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लेखों के विषयों तथा सामग्री में अनुपम
बाइबल की पुस्तकों में कई भिन्न प्रकार के विषय तथा साहित्यिक लेखन शैलियाँ हैं, जैसे कि:
नियम और व्यवस्था
ऐतिहासिक वृतांत
स्मृतियाँ
दृष्टांत
नीतिवचन
भजन, कविता, और स्तुति गीत
प्रेम-प्रसंग
व्यंग्य
पत्र
जीवनियाँ
आत्म-कथाएं
वंशावलियाँ
शिक्षाएं
भविष्यवाणियाँ
आदि।
बाइबल के लेखकों ने सैकड़ों विभिन्न विषयों के बारे में लिखा, तथा बाइबल के लेखों में अनेकों विषयों को संबोधित किया गया है, जिनमें से कई विषय विवादात्मक भी हैं, जिनकी चर्चा या वार्तालाप में प्रतिस्पर्धी विचार उत्पन्न होना सामान्य बात है, जैसे कि विवाह, वैवाहिक संबंध तथा दायित्व, तलाक, पुनः विवाह, समलैंगिक संबंध, व्यभिचार, अधिकारियों की अधीनता, सत्य-वादिता, असत्य-वादिता, चरित्र तथा उस चरित्र का विकास, बच्चों का पालन-पोषण और शिक्षण, प्रकृति, स्वर्गदूत, परमेश्वर, स्वर्ग, नरक, उद्धार, पाप, पाप-क्षमा, पाप का दंड, परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता और आज्ञाकारिता के परिणाम और प्रतिफल, जीवन, मरण, परमेश्वर के प्रति मनुष्यों के उत्तरदायित्व, अनन्तकाल, आदि।
इतने भिन्न और असंबंधित प्रतीत होने वाले विषयों और लेखन शैलियों, तथा लेखकों में परस्पर इतनी असमानताएं होने के बावजूद, बाइबल की पहली पुस्तक – उत्पत्ति के आरंभ से लेकर अंतिम पुस्तक – प्रकाशितवाक्य के अंत तक, इन सभी लेखकों ने इन सभी विषयों को एक अद्भुत सामंजस्य और तालमेल के साथ संबोधित किया है। एक ही विषय पर अलग-अलग लेखों और लेखकों में कोई विरोधाभास या दृष्टिकोण की भिन्नता नहीं है; यदि भिन्न लेखों में से उस एक विषय की बातों को संकलित किया जाए, तो वे एक दूसरे के पूरक, एक दूसरे को समझने में सहायक, एक दूसरे से पूर्णतः मेल खाने वाले होते हैं, कभी अलग-अलग बात कहने वाले नहीं। और न ही कोई एक विषय कभी किसी अन्य संबंधित विषय से कोई विवाद उत्पन्न करता है अथवा उसकी बात को काटता या नकारता है। आरंभ से लेकर अंत तक, हर बात, हर विषय, हर लेखक, हर शैली, हमेशा पूरे तालमेल के साथ, एक दूसरे के पूरक और सहायक होकर साथ ही खड़े मिलेंगे, कभी भी एक दूसरे के विरोध में या भिन्न दृष्टिकोण के साथ नहीं।
इतनी विभिन्नता होते हुए भी सम्पूर्ण बाइबल की हर पुस्तक, हर विषय, हर दृष्टिकोण, हर लेखक, एक ही मुख्य विषय, और एक ही मुख्य पात्र को लेकर वृतांत को विकसित करता जा रहा है, वृतांत और वर्णन को निखारता जा रहा है। बाइबल का मुख्य विषय है पाप में गिरे और फँसे हुए मनुष्यों से परमेश्वर का प्रेम, और उन्हें पाप के दासत्व से छुड़ाने का परमेश्वर का प्रयोजन एवं कार्य; तथा बाइबल का मुख्य पात्र है परमेश्वर के इस प्रयोजन को कार्यान्वित करके सफल बनाने और सभी के लिए उपलब्ध करवाने वाला परमेश्वर का पुत्र – प्रभु यीशु मसीह। जिस प्रकार एक देह में अनेकों भिन्न अंग होते हैं, किन्तु वे सभी साथ मिलकर ही देह को बनाते और चलाते हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण बाइबल की हर पुस्तक, हर विषय, हर वर्णन प्रभु यीशु मसीह की इसी एक गाथा के विभिन्न अंग और आयाम हैं। पाप और पाप के दासत्व तथा अनन्तकालीन दुष्प्रभावों और दुष्परिणामों से, मनुष्यों के अपने किसी कार्य अथवा धार्मिकता से नहीं, वरन परमेश्वर के प्रेम, कृपा, दया, और अनुग्रह के द्वारा मनुष्यों की मुक्ति – मनुष्यों का उद्धार, और उस उद्धार से होने वाला उनके जीवनों में परिवर्तन, तथा परमेश्वर के समानता में ढलते जाना ही वह धागा है जो समस्त बाइबल की हर पुस्तक, हर लेख, हर विचार में होकर पिरोया गया है। आरंभ से लेकर अंत तक बाइबल प्रभु यीशु मसीह पर ही केंद्रित है, उसी की सत्य-कथा है।
