व्यवस्था क्यों हमें उद्धार नहीं दे सकती है? – 27
पुनःअवलोकन एवं निष्कर्ष (भाग 2)
आज हम व्यवस्था के इस उद्देश्य को थोड़ा और गहराई से समझेंगे। संसार का पहला पाप परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता था; केवल एक बहुत साधारण सी आज्ञा - सारी वाटिका में से केवल एक वृक्ष के फल को मत खाना। और शैतान ने अपनी बातों के द्वारा मनुष्य को उस एक आज्ञा का पालन भी नहीं करने दिया, उसमें भी उसे पाप में गिरा दिया। और वह भी तब, जब अदन की वाटिका में मनुष्य पूर्णतः निर्दोष और निष्पाप अवस्था में, अपनी पूरी आत्मिकता की दशा में था, परमेश्वर के साथ संगति रखता था, निःसंकोच बातचीत करता था।
प्रभु द्वारा कही गई दोनों सबसे महान आज्ञाओं के सामने, जो सारी व्यवस्था का आधार हैं (मत्ती 22:36-40), और निर्गमन में दी गई दस आज्ञाओं के सामने जो व्यवस्था का एक संक्षिप्त प्ररूप हैं, आदम और हव्वा को दी गई परमेश्वर की यह एक आज्ञा कुछ भी नहीं है। किन्तु मनुष्य शैतान की युक्तियों के सामने इस एक छोटी सी आज्ञा में भी टिक नहीं पाया, गिर गया, अनाज्ञाकारिता कर दी। तो फिर मनुष्य, जो अपनी सृष्टि और स्वाभाविक रचना में स्वर्गदूतों से कम है, जिन में से शैतान और उसके दूत निकल कर आए हैं, शैतान और उसके दूतों की कुटिलताओं का सामना कैसे करेगा? कैसे उनके सामने खड़ा रह सकेगा? अपनी सामर्थ्य और बुद्धि से परमेश्वर की संपूर्ण व्यवस्था का पूर्ण पालन कैसे करने पाएगा? और यह केवल कहने की बात नहीं है, सभी के प्रतिदिन के अनुभव की बात है कि शैतान और उसके दूत, सभी मनुष्यों को अपनी युक्तियों और धूर्तता में फँसा कर, प्रतिदिन अनेकों बार, मन-ध्यान-विचार-व्यवहार में पाप में गिराते रहते हैं। और जैसा हम देख चुके हैं, उद्धार पाए हुए मसीही विश्वासी भी पाप में गिरने से बचे हुए नहीं है; उन्हें भी बारंबार 1 यूहन्ना 1:9 का सहारा लेकर अपने पापों से निकलना पड़ता है। इसलिए यह कभी संभव ही नहीं हो सकता है कि मनुष्य व्यवस्था को अपनी सामर्थ्य से पूरा निभा सके; वह कहीं, किसी बात में या तो अनाज्ञाकारिता करेगा, या उससे कुछ निभाने से छूट ही जाएगा। और जैसा हम देख चुके हैं, व्यवस्था की माँग है कि यदि एक भी बात में चूक हुई, एक भी अनाज्ञाकारिता हुई, तो वह संपूर्ण व्यवस्था से चूकने, संपूर्ण की अनाज्ञाकारिता के समान समझा जाएगा।
इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए यह प्रकट है कि व्यवस्था कभी भी, किसी भी रीति से मनुष्यों को उद्धार प्रदान नहीं कर सकती है। व्यवस्था उन्हें उनके पापों को दिखा सकती है, उन्हें उन पापों के लिए दोषी ठहरा सकती है, किन्तु उनके पापों का समाधान प्रदान नहीं कर सकती है। वह समाधान तो केवल प्रभु यीशु मसीह में ही है, उसके अतिरिक्त और कोई समाधान नहीं है।
यदि व्यवस्था इतनी असमर्थ है, तो आज हमारे मसीही विश्वास और मसीही विश्वास के जीवन में क्या उसकी कोई उपयोगिता है? इस प्रश्न को हम कल से देखना आरंभ करेंगे। अभी के लिए, यदि आप मसीही हैं, और अपने आप को किसी भी प्रकार की “व्यवस्था” - वह चाहे परमेश्वर की हो, या आपके धर्म, मत, समुदाय, या डिनॉमिनेशन की हो - के पालन के द्वारा धर्मी बनाने के, और अपने शरीर के कार्यों के द्वारा अपने आप को परमेश्वर को स्वीकार्य बनाने के प्रयासों में लगे हैं; तो ध्यान देकर समझ लीजिए कि परमेश्वर का वचन स्पष्ट बताता है कि किसी भी व्यवस्था के पालन के द्वारा नहीं, वरन, परमेश्वर के दिए हुए पश्चाताप और समर्पण करके प्रभु यीशु को उद्धारकर्ता स्वीकार करने के मार्ग का पालन करने के द्वारा ही आप परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी और उसे स्वीकार्य बन सकते हैं। अभी समय और अवसर रहते सही मार्ग अपना लें, और धर्म का पालन तथा भले काम करने के व्यर्थ तथा निष्फल मार्ग को छोड़ दें।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Why The Law Cannot Save Us – 27
Review and Conclusion (Part 2)
