और उद्धार पाने की अनिवार्यता, तथा परमेश्वर के वचन की समझ और उसके जीवनों में व्यवहारिक प्रयोग के बारे में या तो सिखाते ही नहीं है, या फिर उस पर बहुत कम बल देते हैं। ये लोग इस बात की अनदेखी कर देते हैं कि शारीरिक चंगाई से कहीं अधिक महत्वपूर्ण आत्मिक चंगाई है, क्योंकि हर चंगाई पाने के बाद भी शरीर ने अन्ततः मर ही जाना है, नाश होना ही है; किन्तु यदि आत्मा को पाप और उसके दुष्प्रभावों से चंगाई नहीं मिली, तो आत्मा नरक में जाएगी, और सारी शारीरिक चंगाई किसी काम की नहीं रहेगी। इसलिए प्राथमिकता पाप और उसके दुष्प्रभावों से आत्मिक चंगाई की या उद्धार पाने की है, शारीरिक चंगाई उसके बाद है, और इस क्रम को बनाए रखना है। इन तीनों सेवकाइयों में वचन की शिक्षा या उपदेश, सुसमाचार प्रचार, और चंगाई में परस्पर सही संतुलन, सही दृष्टिकोण, और उचित प्राथमिकता को बनाए रखना है।

 

(2) दूसरी बात, सुसमाचार एक राज्य के बारे में है, किसी व्यक्ति, धारणा, धर्म, रीति-रिवाज़, या परंपरा के बारे में नहीं है। प्रभु ने अपनी पृथ्वी की सेवकाई का आरंभ सुसमाचार प्रचार के साथ किया, और अपने उस उदाहरण के द्वारा हमें उस सुसमाचार प्रचार का स्वरूप प्रदान किया: “उस समय से यीशु प्रचार करना और यह कहना आरम्भ किया, कि मन फिराओ क्योंकि स्वर्ग का राज्य निकट आया है” (मत्ती 4:17)। यहाँ हम देखते हैं कि प्रभु द्वारा किए जाने वाले प्रचार या उपदेश का विषय था “... मन फिराओ क्योंकि स्वर्ग का राज्य निकट आया है”; और यही सुसमाचार का स्वरूप है। और यह इसीलिए सुसमाचार या अच्छी खबर है क्योंकि यह शीघ्र ही नष्ट हो जाने वाली इस नाशमान पृथ्वी और उसकी सभी नाशमान बातों से बचाए जाकर, अविनाशी परमेश्वर के अनन्तकालीन राज्य और उसकी अनन्त आशीषों में प्रवेश प्राप्त करने तथा सदा काल तक उसके साथ रहने के बारे में है (1 यूहन्ना 2:15-17)। सुसमाचार इस पृथ्वी पर किसी राज्य, या किसी शारीरिक उपलब्धि, या भौतिक संपत्ति अथवा संपन्नता के बारे में नहीं है। वह परमेश्वर के राज्य के बारे में है, जो निकट आ गया है, स्थापित होने वाला है; और जो कोई उसमें प्रवेश चाहता है, उसके प्रवेश पाने का पहला कदम पश्चाताप करना है। किसी भी व्यक्ति द्वारा बिना पापों से पश्चाताप किए सुसमाचार में कोई प्रगति या स्वीकृति नहीं है।


