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भाग लेने का निष्कर्ष (1)
हम प्रभु भोज में भाग लेने से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण बातों को देखते आ रहे हैं, और ये बातें प्रभु की मेज़ में भाग लेने वाले पर स्वतः ही लागू हो जाती हैं। इसलिए, जो प्रभु भोज में भाग लेते हैं, उन्हें इन बातों के प्रति सचेत रहना चाहिए, और प्रभु की मेज़ तथा उससे संबंधित बातों में प्रभु द्वारा स्थापित विधि से भाग न लेने, प्रभु के निर्देशों और चेतावनियों को गंभीरता से न लेने के लिए प्रभु को उत्तर देने के लिए तैयार रहना चाहिए। पिछले कुछ लेखों से हम 1 कुरिन्थियों 10:16-22 में से प्रभु भोज से संबंधित बातों को देखते आ रहे हैं, और अब तक पद 20 तक देख चुके हैं, कि पवित्र आत्मा ने पौलुस के द्वारा मसीही विश्वासियों के लिए क्या कहा है। आज हम इस खण्ड में से पद 21-22 से देखना आरंभ करेंगे। इन पदों में, पौलुस में होकर, मसीही विश्वासियों के लिए निष्कर्ष प्रदान किया गया है; और यदि वे इन बातों को गंभीरता से नहीं लेते हैं, तो साथ ही गंभीर चेतावनी भी दी गई है।
हम 1 कुरिन्थियों 10:21 में देखते हैं कि मसीही विश्वासियों के लिए एक स्पष्ट निष्कर्ष रखा गया है। यह न तो कोई सुझाव है, और न ही विश्वासी के चुन लेने के लिए कोई विकल्प दिए गए हैं, अथवा कोई चुनाव उनके सामने रखा गया है। यहाँ एक दृढ़ और अंतिम निष्कर्ष ही दिया गया है जिसे विश्वासी को लागू करना ही है। जो प्रभु परमेश्वर के लोग हैं, और प्रभु की मेज़ में भाग लेने के द्वारा इसकी पुष्टि करते हैं, वे दुष्टात्माओं के कटोरे और मेज़ में सम्मिलित नहीं हो सकते हैं; उन्हें यह करना ही नहीं है। जैसा कि हम पहले देख चुके हैं, प्रभु की मेज़ में भाग लेने के द्वारा, भाग लेने वाला इस बात की पुष्टि करता है कि वह प्रभु यीशु का एक समर्पित और प्रतिबद्ध अनुयायी है, प्रभु के साथ निकट संबंध में रहता है, और प्रभु के साथ घनिष्ठ संपर्क बनाए रखता है। ठीक इसी प्रकार से, दुष्टात्माओं के कटोरे और मेज़ में भाग लेने से तात्पर्य है उनके साथ उनका अनुयायी बनकर निकट संबंध और संपर्क में बने रहना। इसलिए, जैसा कि हम पिछले लेख में दिए गए उदाहरणों से देख चुके हैं, वे विश्वासी जो संसार के साथ चलते हैं, संसार के समान व्यवहार करते हैं, ऐसा करने से वे यह दिखा रहे हैं कि वे प्रभु के साथ संगति में नहीं हैं, उसके साथ संबंध में बने हुए नहीं हैं। इसके लिए उन्हें हानिकारक परिणाम भुगतने पड़ेंगे, जैसा कि पद 22 में लिखा हुआ है - वे परमेश्वर को रिस दिलाते हैं, और अपने लिए परमेश्वर से दण्ड को निमंत्रण देते हैं। इस दुष्परिणाम के बारे में हम बाद में कुछ और विस्तार से देखेंगे।
लेकिन यहाँ पर ध्यान देने योग्य एक बहुत महत्वपूर्ण किन्तु अनकही बात भी है। यद्यपि उनके अनाज्ञाकारी होने के कारण वे परमेश्वर को रिस दिलाते हैं, किन्तु यह कहीं नहीं कहा गया है और न ही संकेत किया गया है कि उनकी अनाज्ञाकारिता तथा संसार के साथ समझौता कर लेने के कारण, वे परमेश्वर के लोग होने से हटा दिए जाएंगे, या परमेश्वर उन्हें त्याग देगा, या उन्हें उसे छोड़ कर संसार के साथ जीवन बिताने के लिए चले जाने देगा। जब तक कि हम इस बात को नहीं समझ लेंगे, हम परमेश्वर को रिस दिलाने और उसके अनुसार व्यवहार करने को नहीं समझने पाएंगे।