Today we will try to understand this purpose of the Law a little more deeply. The world's first sin was disobedience to God; disobedience of just one very simple commandment - don't eat the fruit of only one tree out of the whole garden. And Satan, through his deviousness, tricked man into disobeying even that one simple commandment, made him fall into sin. And that too, when in the Garden of Eden man was in a purely innocent and sinless state, in unmarred spirituality, fellowshipping with God, and talking freely with Him.
In comparison to the two greatest commandments, which are the basis of the whole Law (Matthew 22:36-40), as stated by the Lord, and in comparison to the Ten Commandments given by God in Exodus, which are a brief outline of God’s Law, this one simple commandment that God gave Adam and Eve in the Garden of Eden is nothing. But man could not stand up to Satan's tricks even in this one small command, fell in disobedience, and sinned. How then can man, be able to stand up to, and confront the wickedness of Satan and his angels, since he is inferior in power and wisdom to the angels, from whom Satan and his angels have come? How will he be able to fully obey God's entire Law in his natural power and wisdom, he has been created in? And this is not just a matter of saying, it is a matter of everyday experience for all of us. We well know how Satan and his angels, by enticing all human beings through their devices and cunningness, makes them sin through wrongs committed in mind-thoughts-deeds-behavior, many times every day. And as we have seen, even the saved Christians are not safe from falling into sin; they too have to repeatedly be delivered from their sins by resorting to 1 John 1:9. So, there is no way man can ever fulfill the Law without falling short or disobeying it in any way. And, as we have seen, to disobey one thing of the Law, is the same as having disobeyed the whole Law. Hence man can never stand justified by the Law, because Satan will make sure he falls into disobedience in one way or another, at some time or the other.
With all this in mind, it is apparent that the Law can never, in any way, provide salvation to humans. The law can show them their sins, can condemn them for those sins, but cannot provide a solution for their sins. That solution is only in the Lord Jesus Christ, except for Him, there is no other solution.
If the law is so incapable, is it of any use in our Christian faith and Christian life today? We will start looking at this question from tomorrow onwards. For now, if you are a Christian, and are hoping to justify yourself by observing any sort of "law" — whether that of God, or of your religion, creed, community, or denomination — and are trying to make yourself acceptable to God by being ‘good’ through the works of the flesh; then pay heed and understand that God's Word clearly states that you become righteous and acceptable to God, not by keeping the Law, but only by following the God given path of repentance and submission to the Lord and accepting the Lord Jesus as your savior. Therefore, while you have the time and the opportunity, take a right decision, decide on the right path, and leave the vain and fruitless path of following a religion and doing good works.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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