ध्यान करें कि प्रभु यीशु ने यह प्रचार यहूदियों, यानि कि परमेश्वर की चुनी हुई प्रजा के लोगों के, जो पीढ़ियों से परमेश्वर की व्यवस्था, अपने धर्म के पर्वों, भेंटों, बलिदानों, आदि का पालन करते थे, उनके मध्य में करना आरंभ किया। इसी से प्रकट है कि पश्चाताप करना सभी के लिए है, चाहे वे “प्रभु परमेश्वर के लोग” ही क्यों न हों, जो चाहे कितनी भी पीढ़ियों से अपने धर्म की मान्यताओं, परंपराओं, और रीति-रिवाजों को मानते-मनाते चले आ रहे हों। परमेश्वर के राज्य में प्रवेश उन्हें केवल पश्चाताप से आरंभ करने के द्वारा ही प्राप्त होगा, किसी भी अन्य बात के आधार पर नहीं। साथ ही यह भी साधारण और स्पष्ट बात है कि पश्चाताप हमेशा ही हर व्यक्ति के द्वारा व्यक्तिगत रीति से अपने ही पापों के लिए किया जाता है। माता-पिता या पूर्वजों का किया गया पश्चाताप उनकी संतानों के लिए कार्यकारी नहीं होता है; और न ही परिवार के किसी सदस्य का उद्धार पाना और परमेश्वर की निकटता में बढ़ना, परिवार के अन्य सदस्यों को उद्धार प्रदान करता है।

 

यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो आपके लिए यह जानना और समझना अति-आवश्यक है कि आप प्रभु परमेश्वर के सुसमाचार से संबंधित किसी गलत शिक्षाओं में न पड़े हों या पड़ जाएं; न खुद भरमाए जाएं, और न ही आपके द्वारा कोई और भरमाया जाए। लोगों द्वारा कही जाने वाले ही नहीं, वरन वचन में लिखी हुई बातों पर भी ध्यान दें, और लोगों की बातों को वचन की बातों से मिला कर जाँचें और परखें। यदि आप इन गलत शिक्षाओं में पड़ चुके हैं, तो अभी वचन के अध्ययन और बात को जाँच-परख कर, सही शिक्षा को, उसी के पालन को अपना लें।


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


एक साल में बाइबल पढ़ें: 

  • यहेजकेल 14-15 

  • याकूब 2


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English Translation

A Review of Wrong Teachings About the Holy Spirit;

And

Introduction to Wrong Teachings About the Gospel


We have been seeing in the previous articles that one of the ways the childlike, immature Christian Believers can be identified is that they can very easily be deceived, beguiled and misled by wrong doctrines and false teachings. Satan and his followers bring in their wrong doctrines and misinterpretations of God’s Word through people who masquerade as apostles, ministers of righteousness, and angels of light (2 Corinthians 11:13-15). These deceptive people and their false messages, their teachings appear to be very attractive, interesting, knowledgeable, even very reverential and righteous; but there is always something or the other that is extra-Biblical or unBiblical mixed into them. These wrong teachings and false doctrines are mainly about three topics - the Lord Jesus Christ, the Holy Spirit, and the Gospel, as God the Holy Spirit got it written down through the Apostle Paul in 2 Corinthians 11:4 “For if he who comes preaches another Jesus whom we have not preached, or if you receive a different spirit which you have not received, or a different gospel which you have not accepted--you may well put up with it!” In this verse a very important way to identify the false and the correct, discern between them, and escape from being beguiled by Satan is also given - that which is the truth about these three topics has already been given and written in God’s Word. Therefore, by cross-checking every teaching and doctrine from the Bible, the true and the false can be discerned; that which is not already present in God’s Word is false, and their preacher is a preacher of satanic deceptions.


In the previous articles, after seeing some commonly preached and taught false things about the Lord Jesus, we had started to look into the wrong things often taught and preached about the Holy Spirit. Briefly stated, the Biblical teachings about the Holy Spirit, that we have seen are:

  • Every truly Born-Again Christian Believer automatically receives the Holy Spirit from God, at the very moment of his being saved. From that moment onwards, the Holy Spirit comes to reside in him in all His fullness, stays with him forever, never leaves him.

  • Biblically this is also known as being filled by the Holy Spirit or the Baptism with the Holy Spirit. 

  • God’s Word is very clear that being filled with the Holy Spirit is not ‘another’ or a ‘second experience’; rather it is the same as the Holy Spirit coming to reside in a Christian Believer on being saved.