दो लेखकों, गियसलर और निक्स, ने इसे बड़े मनोहर रीति से व्यक्त किया है: पहले पुराने नियम को देखें तो व्यवस्था और नियम मसीह के लिए नींव रखते हैं; इतिहास की पुस्तकें मसीह के लिए तैयारी को दिखाती हैं; भजन और काव्य पुस्तकें मसीह के लिए अभिलाषा को व्यक्त करते हैं; और भविष्यवाणियाँ मसीह की प्रत्याशा देती हैं। फिर, नए नियम में आकर, सुसमाचारों में मसीह का प्रकट होता है; प्रेरितों के काम में मसीह का सारे संसार में प्रसार है; पत्रियों में मसीह की शिक्षाओं की व्याख्या है; और अंतिम पुस्तक प्रकाशितवाक्य में मसीह में सभी बातों की पूर्ति तथा अनन्त जीवन का आरंभ है।
संसार में बाइबल के अतिरिक्त, अन्य साहित्य और काव्यों तथा ग्रंथों की कमी नहीं है, और उनमें से अनेकों तो लेखन सामग्री में उत्तम तथा शिक्षाप्रद भी हैं; किन्तु उनमें से कोई भी ऐसा नहीं है जिसमें यह सभी गुण और बातें पाई जाती हों, जो बाइबल के विषय इस लेख में बताई गई हैं। सारे संसार के इतिहास और साहित्य में बाइबल का अपना ही विशिष्ट स्थान है, जिसके निकट और कोई पुस्तक कभी नहीं पहुँच सकी है।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Unique in the Topics and Contents of its Writings
There are many different topics and literary writing styles in the books of the Bible, such as:
The Law and Regulations
Historical accounts
Memoirs
Illustrations or Parables
Proverbs
Hymns, Poems, and Songs of Praise
Love affairs
Sarcasm
Letters
Life Accounts
Autobiographies
Genealogies
Teachings and Instructions
Prophecies
etc.
Despite so many seemingly unrelated themes and different writing styles, and so many dissimilarities among authors, from the beginning of the first book of the Bible – Genesis, to the end of last book – Revelation, all of these authors have wonderfully addressed and contributed to these themes with an unimaginable harmony and unity of thought. There is no contradiction, or difference in point of view in the different articles written by different authors, on the same subject. If the points of that one topic are collected and compiled from these different articles, then they are seen to complement each other, help in understanding each other, match each other perfectly; they never state differing thoughts. Nor does any particular topic ever arouse any contradiction, negation, or disharmony with another related subject. In the Bible, from the beginning to the end, everything, every topic, every author, every genre, will always stand in perfect harmony with the others, complementing and supporting one another, never in conflict with one another nor with a different point of view.
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