जो परमेश्वर के जन हैं, उसके परिवार का हिस्सा भी हैं, और उसकी अनमोल संपत्ति भी हैं। वह संसार के साथ समझौता करने के लिए, और विश्वास में बने रहने की बजाए शैतान के प्रलोभनों में गिर जाने के लिए अवश्य ही उनकी ताड़ना करेगा - यदि आवश्यक हुआ तो बहुत तीव्र ताड़ना भी करेगा, जैसा हम पहले देख चुके हैं, किन्तु कभी भी किसी को भी, उन्हें उससे दूर नहीं ले जाने देगा। एक बार जो परमेश्वर की संतान बन गया, उसकी देह का अंग बन गया, वह हमेशा, अनन्तकाल के लिए परमेश्वर की संतान और उसकी देह का अंग है। यद्यपि बाइबल इस बात के लिए बहुत स्पष्ट है, और कहीं पर भी ऐसा कोई उदाहरण नहीं दिया गया है कि किसी ने भी कभी भी अपने दुराचारी जीवन के कारण अपने उद्धार को खोया हो, लेकिन फिर भी शैतान ने बहुत से लोगों के मनों में यह बात बहुत दृढ़ता से बैठा दी है कि यदि भले कर्मों से सुरक्षित न रखा जाए, तो उद्धार खोया जा सकता है। बाइबल का तथ्य तो यही है कि उद्धार पाया हुआ व्यक्ति ताड़ना पा सकता है, और पाएगा भी, और स्वर्ग में छूछे हाथ भी प्रवेश करेगा, किन्तु उद्धार कभी नहीं खोएगा।
अनाज्ञाकारिता के कारण उद्धार खोने के इस तर्क का एक और पहलू भी है; ऐसा, जो परमेश्वर के आधारभूत गुणों पर प्रहार करता है - उसके सर्वज्ञानी, अर्थात आदि से अंत के बारे में जानने (यशायाह 14:24; 46:10); और सर्वशक्तिमान परमेश्वर (यूहन्ना 10:28-29) होने पर। यदि किसी का उद्धार उसके व्यवहार के कारण खो सकता है, तो इसका तात्पर्य हुआ कि परमेश्वर ने जब उसे उद्धार दिया, उसके पश्चाताप करने, प्रभु यीशु मसीह में विश्वास करने, क्षमा माँगने को स्वीकार किया, तब परमेश्वर या तो जानता नहीं था, या फिर जान नहीं सकता था कि कुछ समय के बाद यह व्यक्ति उससे विमुख होकर चला जाएगा। इसलिए फिर वह अपने दावे के अनुरूप, सर्वज्ञानी परमेश्वर कैसे हो सकता है?दूसरी बात, यदि शैतान फुसलाने, प्रलोभन देने, दराने-धमकाने, झपटा मारकर छीन लेने, या किसी भी अन्य तरीके से किसी को परमेश्वर के हाथों में से निकाल कर ले जा सकता है, और परमेश्वर इस बारे में कुछ नहीं करने पाता है (मत्ती 12:29), तब तो फिर शैतान परमेश्वर से अधिक शक्तिशाली, चतुर, और सामर्थी है, और परमेश्वर फिर सर्वशक्तिमान नहीं है। लेकिन बाइबल का तथ्य है कि परमेश्वर शैतान को भी कुछ बातों को करने की अनुमति दे देता है (निर्गमन 9:16; रोमियों 9:17, 22) और फिर उन बातों के द्वारा अपने बच्चों के लिए कुछ भला करता है (रोमियों 8:28), जैसा कि अय्यूब के जीवन से भली भांति चित्रित किया गया है (अय्यूब 42:12; याकूब 5:11)। किन्तु जो परमेश्वर और उसके वचन को हल्के में लेते हैं, वे हल्के में बचने नहीं पाएंगे, उन्हें एक भारी कीमत चुकानी पड़ेगी, और कुछ तो छूछे हाथ ही अनन्तकाल में प्रवेश करेंगे (1 कुरिन्थियों 3:13-15)।
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, और प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहे हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
निर्गमन 21-22
मत्ती 19
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The Conclusion of Participation (1)
We have been seeing some important things that are related to the participation in the Holy Communion, and they automatically become applicable to the life of everyone who participates in the Lord’s Table. Therefore, those who take part in the Holy Communion need to be alert to this fact, be prepared for answering to the Lord God for not observing the Lord’s Table and its associated things in the manner prescribed by the Lord God, and not taking the Lord’s admonitions about it seriously. In the past few articles we have been seeing these things from 1 Corinthians 10:16-22, have considered up to verse 20 so far, and have seen the things the Holy Spirit had Paul write down for the Christian Believers, related to their participating in the Holy Communion. Today we come to verses 21-22 of this passage. In these verses, through Paul, is given to the Christian Believers the conclusion of the matter, and a serious warning of the consequences if this admonition is not taken seriously.