  • The speaking in “tongues” in Acts 2 were the known and understood languages and their dialects, of the earth; and not any super-natural languages.

  • Their claim that the “tongues’ are super-natural languages, and some other related wrong teachings also have no support or affirmation from the Bible.  

  • We also seen that quite unlike their claims, “tongues” are not a “prayer language” for effective prayers.

  • We also saw that, contrary to their emphatic claims,

    • The speaking in “tongues” by the Lord’s disciples, given in Acts 2:3-11, was not a miracle of “hearing”,

    • Nor are “tongues” a so-called ‘secret language’ to keep prayers safe from satanic forces,

    • Nor are they unknown languages of some other regions of the earth, granted to the Believer; unless the Believer has a ministry in that region.

  • Speaking in “tongues” is not a proof of receiving the Holy Spirit - the Bible does not offer any affirmation or support to this. 

  • By speaking in “tongues” a person does not directly start communicating with God. This assertion is also patently false and unBiblical


Wrong Teachings Related to the Gospel

Today we will start looking into the third topic of wrong teachings by Satan,  given in 2 Corinthians 11:4 - the wrong teachings related to the Gospel. First, we will consider an introduction to the Gospel; then we will see and understand what the Gospel is. Because, unless we have the “correct” and “factual” knowledge about something, we will not be able to recognize the “wrong” and “duplicate” or false things being spread about it. After that we will see how Satan spoils, corrupts, and renders the Gospel ineffective, and finally we will see from God’s Word how to discern between the correct and wrong gospels, how to differentiate between them.


Introduction to the Gospel

The literal meaning of the word ‘gospel’ is a “good news’ or a good information. The implication is that the Gospel takes the good news to the people; now it is the decision of the hearer of the ‘good news’ to accept or to reject it. This raises the question, what is this news or information about; and why is it called ‘good’? The first use of the word Gospel tells us about this: “And Jesus went about all Galilee, teaching in their synagogues, preaching the gospel of the kingdom, and healing all kinds of sickness and all kinds of disease among the people” (Matthew 4:23). This has been stated for the beginning of the earthly ministry of the Lord Jesus Christ. So, the Lord Jesus began His earthly ministry by doing three things –  teaching, preaching the gospel of the kingdom in the gatherings of the people, and healing the sicknesses and diseases of the people.


Here, there are two important things to note about what the Lord did:

(1) The first thing, as this verse shows us, the Lord did three things - He taught about the kingdom of God, He preached the Gospel, and He healed the people of their sicknesses and diseases. This shows that there is a difference between teaching God’s Word, in preaching the gospel, and in healing people of their diseases; they are not all one and the same; and the Lord Jesus since the beginning did these three things, as components of His ministry. Today, there is this wrong notion amongst people that doing either of the three is tantamount to doing the other two as well, which is not correct. We have seen this earlier as well that according to Ephesians 4:11, teaching as a responsibility in the Church is a different ministry, and preaching the Gospel is a different ministry. Also, according to 1 Corinthians 12:9, healing people is a gift of the Holy Spirit, which, like the other gifts of the Spirit, is given to individuals at the discretion of the Holy Spirit, not everyone is given the same gift. Since these three, teaching, preaching the Gospel, and healing are different ministries, therefore to give more importance to any one of them and overlook the others is not right.