We see in 1 Corinthians 10:21, a clear conclusion is put forth for the Christian Believers. It is neither a suggestion, nor any options or choices are presented, for the Believer to choose from. It is a firm, final conclusion that the Believer has to implement. Those who are the people of God, and affirm it by partaking of the Lord’s Table, cannot partake in the cup and table of demons; they are not to do it. As we have seen earlier, the partaking in the Lord’s Table is an affirmation of the participant being a committed and submitted follower of the Lord Jesus, his being in close fellowship, and maintaining an intimate relationship with the Lord. In just the same way, the implication of partaking the cup and table of demons is that the person is their follower, and stays in close fellowship with them, maintains a relationship with them. Therefore, as we seen from the various examples considered in the last article, those Believers who walk with the world and live by the ways of the world, by doing so acknowledge that they are not in fellowship with the Lord, are not maintaining a relationship with Him; they will suffer the deleterious consequences. As it says in verse 22, this then has a serious consequence for them - they provoke the Lord to jealousy, and invite trouble upon themselves from the Lord God. We will see more about this consequence subsequently.
But notice an unstated but implied thing of great importance here. Though their being disobedient to the Lord provokes Him to jealousy, but nowhere does He say or imply, that because of their disobeying Him, and compromising with the world, they will cease to be His people, or that He will abandon them, or even that He will allow them to walk away from Him and live with the world. Unless we understand this, we cannot understand why the Lord will be provoked to jealousy and act accordingly.
Those who are God’s people, His children, His family, are also His precious possession. He is very possessive about them. He will chasten them for their being wayward, for compromising with the world, and succumbing to the temptations brought by the devil instead of standing firm in faith, and if it is required, He will even chasten severely - as we have already seen; but will never let anyone take them away from Him. Once a child of God, once a part of His body, always, for eternity a child of God and a member of His body. Although the Bible is very clear about it, and there are no examples of anyone ever loosing their salvation because of their wayward life, but still, Satan has put this misconception very firmly into many people’s minds that salvation can be lost if it is not maintained by good works. The Biblical fact is that the saved person can be, and will be chastened, and enter heaven without any rewards because of his wayward life, but he will never loose his salvation.
There is another aspect to this argument about loosing salvation because of disobedience to God; one that hits at the basic characteristics of God - His being omniscient, knowing the end from the beginning (Isaiah 14:24; 46:10), and His being the omnipotent God (John 10:28-29). If salvation can be lost because of the saved person’s behavior, then it implies that God when saving him, accepting his repentance, coming to faith in the Lord Jesus, and plea for forgiveness, either did not or could not know that in the days to come, this person will walk away from Him. So, He cannot be the omniscient God that he claims to be. Secondly, if Satan can entice, tempt, threaten, snatch, or in any other way, take away anyone out of God’s hands while God remains powerless or unable to do anything about it (Matthew 12:29), then Satan is stronger, or wiser, or more potent than God, and God is not omnipotent. But the Biblical fact is that God permits Satan to do certain things (Exodus 9:16; Romans 9:17, 22) and eventually even through those things works out good for His children (Romans 8:28), as is well illustrated by the life of Job (Job 42:12; James 5:11). But those who take the Lord and His Word lightly, will not escape lightly, they will have a price to pay, and some will even enter eternity empty-handed (1 Corinthians 3:13-15).
If you are a Christian Believer and have been participating in the Lord’s Table, then please examine your life and make sure that you are actually a disciple of the Lord, i.e., are redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word. You should also always, like the Berean Believers, first check and test all teachings that you receive from the Word of God, and only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Exodus 21-22
Matthew 19
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