When the Lord Jesus sent out His twelve disciples on their first ministry assignment, then too He asked them to do all of these three things: “And when He had called His twelve disciples to Him, He gave them power over unclean spirits, to cast them out, and to heal all kinds of sickness and all kinds of disease. And as you go, preach, saying, 'The kingdom of heaven is at hand.' Heal the sick, cleanse the lepers, raise the dead, cast out demons. Freely you have received, freely give” (Matthew 10:1, 7-8). And, even in His final instructions, His Great Commission to the disciples before His ascension, He instructed to do the same three things, “Go therefore and make disciples of all the nations, baptizing them in the name of the Father and of the Son and of the Holy Spirit, teaching them to observe all things that I have commanded you; and lo, I am with you always, even to the end of the age." Amen” (Matthew 28:19-20); “And He said to them, "Go into all the world and preach the gospel to every creature. He who believes and is baptized will be saved; but he who does not believe will be condemned. And these signs will follow those who believe: In My name they will cast out demons; they will speak with new tongues; they will take up serpents; and if they drink anything deadly, it will by no means hurt them; they will lay hands on the sick, and they will recover."” (Mark 16:15-18). Then, in the Book of Acts, which is the history of the beginning and works of the first Church, we see the disciples of the Lord doing these three things.


Today, the problem is that people place so much emphasis on “healings” that it becomes the only topic of their teaching, preaching, and ministry. Other than this one thing, they either do not teach the people about the necessity of forgiveness of sins and salvation, about the understanding of the Word of God and its application in practical day-to-day Christian living; or place very little emphasis upon doing this. These people ignore the important fact that spiritual healing is much more important than physical healing; because after any physically healing, eventually, the physical body will die some day and be destroyed; and if the soul has not been healed of sin and its deleterious effects, then it will go into hell for eternity, and that physical healing would be of no benefit for that person. Therefore, the primary importance is of spiritual healing from sin, physical healing is of secondary importance; and this order has to be maintained. Amongst these three ministries of teaching God’s Word, preaching the Gospel, and healing people, a proper mutual balance and correct perspective, right importance.


(2) The second thing is that the Gospel is about a kingdom; it is not about any person, notion, religion, rites and rituals, or traditions. The Lord began His ministry with the preaching of the Gospel, and through that example has provided to us the form of preaching the Gospel: “From that time Jesus began to preach and to say, "Repent, for the kingdom of heaven is at hand."” (Matthew 4:17). We see from this that the theme of the Lord’s preaching was “...Repent, for the kingdom of heaven is at hand”; and that is what the preaching of the Gospel should be about. And, it is a ‘good news’ because it is about being saved from the soon to be destroyed world and all its things that will perish with it, and being delivered into the eternal kingdom of God, its blessings, and being with Him forever (1 John 2:15-17). The Gospel is not about establishing any kingdom on earth, or about some temporal accomplishment, or about gaining any physical wealth and prosperity. It is about the kingdom of God, that is now at hand, ready to be established; and whoever wants to be a part of it, the first step for entry is to repent. Without repentance from sins no person can ever be accepted or grow in the Gospel.


Take note, the Lord Jesus began His preaching amongst the Jews, i.e. the chosen people of God, who for generations had been observing and following the Law, and the religious festivals, sacrifices and offerings prescribed in it. This by itself makes it apparent that repentance is mandatory for everyone, even for the people of God, who for many generations have been observing and following the notions, traditions, rites and rituals, feasts and festivals of their religion. The first step for entry into God’s kingdom is repentance; that is the one and only basis and without repentance no one can enter the kingdom of God. This is also an evident and straightforward fact that a person can repent only for his own sins. The repentance of the parents or forefathers is ineffective for the children and the subsequent generations. Similarly, the salvation of a person in the family and his growing in the nearness and knowledge of God, does not save the other members of the family, nor make the others grow in the nearness of God.


If you are a Christian Believer, then it is very essential for you to know and learn that you do not get beguiled and misled into wrong teachings and doctrines about the Holy Spirit; neither should you get deceived, nor should anyone else be deceived through you. Take note of the things written in God’s Word, not on things spoken by the people; always cross-check and verify all messages and teachings from the Word of God. If you have already been entangled in wrong teachings, then by cross-checking and verifying them from the Word of God, hold to only that which is the truth, follow it, and reject the rest.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours. 



Through the Bible in a Year: 

  • Ezekiel 14-15 

  • James 2




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